Sunday, June 14, 2015

भीष्म साहनी: जन्मशती स्मरण


-ललित सुरजन
भीष्म साहनी की लंबी रचना ‘आवाजें’ देश विभाजन के बाद पाकिस्तान से भारत आए शरणार्थियों के जीवन से पाठक का परिचय करवाती है। दिल्ली में शरणार्थियों की एक बस्ती बस गई है। उनकी तीन पीढिय़ां यहां रहते हुए बीत चुकी हैं। जो मुसीबतज़दा लोग अपना सब-कुछ लुटाकर एक नई जगह पर आए थे उनके जीवन में धीरे-धीरे ठहराव आया है, कमोबेश खुशहाली भी आई है। स्थितियां बदल गई हैं, दृश्य बदल गए हैं, पहले और आज के व्यवहार में भी फर्क आ गया है। लेखक बारीक निगाहों से परिवर्तनों को देख रहा है। वह इनका बयान कुछ इस अंदाज में करता है, मानो सिनेमा की रील आंखों के सामने घूम रही है। यह रचना चूंकि एक कथासंग्रह में शामिल है इसलिए कहानी ही कहलाएगी, लेकिन मेरे मन में शंका है कि समीक्षक अपने प्रतिमानों पर इसे कहानी मानेंगे या नहीं। जो भी हो, मैं तो यह देख रहा हूं कि भीष्म साहनी ने सामान्य लोक व्यवहार से छोटे-छोटे दृश्य उठाकर कैसे एक बड़ी तस्वीर बना दी है। भीष्म जी के जन्मशती वर्ष पर उनकी रचनाओं को दुबारा पढ़ते हुए मुझे इस कहानी ने एकाएक अपनी ओर खींच लिया। उन्होंने अपनी रचना का शीर्षक दिया है आवाज़ें, लेकिन इन आवाज़ों में शोर नहीं है। कहानी के जितने पात्र हैं उनके बीच एक ही सूत्र हैं कि वे सबके सब शरणार्थी हैं। समय के साथ यह सूत्र धीरे-धीरे कमजोर पडऩे लगता है। एक सामान्य व्यक्ति के जीवन में जो भी अच्छा-बुरा घटित होता है वैसा ही सब कुछ इस कहानी के पात्रों के साथ भी होता है। इस बिखराव के बीच सिर्फ एक पात्र है, जो प्रारंभ से लेकर अंत तक कथा में मौजूद है। कथाकार मानो उसको माध्यम बनाकर उस बस्ती के जीवन का अध्ययन करता है। एक नए और अपरिचित स्थान पर दशकों पहले आकर बसे लोगों के जीवन में जो अस्थिरता, आशंका, भविष्य के प्रति चिंता, मुसीबत के समय सबके साथ रहने की इच्छा इत्यादि की जो आवाज़ें थीं वे अब हर व्यक्ति या परिवार के निजी जीवन की आवाज़ों में बदल गई हैं और लेखक कहता है कि मोहल्ला सचमुच रच-बस गया है। कहानी यहां खत्म हो जाती है।

भीष्म साहनी एक व्यक्ति के रूप में जितने सहज और सरल थे, उनकी रचनाएं भी उस सहज-सरल शैली में सामर्थ्य के साथ रची गई हैं। यदि अतिशयोक्ति के विरुद्ध अल्पोक्ति जैसे किसी विशेषण का इस्तेमाल किया जा सके तो मैं कहना चाहूंगा कि भीष्म साहनी अल्पोक्ति के कलाकार हैं। अंग्रेजी में एक शब्द है- अंडरस्टेटमेंट। यह विशेषण भीष्मजी की रचना शैली पर बखूबी लागू किया जा सकता है। उनके उपन्यास हों, नाटक हो या तमाम कहानियां, सबमें यही देखने मिलता है कि वे न तो नाटकीय रूप से घटनाओं का सृजन करते हैं और न अपनी ओर से कोई बयानबाजी करते हैं। वे जिन घटनाओं को अपनी रचनाओं का आधार बनाते हैं वे रोजमर्रा के जीवन में घटित होती हैं और हम सबने उनका कभी न कभी अनुभव किया है। किन्तु मेरी निगाह में उनकी खूबी यह है कि वे अपने पात्रों के माध्यम से उन घटनाओं को एक नए अर्थ से भर देते हैं जबकि ये पात्र भी सामान्य जनजीवन से ही आते हैं।

