Tuesday, October 28, 2014

विवेचना जबलपुर का इक्कीसवां राष्ट्रीय नाट्य समारोह


.हिमांशु राय की रपट
विवेचना के नाट्य समारोह का यह 21 वां साल था। नाट्यगृह तरंग को रोशनी और रंगारंग बोर्ड से सजाया गया था जो अपनी भव्यता के कारण सभी को आकर्षित कर रहा था। विवेचना के इक्कीसवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह का उद्घाटन जाने माने अभिनेता व निर्देशक श्री अशोक बांठिया ने किया।  इस अवसर पर विवेचना के हिमांशुु राय, वसंत काशीकर, बांके बिहारी ब्यौहार, अनिल श्रीवास्तव उपस्थित थे। मध्यप्रदेश विद्युत मंडल परिवार की ओर से श्री मनु श्रीवास्तव सी एम डी, श्री डी के गुप्ता महासचिव क्रीड़ा परिषद व श्री शैलेन्द्र महाजन, एस पी हरिनारायणाचारी मिश्र, कलेक्टर शिवनारायण रावला उपस्थित थे। श्री अशोक बांठिया ने कहा कि विवेचना का यह समारोह और इसी कारण जबलपुर पूरे देश में जाना जाता है। हिमांशु राय ने नाट्य समारोह और इसमें आमंत्रित नाटकों व निर्देशकों के बारे में बताया। श्री बांकेबिहारी ब्यौहार ने संचालन किया।

ठहाकों के बीच संपन्न हुआ कंजूस नाटक का मंचन

नाट्य समारोह के उद्घाटन के पश्चात् विवेचना के कलाकारों ने ’कंजूस’ नाटक का मंचन किया। यह नाटक फ्रेंच नाटक कार का लिखा 350 साल पुराना हास्य नाटक है जिसके मंचन पूरी दुनिया में होते रहे हैं। हजरत आवारा के द्वारा किए गए इस रूपांतर के मंचन एन एस डी रिपर्टरी ने भी किए हैं।

मिर्ज़ा सख़ावत बेग बुजुर्ग हैं पर दूसरी शादी की ख़्वाहिश रखते हैं। मगर वो चाहते हैं कि लड़की कमउम्र हो, कमखर्च हो और साथ में दहेज भी लाए। उनके पास बहुत पैसा भी है और वो उसे छुपा कर रखते हैं। उनका लड़का फरूख और लड़की अजरा भी शादी लायक हैं उनके भी अपने सपने हैं। पर मिर्जा सखावत बेग की उनकी शादियों के लिए भी अपनी चालें हैं। वो पैसा बचाने के लिए अपनी लड़की अजरा की शादी एक बुजुर्ग असलम से करने की तैयारी में हैं। और एक गरीब लड़की मरियम से खुद शादी करने की फिराक में हैं जो उनके लड़के फरूख की मंगेतर है। इसी बीच नाटकों में संयोगों और गड़बड़ियों की बारिश शुरू हो जाती है। ऐसे ताने बाने और जोड़ तोड़ बनते हैं दर्शक लोट पोट हो जाते हैं। 

नाटक में मिर्जा बने आशीष नेमा, फरजीना बनी दीपा सिंह और अल्फू के रोल में विनय शर्मा ने खूब प्रभावित किया। अजरा के रोल में दीप्ति सिंह, फरूख बने ब्रजेन्द्र सिंह, नम्बू के रोल अक्षय ठाकुर नासिर बने आयुष राय मरियम बनी खूशबू जेठवा, हवलदार बने सीताराम सोनी और असलम के रोल में संजय जैन दलाल बने सौरभ पाठक खूब जमे। नाटक में तपन बैनर्जी का निर्देशन चुस्त था। दर्शकों को हंसाने में कामयाब रहे। संजय गर्ग की मंच व्यवस्था अनुकूल थी।

नियति, भाग्य और कर्म की लड़ाई है मानव जीवन

दूसरे दिन 9 अक्टूबर 2014 को जयपुर की संस्था नाट्यकुलम ने अशोक बांठिया के निर्देशन में ’नियति’ नाटक का भव्य मंचन कर दर्शकों को रसविभोर कर दिया। यह नाटक ग्रीक त्रासदी नाटक ’राजा इडिपस’ का हिन्दी रूपांतर है। यह नाटक ग्रीस का हजारों साल पुराना नाटक है परंतु अपनी कथावस्तु और दर्शन के कारण नाट्य जगत में बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस नाटक में से यह जाहिर होता है कि कर्म बहुत अच्छा होने के बावजूद नियति किस तरह अपना खेल खेलती है। भारतीय दर्शन कर्म और भाग्य की बात करता है। क्या इंसान केवल नियति का खिलौना है और कोई अदृश्य शक्ति हमें नियंत्रित करती है ? इसीलिए मनुष्य अपने कर्माें से अपनी आत्मा के उत्थान के लिए प्रयासरत रहता है। सोफोक्लीज़ ने अपनी अमर रचना के माध्यम से नियति को अंतिम सत्य माना है और मनुष्य को मात्र एक अभागा प्राणी।

