Thursday, May 28, 2015

जन संस्कृति दिवस’ दि‍वस पर आगरा में विविध आयोजन

भारतीय जन नाट्य संघ इप्टा आगरा इकाई द्वरा आज लिटिल इप्टा के ग्रीष्मकालीन शिविर में इप्टा की स्थापना दिवस पर विभिन्न नाट्य प्रस्तुतियों और जन गीतों के अलावा नन्हे मुन्हे बच्चों ने बाल गीतों द्वारा मन मोह लिया इस अवसर पर इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का जन सन्देश भी पढ़ा गया ।यूनिवर्सिटी मॉडल स्कूल में आयोजित किये गए जन संस्कृति दिवस की शुरुआत इप्टा के महासचिव रहे डॉ जितेन्द्र रघुवंशी जी के चित्र पर माल्यार्पण कर हुई उसके बाद जन गीत” आओ कलाकार” और जितेन्द्र रघुवंशी द्वरा रचित अभी तो मंजिल बाकी है” गाया गया टाइनी ग्रुप ने "कौन बोला .. " कविता दिलीप रघुवंशी के निर्देशन में प्रस्तुत की , इसके बाद किशोरी वर्ग ने कत्थक की तत्कार और थाप के साथ श्रीमती ज्योति खंडेलवाल के निर्देशन में प्रस्तुति दी . किशोर वर्ग के बालकों ने विशाल रियाज़ के निर्देशन में शरद बिल्लोरे की कविता “ तय तो यही हुआ था “ की भाव पूर्ण प्रस्तुति दी ।

कवि अवतार सिंह “पाश” की कविता “ सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना” की प्रस्तुति इप्टा के युवा कलाकारों ने प्रभावी ढंग से मंचित की इसके निर्देशक डॉ विजय शर्मा थे , इसके पश्चात ग्रीष्मकालीन शिविर के संरक्षक सुरेश चन्द्र गुप्ता व एम् एल गुप्ता ने अपनी शुभकामनाएं प्रेषित की और बाल रंगमंच के लिए स्थाई जगह उपलब्ध कराने के लिए आश्वासन दिया इस अवसर पर शिविर के समन्वयक दिलीप रघुवंशी ने आज के दौर में इप्टा की भूमिका पर प्रकाश डाला व सह संयोजक डॉ विजय शर्मा ने जन सन्देश का पाठ किया और बताया कि आज ये जन संस्कृति दिवस पूरे भारत में इप्टा की बिभिन्न इकाइयों द्वारा मनाया जा रहा है . यूनिवर्सिटी मॉडल स्कूल की प्रधानाचार्या सीमा अनवर ने स्कूल को शिविर के लिए चुने जाने पर हर्ष जताया. लिटिल इप्टा शिविर के संयोजक सुबोध गोयल जी ने धन्यवाद ज्ञापन किया और सञ्चालन मुख्य निर्देशिका डॉ ज्योत्स्ना रघुवंशी ने किया ।

इस अवसर पर आगरा इप्टा की उपाध्यक्ष भावना जितेन्द्र रघुवंशी ने बच्चों को शुभकामनायें दीं , कार्यक्रम की निर्देशकों की टीम में सुनीता धाकड़ , नीतू दीक्षित , रक्षा गोयल प्रभजोत रघुवंशी विशाल रियाज़ उपस्थित मानस रघुवंशी सिद्धार्थ रघुवंशी ,आदि ने इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव के चित्र पर पुष्प अर्पित किये। उपस्थित गणमान्य लोगों ने डॉ शशि तिवारी , रमेश शर्मा , प्रमोद राणा ,मुक्ति किंकर कुमकुम रघुवंशी महेश धाकड़ आदि इप्टा के स्थापना दिवस पर बधाइयाँ दी और विचार प्रकट किये।

प्रतिरोध के स्वरों को बल देने का आह्वान

खनऊ। इप्टा के 73वें स्थापना दिवस पर सोमवार को इप्टा कार्यालय में प्रगतिशील सांस्कृतिक संगठनों के समक्ष मौजूदा चुनौतियों पर चर्चा हुई। इसमें वक्ताओं ने कहा कि प्रतिशोध के स्वरों को कुचलने की साजिश की जा रही है। ऐसे में आपसी मतभेदों और स्वार्थ को छोड़ कर देश और मानवता के लिए प्रगतिशील विचारधारा के लोगों को संगठित होना पड़ेगा। इस अवसर पर नाटक गंगा लाभ का प्रदर्शन भी किया गया।
वरिष्ठ रंगकर्मी राकेश के संचालन में हुई इस संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे अध्यक्ष नदीम हसनैन ने प्रगतिशील सांस्कृतिक आन्दोलन से युवाओं को जोड़ने पर जोर दिया। वरिष्ठ आलोचक वीरेन्द्र यादव ने साम्प्रदायिकता और फांसीवादी ताकतों के चलते प्रतिरोध की आवाजों को कुचले जाने का मुद्दा जोर-शोर से उठाया। प्रो. रमेश दीक्षित ने हर पल सचेत रहने की जरूरत पर जोर दिया। साथ ही सुझाव दिया कि इप्टा की सांस्कृतिक यात्राओं को जारी रखा जाए। जलेस के सचिव नलिन रंजन सिंह ने इतिहास और परंपरा को विकृत करने वाली ताकतों का विरोध करने की बात कही। जसम के कौशल किशोर ने कृत्रिम उत्सवों का विरोध किया और श्रम उत्सव मनाने पर जोर दिया। इस मौके पर ज्ञान चन्द्र शुक्ल के निर्देशन में मंचित गंगा प्रसाद मिश्र की कहानी गंगा लाभ का मंचन किया गया। इसमें मोक्ष के लिए गंगा घाट पर कर्मकांड का प्रसंग पेश किया गया। इसमें अंतिम संस्कार जैसे संवेदी कार्य के भी व्यावसायिक रूप को पेश किया गया। नाटक में किसानों की दुर्दशा पर सरकारी उपेक्षा पर करारी चोट करता संवाद दर्शकों द्वारा खासा सराहा गया। इसमें ओपी अवस्थी, सुखेन्दु मंडल, राजीव भटनागर, राजू पांडेय, इच्छा शंकर, चन्द्रभास, पवन, उत्कर्ष, ऋषभ, निखिल, शुभम, धर्मेन्द्र ने अभिनय किया।
साभार : नवभारत टाइम्स

जबलपुर में जनसंस्कृति दिवस: कला की जगह बाजार

नता की कला का जन्म खुशियां मनाते, त्यौहार मनाते और मेहनत करते हुए लोगों के गीतों, नृत्यों से हुआ है। शास्त्रीय कलाएं लोक कलाओं से ही जन्मी हैं। इप्टा का नारा है जनता के रंगमंच की असली नायक जनता है। मेहनत करने वालों ने ही इस कला को जन्म दिया है, उन्हीं ने इसे संवारा है और सहेजा है। इप्टा ने अपने जन्म से ही मजदूरों किसानों की दुख तकलीफों को अपने गीतों, नृत्यों और नाटकों से अभिव्यक्त किया। लेकिन इप्टा का महत्वपूर्ण योगदान देश के स्वाधीनता आन्दोलन के लिए है। आजादी की लड़ाई में इप्टा ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। इप्टा से उस समय के युवा कलाकार जुड़े जिन्होंने कला में नए नए प्रयोग किये और अपना सर्वस्व निछावर कर दिया। इसी का परिणाम ये हुआ कि उस समय जो युवा इप्टा में शामिल हुए वो बाद में जाकर देश के ख्यातिलब्ध कवि, शायर, चित्रकार, नर्तक और अभिनेता बने। ख्वाजा अहमद अब्बास, पंडित रविशंकर, कैफी आजमी, ए के हंगल, साहिर लुधियानवी, दीना पाठक, विमल रॉय, मजरूह सुल्तानपुरी, शैलेन्द्र, शंभू मित्रा, होमी भाभा, बलराज साहनी, प्रेमधवन, सलिल चौधरी, चित्तो प्रसाद, हेमंत कुमार, उत्पल दत्त, रित्विक घटक, तापस सेन, उदयशंकर, संजीव कुमार, शबाना आजमी, फारूख शेख, अंजन श्रीवास्तव आदि सभी इप्टा से जुड़े और इप्टा के आंदोलन में अपना योगदान दिया। आज स्थितियां बदलीं हैं और विज्ञान की प्रगति के साथ साथ नए नए यंत्र कला की जगह लेने के लिए आ गये हैं। इससे कला में इंसानी हस्तक्षेप कम हुआ है और मशीनी हस्तक्षेप बढ़ा है। हम कला में जिन मूल्यों को मानते रहे हैं उनमें बदलाव दिखाई दे रहा है। बाजार और पैसा कला की साधना की जगह ले रहा है। इप्टा के नाटक और इप्टा के कलाकारों से हमेशा एक श्रेष्ठ वैचारिक प्रस्तुति की अपेक्षा दर्शक रखता है। यही इप्टा की पहचान है। 



ये विचार हैं सुप्रसिद्ध कहानीकार डा कुंदन सिंह परिहार के जो उन्होंने इप्टा के स्थापना दिवस 25 मई के अवसर पर विवेचना द्वारा आयोजित कार्यक्रम में व्यक्त किए। ’जनसंस्कृति के संकट’ विषय पर व्याख्यान देते हुए उन्होंने कहा कि केवल कला की गहरी समझ रखकर ही हम कलाओं को सहेज सकते हैं। शास्त्रीय कलाएं और कलाकार अपने समपर्ण से हमेशा जीवित रहते हैं।

इसी अवसर पर एडवोकेट का रहीम शाह ने संबोधित करते हुए कहा कि युवाओं के बीच यह बात जाना चाहिए कि आजादी की लड़ाई में कलाकारों ने किस तरह अपना योगदान दिया है और कला को विकसित भी किया है।
विवेचना के थियेटर वर्कशॉप के प्रशिक्षु रिशविन जेठी ने प्रदर्शनकारी कलाओं और टेक्नोलॉजी पर अपनी बात रखते हुए कहा कि अब वो दौर आने वाला है जब मंच से जीवंत अभिनय समाप्त कर केवल टेक्नोलॉजी के भरोसे ही प्रस्तुति की जा सकेगी। यह चिंताजनक है। 

कार्यक्रम के शुरू में इप्टा की राष्टीय सचिव मंडल के सदस्य और विवेचना के सचिव हिमांशु राय ने इप्टा के इतिहास के बारे में बताया कि सन् 1942 का समय बंगाल में भयानक दुर्भिक्ष का समय था, भारत छोड़ो आंदोलन और द्वितीय विश्वयुद्ध का समय था जिसने देश के कलाकारों को उद्वेलित किया जिससे इप्टा का गठन 25 मई 1943 को हुआ जिसे हर साल जनसंस्कृति दिवस के रूप में कलाकार मनाते हैं। 

विवेचना के पच्चीस कलाकारों के दल ने इस अवसर पर अभय सोहले के निर्देशन में दो जनगीत प्रस्तुत किए। ’हो गई है पीर परबत सी पिघलनी चाहिए इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए और चलते चलो और चलते चलो, लहरों में लपटों में पलते चलो ने श्रोताओं को प्रभावित किया। कार्यक्रम का संचालन बांकेबिहारी ब्यौहार ने किया। विवेचना के कला निदेशक वसंत काशीकर ने आभार व्यक्त किया।

सामाजिक बदलाव के लिए नाटक कारगर माध्यम है: मुमताज भारती

25 मई 2015 को इप्टा के स्थापना दिवस पर होटल आशीर्वाद में नाटकों के मंचन एवं संगोष्ठी का आयोजन किया गया था। सर्वप्रथम इप्टा रायगढ़ के अध्यक्ष विनोद बोहिदार ने 25 मई 1943 को इप्टा की स्थापना के पूर्व बंगाल के अकाल के दौरान अकालग्रस्तों की सहायता के लिए स्थापित किये गये सेन्ट्रल कल्चरल स्क्वाड की भूमिका पर प्रकाश डाला एवं इप्टा के संस्थापकों की जानकारी प्रदान की।

तत्पश्चात् इप्टा रायगढ़ के बाल एवं युवा कलाकारों द्वारा दो नाटकों का मंचन किया गया। पहला नाटक था ‘‘पानी की कहानी नारद की जुबानी’’। अपर्णा के निर्देशन में मंचित इस नाटक में इंद्र और नारद द्वारा पृथ्वीतल के लोगों के हालचाल जानने की जिज्ञासा के दौरान भारत में पेयजल की कमी, प्रदूषण और असमय वर्षा से उत्पन्न होने वाली किसानों की समस्या पर प्रकाश डाला गया। बच्चों के सहज अभिनय औरआत्मविश्वास से लबरेज संवाद अदायगी ने दर्शकों का मन मोह लिया।

