Friday, May 22, 2015

जनता का रंगमंच और चुनौतियाँ

बिहार इप्टा के 15वें राज्य सम्मेलन पर 4 अप्रैल, 2015 को दो राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित हुईं। नाटकों के संबंध में अवसर और चुनौती पर केन्द्रित राष्ट्रीय संगोष्ठी-1 ‘जनता का नाटक और चुनौतियां’ विषय पर वरिष्ठ अभिनेता जावेद अख्तर खाँ ने आधारपत्र प्रस्तुत किया। संगोष्ठी की अध्यक्षता इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष व वरीय नाटककार रणबीर सिंह ने की तथा कई वक्ताओं ने अपने विचार प्रस्तुत किये। चर्चा-विमर्ष में आये विचारों को समेकित करते हुए जावेद अख्तर खां ने अपने आधार पत्र को समेकित किया है।
अध्यक्षमंडल के सदस्यो, बिहार इप्टा के राज्य-सम्मेलन के प्रतिनिधियो, मित्रो और साथियो! 
जननाट्य अथवा जनता के रंगमंच की चुनौतियों पर विचार-विमर्श ‘इप्टा’ की स्थापना के समय से, या यों कहना चाहिए, उसके पूर्व से ही चल रहा है. लेकिन, सन 2015 में जब हम इस बहस की पूर्व-परंपरा को देखते हैं और आज की स्थिति पर विचार करते हैं, तो कई विरोधाभास नज़र आते हैं. जब यह बहस शुरू हुई थी, यानी तब से जब से विश्वस्तर पर कला कला के लिए या कला जीवन के लिए विषय पर बहस-मुबाहिसा शुरू हुआ, तो बौद्धिक स्तर पर, और कुछ हद तक ज़मीनी स्तर पर भी, जनपक्षीय विचारों का सिलसिलेवार विजय-अभियान दीखता है. ‘इप्टा’ की स्थापना के समय 1943 में जब हम इस बहस को पाते हैं, या जब आज़ादी हमें अधूरी लगती है, या फिर जब संसदीय राजनीति में वामपंथ के क़दम जमने लग जाते हैं - तब ‘जन-नाट्य’ के आदर्शों को लेकर और उनको यथार्थ धरातल पर उतारने में हमारा यक़ीन बढ़ता हुआ दीखता है. लेकिन, ठीक वैसा ही यक़ीन, या फिर वैसा ही सिलसिलेवार बौद्धिक विजय-अभियान 2015 में कहीं नज़र नहीं आता. जैसे हमने आज़ादी के पहले साम्राज्यवाद के संकट और फ़ासिस्ट उभार के ख़िलाफ़ विश्व जन-उभार में अपनी भूमिका पहचानी थी, आज़ादी के बाद समाजवाद के स्वप्न को धरातल पर उतारने के लिए क़दम बढ़ाए थे, अपने (‘इप्टा’ के) पुनर्गठन के समय नई चुनौतियों की व्याख्या करते हुए आगे बढ़े थे, मुझे लगता है कुछ वैसी ही विषम परिस्थिति से आज हमारा सामना है और तब ज़ाहिर है, जननाट्य या जनता के रंगमंच की चुनौतियों को इस विषम परिस्थिति के सन्दर्भ में नए सिरे से समझना और अपने लिए नए रास्ते की खोज करना ज़रूरी हो जाता है.
