Monday, June 1, 2015

नरेगा के मजदूरों से भी गए-गुजरे हैं अभिनेता

पटना में अनीश अंकुर लम्बे समय से रंगकर्म से जुड़े हुए हैं और विभिन्न समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं के लिए संस्कृति से जुड़े सवालों पर लिखते हैं. आज राष्ट्रीय सहारा के पटना संस्करण में अनीश का विचारोत्तेजक लेख छपा है. विगत 24 मई, 2015 को इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रणबीर सिंह ने ललित किशोर सिन्हा स्मृति व्याख्यान - 7 के तहत इन्हीं सवालों से दो-चार होने की बात की थी. पेश है राष्ट्रीय सहारा, पटना  के  31 मई ,2015 के अंक में प्रकाशित अनीश अंकुर का आलेख.....
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पिछले दिनों पटना में ‘‘इप्टा’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष रणबीर सिंह ने ‘‘हिन्दी रंगमंच: आज और कल" विषय पर महत्वपूर्ण वक्तव्य दिया। अभी हिंदी प्रदेश के किसी शहर में रंगमंच विषयक बातचीत पर दृष्टि डालें तो अधिकांशत: उसके विषय में एक किस्म की समानता देखी जा सकती है। विभिन्न शहरों में होने वाले रंगमंच के वर्तमान को अपने अतीत के मुकाबले देखने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। पिछले तीन-चार दशकों में रंगमंच का चेहरा इतना ज्यादा बदल चुका है कि इसे समझने के लिए अतीत के संदर्भ का सहारा लिया जा रहा है। अपने ‘‘आज’ को ‘‘कल’ के परिप्रेक्ष्य में देखने-समझने की कोशिश की जा रही है।

पटना रंगमंच के वर्तमान को निकट अतीत के, पिछले तीन-चार दशकों, की तुलना में देखना चाहें तो एक
अनीश अंकुर 
बड़ा फर्क सहज ही दृष्टव्य है। पटना रंगमंच में 80 का दशक नयी-नयी संस्थाओं के अभ्युदय काल रहा है। आज पटना रंगमंच की कई सक्रिय संस्थाओं में से अधिकांश उसी दशक में अस्तित्व में आयीं। अब फिर से नये-नये संगठनों की अचानक जैसे बाढ़ सी आ गयी है। पिछले दो-तीन वर्षों के भीतर बनने वाले संगठनों के उदय की प्रक्रिया दिलचस्प है। अस्सी व नब्बे के दशक में मान लीजिए किसी एक संगठन में सभी नाटकों का निर्देशन एक खास व्यक्ति कर रहा है परिणामस्वरूप दूसरे रंगकर्मियों की निर्देशन या अच्छे रोल मिल पाने की आकांक्षा उस संगठन में पूरी न हुई। जिससे तनाव व संघर्ष होता था परिणामस्वरूप नये संगठनों का आर्विभाव होता। या फिर कोई रंगकर्मी एन.एस.डी. जैसी संस्था से प्रशिक्षण प्राप्त कर लौटा तो अपने मातृ संगठन के बजाए अपना अलग संगठन कायम करता। पटना या बिहार दूसरे हिस्सों में जो भी रंगकर्मी प्रशिक्षण (खासकर एन.एस.डी.) प्राप्त कर लौटे उसमें लगभग हर किसी ने अपनी नयी संस्था बनायी। प्रशिक्षण हासिल करने की यह सबसे बड़ी त्रासदी रही कि वो सामूहिकता के बजाए व्यक्ति केंद्रित ज्यादा होता चला गया। पुराने संगठन की जैसी भी सामूहिकता रही हो प्रशिक्षणोपरांत अपने सृजनात्मक विकास में उसे अवरोध की तरह दिखाई पड़ने लगती है।