दूसरा नाटक था ‘‘टुम्पा’। कहानी का रंगमंच की शैली में प्रस्तुत हीरा मानिकपुरी के निर्देशन में तैयार इस नाटक में एक छोटी सी रोचक कथा के माध्यम से अमेरिकी गॉडफादर की भूमिका का रूपक रचा गया है। एक छात्रा अपने प्राध्यापक से प्रेम विवाह करना चाहती है। वह अपने इकतरफा प्रेम को विवाह की परिणति तक पहुँचाने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति की मदद लेती है, जिसके लिए उसके प्राध्यापक ने यूँ ही सुझा दिया था। अमेरिकी हस्तक्षेप से उनका विवाह होता है और बाद में उनके मतभेदों को सुलझाकर शांति बनाए रखने के लिए उन्हें दो रिवॉल्वर अमेरिका द्वारा प्रदान किये जाते हैं। नुपूर अग्रवाल और अजेश शुक्ला द्वारा प्रस्तुत बीस मिनट के नाटक में स्थानीय से वैश्विक प्रभाव का नजारा प्रस्तुत किया गया, जिसे दर्शकों की भरपूर सराहना मिली। नुपूर और अजेश ने टुम्पा और प्रोफेसर के किरदारों के अलावा अन्य किरदारों को भी अपने सशक्त
अभिनय से साकार किया।

‘‘सामाजिक बदलाव में रंगमंच की भूमिका’’ विषय पर संगोष्ठी आरम्भ हुई। विषय प्रवर्तन करते हुए इप्टा के संरक्षक मुमताज भारती ने सिनेमा की अपेक्षा नाटक में सामाजिक बदलाव की अधिक सम्भावना पर बल दिया। वरिष्ठ रंगकर्मी शाहबाज रिजवी ने नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से गुणवत्ता बनाए रखकर किसतरह सामाजिक बदलाव हो सकता है, इसकी चर्चा की। युवराज सिंह ने कलाकारों एवं दर्शकों - दोनों के स्तर पर समझ विकसित होने की बात कही। डॉ. बेठियार सिंह साहू ने दर्शक के मन पर गहरे तक पड़ने वाले

नाट्य मंचन के तुरंत बाद उपस्थित दर्शकों के बीच नाटक के प्रभाव को रेखांकित करते हुए प्रभावशाली सार्थक कार्य करने की आवश्यकता पर जोर दिया। अजय आठले ने लोकनाटकों को दुधारी तलवार बताते हुए उनके द्वारा सामाजिक बदलाव को रोकने के खतरे से आगाह किया। दिल्ली से आए युवा सिनेकर्मी अंकुर वर्मा ने इसतरह की सामूहिक चर्चा को ही बहुत सार्थक बताया। रानावि दिल्ली के स्नातक निर्देशक एवं अभिनेता
हीरा मानिकपुरी ने बदलते समय के परिप्रेक्ष्य में रंगमंच की समस्याओं का समाधान नए नजरिये से करने की अपील की। इप्टा की स्थायी दर्शक एवं बाल कलाकार आद्या की माँ सरिता गुप्ता ने नाटक के माध्यम से बच्चों में जागरूकता आने की बात कही। इन वक्ताओं के अलावा रंगकर्मी विवेक तिवारी, प्रतापसिंह खोडियार, डॉ. सुशील गुप्ता, फिल्म एण्ड टेलिविजन संस्थान पुणे के स्नातक करमा, हीर गंजवाला, अभिषेक, अनादि आठले एवं इप्टा के सभी कलाकारों एवं दर्शकों की भागीदारी महत्वपूर्ण रही।

पूरे कार्यक्रम का सफल संचालन किया विनोद बोहिदार ने।

Monday, May 25, 2015

इप्टा ने सिखाया कला जीवन के लिए: शबाना आजमी

बिहार की पत्रकारिता में निवेदिता का नाम गंभीर पत्रकारिता करने वाले कुछेक पत्रकारों में लिया जाता है. कैफ़ी आज़मी इप्टा सांस्कृतिक केन्द्र के उद्घाटन के अवसर पर निवेदिता भी उपस्थित थीं. इप्टानामा के लिये निवेदिता ने यह विशेष रपट तैयार की है.
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 इप्टा सिर्फ रंगमंच नहीं है विचार है

क लंबे समय के बाद आखिरकार कलाकारों के पास एक ऐसी जगह हुई जहां वे अपनी कला का विस्तार कर
आवाम से रू-ब-रू शबाना आज़मी  
सकते हैं। कैफी आज़मी इप्टा सांस्कृतिक केन्द्र का बनना संस्कृति के सामुहिक चेतना का विस्तार है। आज के काले दौर में इसकी जरुरत इसलिए भी है कि कलाकार सृजन कर सके। कैफी आजमी को इस बात का गिला हमेशा रहता था कि इप्टा के पास अपनी कोई जगह नहीं है। यह त्रासदी है कि आजादी के पहले जिस सांस्कृतिक संगठन ने जन्म लिया और देश में सांस्कृतिक आंदोलन को दिशा दी आज उस संगठन के पास अपनी कोई जगह नहीं है। पटना का ये कैफी आजमी सांस्कृतिक केन्द्र वाहिद जगह है जो इप्टा की है। जो  संघर्ष, गुलामी  और उससे मुक्ति का सर्जक ही नहीं बल्कि वह उस संस्कृति का वाहक है जहां वे यह कहते हैं ‘इप्टा की असली नायक जनता है’।


मशहूर अभिनेत्री शबाना आजमी का यहां आना इप्टा के सांस्कृतिक केन्द्र का उद्घाटन करना भी मायने रखता है। शबाना आजमी जब यह कहती हैं कि ऐसी जगह की अहमियत इसलिए भी है हम सामाजिक बदलाव के लिए इसका इस्तेमाल कर सकें।  हम दुनिया को अपनी तारीख के बारे में बता सकें। हम बताएं की हमारी जड़ें कहां है! हम प्रकृति हैं, अतीत हैं, हम परंपरा हैं।

यह मौका था जब एक अभिनेत्री के साथ लोग रु-ब-रु थे। जहां बॉलीबुड के स्टारडम से अलग शबाना आजमी यह बता रही थीं की कोई भी कला एकांत में नहीं पनपती। एक महान कला को लोगों से जुड़ना ही होगा। अगर मैं किसी लक्ष्मी का किरेदार कर रही हूं तो मुझे जानना होगा कि लक्ष्मी किस तरह जीती है? इप्टा ने यही सिखाया। कला जीवन के लिए।


मैं छुटपन से ही इप्टा से जुड़ी थी। सिनेमा में आने के बाद भी मैंने रंगमंच को जीवन से अलग नहीं किया। इप्टा में शामिल होने के लिए काफी मेहनत की। उन दिनों एम. एस. सथ्यू इप्टा में थे। हम उनके साथ नाटक में जुड़ना चाहते थे। जब हमने कहा कि मुझे इप्टा में शामिल कर लें तो उन्होंने कहा तुम फिल्म करती हो। क्या भरोसा कि तुम्हें किसी नाटक में लें और किसी फिल्म का ऑफर मिले तो तुम भाग जाओ। उन्होंने कहा अगर तुम लगातार 6 बजे आओ तो हम 15वें दिन विचार कर सकते हैं। मैं लगातार 15 दिनों तक 6 बजे इप्टा ऑफिस जाती रही , फिर मुझे मौका मिला इप्टा सदस्य बनने का।

शबाना आजमी ने बताया इप्टा उनकी जिन्दगी में क्या मायने रखता है। उन्होंने कहा कि इप्टा सिर्फ रंगमंच नहीं है विचार है। ऐसा विचार जो कला के माघ्यम से दुनिया को बदलना चाहती है। इसलिए यह जरुरी है कि दुनिया की महान कलाओं के साथ खड़े रहने के लिए हम जानें दुनिया में क्या कुछ बदल रहा है। मैंने अब्बा से एक बात जाना- वे कहा करते थे तुम जो काम कर रही हो उसपर यकीन होना चाहिए। यह जरुरी नहीं है कि तुम्हारे जीवन में ही बदलाव दिखे। पर यह यकीन करना की जो काम कर रही हो उससे दुनिया के हालात जरुर बदलेंगे। शायद यही वजह थी कि अब्बा अपने अंतिम दिनों में अपने गांव चले गए। जबकि फालिज के असर के कारण वे चल नहीं पाते थे। शबाना कैफी को याद कर रही थीं और अतीत जैसे हमसब के सामने साबूत खड़ा था। जैसे कैफी कह रहे हों उठ मेरी जान.........

सच तो यह है जब अछूत, शोषणग्रस्त जाति कला रचती है तो उसमें सच्ची आग, क्रांति और तड़प होती है,इसकी जिंदा मिसाल इप्टा का वह दौर है जब कला अपने चरम पर थी।  इप्टा  संभ्रांतों के संवेदना से अलग अपनी करुणा, विद्रोह और विचार से कला को आंदोलित कर रहा था। आज फिर से कला को उस उंचाई पर ले जाने की जरुरत है । कला एक निरंतर खोज है। खोज के खतरे हैं,पर इन खतरों के साथ ही कला आगे बढ़ती है।


- निवेदिता 

Sunday, May 24, 2015

Peoples' Culture Day Message

Peoples' Culture Day Message released by IPTA National President Ranbir Sinh on the eve of Peoples’ Culture Day 24th May, 2015 at Bihar IPTA Office, Kaifi Azmi IPTA Cultural Centre, #701-B, Ashiana Chambers, Exhibition Road, Patna.
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Peoples' Culture Day: 25 May 2015

Message

When on 25th May, 1943 the foundation was laid of Indian Peoples’ Theatre Association; it was an auspices day, as Indian Theatre was fortunate to get a powerful theatre movement. There was a special thought and purpose in founding Indian Peoples’ Theatre Association (IPTA). Foremost it was to fight against the colonial rulers and won over freedom. The purpose was to use theatre as a weapon for creating social and political awareness among the peoples of India. To spread the message of unity of all among the peoples, the essence of Ganga-Jamuni Culture which has been the strongest foundation of India. This mission was most admirably done by the members of IPTA of that era. We should honour and respect the courage, the boldness and speech and action of our comrades who opposed the outrageous foreign rule and inspired the people to rise against the colonial masters. This was the admirable contribution of IPTA in the fight for freedom.

On the 15th August 1947, at midnight when the national flag was hoisted on the ramparts of Red
National President of IPTA releasing the PCD Message
Fort, 
an important responsibility fell upon our shoulders. It was difficult task to present through our plays and songs that keep the national Flag flying, to keep the unity in diversity. The Ganga-Jamuni culture work for betterment of society by showing the evils of society, make the people aware and force them to think and eradicate them. IPTA has tirelessly worked by presenting socially relevant plays. But for centuries it has been the characters of times to change, for the better or for the worse. But our past leaders have taught us that those who change the colours for benefit of self, like chameleon are weaklings. Today for IPTA it has become very important that the members must seriously think that whatever, in whatever manner they are working is it having an impact on the society. Have we reached the multitude of people. Lately many forces have immerged which IPTA need to oppose, but we must take stock of our weapons, are they socially strong, do they talk about the suffering of the common man and above all are they strong and sharp enough to attack.

I am of the strong opinion that we should celebrate the day of 25th May as a cultural day. Of course on the day we must present our plays, but at the same time we must give a thought that how can we serve the society of the present day. Theater always speaks about the present day. We must understand the present atmosphere where the corporate world is spreading it wings. We must understand the condition of the farmers. We must know whether the common man is happy or is faced with the difficulties for his mere existence. We must understand all these factors. It is only then that we will be able to choose our plays and songs to fight the evil forces and make the life of the people happy and purposeful. Our plays should not be vehicle of mere entertainment but present the real pictures of society in such a manner that the society itself is forced to ask the question why this is happening. To raise the questions WHY is the most important aspect of a socially relevant theatre. Theatre only asks the questions, it is for the society to change itself. Today the society is standing at the cross road, not knowing which way to go. In one side there is the attack of corporate which wants to capture everything. There are attacks on our culture by which our unity and the strong foundation of Ganga-Jamuni culture is in danger of being destroyed. Religion is being exploited, history is being changed. IPTA cannot be a silent spectator. It has to raise its voice. It has to show the right path to the society. It has to full fill its responsibility.

It will be utterly foolish to dig our necks deep under the sand, like an ostrich and do not apprehend the danger which is the hovering over our heads. There is the conspiracy to curb the power of speech. The Dramatic Performance Act of 1876 may be introduced in some other garb.

IPTA was born as a movement is a weapon of social change. At that time she was alone, and times were different. There was only one enemy the British Rule, now the enemy is within. Todays’ IPTA will have to adopt the same zeal courage, the power of speech of old, but talk to the present society in the indium that it understands. The words do have the way of getting lost in the atmosphere. It is the constant and deliberate effort that creates Impact. This is achieved by movement. IPTA was a movement and should always be kept as a movement and a weapon of social change.


          Peoples’ Culture Long Live!                                                IPTA Long Live!!