यह बात दुहराने की नहीं है, मित्रो, कि 1990 के बाद से ही नई परिस्थितियाँ दुनिया, और विशेष रूप से हमारे देश के सामने उपस्थित हुई हैं, उन्होंने मिलकर एक नया नक्शा ही सामने खड़ा कर दिया है, जिस नक्शे में अपनी मुक्ति की खोज इतिहास की नई व्याख्या से जुड़ी है. 1990 और उसके बाद न केवल यह कि सोवियत संघ का विघटन हुआ, समाजवाद के सपने बिखरे; बल्कि नई आर्थिक परिस्थिति से भी सामना हुआ. इस उत्तर-आधुनिक दौर में सूक्ष्म प्रौद्योगिकी और संचार क्रान्ति ने हमें पूँजीवाद के सबसे ज़्यादा चमचमाते संजाल के सामने ला खड़ा कर दिया है. भारत में इस वैश्वीकरण ने अपना एक चक्र पूरा कर लिया है. जो बातें अभी तक छिपी हुई थीं, अब खुलकर सामने आ चुकी हैं. नई टेक्नोलॉजी, संचार क्रांति, कंप्यूटर, इंटरनेट के साथ कॉरपोरेट पूँजी, खुले बाज़ार, आवारा पूँजी ने पूरे आत्मविश्वास के साथ भारतीय शासक वर्ग के साथ अपना ताल-मेल बैठा लिया है. विकास और सुशासन के जुमले से लैस चमकती हुई भारतीय राजनीति का जो चेहरा अभी हमारे सामने है, उसने भारतीय मध्यवर्ग को पूर्णतया दिग्भ्रमित कर रखा है. यह बात ध्यान में रखनी है, मित्रो, कि जननाट्य की अवधारणा का विकास भारतीय मध्यवर्ग के नेतृत्व में ही हुआ. अब यह वर्ग जनता के रंगमंच की अवधारणा के विकास का नेतृत्व करने में अक्षम हो चुका है. निकट भविष्य में हम किसी ऐसे समय की सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं, जब सम्पूर्णता में उपभोक्ता-मात्र में तब्दील हो गया भारतीय मध्यवर्ग नई कल्पना और आदर्श को उत्प्रेरित करेगा!

इतिहास के हर निर्णायक मोड़ पर नेतृत्व हमेशा नई और स्वतन्त्र मेधा ने किया है. याद दिलाने की ज़रूरत नहीं है, वह चाहे होमी जहांगीर भाभा हों, या हीरेन मुखर्जी, या फिर सज्जाद ज़हीर हों, या नम्बूदिरीपाद (ऐसे दो-चार नहीं, अनेक नाम हैं)—ये सभी अपने समय की नई पीढ़ी के सबसे बेहतरीन दिमाग़ थे. 2015 की नई पीढ़ी के सबसे बेहतरीन दिमाग़ इस समय कहाँ हैं? क्या उनके लिए हमारी अपनी क़तार के बीच कोई जगह है? क्या ये दिमाग़ पूरी तरह नई पूँजी के अधीन हो चुके हैं? अगर यह सच है, तो पिछले एक दशक के भीतर ही दुनिया-भर में उभरे नए क़िस्म के जन-आन्दोलनों (जैसे, अरब उभार-Arab Spring-, आक्युपाई वॉलस्ट्रीट, रंगभेद के ख़िलाफ़ फ्रांसीसी जन-उभार, अण्णा-आन्दोलन आदि-आदि) का नेतृत्व मुख्यतः नई पीढ़ी के इन्हीं दिमाग़ों ने कैसे किया?! इसका मतलब है, हमें जनता के रंगमंच की नई सैद्धांतिकी के विकास में नई पीढ़ी की इसी स्वाधीन मेधा को अपने भीतर जगह देने, उभारने और अंततः नेतृत्व सौंपने की ओर बढ़ना होगा. मेरा विचार है कि हमें इस चुनौती को अपनी प्राथमिकताओं में सबसे आगे रखना चाहिए. इस चुनौती को हम ऐसे देखते हैं. नई संचार क्रान्ति, कंप्यूटर, इंटरनेट और नए मीडिया का विस्तार, फ़ेसबुक और ट्विटर – इन सबने मिलकर कई तरह से नई पीढ़ी को उन्मुक्त किया है. इनसे जुडी नई संकल्पनाएँ सामने आ रही हैं, और निश्चित रूप से नए संकट भी खड़े हो रहे हैं. जहाँ नई संकल्पनाएँ जन्म ले रही हैं, वहाँ से जनता के रंगमंच की नई सैद्धांतिकी के सूत्र खोजे जा सकते हैं. अधिक तो नहीं, लेकिन ऐसे कई उदाहरण हमें मिल रहे हैं, वैश्विक समझवाले और नई टेक्नोलॉजी में माहिर नौजवान चमचमाते कैरियर को छोड़कर जनता के बीच जनता की समस्याओं के हल के लिए लड़ने का विकल्प खोज रहे हैं. विज्ञान, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र आदि ज्ञानुशासन से जुड़ी नई पीढ़ी की यह स्वाधीन मेधा पूर्व राजनीतिक धारणाओं से मुक्त है और यही सबसे बड़ी पेचीदगी है. क्या इस पेचीदगी को हम संबोधित कर पा रहे हैं? एक लम्बे समय तक जननाट्य-आन्दोलन को कम्युनिस्ट विचारधारा और कम्युनिस्ट पार्टी ने उत्प्रेरित किया है. यह नई मेधा ख़ुद को मार्क्सवादी विचारधारा और कम्युनिस्ट पार्टी से कितना जोड़ पा रही है? मार्क्सवादी विचारधारा का स्फुरण और कम्युनिस्ट पार्टी की उत्प्रेरणा अरब-स्प्रिंग, ऑक्युपाई वॉलस्ट्रीट जैसे नई तरह के आन्दोलनों के सन्दर्भ में कितनी और कहाँ तक रही है!? स्पष्ट है, वर्तमान में जनता के रंगमंच की चुनौतियों की समझ बनाने के लिए सबसे पहले हमें कुछ ऐसे ही नए सवालों से रू-ब-रू होना होगा.