अब जो संगठन बन रहे हैं वो आवश्यक नहीं कि अपने काम करने वाले संगठन को तोड़ कर, उससे इतर नया संगठन बनाया जाए। बल्कि एक ही संगठन में काम करते हुए सभी सदस्यों की सहमति से, सभी सदस्य एक-एक संगठन या कहें एन.जी.ओ. का कर्ता-धर्ता भी बन जाता है। इसका मकसद होता है रंगकर्म के नाम पर मौजूद संसाधनों पर अलग-अलग एन.जी.ओ. बनाकर कब्जा जमाना। बिहार में पिछले कुछ वर्षों से हर विभाग खासकर शिक्षा, स्वास्य, पर्यावरण, पुलिस विभागों अपने प्रचारात्मक अभियानों में नाटकों का उपयोग किया करती है। अत: एक ही संगठन में काम करने वाले सभी प्रमुख सदस्य एक-एक संगठन जो एक एन.जी.ओ. के भी मालिक हैं वे जो भी थोड़ा बहुत फंड है, अपनी दावेदारी प्रस्तुत करते हैं। इनलोगों की खासियत है कोई रंगमंचीय या सृजनात्मक प्रतिबद्धता नहीं! बल्कि सिर्फ और सिर्फ पैसा। पैसा और प्रोजेक्ट ने पुराने संगठनों को छिन्न-भिन्न कर चेहरा बिगाड़ दिया है। संगठनविहीनता रंगमंच में नये दौर का कॉमनसेंस है।

दरअसल संगठन व सामूहिकता को कमजोर करने वाली पटना रंगमंच में तीन किस्म की लॉबी ऑपरेट कर रही है। एन.एस.डी लॉबी, रेपर्टरी लॉबी एवं एन. जी.ओ लॉबी। इन तीनों किस्म की लॉबी का एक दूसरे में रूपांतरण भी होता रहता है, कभी-कभी एक ही बैनर तले ये तीनों प्रवृतियां व लॉबी हावी रहती है। आज पटना रंगमंच में जिस संगठन की सबसे ज्यादा बदनामी है कि जहां एक ही संगठन में दर्जन भर संगठन है, कई एन.जी.ओ. व रेपर्टरी है वो खुद एन.एस.डी. प्रशिक्षित एक रंगकर्मी की देख-रेख में फल-फूल रहा है। इस संगठन की कार्यप्रणाली को एक यदि केसस्टडी की तरह देखा जाए तो पटना रंगमंच में संगठनों के पतन की नयी परिघटना केा ठीक से समझा जा सकता है।

रंगकर्म के नाम पर होने वाला थोड़ा भी संसाधन है वो इन्हीं तीनों लॉबी से बाहर नहीं होनी चाहिए। रंगकर्म के नाम पर मिलने वाले सम्मानों को भी संसाधनों की श्रेणी में ही रखकर समझा जा सकता है।

रेपर्टरी या रंगमंडल लॉबी एक नये किस्म का गठबंधन है। पटना में कई रेपर्टरी चल रही है। इसने रंगमंच में एक नवीन शब्दावली को जन्म दिया है। यदि दो रंगकर्मी किसी एक रेपर्टी के संबंध में बात कर रहे हों मसलन एक पूछेगा कि फलां की रेपर्टरी कितने की है जवाब में वो कहेगा दस और एक। अर्थशास्त्र के दृष्टिकोण से इसका अर्थ हुआ कि दस सदस्यों को छह हजार और एक संयोजक या निर्देशक केा दस हजार प्रति माह की दर से आमदनी। शायद ही कोई रंगमंडल अपने अभिनेताओं को उसके लिए निर्धारित मानदेय, छह हजार, देता है। रंगमंडल के लिए काम करने वाले किसी भी अभिनेता से बात करें वो आपको बताएगा कि उसे निर्धारित रकम से आधी या उससे भी कम दी जाती है।