राजा इंदीवर इडिपस अकाल, महामारी और तबाही से जूझ रही अपनी प्रजा के लिये व्यथित था। करसन सिंह भैरव देवता से यह खबर लाता है कि इस तबाही का कारण एक अभिशप्त आत्मा है। अपराधी को देशनिकाला दिये जाने या फांसी पर लटकाये जाने पर ही विनाश से बचा जा सकता है। भविष्यवक्ता त्रिकाल बाबा इंदीवर को बताता है कि एक व्यक्ति जिसने अपने पिता की हत्या की है, अपनी मां से शादी की है और जो अपने बच्चों का भाई है, वही असल अपराधी है। और जब तक उसे दंड नहीं दिया जाएगा, इस देश को आपदा से कोई नहीं बचा सकता। इंदीवर जो एक दूसरे देश से आया है उस आदमी को पकड़ने की प्रतिज्ञा करता है। 

यहां से एक ईमानदार,समर्पित इंदीवर जो एक राजा है उसका संघर्ष नियति के साथ शुरू होता है। उसकी खोज परत दर परत नए नए सत्य उद्घाटित करती है। वो राज्य में उस पापी को खोजने के लिए जमीन आसमान एक कर देता है। फिर धीरे धीरे सत्य उद्घाटित होता है। वो ये कि घटनाओं के उपर उसका कोई बस नहीं था। लेकिन सचाई यही है अपराधी वही है। उसी ने अपने पिता की हत्या की और उसी ने अपनी मां से शादी की। हालांकि अनजाने में कहानी बहुत नाटकीय और रहस्यमयी तरीके से नियति के खेल को सामने लाती है।
नाटक में इंदीवर की प्रमुख भूमिका को अंतरिक्ष नागरवाल ने बहुत दमदारी से निभाया। रानी के रोल में गरिमा पारिख और करसन सिंह के रोल में योगेन्द्र सिेह ने प्रभावशाली अभिनय किया।

नाटक का संगीत पक्ष बहुत मजबूत था। गुरमिंदर सिंह पुरी ने अपने संगीत और गायन से नाटक को बहुत उंचाई पर पंहुचाया। नाटक में पूरे स्टेज पर भव्य सैट लगाया गया था जो नाटक के चरित्र के अनुरूप था। नाटक मंे लाइट और कास्ट्यूम बहुत प्रभावशाली थे। नियति एक पूर्ण नाटक साबित हुआ जिसका हर पक्ष बहुत सशक्त था। इसमें सिद्धहस्त प्रशिक्षित कलाकार नहीं थे परंतु सभी ने बहुत सशक्त अभिनय किया। इंदीवर के रोल में अंतरिक्ष नागरवाल ने अपने अभिनय से हर दर्शक को प्रभावित किया। नाटक का सैट ग्रीक नाटकों की तर्ज पर बहुत भव्य था। नाटक के अंत में निर्देशक अशोक बांठिया को श्री हरि भटनागर की पेन्टिग स्मृतिचिन्ह के रूप में प्रदान की गई। नाटक के आरंभ में निर्देशक अशोक बांठिया का अभिनंदन श्रीमती गोपाली चन्द्रमोहन और श्रीमती गीता तिवारी ने किया।

टी वी की बहस में सार्थकता की खोज

तीसरेे दिन 10 अक्टूबर 2014 को मुखातिब थियेटर ग्रुप मुम्बई ने इश्तियाक आरिफ खान के निर्देशन में ’सार्थक बहस’ का मंचन कर दर्शकों का खूब मनोरंजन किया। यह एक व्यंग्य नाटक है पर इसमें इतना कुछ सार्थक कहा गया कि दर्शक लगातार तीखे व्यंग्य का आनंद लेता रहा। नाटक की विशिष्टता इसकी कथा की बुनावट और कलाकारों के अभिनय मंे है। 
भारत के ऐतिहासिक नाटककार भास के द्वारा लिखित नाटक ’कर्णभारम’ और ’उरूभंगम’ का मंचन एक गांव में हुआ। टी वी चैनल केजी टी वी एक कार्यक्रम में यह दिखा रहा था कि उस नाटक के कारण गांव में विवाद हुआ। मीडिया यह दिखा रहा था कि किस तरह से एक मामूली विवाद एक बड़े झगड़े का रूप ले लेता है और जिसके कारण कई लोग बुरी तरह घायल हो जाते हैं। उस इलाके की शांति खतरे में पड़ जाती है। के जी टी वी द्वारा बहस में शामिल होने के लिए कई विद्वानों को बुलाया गया है। पर किस तरह से यह बहस हास्यास्पद हो जाती है यह इस नाटक का विषय है।