मित्रो, जैसे लोकतंत्र विकसित होता है, लोक की हर स्तर पर भागीदारी से, वैसे जनता का रंगमंच बिना जन-भागीदारी के कैसे संभव है! यह काम लोकतांत्रिक लड़ाई के काम से अलग नहीं है. इस विस्तार में जाने का अवकाश प्रस्तुत आलेख में नहीं है कि शासक वर्ग द्वारा जन-अधिकारों में कैसे कटौती की जा रही है, या न्याय से वंचित जनता का बड़ा हिस्सा कैसे भयानक अभाव और ग़रीबी की मार झेल रहा है, या फिर 1990 के बाद इस देश में किसान लगातार आत्महत्याएँ क्यों कर रहे हैं, क़ातिल कैसे न केवल खुले-आम घूम रहे हैं, वे सत्ता के शीर्ष पर बैठे हैं—इसी तरह की अन्य बातें आपकी जानी हुई हैं और आप इन बातों, या अन्य छूट गई बातों को अपनी बहस में लाएँगे; फ़िलहाल हम इन सब बातों को प्रस्तुत विषय की एक अनिवार्य पृष्ठभूमि के रूप हमेशा ध्यान में रखेंगे. बहरहाल! रंगमंच, जो जनता की बेहतरी के लिए हो, जनता को नई उत्प्रेरणा दे, उसे स्वयं उसका अपना चेहरा दिखाए—कुल मिलाकर ‘जनता के लिए रंगमंच’ हो, यहाँ तक तो बहस की गुंजाइश नहीं है और यह एक स्पष्ट धारणा है. लेकिन, मेरी चिंता रंगमंचीय क्रियाकलाप में जनता की व्यापक और हर स्तर पर भागीदारी से जुड़ी है. जनता द्वारा रंगमंच को कैसे गढ़ा जा रहा है—मेरे लिए यह एक महत्वपूर्ण विचार-बिंदु है. यह आप जानते हैं, भारत की लोक-रंग-परंपरा वास्तव में जनता की व्यापक भागीदारी का परिणाम रही है. जनता ने ख़ुद अपना रंगमंच गढ़ा है. मुझे इस बात को लेकर कोई भ्रम नहीं है कि पारंपरिक लोकरंगमंच ही वर्तमान में जनता का रंगमंच है, सन 2015 में आकर और ज़्यादा स्पष्ट होकर हमें समझ लेना होगा कि ‘जनता के रंगमंच’ का मतलब 12वीं-13वीं शती में विकसित व्यापक जन-भागीदारी वाला लोकरंगमंच नहीं है. लेकिन इस उदाहरण को सामने रखने से हमें अपने रंगमंचीय कार्य-भार की जटिलता और दुरूहता तथा अपनी तैयारी की सीमा का ज़रूर एहसास होता है, इसलिए ‘जनता के रंगमंच’ के सन्दर्भ में ‘लोकरंगमंच’ का उदाहरण हमें सामने रखना होगा. उससे सीखते हुए, लेकिन उसकी सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए. यही बात हमारे अपने जननाट्य के पुराने अनुभव के साथ भी है और बादल सरकार, ग्रोतोव्स्की, हबीब तनवीर, उत्पल दत्त, दिल्ली जननाट्य मंच आदि के रंगकर्म के सन्दर्भ में भी है.