जबकि यह अभिनेता ही है जिस पर रंगमंच का सारा दारोमदार टिका रहता है। लेकिन वे इस डर से आवाज नहीं उठाते कि कहीं रंगमंडल उन्हें बाहर का रास्ता न दिखा दिया जाए। हायर व फायर का नवउदारवादी तर्क यहॉं प्रचलित है। अभिनेता को उनकी न्यूनतम मानदेय से भी महरूम रखने की आवश्यकता रेपर्टरी संचालकों को एक किस्म की पतित भाईचारगी में बॉंधे रखती है। रंगकर्मियों की आपसी बातचीत में यह जुमला सरेआम है कि ‘‘अभिनेताओं की स्थिति तो नरेगा के मजदूरों से भी गयी गुजरी है"।

वैसे केंद्र सरकार नरेगा जैसे अन्य कल्याणकारी योजनाओं में लूट की रोकथाम के लिए, वित्तीय समावेशन यानी लाभुकों की मजदूरी का पैसा सीधा उनके बैंक खाते में भेजने की बात जोर-शोर से करती है। रंगमंडल के अभिनेताओं का मानदेय भी उनके खाते में नहीं आ सकता इससे एक हद ही सही तक वाजिब हक के लूट पर नियंत्रण लग सकता है। लेकिन सामाजिक क्षेत्र में पारदर्शिता की बात करने वाली बड़बोली केंद्र सरकार रंगमंच के क्षेत्र में शायद ही ऐसा करे। देश भर में बिचौलियों के माध्यम से वो शासवर्गीय एजेंडा के लिए कॉंस्टीच्वेंसी, अपने वर्चस्व की वैधता बनाए रखती हैं।

अभिनेताओं में एका का अभाव, उनका असंगठित होना उनकी दुर्दशा को और बढ़ाता है वे एकजुट होकर सरेआम चलने वाली इस लूट व भ्रष्टाचार का प्रतिरोध भी नहीं कर पाते। कोई जबान खोलना नहीं चाहता जबकि सभी इस खुले व नंगे शोषण से वाकिफ हैं। कमोवेश यही हाल एन.जी.ओ. के लिए काम करने वाले अभिनेताओं का भी है। संस्थाओं में न्यूनतम लोकतंत्र भी नहीं होता जो कि पुराने संगठनों की पहचान थी। पैसों के वितरण पर कोई भी जनतांत्रिक दबाव यहां मंजूर नहीं है।

एन.एस.डी. लॉबी की विशेषता है कि वो प्रांत के बाहर के सभी संसाधनों मसलन कार्यशाला करना, अपने नाटकों के राज्य के बाहर प्रदर्शन आदि पर एकाधिकार रहता है। एन.एस.डी. लॉबी भूल कर भी अपने बाहर के संर्पकों या नेटवर्क (जिससे उनको कार्यशाला एवं नाटकों के शो मिलते रहते हैं) का पता स्थानीय रंगकर्मियों को नहीं लगने देती और न ही उसका फायदा स्थानीय रंगकर्मियों को लेने देती है। थियेटर के बाजार में सरकारी महोत्सवों, विभिन्न अकादमियों के फेस्टीवल, कार्यशालाओं में इन्हीं केा तरजीह दी जाएगी। उनके नाटकों की तैयारी भले पटना स्थित थियेटर वर्कशॉप में होगी लेकिन उसका बाजार राज्य के बाहर होगा। स्थानीय रंगकर्मियों की हैसियत पटना स्थित इनके थियेटर वर्कशॉप में श्रमिक से अधिक नहीं है। दूसरा एन.एस.डी. प्रशिक्षित रंगकर्मी का कितना भी भ्रष्ट, पक्षपाती व अनैतिक क्यों न हो वे अपनी जबान उसके विरुद्ध नहीं खेलते। राज्य के बाजार पर कब्जे के हितों की रक्षा का बिरादराना भाव आपस उन्हें एकसाथ बनाए रखता है।

वैसे ये अलग बात है कि दूसरे हिंदी प्रदेशो के मुकाबले यहॉं भी बिहार के साथ नाइंसाफी की जाती है। चुँकि अपने प्रांत के रंगकर्मियों पर उनका भरोसा नहीं होता वे प्रदेश के कारण अपने साथ होने वाले भेदभाव के विरुद्ध कुछ नहीं कर पाते।

साभार: राष्ट्रीय सहारा, पटना 

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