अपनी जिस कहानी के कारण भीष्मजी को बहुत अधिक ख्याति मिली याने ‘चीफ की दावत’- उसके अध्ययन से यह बात अधिक स्पष्ट हो जाती है। इस कहानी में भी एक औसत परिवार है जिसे हम शायद निम्न मध्यमवर्गीय कह सकते हैं। एक क्लर्क है जो अपनी तरक्की पाने की प्रतीक्षा कर रहा है। साहब को घर बुलाकर दावत देने से शायद वे खुश हो जाएंगे और पदोन्नति की राह आसान हो जाएगी, यह आशा उसे है। छोटा-सा घर है जहां पुराने तौर-तरीकों वाली बूढ़ी मां भी साथ रहती है। उसे आशंका होती है कि साहब के सामने अगर मां ने ठीक से बर्ताव न किया तो उसका सपना टूटते देर न लगेगी। वह डरता है कि मां को आज के जमाने के अदब कायदे मालूम नहीं है इसलिए वह उसे भीतर कोठरी में ही रहने की, और साहब के सामने न आने की कठोर हिदायत देता है। मां भी समझती है कि बेटे के भविष्य का मामला है, लेकिन होता यह है कि साहब आता है, टेबल पर बिछे मेजपोश की कढ़ाई देखकर खुश हो जाता है; यह जानकर कि यह मां के हाथ की कारीगरी है, मां से मिलने की इच्छा व्यक्त करता है और क्लर्क को बधाई देता है कि तुम्हारी मां कितनी अच्छी कलाकार हैं।

इस कहानी में एक औसत नौकरीपेशा व्यक्ति के मनोभावों का जो चित्रण हुआ है उसकी सच्चाई सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। सामान्य व्यक्ति हमेशा बेहतर भविष्य के सपने देखता है। उसे पूरा करने के लिए तरह-तरह के उद्यम करता है। वह चापलूसी और कभी-कभार झूठ खुशामद का भी सहारा लेता है। उसे यह डर भी होता है कि उससे जो बलवान हैं उनके कोप का शिकार न बनना पड़े, इसलिए वह कई बार बेमन से ही सही, समझौते करता है। ये सारी बातें कथा आगे बढऩे के साथ-साथ अपने आप ही खुलने लगती हैं।

विभाजन की ही पृष्ठभूमि पर भीष्मजी की एक बेहद सशक्त कहानी है ‘पाली’। इस कहानी में विभाजन के समय एक हिन्दू परिवार का बच्चा पाकिस्तान में बिछुड़ जाता है; वहां एक मुसलमान परिवार उसे पालता है। कुछ बरस बाद परिस्थिति बनती है कि वह बच्चा अपने हिन्दू मां-बाप के पास लौट आता है। जिस मुसलमान दंपति ने उसे पाला उसके दिल पर क्या बीती और जब अपने सनातनी परिवेश में लौटा तो क्या-क्या हुआ, उसका जो चित्रण भीष्मजी ने किया है उससे एक तरफ ममता के अधिकार का प्रश्न अनायास उठता है, तो दूसरी तरफ मनुष्य और मनुष्य के बीच धर्म द्वारा खड़ी की गई कृत्रिम दीवारों का भी एक कचोटने वाला अहसास पाठक के मन पर पड़ता है। धर्म के ठेकेदारों की अहम्मन्यता भी इस कहानी से व्यक्त होती है। जन्म देने वाले माता-पिता अपने बच्चे को वापिस पाना चाहते हैं, पाकर खुश भी हैं; यह तो ठीक है, लेकिन इस खुशी में वे यह नहीं जान पाते कि उस अबोध बालक के मन पर क्या गुजरती है। भीष्मजी ने देश विभाजन की पृष्ठभूमि पर कहानियों के अलावा ‘तमस’ जैसा उपन्यास भी लिखा है। इस संदर्भ में विशेषकर गौरतलब है कि उनके मन में एक गहरा विषाद तो है, लेकिन कटुता, प्रतिशोध या आक्रामकता बिल्कुल नहीं है। वे जैसे कहना चाहते हैं कि मनुष्य का जीवन बहुत कीमती है और मनुष्यता से बढक़र कोई दूसरा मूल्य नहीं है।