                                                                                       
                                                                                    Ranbir Sinh
                                                                                     National President, IPTA


जनसंस्कृति दिवस संदेश

इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रणबीर सिंह ने जनसंस्कृति दिवस की पूर्व संध्या पर 24 मई, 2015 को बिहार इप्टा कार्यालय, कैफी आज़मी इप्टा सांस्कृतिक केन्द्र, #701-बी, आशियाना चैम्बर्स, एक्जीबिशन रोड, पटना से जनसंस्कृति दिवस संदेश जारी  किया।

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जनसंस्कृति दिवस: 25 मई 2015

संदेश 

25 मई, 1943 हिन्दुस्तान के थियेटर में एक बहुत अहम तारीख है। उस दिन ‘इप्टा’ की स्थापना हुई। हिन्दुस्तान को एक ताकतवर थियेटर मूवमेंट मिला। इप्टा की शुरूआत के पीछे खास मकसद था। एक खास विचार था। मकसद था काॅलोनियल हुकुमत से आज़ादी पाना। गंगा-जमुनी कल्चर की विचारधारा को जनमानस तक पहुँचाना। एकता का संदेश देना। नाटको और गीतों के जरिये सामाजिक चेतना का प्रचार करना। यह काम इप्टा ने बखुबी किया। आज के दिन हम अपने बुजुगों को उनकी हिम्मत, उनके जोश, उनकी बुलंद आवाज को सलाम करते हैं।

15 अगस्त, 1947 को लाल किला की दीवार पर आजाद हिन्द का झण्डा फहराया गया। उसी दिन हमारे
जनसंस्कृति दिवस सन्देश जारी करते राष्ट्रीय अध्यक्ष रणबीर सिंह
कंधों पर एक बड़ी जिम्मेदारी आन पड़ी। वह थी कि किसी हालत में इस झण्डे को झुकने ना दिया जाये। आजादी हासिल होने के बाद उसे कायम रख पाना, आजादी पाने से भी ज्यादा मुश्किल होता है। गंगा-जमुनी कल्चर में दरार न आने पाये। दिल में जोश, दिमाग में विचार, आँख से आँख मिलाने की ताकत, सिर ऊँचा करके चलने की हिम्मत बरकार रहे। किसी हद तक हमने अपनी जिम्मेदारी निभाई। मगर जमाने का दस्तुर है बदलना। इप्टा के रहनुमाओं ने हमको यह सिखाया था कि कमजोर हैं वो जो गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं। आज यह जरूरी हो गया है कि हम इप्टा के कलाकार इस बात पर विचार करें कि क्या हम अपनी जिम्मेदारियों को सही तौर पर निभा रहें हैं? क्या हमारी दशा और दिशा सही है? क्यों और ताकतें उभर कर आ रही हैं? क्या हमारे हथियार नाटक और गीत उनके मुकाबले के लिए सही और धारदार हैं?

इसलिए मेरी सोच है कि हम 25 मई को जनसंस्कृति दिवस के तौर पर मनायें। यह जरूरी है कि हम अपने नाटकों और गीतों का जनता के सामने प्रदर्शन करें। मगर यही जरूरी है कि आपस विचार करें कि किस तरह से आज के माहौल को देखते हुए अपने ख्यालों को किस तरह से आवाम के सामने पेश करें। थियेटर एक समाज को बदलने का ताकतवर हथियार है। उसे किस तरह से काम में लायें इस पर विचार करना बहुत जरूरी है। यह जानना जरूरी है कि किस तरह से काॅरपोरेट जगत हावी होता जा रहा है। कैपिटलिज्म के स्वागत में बिगुल बज चुका हैं। किसानों की जो हालत हो गई है, उनकी जमीन छीनी जा रही हैं, हमें उनके हालत को समझना होगा, आवाम की रोजमर्रा की जिन्दगी क्योंकर खुशनुमा नहीं है इसको जानना होगा। ये सवालात हैं जिनके जवाब में हमें ‘क्यों’ में चाहिए। ऐसा क्यों हो रहा है? हम आईना तो हाथ में लिये ही हुए हैं मगर यह जानना बेहद जरूरी है कि तस्वीर किसकी और कैसे पेश करें। जब तक हम आवाम की मुश्किलों, उसकी परेशानियों को ना जानें यह करना मुमकिन नहीं। हम सब को आपस में चिंतन करना होगा। आज कल्चर/संस्कृति पर हमला हो रहा है। इतिहास को बदला जा रहा है, भला हम कैसे चुप रह सकते हैं? हमें अपनी आवाज उठानी होगी। कल्चर पाॅलिसी की बात करनी होगी। यह काम जरूरी है और इप्टा ही ऐसी संस्था है जो इस काम को कर सकती है। हमें अपनी जिम्मेदारी को समझना होगा।

शुतुरमुर्ग की तरह अपनी गर्दन जमीन में छुपा कर बैठना खतरनाक है। आज फिर उसी तरह से हमारी जुबान की आजादी पर खतरा है। 1876 का कानून किसी भी शक्ल में हो, उसे लागू करने की कोशिश की जा रही है। उसका मुकाबला करने के लिए हमें तैयार होना होगा।

इप्टा जब शुरू हुई तो वह एक मूवमेंट था। उस वक्त इप्टा अकेली थी। उसका रूप-रंग अपना निराला था। हमें रूप-रंग को उस अंदाजे-बयां को फिर से अपनाना होगा। यह बात हमें अच्छी तरह से समझना होगा की कि इप्टा एक मूवमेंट है, जो हमेशा हमेशा आवाम की जिन्दगी की बेहतरी के लिए सदियों तक चलती रहेगी। हमें अपना शौक पूरा नहीं करना। हमारा समाज के साथ कमिटमेंट है उसे ईमानदारी के साथ निभाना है। इप्टा एक मूवमेंट है और उसे मूवमेंट की तरह रखना होगा।

             जनसंस्कृति जिन्दाबाद!                                                                   इप्टा जिन्दाबाद!!

                                                                                                      रणबीर सिंह
                                                                                                         राष्ट्रीय अध्यक्ष, इप्टा 

Friday, May 22, 2015

जनता का रंगमंच और चुनौतियाँ

बिहार इप्टा के 15वें राज्य सम्मेलन पर 4 अप्रैल, 2015 को दो राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित हुईं। नाटकों के संबंध में अवसर और चुनौती पर केन्द्रित राष्ट्रीय संगोष्ठी-1 ‘जनता का नाटक और चुनौतियां’ विषय पर वरिष्ठ अभिनेता जावेद अख्तर खाँ ने आधारपत्र प्रस्तुत किया। संगोष्ठी की अध्यक्षता इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष व वरीय नाटककार रणबीर सिंह ने की तथा कई वक्ताओं ने अपने विचार प्रस्तुत किये। चर्चा-विमर्ष में आये विचारों को समेकित करते हुए जावेद अख्तर खां ने अपने आधार पत्र को समेकित किया है।
अध्यक्षमंडल के सदस्यो, बिहार इप्टा के राज्य-सम्मेलन के प्रतिनिधियो, मित्रो और साथियो! 
जननाट्य अथवा जनता के रंगमंच की चुनौतियों पर विचार-विमर्श ‘इप्टा’ की स्थापना के समय से, या यों कहना चाहिए, उसके पूर्व से ही चल रहा है. लेकिन, सन 2015 में जब हम इस बहस की पूर्व-परंपरा को देखते हैं और आज की स्थिति पर विचार करते हैं, तो कई विरोधाभास नज़र आते हैं. जब यह बहस शुरू हुई थी, यानी तब से जब से विश्वस्तर पर कला कला के लिए या कला जीवन के लिए विषय पर बहस-मुबाहिसा शुरू हुआ, तो बौद्धिक स्तर पर, और कुछ हद तक ज़मीनी स्तर पर भी, जनपक्षीय विचारों का सिलसिलेवार विजय-अभियान दीखता है. ‘इप्टा’ की स्थापना के समय 1943 में जब हम इस बहस को पाते हैं, या जब आज़ादी हमें अधूरी लगती है, या फिर जब संसदीय राजनीति में वामपंथ के क़दम जमने लग जाते हैं - तब ‘जन-नाट्य’ के आदर्शों को लेकर और उनको यथार्थ धरातल पर उतारने में हमारा यक़ीन बढ़ता हुआ दीखता है. लेकिन, ठीक वैसा ही यक़ीन, या फिर वैसा ही सिलसिलेवार बौद्धिक विजय-अभियान 2015 में कहीं नज़र नहीं आता. जैसे हमने आज़ादी के पहले साम्राज्यवाद के संकट और फ़ासिस्ट उभार के ख़िलाफ़ विश्व जन-उभार में अपनी भूमिका पहचानी थी, आज़ादी के बाद समाजवाद के स्वप्न को धरातल पर उतारने के लिए क़दम बढ़ाए थे, अपने (‘इप्टा’ के) पुनर्गठन के समय नई चुनौतियों की व्याख्या करते हुए आगे बढ़े थे, मुझे लगता है कुछ वैसी ही विषम परिस्थिति से आज हमारा सामना है और तब ज़ाहिर है, जननाट्य या जनता के रंगमंच की चुनौतियों को इस विषम परिस्थिति के सन्दर्भ में नए सिरे से समझना और अपने लिए नए रास्ते की खोज करना ज़रूरी हो जाता है.
यह बात दुहराने की नहीं है, मित्रो, कि 1990 के बाद से ही नई परिस्थितियाँ दुनिया, और विशेष रूप से हमारे देश के सामने उपस्थित हुई हैं, उन्होंने मिलकर एक नया नक्शा ही सामने खड़ा कर दिया है, जिस नक्शे में अपनी मुक्ति की खोज इतिहास की नई व्याख्या से जुड़ी है. 1990 और उसके बाद न केवल यह कि सोवियत संघ का विघटन हुआ, समाजवाद के सपने बिखरे; बल्कि नई आर्थिक परिस्थिति से भी सामना हुआ. इस उत्तर-आधुनिक दौर में सूक्ष्म प्रौद्योगिकी और संचार क्रान्ति ने हमें पूँजीवाद के सबसे ज़्यादा चमचमाते संजाल के सामने ला खड़ा कर दिया है. भारत में इस वैश्वीकरण ने अपना एक चक्र पूरा कर लिया है. जो बातें अभी तक छिपी हुई थीं, अब खुलकर सामने आ चुकी हैं. नई टेक्नोलॉजी, संचार क्रांति, कंप्यूटर, इंटरनेट के साथ कॉरपोरेट पूँजी, खुले बाज़ार, आवारा पूँजी ने पूरे आत्मविश्वास के साथ भारतीय शासक वर्ग के साथ अपना ताल-मेल बैठा लिया है. विकास और सुशासन के जुमले से लैस चमकती हुई भारतीय राजनीति का जो चेहरा अभी हमारे सामने है, उसने भारतीय मध्यवर्ग को पूर्णतया दिग्भ्रमित कर रखा है. यह बात ध्यान में रखनी है, मित्रो, कि जननाट्य की अवधारणा का विकास भारतीय मध्यवर्ग के नेतृत्व में ही हुआ. अब यह वर्ग जनता के रंगमंच की अवधारणा के विकास का नेतृत्व करने में अक्षम हो चुका है. निकट भविष्य में हम किसी ऐसे समय की सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं, जब सम्पूर्णता में उपभोक्ता-मात्र में तब्दील हो गया भारतीय मध्यवर्ग नई कल्पना और आदर्श को उत्प्रेरित करेगा!