इस बहस को हम एक दूसरे कोण से भी समझें. रंगमंच का सम्बन्ध अपने समय-स्थान-समुदाय से होता है. वर्तमानकालिकता, स्थानीयता और सामुदायिकता के भीतर ही वास्तविक रंगमंच का सृजन होता है. हमारे भीतर अपने समय-स्थान-समुदाय की अवधारणा की पहचान  जितनी गहरी, खरी और सटीक होगी, हम जनता के रंगमंच के सृजन में उतने की सक्षम होंगे. जितना कुछ हमारे आस-पास घटित हो रहा है, जिन घटनाओं से हमारे आस-पास के साधारण जन के दिल और दिमाग़ जुड़ रहे हैं, उनकी बुनियादी समझ के बिना हम जनपक्षीय रंगकर्म का सृजन नहीं कर सकते. रंगमंच पर सब कुछ वर्तमान में घटित होता है, अतीत की गाथाएँ भी, भविष्य का यूटोपिया भी! इन सबका सम्बन्ध जनता की सामुदायिक स्मृति से भी है. इस स्थापना के दो-तीन सूत्र निकले जा सकते हैं. घटनाएँ हमारे सामने जो हो रही हैं, वे कितनी वास्तविक हैं, या कितनी आभासी, या सबसे बढ़कर वे कितनी छिपाई गई हैं, या विकृत की गई हैं. यह समझना बेहद ज़रूरी है, केवल मीडिया-निर्भरता हमें वास्तविक घटनाओं से कितनी दूर ले जा रही है, या मीडिया द्वारा घटनाओं के बारे में हमारी समझदारी कितनी नियंत्रित की जा रही है! अपने समय को समझना इस पृष्ठभूमि में कठिन श्रम, स्पष्ट बौद्धिक समझदारी के साथ घटनाओं के बीच एक रिपोर्टर की तरह रहना है. एक ऐसे समय के साथ हमारी मुठभेड़ है, जब सूचनाएँ उतनी आ नहीं रही हैं, जितनी छिपाई जा रही हैं, या जिनकी अनदेखी की जा रही है. इस संजाल को भेदने के लिए मुक्तिबोध के शब्दों में ‘सुराग़रसां’ की नज़र विकसित करनी होगी. हमें केवल पारंपरिक लोकगाथाओं के विस्मृत नायकों की खोज नहीं करनी है, वर्तमान में ही दफ्न की जा रही अनेक सचाइयों का पता लगाना होगा, और सबसे बढ़कर उन विचलित कर देनेवाली सचाइयों से रू-ब-रू होने के लिए अपनी आँखों में साहस भी पैदा करना होगा. यह एक हाशिमपुरा या शंकरबिगहा की सचाइयाँ नहीं हैं, अनगिनत सचाइयों की बात है, जो हमारे आस-पास ही ज़मींदोज़ कर दी गई हैं. जनता की सामूहिक स्मृतियों में जाना और उसे उनकी याद दिलाना जनता के रंगमंच की पहचान है. न केवल यह, बल्कि जैसा बर्तोल्त ब्रेख्त ने एक स्थान पर लिखा है, हमें रंगमंच पर वैसी घटनाएँ दिखानी होंगी, जो लोग देखना नहीं चाहते. मैं यहाँ ब्रेख्त का एक पूरा उद्धरण उनकी महाशय ब की कहानियाँ से दे रहा हूँ:
 कला कैसी होनी चाहिए – इस चिर-परिचित थीम से महाशय ‘ब’ भी जूझा करते. साहित्यकार पीटर हैक्स के साथ एक बातचीत के दौरान उन्होंने अपना मत व्यक्त करते हुए कहा कि कला का काम जानकारी देना होना चाहिए. हैक्स ने इस मत पर संदेह व्यक्त किया.
 महाशय ‘ब’ ने कहा-‘एक ख़ास अखबार में एक कॉलम निकलता है, जिसका शीर्षक रहता है—जिसे अधिकांश लोग नहीं जानते—वस्तुतः वही कला की असली थीम है.
 क्षण-भर बाद इसमें इज़ाफ़ा करते हुए उन्होंने कहा—लेकिन शायद यह कहना ज़्यादा बेहतर होगा- जिसे अधिकांश लोग जानना ही नहीं चाहते.
