Friday, March 27, 2015

किसानी, आत्महत्या आैर रंगमंच

ज़ेबा हसन
खनऊ। हाल ही में शहर आईं फिल्म और टीवी एक्टर इला अरुण ने कहा कि भारत में लोग रंगमंच को नौकरी की तरह नहीं लेते हैं जबकि लखनऊ के पुराने रंगकर्मियों का मानना है कि अगर हम कोई नौकरी न कर रहे होते तो शायद कभी थिएटर न कर पाते। थिएटर में इतना पैसा नहीं है कि लोग सिर्फ रंगमंच के जरिए अपनी जिंदगी चला सकें। आज विश्व रंगमंच दिवस है। इस मौके पर हमने रंगमंच की पुरानी संस्था इप्टा से जुड़े उन लोगों से बात की, जो कभी नीम के पेड़ के नीचे तो कभी गली की नुक्कड़ पर रिहर्सल करते थे। फंड की कमी से झूझते ये आर्टिस्ट कहते हैं कि रंगमंच हमारी जिद है।

सुरमई शाम, नीम का पेड़ और नाटक की रिहर्सल। कैसरबाग स्थित इप्टा कार्यालय में नाटकों का यही अंदाज कई दशक से चला आ रहा है। देश के कई बड़े आंदोलन और गम्भीर मुद्दों के साथ जुड़ी इप्टा संस्था आज भले ही तंगी की मार झेल रही हो लेकिन आज भी इप्टा की शामें उसी अंदाज में लिपटी नजर आती हैं। इप्टा के महामंत्री प्रदीप घोष ने बताया कि 1986 में हमने इप्टा शहर में रिवाइव किया था लेकिन बात नहीं बनी। लोग दूर हो गए और संस्था में एक खालीपन आ गया। 1992 से हमने एक बार फिर एक होकर इप्टा की नींव मजबूत की जो आज तक कायम है। जो जॉब में थे वे अब रिटायर होकर पूरा समय संस्था में गुजार रहे हैं।

एचएएल से रिटायर प्रदीप घोष कहते हैं कि रंगमंच की यहां इतनी बुरी स्थिति है कि अगर थिएटर करने वाला कोई दूसरा काम न करे तो वह थिएटर से घर नहीं चला सकता। मैं नौकरी में था, ऑफिस से छूटते ही कैसरबाग पहुंच जाता था। मुझे फिक्र नहीं थी कि महीने भर बाद अपने परिवार को कैसे खिलाऊंगा। अगर जॉब न होती तो थिएटर का शौक कब का रफूचक्कर हो गया होता। अब तो रिटायर हो चुका हूं। अपना ज्यादा से ज्यादा वक्त यहीं देता हूं। कम उम्र में लगा यह शौक अब जिद बन गया है।

प्रदीप कहते हैं कि हमारे कार्यालय में बहुत सारे पेड़ लगे हैं लेकिन एक नीम का पेड़ है, जिसके नीचे कई बड़े दिग्गजों ने रिहर्सल की है। यहां सिर्फ एक ही कमरा है और हम आज भी उसी नीम के पेड़ के नीचे ही रिहर्सल करते हैं। बस हमने एक बार 25 बाई 25 का चबूतरा जरूर बनावाया है लेकिन छत आज भी नहीं पड़ी। हमें यही खुशी है कि आज भी इप्टा की प्रस्तुती को पसंद किया जाता है। युवा भी हमसे जुड़ रहे हैं। अगर फंड होता तो इप्टा की तस्वीर कुछ अलग ही होती। रंगमंच में पैसा नहीं है और हम ग्रांट मांगने नहीं जाते। हां, हमें डोनर्स जरूर मिल जाते हैं।

इप्टा के कई आंदोलन का हिस्सा रहे राम प्रताप त्रिपाठी कहते हैं कि हम पहले भी किसान थे और आज भी हैं। जब तक लोग आत्महत्या ना करा लें तब तक उन्हें किसान नहीं माना जाता। रंगमच एक तरीका है अपनी बात को जनता तक पहुंचाने और उन्हें कनविंस करने का। इससे अच्छा तरीका और कोई नहीं हो सकता। यही वजह थी कि मैं इससे जुड़ा था। मैंने शॉर्ट फिल्म में भी काम किया है, अब तो पूरा समय बस इसी संस्था को देता हूं। मैं तो यहीं रहता हूं। यही मेरा आसमान है और यही मेरी जमीन। ऑल इंडिया रेडियो से रिटायर एसआर बनर्जी, बैंक से रिटायर राकेश जी और बीएनए से रिटायर जुगल किशोर जैसी हस्तियां यहां अपना समय देती हैं।

रंगमंच दिवस के मौके पर इप्टा में नाटक पागल की डायरी का मंचन किया जाएगा। प्रदीप घोष ने बताया कि करीब 8 साल पहले मासिक श्रंखला का आयोजन हुआ करता था लेकिन किसी कारण बंद हो गया था। विश्व रंगमंच दिवस के मौके पर हम इस नाटक को इसी कार्यालय में करके एक बार फिर से मासिक श्रंखला की शुरुआत कर रहे हैं। यह चीनी साहित्य लुशून की कहानी है, जिसे मैंने ही डायरेक्ट किया है।

नवभारत टाइम्स से साभार

1 comment:

  1. हमें थिएटर को ज़िन्दा रखना ही होगा ....हर हाल में ।

    ReplyDelete