इतिहास के हर निर्णायक मोड़ पर नेतृत्व हमेशा नई और स्वतन्त्र मेधा ने किया है. याद दिलाने की ज़रूरत नहीं है, वह चाहे होमी जहांगीर भाभा हों, या हीरेन मुखर्जी, या फिर सज्जाद ज़हीर हों, या नम्बूदिरीपाद (ऐसे दो-चार नहीं, अनेक नाम हैं)—ये सभी अपने समय की नई पीढ़ी के सबसे बेहतरीन दिमाग़ थे. 2015 की नई पीढ़ी के सबसे बेहतरीन दिमाग़ इस समय कहाँ हैं? क्या उनके लिए हमारी अपनी क़तार के बीच कोई जगह है? क्या ये दिमाग़ पूरी तरह नई पूँजी के अधीन हो चुके हैं? अगर यह सच है, तो पिछले एक दशक के भीतर ही दुनिया-भर में उभरे नए क़िस्म के जन-आन्दोलनों (जैसे, अरब उभार-Arab Spring-, आक्युपाई वॉलस्ट्रीट, रंगभेद के ख़िलाफ़ फ्रांसीसी जन-उभार, अण्णा-आन्दोलन आदि-आदि) का नेतृत्व मुख्यतः नई पीढ़ी के इन्हीं दिमाग़ों ने कैसे किया?! इसका मतलब है, हमें जनता के रंगमंच की नई सैद्धांतिकी के विकास में नई पीढ़ी की इसी स्वाधीन मेधा को अपने भीतर जगह देने, उभारने और अंततः नेतृत्व सौंपने की ओर बढ़ना होगा. मेरा विचार है कि हमें इस चुनौती को अपनी प्राथमिकताओं में सबसे आगे रखना चाहिए. इस चुनौती को हम ऐसे देखते हैं. नई संचार क्रान्ति, कंप्यूटर, इंटरनेट और नए मीडिया का विस्तार, फ़ेसबुक और ट्विटर – इन सबने मिलकर कई तरह से नई पीढ़ी को उन्मुक्त किया है. इनसे जुडी नई संकल्पनाएँ सामने आ रही हैं, और निश्चित रूप से नए संकट भी खड़े हो रहे हैं. जहाँ नई संकल्पनाएँ जन्म ले रही हैं, वहाँ से जनता के रंगमंच की नई सैद्धांतिकी के सूत्र खोजे जा सकते हैं. अधिक तो नहीं, लेकिन ऐसे कई उदाहरण हमें मिल रहे हैं, वैश्विक समझवाले और नई टेक्नोलॉजी में माहिर नौजवान चमचमाते कैरियर को छोड़कर जनता के बीच जनता की समस्याओं के हल के लिए लड़ने का विकल्प खोज रहे हैं. विज्ञान, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र आदि ज्ञानुशासन से जुड़ी नई पीढ़ी की यह स्वाधीन मेधा पूर्व राजनीतिक धारणाओं से मुक्त है और यही सबसे बड़ी पेचीदगी है. क्या इस पेचीदगी को हम संबोधित कर पा रहे हैं? एक लम्बे समय तक जननाट्य-आन्दोलन को कम्युनिस्ट विचारधारा और कम्युनिस्ट पार्टी ने उत्प्रेरित किया है. यह नई मेधा ख़ुद को मार्क्सवादी विचारधारा और कम्युनिस्ट पार्टी से कितना जोड़ पा रही है? मार्क्सवादी विचारधारा का स्फुरण और कम्युनिस्ट पार्टी की उत्प्रेरणा अरब-स्प्रिंग, ऑक्युपाई वॉलस्ट्रीट जैसे नई तरह के आन्दोलनों के सन्दर्भ में कितनी और कहाँ तक रही है!? स्पष्ट है, वर्तमान में जनता के रंगमंच की चुनौतियों की समझ बनाने के लिए सबसे पहले हमें कुछ ऐसे ही नए सवालों से रू-ब-रू होना होगा.

मित्रो, जैसे लोकतंत्र विकसित होता है, लोक की हर स्तर पर भागीदारी से, वैसे जनता का रंगमंच बिना जन-भागीदारी के कैसे संभव है! यह काम लोकतांत्रिक लड़ाई के काम से अलग नहीं है. इस विस्तार में जाने का अवकाश प्रस्तुत आलेख में नहीं है कि शासक वर्ग द्वारा जन-अधिकारों में कैसे कटौती की जा रही है, या न्याय से वंचित जनता का बड़ा हिस्सा कैसे भयानक अभाव और ग़रीबी की मार झेल रहा है, या फिर 1990 के बाद इस देश में किसान लगातार आत्महत्याएँ क्यों कर रहे हैं, क़ातिल कैसे न केवल खुले-आम घूम रहे हैं, वे सत्ता के शीर्ष पर बैठे हैं—इसी तरह की अन्य बातें आपकी जानी हुई हैं और आप इन बातों, या अन्य छूट गई बातों को अपनी बहस में लाएँगे; फ़िलहाल हम इन सब बातों को प्रस्तुत विषय की एक अनिवार्य पृष्ठभूमि के रूप हमेशा ध्यान में रखेंगे. बहरहाल! रंगमंच, जो जनता की बेहतरी के लिए हो, जनता को नई उत्प्रेरणा दे, उसे स्वयं उसका अपना चेहरा दिखाए—कुल मिलाकर ‘जनता के लिए रंगमंच’ हो, यहाँ तक तो बहस की गुंजाइश नहीं है और यह एक स्पष्ट धारणा है. लेकिन, मेरी चिंता रंगमंचीय क्रियाकलाप में जनता की व्यापक और हर स्तर पर भागीदारी से जुड़ी है. जनता द्वारा रंगमंच को कैसे गढ़ा जा रहा है—मेरे लिए यह एक महत्वपूर्ण विचार-बिंदु है. यह आप जानते हैं, भारत की लोक-रंग-परंपरा वास्तव में जनता की व्यापक भागीदारी का परिणाम रही है. जनता ने ख़ुद अपना रंगमंच गढ़ा है. मुझे इस बात को लेकर कोई भ्रम नहीं है कि पारंपरिक लोकरंगमंच ही वर्तमान में जनता का रंगमंच है, सन 2015 में आकर और ज़्यादा स्पष्ट होकर हमें समझ लेना होगा कि ‘जनता के रंगमंच’ का मतलब 12वीं-13वीं शती में विकसित व्यापक जन-भागीदारी वाला लोकरंगमंच नहीं है. लेकिन इस उदाहरण को सामने रखने से हमें अपने रंगमंचीय कार्य-भार की जटिलता और दुरूहता तथा अपनी तैयारी की सीमा का ज़रूर एहसास होता है, इसलिए ‘जनता के रंगमंच’ के सन्दर्भ में ‘लोकरंगमंच’ का उदाहरण हमें सामने रखना होगा. उससे सीखते हुए, लेकिन उसकी सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए. यही बात हमारे अपने जननाट्य के पुराने अनुभव के साथ भी है और बादल सरकार, ग्रोतोव्स्की, हबीब तनवीर, उत्पल दत्त, दिल्ली जननाट्य मंच आदि के रंगकर्म के सन्दर्भ में भी है.

इस बहस को हम एक दूसरे कोण से भी समझें. रंगमंच का सम्बन्ध अपने समय-स्थान-समुदाय से होता है. वर्तमानकालिकता, स्थानीयता और सामुदायिकता के भीतर ही वास्तविक रंगमंच का सृजन होता है. हमारे भीतर अपने समय-स्थान-समुदाय की अवधारणा की पहचान  जितनी गहरी, खरी और सटीक होगी, हम जनता के रंगमंच के सृजन में उतने की सक्षम होंगे. जितना कुछ हमारे आस-पास घटित हो रहा है, जिन घटनाओं से हमारे आस-पास के साधारण जन के दिल और दिमाग़ जुड़ रहे हैं, उनकी बुनियादी समझ के बिना हम जनपक्षीय रंगकर्म का सृजन नहीं कर सकते. रंगमंच पर सब कुछ वर्तमान में घटित होता है, अतीत की गाथाएँ भी, भविष्य का यूटोपिया भी! इन सबका सम्बन्ध जनता की सामुदायिक स्मृति से भी है. इस स्थापना के दो-तीन सूत्र निकले जा सकते हैं. घटनाएँ हमारे सामने जो हो रही हैं, वे कितनी वास्तविक हैं, या कितनी आभासी, या सबसे बढ़कर वे कितनी छिपाई गई हैं, या विकृत की गई हैं. यह समझना बेहद ज़रूरी है, केवल मीडिया-निर्भरता हमें वास्तविक घटनाओं से कितनी दूर ले जा रही है, या मीडिया द्वारा घटनाओं के बारे में हमारी समझदारी कितनी नियंत्रित की जा रही है! अपने समय को समझना इस पृष्ठभूमि में कठिन श्रम, स्पष्ट बौद्धिक समझदारी के साथ घटनाओं के बीच एक रिपोर्टर की तरह रहना है. एक ऐसे समय के साथ हमारी मुठभेड़ है, जब सूचनाएँ उतनी आ नहीं रही हैं, जितनी छिपाई जा रही हैं, या जिनकी अनदेखी की जा रही है. इस संजाल को भेदने के लिए मुक्तिबोध के शब्दों में ‘सुराग़रसां’ की नज़र विकसित करनी होगी. हमें केवल पारंपरिक लोकगाथाओं के विस्मृत नायकों की खोज नहीं करनी है, वर्तमान में ही दफ्न की जा रही अनेक सचाइयों का पता लगाना होगा, और सबसे बढ़कर उन विचलित कर देनेवाली सचाइयों से रू-ब-रू होने के लिए अपनी आँखों में साहस भी पैदा करना होगा. यह एक हाशिमपुरा या शंकरबिगहा की सचाइयाँ नहीं हैं, अनगिनत सचाइयों की बात है, जो हमारे आस-पास ही ज़मींदोज़ कर दी गई हैं. जनता की सामूहिक स्मृतियों में जाना और उसे उनकी याद दिलाना जनता के रंगमंच की पहचान है. न केवल यह, बल्कि जैसा बर्तोल्त ब्रेख्त ने एक स्थान पर लिखा है, हमें रंगमंच पर वैसी घटनाएँ दिखानी होंगी, जो लोग देखना नहीं चाहते. मैं यहाँ ब्रेख्त का एक पूरा उद्धरण उनकी महाशय ब की कहानियाँ से दे रहा हूँ:
 कला कैसी होनी चाहिए – इस चिर-परिचित थीम से महाशय ‘ब’ भी जूझा करते. साहित्यकार पीटर हैक्स के साथ एक बातचीत के दौरान उन्होंने अपना मत व्यक्त करते हुए कहा कि कला का काम जानकारी देना होना चाहिए. हैक्स ने इस मत पर संदेह व्यक्त किया.
 महाशय ‘ब’ ने कहा-‘एक ख़ास अखबार में एक कॉलम निकलता है, जिसका शीर्षक रहता है—जिसे अधिकांश लोग नहीं जानते—वस्तुतः वही कला की असली थीम है.
 क्षण-भर बाद इसमें इज़ाफ़ा करते हुए उन्होंने कहा—लेकिन शायद यह कहना ज़्यादा बेहतर होगा- जिसे अधिकांश लोग जानना ही नहीं चाहते.
अपने यथार्थ की अनदेखी कर रहे लोगों के बीच उसी यथार्थ की परतें उधेड़ कर सामने लाना हमारे रंगमंच का कार्य-भार है. हम यथार्थ का सामना करने के बजाय उससे नज़रें चुराते हैं. ऐसे में यह संभव नहीं कि एक बेहतरीन रंगमंच का सृजन हो सके. दरअसल, वर्तमानकालिकता का जनता के रंगमंच के सन्दर्भ में यही मतलब है.
जनता के विभिन्न हिस्सों को रंगकर्म का हिस्सा बनाना एक कठिन कार्य है, लेकिन असंभव नहीं है. यह अपनी स्थानीयता की समझ के साथ जुड़ा है. रंगमंच की जड़ें अपने स्थान में गड़ी होती हैं. रंगमंच के सन्दर्भ में ‘स्थानीयता’ मात्र रंग-स्थली नहीं है. जब हम अंग्रेज़ी में ‘theatre space’ कहते हैं, तो इसका यही अर्थ निकलता है, जबकि ‘स्थानीयता’ का सम्बन्ध उस विस्तृत जन-क्षेत्र से है, जहाँ वह पूरा परिवेश फैला हुआ है, जिसके भीतर हमारा अपना पूरा समय व्यतीत होता है. इसे इस तरह समझें, और चूँकि इसका सम्बन्ध हमारे अपने सामूहिक अनुभव-कोष से है, इसलिए इसे और भी स्पष्टता से समझना ज़्यादा ज़रूरी है. जैसे मेरे अनुभव-क्षेत्र में पहाड़ और समुद्र नहीं आते, पहाड़ और समुद्र का मेरा निजी अनुभव एक सैलानी का है. लेकिन, जब मैं यह कहता हूँ कि मेरे रक्त-माँस-मज्जा का बेशतर हिस्सा भोजपुरी स्थानीयता से निर्मित है, तब ज़ाहिर है वह पहाड़-समुद्र से तत्वतः भिन्न है. इस स्थानीयता का सम्बन्ध हमारे आस-पास की पूरी प्रकृति, उस बसावट में रहने वाले तमाम लोगों की आदतों, बोलचाल और भंगिमाओं से है. एच. कन्हाईलाल ने एक बार बताया था कि हमारे नगर के अभिनेता हमारी जनता के लिए अजनबी-जैसे हैं, क्योंकि उनकी भाव-भंगिमा का बहुत-कुछ अपनी खाँटी स्थानीयता से निर्मित नहीं है. इसको उन्होंने एक उदाहरण से समझाया, जैसे जब हमारे आधुनिक महानगर के अभिनेता अभिनय करते हैं, तो मंच पर वे ‘नहीं जानने’ के भाव को कंधे उचकाकर व्यक्त करते हैं, जो दरअसल ‘I don’t know’ की युरोपीय भंगिमा है, जिससे भारतीय जनता का बतौर दर्शक अलगाव बना रहता है. यही बात हमारे रंगमंच में प्रयुक्त होनेवाली उच्चरित भाषा के सन्दर्भ में भी है. आज जब वैश्वीकरण की बात की जा रही है, तो इसका मतलब यह भी है कि हमारी स्थानीयता संकट में है. कुछ लोग कहते हैं- think global, act local, यानी आपका सोच वैश्विक हो, लेकिन आपकी सक्रियता स्थानीय हो. रंगमंच पर अपने समय की ही नहीं, अपने स्थान की विशिष्ट छाप भी होती है, इसी स्तर पर वह जनता से जुड़ता है. एक ही तरह का रंगमंच यदि हर तरफ़ दिखने लगे, इसका मतलब ही है कि इस जनपक्षीय विधा पर खतरे मंडरा रहे हैं. एक ही तरह की रुचि, आस्वाद, व्यवहार, भाव-भंगी, बोली, पहनावा—वैश्वीकरण और उपभोक्तावाद का लक्ष्य है. जनता का रंगमंच इस वैश्वीकरण के विरुद्ध स्थानीयता का प्रतिरोध है.