अपने यथार्थ की अनदेखी कर रहे लोगों के बीच उसी यथार्थ की परतें उधेड़ कर सामने लाना हमारे रंगमंच का कार्य-भार है. हम यथार्थ का सामना करने के बजाय उससे नज़रें चुराते हैं. ऐसे में यह संभव नहीं कि एक बेहतरीन रंगमंच का सृजन हो सके. दरअसल, वर्तमानकालिकता का जनता के रंगमंच के सन्दर्भ में यही मतलब है.
जनता के विभिन्न हिस्सों को रंगकर्म का हिस्सा बनाना एक कठिन कार्य है, लेकिन असंभव नहीं है. यह अपनी स्थानीयता की समझ के साथ जुड़ा है. रंगमंच की जड़ें अपने स्थान में गड़ी होती हैं. रंगमंच के सन्दर्भ में ‘स्थानीयता’ मात्र रंग-स्थली नहीं है. जब हम अंग्रेज़ी में ‘theatre space’ कहते हैं, तो इसका यही अर्थ निकलता है, जबकि ‘स्थानीयता’ का सम्बन्ध उस विस्तृत जन-क्षेत्र से है, जहाँ वह पूरा परिवेश फैला हुआ है, जिसके भीतर हमारा अपना पूरा समय व्यतीत होता है. इसे इस तरह समझें, और चूँकि इसका सम्बन्ध हमारे अपने सामूहिक अनुभव-कोष से है, इसलिए इसे और भी स्पष्टता से समझना ज़्यादा ज़रूरी है. जैसे मेरे अनुभव-क्षेत्र में पहाड़ और समुद्र नहीं आते, पहाड़ और समुद्र का मेरा निजी अनुभव एक सैलानी का है. लेकिन, जब मैं यह कहता हूँ कि मेरे रक्त-माँस-मज्जा का बेशतर हिस्सा भोजपुरी स्थानीयता से निर्मित है, तब ज़ाहिर है वह पहाड़-समुद्र से तत्वतः भिन्न है. इस स्थानीयता का सम्बन्ध हमारे आस-पास की पूरी प्रकृति, उस बसावट में रहने वाले तमाम लोगों की आदतों, बोलचाल और भंगिमाओं से है. एच. कन्हाईलाल ने एक बार बताया था कि हमारे नगर के अभिनेता हमारी जनता के लिए अजनबी-जैसे हैं, क्योंकि उनकी भाव-भंगिमा का बहुत-कुछ अपनी खाँटी स्थानीयता से निर्मित नहीं है. इसको उन्होंने एक उदाहरण से समझाया, जैसे जब हमारे आधुनिक महानगर के अभिनेता अभिनय करते हैं, तो मंच पर वे ‘नहीं जानने’ के भाव को कंधे उचकाकर व्यक्त करते हैं, जो दरअसल ‘I don’t know’ की युरोपीय भंगिमा है, जिससे भारतीय जनता का बतौर दर्शक अलगाव बना रहता है. यही बात हमारे रंगमंच में प्रयुक्त होनेवाली उच्चरित भाषा के सन्दर्भ में भी है. आज जब वैश्वीकरण की बात की जा रही है, तो इसका मतलब यह भी है कि हमारी स्थानीयता संकट में है. कुछ लोग कहते हैं- think global, act local, यानी आपका सोच वैश्विक हो, लेकिन आपकी सक्रियता स्थानीय हो. रंगमंच पर अपने समय की ही नहीं, अपने स्थान की विशिष्ट छाप भी होती है, इसी स्तर पर वह जनता से जुड़ता है. एक ही तरह का रंगमंच यदि हर तरफ़ दिखने लगे, इसका मतलब ही है कि इस जनपक्षीय विधा पर खतरे मंडरा रहे हैं. एक ही तरह की रुचि, आस्वाद, व्यवहार, भाव-भंगी, बोली, पहनावा—वैश्वीकरण और उपभोक्तावाद का लक्ष्य है. जनता का रंगमंच इस वैश्वीकरण के विरुद्ध स्थानीयता का प्रतिरोध है.

(बिहार इप्टा के राज्य-सम्मेलन – 3-5 अप्रैल, 2015 में बहस के लिए प्रस्तुत आधार-पत्र)

n जावेद अख्तर खां
                                    संपर्क: javednatmandap@gmail.com
                                                                                                 0612-2577011/07856915713

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