पार्टिशन पर उनकी एक और कहानी है ‘निमित्त’। यह कहानी उन लोगों पर एक करारा व्यंग्य है जो अपनी कायर अकर्मण्यता को भाग्य या ईश्वर पर छोडक़र खुद को बरी कर लेते हैं। इस कहानी में लेखक ने प्रहसन की शैली में एक दृश्य की रचना की है। फैक्ट्री का हिन्दू मालिक अपने मुसलमान कर्मचारी को सुरक्षित निकल भागने के लिए ड्रायवर के साथ एक कार में भिज देता है। जब दंगाई उसे ढूंढते हुए फैक्ट्री आते हैं तो वह उन्हें दूसरी कार दे देता है कि तुम उसका पीछा कर लो। भागना उसके भाग्य में था, शायद तुम्हारे हाथ से मरना भी उसके भाग्य में हो। ड्रायवर लौटकर आता है और उसके मरने की खबर भी दे देता है। फैक्ट्री मालिक हर बात में कहता है कि हम सब तो निमित्त हैं। ईश्वर, भाग्य और निमित्त के इस राग के बीच धीरे से कहीं उस हिन्दू या सिख ड्रायवर की सूझबूझ और बहादुरी उभरती है जिसने अपने मुसलमान सहकर्मी को सुरक्षित उसके ठिकाने पहुंचाकर उसके मरने की झूठी खबर फैला दी।

भीष्म साहनी का रचनाफलक बहुत विस्तृत है और दृष्टि बहुत गहरी। उनकी रचनाओं को पढ़ते हुए बार-बार महसूस होता है कि मनुष्य के मनोभावों की जितनी गहरी समझ भीष्मजी को थी वैसी उनके समकालीनों में शायद कम को ही थी। उनकी रचनाओं के पात्र चारों तरफ से आते हैं- अमीर-गरीब, शहरी-ग्रामीण, अफसर-व्यवसायी, लेखक-कलाकार आदि। उन्होंने इनमें से जिस किसी का भी चित्रण किया है उसकी प्रामाणिकता पर उंगली नहीं उठाई जा सकती। एक कहानी है- ‘मेड इन इटली’ जिसमें वे भारत के अभिजात एवं नवधनाढ्य वर्ग का विदेशी वस्तुओं के प्रति मोह की जमकर खिल्ली उड़ाते हैं। एक दूसरी कहानी है ‘सेमीनार’ जिसमें वे बतलाते हैं कि लेखक व कलाकार किस तरह से अपने प्रायोजकों के सामने बौने और ओछे पड़ जाते हैं। एक तरह से ये दोनों कहानियां भारतीय समाज में व्याप्त आडंबर की ओर हमारा ध्यान खींचती है। इस तरह की एक और कहानी है जिसका शीर्षक है- ‘रामचंदानी।’ इसमें भी लेखक एक पात्र के बहाने विदेशी चाल-ढाल की नकल करने की खिल्ली उड़ाता है।

यह कहना आवश्यक होगा कि भीष्म साहनी एक प्रगतिशील लेखक थे। उनके अग्रज बलराज साहनी और वे स्वयं कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे जिसे उन्होंने कभी छुपाया नहीं। भीष्मजी आगे चलकर राष्ट्रीय प्रगतिशील लेखक महासंघ के कई बरस अध्यक्ष रहे। उन्होंने संगठन के प्रति अपना दायित्व निभाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। वे जब प्रगतिशील लेखक संघ के कार्यक्रमों में आते थे तो उन्हें किसी भी भांति अतिरिक्त सुविधाओं की आवश्यकता नहीं होती थी। वे बहुत आसानी से सबसे घुलमिल जाते थे और नए से नए लेखक को पलभर में अपना बना लेते थे, लेकिन संगठन में सक्रियता का कोई प्रतिकूल प्रभाव उनकी रचनाशीलता पर पड़ा हो ऐसा कभी नहीं हुआ। उनकी रचनाओं में प्रगतिशीलता के जो तत्व हैं याने अन्याय, शोषण, गैरबराबरी, साम्प्रदायिकता, धर्मांधता- इन सबका विरोध, लेकिन ये सारी बातें समर्थ लेखक के आंतरिक विश्वासों से उपजी हैं, किसी सांगठनिक आग्रह के कारण नहीं।

स्वतंत्रोत्तर हिन्दी कथा साहित्य को जिन रचनाकारों ने समृद्ध किया है उनमें भीष्म साहनी का नाम अग्रणी है। नई कहानियां आंदोलन में कुछ समर्थ किन्तु प्रचारप्रिय लेखकों के नाम बढ़-चढक़र सामने आए। भीष्मजी ऐसी आत्मश्लाघा से हमेशा दूर रहे। वे लेखक कहलाने के लोभ से निर्लिप्त रहकर रचनाकर्म को आवश्यक सामाजिक काम मानकर उसमें जुटे रहे। मैं मानता हूं कि भीष्मजी की रचनाएं दिनों-दिन अधिक प्रासंगिक होती जाएंगी।

अक्षर पर्व जून 2015 अंक की प्रस्तावना, ललित जी के ब्लाग से साभार

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