(बिहार इप्टा के राज्य-सम्मेलन – 3-5 अप्रैल, 2015 में बहस के लिए प्रस्तुत आधार-पत्र)

n जावेद अख्तर खां
                                    संपर्क: javednatmandap@gmail.com
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जनता का संगीत और चुनौतियाँ

विश्व प्रसिद्ध जन लोक गायक-कवि-संगीतकार पीट सीगर ने कहा कि दुनिया का भविष्य आशावादी तथा सकारात्मक कथाओं की खोज और उनको प्रचलित करने में निहित है।
भाई जीतेन्द्र रघुवंशी आप भी तो निरंतर इसी काम में लगे रहे | आपके बग़ैर किसी भी विषय और ख़ास तौर पर कला के प्रगतिशील पक्षों और मुद्दों पर लिखना या अनुवाद करना अब मेरे लिए एक बड़ी चुनौती है... खैर...
लेख आपको ही समर्पित
आपने मुझे
पीट सीगर और पॉल रोब्सन से मिलाया
अमर शेख और विनय राय से मेरा परिचय कराया
और न जाने किससे किससे.....
यूं तो बहुत याद आते हैं
हमेशा की तरह
इसे लिखते हुए भी बहुत..बहुत..बहुत याद आये
कई बार फ़ोन की तरफ़ हाथ भी बढ़ाए
अनायास.... !!
भारत में जन संगीत के इतिहास पर गौर करें तो मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि इस परंपरा का चलन आज़ादी की लड़ाई के साथ शुरू हुआ परन्तु उस समय के गीतों का आधार मुख्यतः लोक संगीत था जिनमें आवाहन गीत भी शामिल रहते थे | ये ज़रूर है कि कुछ आवाहन गीतों में तत्कालीन आधुनिक संगीत का भी प्रयोग हुआ परन्तु ऐसे गीत उस जन संगीत परंपरा से प्राय: अलग थे जिसकी शुरुआत भारत में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटिश साम्राज्यवाद और फ़ासीवाद विरोधी आन्दोलन के दौरान भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की स्थापना के साथ पूरी उर्जा और मज़बूत इरादों के साथ हुई | ये वो समय था जब बंगाल अकाल की विभीषिका झेल रहा था और इप्टा के साथी वामिक जौनपुरी के कालजयी जनगीत भूखा है   है बंगाल रे साथी भूखा है बंगाल जैसे जनगीतों और अमर गायक विनय राय के लोक संगीत की मधुरता और जीवट से भरी आवाज़ का परचम लेकर पूरे हिन्दुस्तान से बंगाल को अंग्रजी हुकूमत द्वारा निर्मित कृत्रिम अकाल और संकट से निकालने का आवाहन करते हुए गाँव-गाँव शहर-शहर घूम रहे थे | इस सिलसिले में सलिल चौधरी एक अत्यंत महत्वपूर्ण नाम है जिनका कहना था कि जन गीतों में सरप्राइज़ एलिमेंट होना चाहिए | उन्होंने उस समय तक प्रचलित पारंपरिक जन संगीत के ढाँचे और प्रस्तुतीकरण में परिवर्तन लाकर पाश्चात्य वाद्यों व कोरस का समावेश किया | घूम भान्गानोर गान या नींद से जगाने वाले गीत, जागरूकता के गीत, किसान आन्दोलन, छात्र आन्दोलन, तिभागा आन्दोलन आदि के लिए उन्होंने गीत लिखे और समय की आवश्यकता को समझते हुए आधुनिक संगीत के मुहावरों से संगीतबद्ध भी किया | 1946 से 1951 के बीच तेलंगाना, तिभागा और नौसेना विद्रोह आदि आन्दोलनों में इप्टा के हिंदी, उर्दू, तेलगू, बंगला, मलयालम व अन्य भाषाओँ में सैकड़ों जनगीतों की रचना हुई जिन्हें इप्टा की टोलियाँ के साथ हज़ारों-हज़ार आन्दोलनकारी किसान और मज़दूर भी गाते थे | यही वो समय था जब शैलेन्द्र, फैज़, वामिक जौनपुरी, कैफ़ी आज़मी और बहुत से रचनाकारों की क़लम से लगातार ऐसे गीत निकल रहे थे जो विषम स्थितियों और संघर्षों के बीच इप्टा के माध्यम से  जन-जन में ब्रिटिश हुकूमत और दमनकारी ताकतों के विरुद्ध उर्जा का संचार कर रहे थे|

गोष्ठी का एक दृश्य
विषय के विस्तार में जाने से पहले प्रतिरोध संगीत की आधार भूमि नीग्रो संगीत की चर्चा करना आवश्यक प्रतीत होता है जिसे इस्प्रिचुअल्स (Spirituals) या नीग्रो स्प्रिचुअल्स (Negro spirituals) के नाम से भी जाना गया | मौखिक परंपरा वाला यह गीत-संगीत मूलतः अमरीका के अफ़्रीकी दासों द्वारा रचा गया जिसमें ईसाई धार्मिक मूल्यों के साथ गुलामों के जीवन की विसंगतियों और कठिनाई का ज़िक्र होता था | लोरियां और कामगारों के गीत भी इस शैली का एक अहम् हिस्सा रहे हैं | नीग्रो स्प्रिचुअल्स धार्मिक सम्मिलन के बहाने छिपे तौर पर श्वेत अमरीकी संस्कृति के विरुद्ध सामाजिक-राजनैतिक प्रतिवाद का माध्यम भी रहे |  अमरीका का यह संगीत आज पूरी दुनिया में एक विशिष्ट विधा के रूप में जाना जाता है | उन्नीसवीं सदी के अंत तक आते-आते धुर दक्षिण अमरीका के अफ़्रीकी-अमरीकी समुदायों के बीच ब्लूस संगीत (Blues music) की उत्पत्ति हुई जो पारंपरिक अफ़्रीकी व योरोपियन लोक संगीत तथा स्प्रिचुअल्स के साथ और किन तत्वों से  मिलकर बना उस पर भी एक नज़र डालना ज़रूरी है:-
  • काल एंड रेस्पोंस (Call and response) - शब्द व संकेतों द्वारा बोलने और सुनने वालों के बीच तात्कालिक सम्प्रेषण जिसमें श्रोता अपने हाव-भाव या इशारों से वक्ता को बीच-बीच में रोकते हैं,
  • वर्क सोंग (Work song) - किसी विशेष काम को करते वक़्त गया जाने वाला गीत जिसमें उस काम से सम्बंधित बात भी हो सकती है या विरोध के स्वर भी,
  • फील्ड होलर्स (Field hollers) – गुलामों की चीख़ें और आर्तनाद, आकारहीन या कभी-कभी शब्दहीन मानवीय ध्वनि या स्वर जिनके द्वारा अपनी भावनाओं  को अभिव्यक्त करना जैसे हह, हईया, होह, हूप, हाह या कोई टूटा-फूटा  वाक्य जो उनकी ज़रूरतों के बारे में बताता हो – किसी अनजाने दास को उसके साथियों द्वारा  चीखों और प्रतिक्रियाओं  के माध्यम से उकसाना कि कपास के खेतों और तारपीन के शिविरों में काम करने वाले गुलामों की भी एक सामाजिक भूमिका और जीवन हो सकता है - यह गतिविधि काल एंड रेस्पोंस तथा वर्क सोंग के काफी करीब है,
  • रिंग शाउट्स (Ring shouts) - गुलामों का इसाई धर्म स्वीकार करते वक़्त एक गोले में घुमते हुए चिल्लाना – पश्चिम अफ्रीका के मुस्लिम गुलामों द्वारा काबा की तरह तवाफ़ की नक़ल करना और
  • चैंट्स (Chants) -  निश्चित ताल में निबद्ध धवनियों या शब्दों का संगीतमय उच्चारण या गान। बाद में यह विधा रिदम एंड ब्लूस के नाम से जानी गयी जिसके गीत-साहित्य में अफ़्रीकी-अमरीकी लोगों के दुःख-तकलीफ़, आज़ादी की जुस्तजू, ख़ुशी की इच्छा, हार-जीत, सफलता-असफलता, आपसी सम्बंध, आर्थिक स्वतंत्रता, लिंग असामनता, रूमानियत, अभिलाषा और आकांक्षा का ज़िक्र होता था | बीसवी सदी की शुरुआत तक बिना किसी वाद्य के एकल प्रदर्शन वाला ये संगीत  अमरीका में अफ़्रीकी लोगों की आज़ादी की पहचान बना जिसमें धीरे-धीरे गिटार, ड्रम, बॉस गिटार जैसे वाद्य भी शामिल हो गए | इसाई धार्मिक मूल्यों के बखान की जड़ों से जन्मा ब्लूस संगीत जिसका अंकुर ढके-छिपे प्रतिरोध से प्रस्फुटित हुआ आज सम्पूर्ण विश्व में करोड़ों लोगों का प्रिय संगीत है जो व्यवसायिक हो जाने के बाद भी जन संगीत के मंच पर मज़बूती से अपनी जड़े जमाये हुए है | हमारे देश में शायद ही ऐसा कोई उदाहरण मिले जब ईश्वर की स्तुति गान में ही मनुष्य ने अपनी लौकिक आज़ादी की लड़ाई के रास्ते तलाश किये हों | जहाँ जन व लोक संगीत से जुड़े कलाकार रोज़ी-रोटी के लिए कोई और काम करते या तलाशते नज़र न आयें | ये सब अत्यंत विडम्बना पूर्ण है |  ब्लूस, रॉक या जैज़ जैसी संगीत विधाओं का जन्म ही विरोध और जीवन स्थितियों को बेहतर बनाने के संघर्ष से हुआ जहाँ मनुष्य ईश्वर और शोषक दोनों से एक साथ संवाद करता हुआ कहता है.... हे इश्वर मुझे जाने दो  और ये भी कि... ए मिस्टर मुझे जीने दो | इस संगीत को सीखने-सिखाने के लिए उन देशों में कितने ही प्रशिक्षण केंद्र, अकादमियां और स्कूल है | इसके बरक्स भारत में प्रचलित जन संगीत मूलतः यहाँ की लोक संस्कृति से उपजा जहाँ जीवन स्थितियों को अपनी नियति या भाग्य मानकर विडम्बनाओं की अभिव्यक्ति विरोध की तुलना में अधिक मुखर रही | ऐसे में अच्छे और विधिवत प्रशिक्षण की तरफ़ ध्यान न जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
हम खुश होते हैं तो संगीत का आनन्द लेते हैं मगर जब दुखी होते हैं तब गीत के अर्थ और आशय से भी सम्बन्ध बनाते  हैं | सांगीतिक धुनों व ध्वनियों के माध्यम से अपने आस-पास से लेकर वृहद् दायरे तक की स्थितियों को समझा और जाना जा सकता है | ये संगीत ही है जो तमाम तरह के भेद-भावों के बावजूद सबको एक धरातल पर ले आता है | अगर दुःख-सुख की अभियक्ति के बारे में सोचें तो कितनी बार ऐसा होता है कि किसी रचनाकार की पीड़ा या उल्लास से उपजी कोई धुन निज से व्यापक होकर पूरे समाज को प्रेरित करने लगती है और यही जन संगीत बन जाता है | संगीत जटिलताओं को सुलझा कर चरित्र और संवेदनाओं को निखारते हुए दुःख, चिंता और अवसाद में एक आशा की किरण जगाये रखता है | संगीत जो समय और मृत्यु से प्रबल है हमें आपस में जोड़े रखता है | ख़लील जिब्रान के कथन कि संगीत आत्मा की भाषा है का सीधा तात्पर्य हमारी संवेदनशीलता, तर्क शक्ति, बुद्धि, विवेक, बेदारी और जागरूकता से है | आज दुःख-तकलीफें, असमानता, शोषण, वर्ग संघर्ष, जातियों के दकियानूसी और जटिल ताने-बाने, ग़रीबी, भूख, वर्चस्व की लड़ाई, युद्ध, प्राकृतिक संसाधनों पर एकाधिकार और ऐसी ही तमाम अमानवीय स्थितियां हैं जिनसे विश्व की कुल जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा जूझ रहा है और उसे ईश्वर की इच्छा जैसे तिलस्म में फंसा कर जीने को मजबूर किया जा रहा है | जन संगीत ऐसे ही तिलस्मों को तोड़ता हुआ आम जन को अपनी लड़ाई लड़ने के लिये लगातार प्रेरित करता है | ढोलक की थाप, हारमोनियम की स्वर लहरी या अन्य वाद्यों के साथ मिलकर प्रभावशाली स्वरों और ताल में निबद्ध कविता और गीत जब पूरी उर्जा, प्रतिबद्धता और मज़बूत इरादों के साथ गायक मंडली के संगठित और समवेत स्वर शोषकों को ललकारने के साथ  रहस्यों और षडयंत्रों को खोलते , जटिलताओं और कठिनाइयों को पछाडते, संवेदनाओं को उत्प्रेरित करते हुए एक ऐसे उर्जा स्रोत का काम करते हैं जो भय को परास्त कर जन-जन को हिम्मत और साहस से भर देता है | 

संगीत और विशेष कर जन संगीत लोगों को संवेदना के स्तर पर एक गहरी समझ देकर उन्हें बेहतर बनने की दिशा में भी प्रेरित करता है और यही तत्व जब निज से व्यापक होता है तब दुनिया को बदलने की प्रक्रिया भी गतिमान हो जाती है | सलिल चौधरी, पीट सीगर, बॉब डिलन, बॉब मारले, लुई आर्मस्ट्रोंग, रवि नागर, पॉल रोब्सन, अमर शेख़, विनय राय, हेमोंगो विश्वास, प्रेम धवन, राजबली यादव, आशुतोष, ज्योतिविंद मित्र और ऐसे कितने ही गायक-संगीतकार हैं जिनका संगीत यह बताता है कि हमें कैसा इन्सान होना चाहिए और यह दुनिया कैसी हो |

हर व्यक्ति के निजी सुख-दुःख और तकलीफें हो सकती हैं मगर उम्मीदों, चाहतों और पीड़ा  का सम्बन्ध तो सबसे है | संगीत इन भावों और संवेदनाओं को अपने में समाहित कर सम्पूर्ण मानवता को व्यापक फलक पर रख देता है – समय और जगह से परे | इस प्रक्रिया में लोक और जन संगीत की भूमिका हमेशा से महत्वपूर्ण रही है | घास काटते या हल चलाते किसान के मन में कुछ हुआ और एक गीत फूट पड़ा | लोक गीतों में कोई किसी से अलग नहीं होता - कड़ी से कड़ी जुडती जाती है, पीढ़ी दर पीढ़ी नए अभिप्राय शामिल होते जाते हैं | जिसने भी गाया अपने समय और सामजिक स्थितियों के हिसाब से कुछ जोड़ दिया | यहाँ सह-अस्तित्व के पीछे का सामजिक आग्रह अमूर्तन और धार्मिक भाव से हटकर  लौकिक और यथार्थ की तरफ आना है जो जीवन के सहज प्रवाह और मानवीय संवेदनाओं से उपजता है - अनायास - जिसके सृजन का आधार मूलतः कोई राजनैतिक विचारधारा नहीं बल्कि जीवन स्थितियों का बयान है जिसके माध्यम से किसी भी क्षेत्र के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक परिदृश्य को समझा जा सकता है | वहीं जन संगीत राजनैतिक स्थितियों और विचारधाराओं के द्वन्द से पैदा होता है जिसका विकास लोक संगीत को अपने में समाहित करने के साथ आवश्यकतानुसार  उसकी सीमाओं का अतिक्रमण करने और जनता की भागीदारी के बगैर संभव नहीं है | इस बिंदु पर लोक और जन संगीत एक दूसरे के पूरक, प्रतिवेदक और कभी-कभी पर्यायवाची भी बनते नज़र आते है | लोक और जन के समसामयिक सामंजस्य से उपजी उर्जा का प्रभाव ही अलग होता है |


जन संगीत एक किस्म का आवाहन भी है जो आम जन की रोज़मर्रा ज़िन्दगी से प्रेरित होता है और जिसमें प्रयुक्त होने वाला साहित्य और भाषा भी उसी दैनिक जीवन से ही निकलती है | साथ ही दुनिया के तेज़ी से बदलते परिदृश्य, अभिरुचियां और प्राथमिकतायें प्रगतिशीलता के सन्दर्भों को भी प्रभावित करती चलती है जिसके प्रति जन संगीत से जुड़े लोगों को विशेष रूप से जागरूक होने की ज़रुरत है | संगीत एक सामजिक स्पेस बनाता है जिसका प्रतिनिधत्व बहुत सी परम्पराओं के माध्यम से होता है | यह स्पेस हमें विषमताओं के प्रति अपना विरोध दर्ज कराने और आवाज़ उठाने का मंच भी मुहैया कराता है | यद्यपि संगीत के मनोविज्ञान पर हमारे देश में बिलकुल भी काम या शोध नहीं हुआ है परन्तु ये समझना ज़रूरी है कि हम जिन दर्शकों-श्रोताओं से मुखातिब हैं उनकी सामूहिक चेतना की दिशा और दशा क्या है और कैसी है ?


पीट सीगर
हिंदुस्तान में संगीत की बहुत समृद्ध और लम्बी परंपरा रही है मगर तकलीफ देह बात यह है कि हमारे देश में व्याप्त सामाजिक व आर्थिक भेद-भाव, अशांति, वर्ग संघर्ष, साम्प्रदायिकता और ऐसी ही तमाम मनुष्यता विरोधी  स्थितियों से उपजी बेचैनी उस स्तर पर संगीत से नहीं जुड़ पाई जैसे दुनिया के अन्य कई देशों में हुआ जहाँ के बहुत से जनगीत पूरी दुनिया में दशकों से प्रासंगिक हैं | संदर्भवश यहाँ पूरी दुनिया में प्रसिद्द और सम्मानित जन लोक गायक और कवि पीट सीगर के कुछ गीतों की चर्चा करना आवश्यक प्रतीत होता है | उनके 1973 के अल्बम रेनबो रेस में  बच्चों का एक लोक गीत है  माई रेनबो रेस  जिसमें वह कहते है कि आज़ादी का कोई शार्ट कट नहीं है.. बच्चों जाओ और अपने माता-पिता को बताओ कि जो कुछ भी हमें कुदरत से मिला है उसे शेयर करने का हमारे पास आखिरी मौका है | उसी वर्ष नार्वे में लिलेबिओन निलसन ने इस गाने को नॉर्वेजियन में चिल्ड्रेन ऑफ़ द रेनबो के नाम से एडाप्ट किया | 26 अप्रैल 2012 को उसी नार्वे में जन हत्यारे आंद्रे बेहरिंग ब्रेइविक द्वारा कोर्ट में दिए गए उस बयान के विरोध में निल्सन के नेतृत्व में इसी गाने को 40000 नॉर्वे वासियों ने राजधानी ओस्लो में गाया जिसमें आंद्रे ने इस गीत को ज़बरदस्ती बच्चों की सोच बदलने वाला मार्क्सवादी हथियार कहा था | यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है जन संगीत समय और भौगोलिक सीमाओं से निकल कर अन्याय और दकियानूसी सोच को किस प्रकार से चुनौती देता हुआ दुनिया को बेहतर बनाने की प्रगतिशील लड़ाई में  अहम् भूमिका निभाता है | जन संगीत की शक्ति को गहराई से समझने वाले तबियत से आज़ाद ख्याल और विचारधारा से सोशलिस्ट दुनिया के संभवतः सबसे प्रसिद्द जन गायक पीट सीगर द्वारा रचित और शायद पूरी दुनिया में  सबसे अधिक गाया जाने वाला गीत  वी शेल ओवर कम  जो हम होंगे कामयाब के रूप में हमारे देश में क्या बल्कि पूरे दक्षिण एशिया में प्रचलित है अमरीका में 60 के दशक में नागरिक अधिकार आन्दोलन का मार्चिंग गीत बन गया | सीगर ने फ्रैंक हैमिल्टन और गाई केरवान के साथ मिलकर इस आवाहन गीत को ओल्ड गोस्पेल संगीत की एक स्तुति आई विल ओवर कम  से रूपांतरित किया था जिसे दक्षिण केरोलिना में तम्बाकू के कामगार गाते थे | इसके अलावा उन्होंने वेस्ट डीप इन द बिग बडी, ब्रिंग देम होम (वियतनाम युद्ध के खिलाफ़), इफ़ आई हैड अ हैमर और आई हैड अ गोल्डन थ्रेड जैसे गीत लिखे जो देश-काल की सीमा से निकल कर आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं | व्हेअर हैव आल द  फ़्लावर्स गोन भी उनका एक ऐसा गीत है जो उन्होंने नोबल पुरस्कार विजेता मिखाइल सोलोखोव के प्रसिद्द उपन्यास एंड क्वाइट फ़्लोस द डॉन के एक गीत से प्रेरित होकर लिखा जिसे बीसवीं सदी में दोन नदी के किनारे रहने वाले कोज़ैक सेना में भरती होने के लिए भागते वक़्त गाते हैं | 



हिदुस्तान की बात करें तो रवि नागर का आज़ादी, शलभ का नफ़स-नफ़स क़दम-क़दम, जीवन यदु का मेरी गली में ख़ुशी ढूंढते अगर कभी जो आना तुम, हम मेहनतकश जब दुनिया से अपना हिस्सा मांगेंगे, मानवता के दुश्मन को आओ हम पहचान लें, हमारे वतन की नयी मंजिलें हों, ये किसका लहू है कौन मरा, दरबार-ए-वतन पर जब एक दिन, समाजवाद भैया धीरे-धीरे आई, कि मेरे लिए काम नहीं और बहुत से जनगीत हैं जो वर्तमान भारतीय सन्दर्भों में जन संगीत की दिशा तय करने में सहायक हो सकते हैं | इनके अलावा मुझे नहीं लगता कि पिछले 3-4 दशकों में वर्तमान आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और सांप्रदायिक स्थितियों-परिस्थितियों को केंद्र में रख कर ऐसे गीत लिखे गयें हो जो राष्ट्रीय फलक पर जन संगीत के रूप में उभरे और जिनकी धुनें शब्दों के साथ एक रस होकर और दर्शकों से सीधा संवाद बनाने में सफल रही हों | आज़ाद भारत में क्षेत्रीय स्तर पर तो बदलते परिदृश्य के जन गीत मिल जायेंगे मगर राष्ट्रीय परिदृश्य में स्थितियां संतोष जनक नहीं हैं |

आज जन संगीत की स्थिति उस राजकुमारी जैसी हो रही है जो सो गयी है या यूं कहें कि उसे सुलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी | हमें न केवल इसे जगाना है बल्कि वर्तमान जीवन के साथ घुल मिलकर आगे भी बढ़ना है –अपनी पहचान और  मौलिकता छोड़े बिना – अपनी मधुरता  और लयात्मक विशेषता को खोये बिना हमें नवीन और नवीनतर शैलियाँ रचनी हैं – जहाँ स्वर समूहों के चुनाव और धुन संरचना की प्रक्रिया भौगोलिक बंदिशों से मुक्त हो | हर दौर अपने समय के संगीत के साथ आगे बढ़ता है – उस समय के सांस्कृतिक यथार्थ के साथ |  आज के दौर में जन संगीत को प्रभावी तरीके से लोगों तक पहुँचाने के लिए हमें धुनों का आधुनिक मुहावरा गढ़ना होगा | अपने देश की लोक धुनों के साथ-साथ रॉक, जैज़, रेगे, रिदम एंड ब्लूज़ जैसे संगीत को भी आत्मसात करना होगा क्योंकि ग्लोबलाईज़ेशन के साथ ग्लोकलाईज़ेशन भी आज के समय का यथार्थ है | ताइवान में बहुत से दूर-दराज़ इलाकों में हार्ड मेटल आज परिचर्चा का विषय बन गया है | वहां के समाज की मुख्य धारा से दूर बहुत से क्षेत्रों ने इस फॉर्म को लोकलाइज़ करके स्थानीय मिथ, भाषा और साजों के साथ जोड़कर अपनी लड़ाई का माध्यम बनाया है | आज की पीढ़ी गीतों को उनके शब्दों और संगीत की भावना से नहीं बल्कि धुन की चाल और बीट के माध्यम से ज्यादा समझ रही है | यद्यपि यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है परन्तु यही मांग है वर्तमान दौर के जन संगीत की और चुनौती भी | फ़्यूज़न के इस दौर मे हम उत्तर आधुनिकता के कितने ही विरोधी क्यों न हों जन संगीत के धरातल पर फ़्यूज़न न सही मगर कम से कम  फ़िज़न के विचार पर गंभीरता से सोचना ही पड़ेगा | ऐसा करने से हमारा वैचारिक धरातल डगमगा जायेगा ऐसा बिलकुल भी नहीं है क्योंकि अगर हम लोक प्रतिनिधित्व के आईने में देखें तो 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद अब हमारे पास खोने को कुछ भी नहीं बचा | हाँ खोज और सृजन की संभावनाएं अपार है | संगीत और विशेषकर जन संगीत की पहुँच, प्रभाव और प्रवाह एक निरंतर प्रक्रिया है जो बदलते समय और सन्दर्भों की कठिन डगर पर भी अबाध गति से चलती और विकसित होती रहती है | इतिहास गवाह है कि साहित्यिक व शास्त्रीय नाटकों का संगीत केवल उसी परिधि तक सीमित रहता है जबकि आधुनिक और जन नाटकों का संगीत उनके कथानक और कार्य-व्यापार से परे अपना व्यापक अस्तित्व भी बना लेता है |  ये जन संगीत ही है जो बताता है कि हमारी अब तक की यात्रा कैसी रही | किन स्थितियों से गुज़रते और संघर्ष करते आज कैसे वर्तमान में खड़े हैं हम – और आगे का जीवन कैसा हो | |


लोक गीत और कम से कम लोक धुनें तो कालातीत होती हैं मगर जन संगीत के बारे में हम ऐसा नहीं सोच सकते | जन संगीत समसामयिक आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक स्थितियों पर अधिक निर्भर होता है | हम अगर आज़ादी की लड़ाई का सन्दर्भ लें तो जो जनगीत उस वक़्त बहुत ही कामयाब, पुरअसर और प्रचलित थे और आज़ादी के कई बरसों बाद तक भी एक हद तक प्रभावी बने रहे धीरे धीरे अपना असर खोते गए | सन्दर्भ और समय के साथ परिस्थितियां बदलीं और खुले बाज़ार का बेलगाम घोडा ऐसा दौड़ा की सब कुछ उसकी गति और चमक में धुंधला पड़ गया | मानवीय जीवन से जुड़े मूल्य और सपने तेज़ी से परिवर्तित होने लगे, सामुदायिकता की जगह प्रतिस्पर्धा ने ले ली | लोग तरह-तरह के खांचों में बट गए | ऐसी स्थिति में जन शब्द का अर्थ ही बिखरता दिखाई दे रहा है | शहरों के साथ साथ गावों में भी कमोबेस यही हुआ | ऐसे में :-
  • एक खेत नहीं, एक गाँव नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगे |
  • सुर्ख  सितारा | चमक रहा 
  • समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आई |
  • हम जो तारीक़ राहों में मारे गए |
  • नाहीं अंगना तोहार उजिआर भौजी
  • इस चादर पर बरस रही नक्सल बाड़ी की बदली
  • भोजपुर पटना की माटी छोड़ रही है कजली  
या ऐसे ही बहुत से  जन गीत जो बहुत प्रभावी  और प्रचलित रहे आज के सन्दर्भों और आम जनता की वर्तमान मानसिकता के आगे कितने औचित्यपूर्ण हैं हमें सोचना होगा | यही बात धुनों और ध्वनियों के साथ भी लागू होती है | आज ढोलक, हारमोनियम या ढपली की आवाज़ किसी भी जन समूह को इतनी अपनी  नहीं लगती कि वो अनायास उस दिशा में खिंचा चला आये | स्थानीयता का विचार अपनी जगह पर है फिर भी हमें वैश्वीकरण और इंटरनेट के प्रभाव को ध्यान में रखना ही होगा | संदर्भ एक से हो सकते हैं मगर समय तो निश्चित रूप से बदल  गया है | जनता वाद्यों, ध्वनियों और प्रस्तुति के माध्यम से हो रहे कार्य-व्यापार से अपने आप को जोड़ कर देखती है | मंच हो, नुक्कड़, सड़क, चौराहे, फैक्ट्री या कोई भी सार्वजनिक स्थल,  हमारे पास हारमोनियम, ढोलक या ढपली के साथ कम से कम एक स्पैनिश गिटार भी होना ज़रूरी है | गिटार मूलतः चरवाहों का साज़ है इसलिए हमारी लोक पक्षधरता का भी संकट उत्पन्न नहीं होगा बल्कि आधुनिकता की बयार से प्रभावित वर्तमान पीढ़ी आपकी बात सुनने आये इसकी सम्भावना बढ़ अवश्य जाएगी | कहीं कहीं तो बरसों से चले आ रहे गीतों की  पुनर्व्याख्या या पुनर्पाठ की आवश्यकता भी महसूस होती है | उदाहरण के तौर पे देखें तो गोरख पाण्डेय रचित समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई, हाथी प आई घोडा प आई जैसा व्यवस्था पर प्रखर कटाक्ष करने वाला  गीत जनवादी सम्मेलनों तक में हास-परिहास और मनोरंजन का विषय बनकर अपनी मौलिक भावना से दूर हो गया है |  जीवन स्थितियां चाहे जैसी हो दृष्टिकोण में बहुत परिवर्तन आया है—चाहे अच्छा या बुरा, निगेटिव या पोजिटिव ...पहले प्रेमचंद के यहाँ क़र्ज़ में डूबा किसान था जो आज भी है | लोन की रस्सी से जकड़े मध्यम वर्ग ने एक और समुदाय रच दिया | हमें समझना होगा की क़र्ज़ में डूबा किसान अपनी स्थितियों के लिए ख़ुद ज़िम्मेदार नहीं है मगर लोन के फंदे में फंसा मध्यम वर्ग अपनी हालत के लिए स्वयं ज़िम्मेदार है |

ऐसे में हमें नए मुहावरे, उपकरण, ध्वनियाँ और साहित्य गढ़ना होगा जो बाज़ार के तिलस्म, लोन के लालच और चकाचौंध के माहौल को तोड़ने में सक्षम हों जिसमें कुछ भी साफ़ नज़र नहीं आता | बहुत ही पेचीदा और जटिल माहौल गढ़ दिया है पूंजीवाद ने | पहले व्यवस्था के पेंचो-ख़म भी बहुत उलझे और छुपे एजेंडे  के साथ नहीं होते थे मगर आज उसकी योजनायें इस क़दर पेचीदी और शातिर होती हैं कि उनको समझने और फिर सांस्कृतिक आन्दोलनों या जन संगीत के ज़रिये उनको उजागर करना आसान नहीं है | 1991 से पहले कार्पोरेट जगत और उद्योग की नीतियाँ सरकार तय करती थी लेकिन जुलाई 1991 के बाद ये प्रक्रिया एकदम उलट गयी और बड़े-बड़े औद्योगिक घराने और सम्पूर्ण कार्पोरेट जगत सरकारी नीतियों की दिशा तय करने लगे | आज उपभोक्तावादी संस्कृति, साम्प्रदायिकता, शोषण और भ्रष्टाचार जैसी चुनौतियों के साथ पर्त दर पर्त धोखा, फ़रेब, झूठ ,लालच  यहाँ तक कि जिंदा रहने का सवाल भी मुंह बाये खड़ा है | इतनी चुनौतियाँ हैं कि सम्हलना मुश्किल हो रहा है  | आज राहें वैसी तारीक़ नहीं हैं जहाँ कितना भी अँधेरा हो कम से कम क्षितिज पर कुछ उजाला तो रहता ही है या अमावस की रात में हज़ारों लाखों मील दूर होने के बावजूद भी तारों की मिली-जुली चमक रौशनी की उम्मीद तो बनाये ही रखती है | इससे उलट हज़ारों वाट में जगमगाती  भौतिकता के आगे न क्षितिज साफ़ दीखता है न ही तारों की उम्मीद भरी रोशनी | इतनी चकाचौंध में वो तारीक़ राहें भी कहीं गुम सी हो गयी हैं जिनपे चलकर हम ‘ तेरे होठों की फूलों की चाहत में  दार की ख़ुश्क टहनी पे वारे जायें... या... तेरे हाथों की शम्मों की हसरत में नीम तारीक़ राहों में मारे जायें....!! यहाँ तो कोई राह ही नज़र नहीं आती |
अभी ताज़ा उदाहरण लें तो केंद्र सरकार का भूमि अधिग्रहण बिल जिसका मोटे और स्थूल स्तर पर विरोध भी हो रहा है | अगर हम इसे सिर्फ़ गाँव और किसानो का मामला समझें तो ऐसा नहीं है | इसके  खिलाफ़ कोई भी आन्दोलन नए नाटक, नए गीत-संगीत और कहानी-क़िस्सों के सृजन की मांग करता है जिनका कथ्य, शिल्प और ध्वनियाँ भी नयी हों जो दर्शकों को अपने साथ जोड़कर व्यवस्था के षड्यंत्र और उसके पीछे की राजनीति को उजागर करने की मुहिम में सार्थक और सहायक भूमिका निभाएं | उन गीतों, नाटकों या नारों से बात नहीं बनेगी जिनका इस्तेमाल 1991 और उसके बाद के दौर में डंकल, बीजों के पेटेंट और खुली र्थव्यवस्था के विरोध में किया गया था | हम अक्सर कथ्य तो बदल लेते हैं लेकिन शिल्प की तरफ बिलकुल भी ध्यान नहीं देते बल्कि ज़्यादातर पुराने स्वरुप में ही नए विषय या सन्दर्भ को फिट करते हैं जो हमारे उद्देश्य और प्रदर्शन की धार दोनों को भोथरा करता है | 

जन संगीत सीधे-सीधे एक खास किस्म की विचारधारा से जोड़ कर देखा जाना भी एक बड़ी चुनौती है | जनगीत-संगीत या नाटकों का प्रदर्शन कर रहे कलाकार यानि की वामपंथी या सीधे कम्युनिस्ट | व्यापक तौर पर जनता तक अपनी बात पँहुचाने के लिए हमें इसका हल ढूंढना है | जन संगीत को राजनैतिक पोस्टरिंग से बचाने और एक निश्चित दायरे से मुक्त करना होगा जहाँ प्रस्तुत या प्रदर्शित किये जा रहे गीत-संगीत को स्थानीय संस्कृति और वहां की जीवन स्थितियों के सन्दर्भ के साथ व्यापक फलक पर देखा-समझा जाय न कि एक खास विचारधारा के प्रतिनिधि के रूप में | शब्द और धुन ऐसी बात कहें जो सभी की संवेदनाओं को झकझोरे | जो सुनने वालों या देखने वालों को अपनी अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धता के बावजूद एक धरातल पर ले आये जहाँ मनुष्य और उसके जीवन की बेहतरी के लिए सब एक जुट हों -  संगठनकर्ता, कलाकार और दर्शक सब | इन्कलाब की बात करने से पहले उस घेरे से निकलना होगा जिसके बाहर हम एक जागरूक और समाजोन्मुख संस्कृतिकर्मी के रूप में स्वीकार किये जायें |

जन संगीत हमें जागती आँखों से स्वप्न देखने के लिए प्रेरित करता है – विगत की विवेचना की तरफ ले जाता है और एक बेहतर दुनिया की संरचना का आवाहन भी करता है – साथ ही उन जगहों, उन लोगों, उन रास्तों और यात्राओं से भी जोड़ देता है जहाँ हम उस वक़्त नहीं होते | संगीत की सिफ़त ये है कि एक ही वक़्त में कई काम एक साथ करता है | इसी सिफ़त को वर्तमान सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक सन्दर्भों के केंद्र में रखते हुए इसके साथ चलना होगा  – अपनी निजता और मौलिकता छोड़े बिना | हमारे यहाँ जन संगीत के विकास और नए मुहावरे गढ़ने का काम भी बहुत कम हुआ | अफ़्रीकी-अमरीकन संगीत में जहाँ एक तरफ़ लुई आर्मस्ट्रांग शिकायत करते हैं :
व्हाट  डिड आई डू
टु बिकम सो ब्लैक एंड ब्लू
माई ओनली सिन इज़
माइ ब्लैक स्किन

वहीँ दूसरी तरफ मडी वाटर्स ने एक गीत लिखा जिसमें जेम्स ब्राउन, रे चार्ल्स, जॉन ली, ओटिस रेडिंग के साथ क्वीन विक्टोरिया भी गा रही हैं;
आल यू पीपुल, यू नो द ब्लूस गोट अ सोल
वेल दिस इस अ स्टोरी, अ स्टोरी नेवर टोल्ड
वेल यू नो द ब्लूस गोट प्रेग्नेंट  
एंड दे नेम्ड द बेबी रॉक एन रोल
क्वीन विक्टोरिया सेड इट
यू नो द ब्लूस गोट अ सोल
वेल द ब्लूस हैड अ बेबी एंड दे नेम्ड द बेबी रॉक एन रोल


क्या पारंपरिक और लोकप्रिय संगीत को एक धरातल पर रखा जा सकता है या फ़िल्मी संगीत को, जिसकी पहुँच जनता में सबसे ज्यादा है, जन संगीत कहा जा सकता है?  धरती के लाल, नया दौर, दो बीघा ज़मीन, दो बूँद पानी, शहीद और ऐसी ही तमाम फ़िल्में जिनके गीत-संगीत ने लाखों जन भावनाओं को एक धरातल पर खड़ा कर दिया क्या जन संगीत नहीं है | यहाँ आधुनिक भारत के नेहरूवियन माडल से प्रेरित फ़िल्म नया दौर का ज़िक्र विशेष रूप से करना होगा जिसमें औद्योगीकरण / मशीनीकरण और हाथ की मेहनत के बीच संघर्ष का एक सशक्त उदाहरण पेश किया गया था | उसका गाना साथी हाथ बढ़ाना , एक अकेला थक जायेगा मिलकर बोझ उठाना या दो बीघा ज़मीन के गीत धरती कहे पुकार के, गीत गा ले प्यार के  जैसे गीत क्या जन संगीत नहीं हैं ? न जाने कितने गाने हैं जो हमारे आन्दोलन का हिस्सा बन सकते थे मगर इसका निर्णय जनता के बीच जाकर गाने वाले कलाकारो के बजाय उनके हाथों में था जो कमोबेश जन संगीत को समझते तो थे मगर उसकी ताक़त से वाकिफ़ नहीं थे | ताज्जुब यह है कि प्रगतिशील आन्दोलन के पुरोधाओं ने हमेशा ऐसे गीत-संगीत को दोयम दर्जे में रखा और उससे दूर रहने की सलाह देते रहे | पूरे प्रगतिशील आन्दोलन के इतिहास को देखें तो एक ऐसा वर्ग भी हमेशा से मौजूद रहा जो जन संगीत पर पाश्चात्य संगीत के प्रभाव का विरोध करता नज़र आता है बगैर इस  तथ्य को समझे कि लोक और उपशास्त्रीय संगीत की मेलोडी पद्धति के साथ पाश्चात्य संगीत की हारमनी और कोरस का मिश्रण जनगीतों के सामूहिक प्रभाव और व्यापकता को कई गुना बढ़ा देता है | इस प्रक्रिया में मार्चिंग धुनों का भी बड़ा योगदान है | संभवतः यही कारण है की अमरीका, योरोप या दुनिया के अन्य कई क्षेत्र जहाँ का जन संगीत कोरस और हारमोनी पर आधारित है श्रोताओं-दर्शकों को जोड़ने और आंदोलित करने में अधिक सक्षम सिद्ध हुआ | अपनी बात को जनता तक पहुँचाने के लिए लोकप्रिय धुनों की रचना और उनका सहारा लेना वक़्त की मांग है जहाँ हम होशियारी और समझ के साथ चुनाव करते हुए धुन की उर्जा और शब्दों की शक्ति के माध्यम से विचार या तथ्य को प्रभावशाली ढंग से प्रेक्षित कर सकते हैं | यह प्रक्रिया भारत में राजनैतिक जागरूकता अभियान अच्छे प्रतिरोध गायकों (प्रोटेस्ट सिंगर्स) की  भी मांग करती है | गिने-चुने नाम छोड़ दें तो यहाँ भी निराशा ही दिखाई देती है |



एक और पक्ष है जिसकी तरफ ध्यान न देना जैसे हमारी राष्ट्रीय प्रवृत्ति बन गयी है और वो है डाक्यूमेंटेशन | हम इस काम के प्रति अपराध की हद तक लापरवाह हैं और मौखिक परंपरा का बखान करते फूले नहीं समाते | जहाँ तक मौखिक परंपरा का सवाल है वो दुनिया के हर क्षेत्र में हमेशा से मौजूद रही क्योंकि जहाँ लोक है वहां इस परंपरा का होना लाज़मी है | ऐसी सभी जगहों पर मौखिक इतिहास और परंपरा को जीवित रखने के साथ डाक्यूमेंटेशन का काम भी पूरी गंभीरता के साथ हुआ | इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण है पीपुल्स सॉंग लाईब्रेरी कलेक्शन जिसका मूल उद्देश्य कामगारों, मजदूरों और अमरीका के लोगों के लिए गीतों की रचना और उनका प्रचार-प्रसार है | बाद में यह संगठन पीपुल्स सॉंग इनकार्पोरेशन के नाम से जाना गया जिसके एक्जीक्युटिव सेक्रेटरी पीट सीगर थे | इस संस्थान का बुलेटिन सभी सदस्यों को भेजा जाता है | इस काम में भी हम सिवाय अफ़सोस जताने के कुछ और नहीं कह सकते जबकि इप्टा की स्थापना के समय से बड़े-बड़े लेखक, कवि, शायर, आलोचक, कलाकार और संगठन करता इससे जुड़े रहे | जन आन्दोलनों के लिए निरंतर परिवर्तित हो रहे परिदृश्य के माक़ूल अच्छे गीतों का एक संगठित स्रोत न होना भी जन संगीत के समक्ष एक बड़ी चुनौती है |      

विरोध की संस्कृति और उसकी अभिव्यक्ति के लिए हमें वैचारिकता और संवेदना से भरे नए उपकरण तलाशने होंगे जो किसी एक निश्चित राजनैतिक विचारधारा से परे अपनी सम्पूर्ण व्यापकता के साथ समाज से संवाद करने में सक्षम हो | लोक संगीत में जादुई शक्ति है जिसके साथ हारमोनी, कोरस और वर्तमान ध्वनियों के यथानुसार समागम से जन संगीत को एक नयी शैली एक नया रंग दिया जा सकता है | हर बदलते समय में संगीत उस समय की लोकधुन का काम करता है | एक सच्चे साथी की तरह सामजिक स्पेस बनाकर व्यवहार, ज़रूरतों, भावनाओं और संवेदनाओ को पूरी विश्व संस्कृति के आईने में उपसंस्कृति या स्थानीय संस्कृति के दायरे को परिलक्षित करने के साथ सूचना देने का एक महत्वपूर्ण माध्यम भी बनता है जन संगीत | उसका प्रस्थान बिंदु स्थानीयता हो सकता है परन्तु उसकी सीमाएं अपार हैं | अन्य  कलाओं की तरह संगीत भी एक सहयोगी माहौल की मांग करता है | आगे बढ़ने और समाज पर स्थायी प्रभाव डालने के साथ सामाजिक परिवर्तन का माध्यम बनने के लिए संगीत को हमेशा ही एक सहायक परिवेश की ज़रुरत रहती है | जन संगीत भी इस प्रक्रिया से अलग रखकर नहीं देखा जा सकता | आज का युवा अध्यात्मिक दरिद्रता के साथ ही पूरा अराजनैतिक भी है जिसकी कोई पक्षधरता नहीं हैं | नोम चोमस्की के नज़रिए से कहें तो कंसेंट मैन्यूफैक्चर के प्रभाव में किसी खास पार्टी या व्यक्ति को वोट देना अलग बात है | मुक्तिबोध का प्रसिद्ध सवाल “पार्टनर तुम्हारी पोलिटिक्स क्या है“ आज और भी प्रासंगिक हो गया है |  ऐसे में राजनैतिक चेतना जगाने के लिए नवाचार के साथ सामजिक और राजनैतिक विमर्श की भी उतनी ही ज़रुरत है | इस पटल पर सारे वामपंथी दल किस दशा में हैं कहने की ज़रुरत नहीं है |

जीवन यदु की कुछ पंक्तियाँ याद आ गयीं -
कभी न अपना एका टूटे
बटमारों की साज़िश से
कभी हमारे पाँव न भटकें
सिर्फ़ आपसी रंजिश में  | |

यह भी एक ऐसी समस्या है जिसके बारे में हमें गंभीरता से सोचना है क्योंकि प्रगतिशील अन्जुमनों की जड़ता और आपसी खींच-तान भी जन आन्दोलनों और उनसे प्रस्फुटित होने वाले जन संगीत की राह में एक बड़ी बाधा है जिसके निवारण की राह पर गहरी धुन्ध छाई है | यहाँ हम पी साईनाथ के पीपुल्स आर्काइव फ़ॉर रूरल इंडिया (परी) का पोटैटो सोंग या प्रेयर टू ए डॉक्टर का उदाहरण ले सकते हैं | यद्यपि इन गीतों की पहुँच और प्रयोजन दोनों ही एक निश्चित क्षेत्र तक सीमित से लगते हैं परन्तु इन्हें वर्तमान सन्दर्भों में व्यापकता के प्रस्थान बिंदु के रूप में देखा जा सकता है |  

हम उतना ही पीछे देखें जितना इतिहास बोध  और जड़ों से जुड़े रहने के लिए ज़रूरी है | लगातार पीछे देखना हमें पत्थर का बना देगा और ऐसा हो भी रहा है जिसका मुकाबला हमें वर्तमान समय की साज़िश समझते हुए करना है | हमें ये भी समझना होगा कि यह एक गंभीर किस्म का काम है जिसके लिए प्रशिक्षण और रियाज़ की ज़रुरत होती है | कोई भी बाजा उठा कर गाने-बजाने लगता है जो पूरे जन संगीत की सार्वजनिक ग्राह्यता के लिए बड़ा खतरा है | अच्छे गुरुओं और प्रशिक्षण संस्थानों की कमी दूसरी बड़ी समस्या है | इस पक्ष पर भी हमें गंभीरता से ध्यान देना होगा क्योंकि जन संगीत एक ऐसा मंच है जहाँ - 
सब आ सकते हैं 
गा भी सकते हैं 
आवाज़ में आवाज़ मिला सकते हैं |

स्वर, शब्द और ताल के प्रति सजग और थोड़ा गंभीर होकर गायें-बजाएं और आवाज़ मिलाएं तो यह प्रक्रिया उन साथियों के लिए अनौपचारिक प्रशिक्षण का काम भी करेगी जिन्होंने संगीत का औपचारिक प्रशिक्षण भले न लिया हो मगर स्वर संवेदना, शब्द शक्ति और लय के प्रवाह को समझते और महसूस करते हैं |
इस चर्चा को विश्राम देने के लिये कुमार अम्बुज की कविता जनगीत से बेहतर फ़िलहाल कुछ भी नहीं सूझ रहा है | किसी भी रचना का एक प्रस्थान बिंदु तो होता ही है जैसे यह कविता  अशोक नगर इप्टा के साथियो के लिए लिखी अवश्य गयी है परन्तु इसका व्यापक फलक  दुनिया भर में बेहतर जीवन के लिए लड़ रहे साथियों के संघर्ष को समेटे हुए है |

जनगीत
जिन तीन लोगों का स्वर अच्छा नहीं है
और वे दो जो बेसुरे हैं
ये सब दूसरी तमाम आवाज़ों के साथ मिलकर
कितने सुरीले लग रहे हैं
और अब एक तूफ़ान खड़ा कर रहे हैं
उनकी उठान देखिये, वे नक्षत्रों तक पहुँच गए हैं
एक शब्द के फेफड़ों में कितने लोग फूँक रहे हैं अपनी सांस
उस शब्द में छिपी ताक़त दिखने लगी है
सोयी हुई पंक्तियों की अंगड़ाई ने रच दी है नयी देहयष्टि
एक पान की दूकान से निकल कर आया है
दुसरे की आवाज़ में सीमेंट की धुल की खरखराहट है
और एक बांसुरी जैसे शरीर में से
नगाड़े की आवाज़ पैदा कर रहा है
ज़िन्दगी ने खंरोंच दी है उसकी आवाज़
और उसे पता नहीं वो क्या कमाल कर रहा है
चीज़ों पर जमा धूल गिर गयी है
और वे चमक रही हैं धातुओं की तरह
मनुष्य ही है जो गा सकता है गीत
दुर्दिनों के बरक्स रखता हुआ अपने स्वप्न
कि बस अब सब कुछ ठीक होने को ही है
और इसे कोई इश्वर वगैरह ठीक नहीं करेगा
आरोह में यह पुकार जो प्रार्थना की खाई में नहीं गिरती
यहाँ याद आती है अनायास गोर्की की एक बात
‘अगर तुममें वह शक्ति नहीं
और वह कुछ करने की तीव्र इच्छा नहीं
जिसकी शिक्षा देता है ये गीत
तो इस गाने भर से कुछ नहीं मिलने वाला !’
संगीत और शब्दों की जुगलबंदी के बहाने
यह याद दिलाने के लिए शुक्रिया
कि उठकर चलने का एक और मौक़ा
ठीक हमारे सामने है.....!!

(बिहार इप्टा के 15वें राज्य सम्मेलन पर 4 अप्रैल, 2015 को दो राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित हुईं। जनसंगीत के अवसर और चुनौती पर केन्द्रित राष्ट्रीय संगोष्ठी-2 ‘जनता का संगीत और चुनौतियां’ विषय पर लखनऊ इप्टा के साथी व संगीतकार अखिलेष दीक्षित आधारपत्र प्रस्तुत किया। संगोष्ठी की अध्यक्षता बिहार इप्टा के कार्यकारी अध्यक्ष व वरीय संगीतकार सीताराम सिंह ने की तथा भिलाई इप्टा के साथ मणिमय मुखर्जी,  अशोकनगर इप्टा के साथी हरिओम राजोरिया सहित कई वक्ताओं ने अपने विचार प्रस्तुत किये। चर्चा-विमर्श में आये विचारों को समेकित करते हुए अखिलेश दीक्षित ने अपने आधार पत्र को समेकित किया है।)
अखिलेशदीक्षित, इप्टा लखनऊ,संपर्क:-ईमेल :   dixitakhilesh.06@gmail.com मो. : 09415425391