पूरे नाटक में टी वी की बहस ही चलती रहती है। इसमें बैठे विद्वान लगातार बोलते रहते हैं। विषय पर कोई नहीं बोलता न कर्णभारम और उरूभंगम नाटकों से किसी को कोई मतलब है। सबसे हास्यास्पद स्थिति तब होती है जब टी वी चैनल के संवाददाता के माध्यम से उस गांव के लोगों को पता चलता है कि गांव मंे झगड़ा हो गया है। क्योंकि कोई झगड़ा हुआ ही नहीं था। कलाकारों को बार बार टी वी पर बोलने के लिए कहा जाता है मगर बोलने नहीं दिया जाता क्यांेकि तब तक आमंत्रित विशेषज्ञ आपस में लड़ने लगते हैं। अलग अलग वि़द्वानांे की भूमिका कलाकारों ने बहुत अच्छे से निभाई और इस सार्थक बहस का परिणाम ये हुआ कि दर्शक बहुत जागरूक होकर प्रेक्षागृह से निकलता है। निर्देशक ने हास्य और व्यंग्य के बहाने दर्शकों तक यह बात पंहुचाने की कोशिश की कि टी वी की बहसों से प्रभावित होकर वे कोई भावनात्मक निर्णय न लें क्योंकि ये बहसें भी इन चैनलों के व्यापार का एक हिस्सा हैं और इनका यथार्थ से कोई संबंध हो यह जरूरी नहीं। निर्देशक का कहना है कि मीडिया जिसकी जिम्मेदारी है कि वो देश को एक सुचिन्तित दिशा दे वही उसे एक भ्रमित, अस्तव्यस्त और अराजकता से भरा देश बना रहा है। हम अपनी धारणा बनाने के बजाए मीडिया से प्रभावित धारणा बना रहे हैं। हमारा हीरो कौन हो ? क्या खाएं ? परिवार और मित्रों के साथ कहां जाएं ? क्या पहनें ? टायलेट में क्या इस्तेमाल करें ? किससे शादी करें ? इस जैसे सभीे प्रश्न भी अब मीडिया ही तय कर रहा है। मीडिया के लिए केवल टीआरपी महत्वपूर्ण है चाहे देश में आग ही क्यों न लग जाए।

नाटक का निर्देशन बहुत कल्पनापूर्ण था। टी वी चैनल का सैट लगाया गया था। सभी कलाकारों ने बहुत सटीक अभिनय से अपनी छाप छोड़ी। वेशभूषा नाटक के अनुरूप थी। नाटक के अंत में नरेश मलिक सहनिर्देशक को श्री हरि भटनागर की पेन्टिग स्मृतिचिन्ह के रूप में प्रदान की गई।

औरंगजेब के भव्य मंचन से दर्शक अभिभूत 

चैाेथे दिन न्यू देहली थियेटर वर्कशाॅप ग्रुप के द्वारा ’औरंगजेब’ नाटक का मंचन किया गया। नाटक की भव्य प्रस्तुति वर्षों याद रखी जाएगी। औरंगजेब का किरदार निभा रहे महेन्द्र मेवाती ने अपने अभिनय से दर्शकों को निराला अनुभव दिया। यह नाटक भारत के आज के नाटकों का सर्वाधिक चर्चित नाटक है। इसके जबलपुर में मंचन हेतु विवेचना वर्षों से प्रयासरत थी। इंदिरा पार्थसारथी के इस तमिल नाटक का हिन्दुस्तानी रूपंातर शाहिद अनवर ने किया है। 

सन् 1657 में जब शाहजहां बीमार हुआ तो उनके चार बेटों के बीच उत्तराधिकार की लड़ाई छिड़ गई। दारा शिकोह और औरंगजे+ब प्रमुख दावेदार थे और शाहजहां की दोनों लड़कियां जहांनारा और रोशनआरा क्र्रमशः दारा और औरंगजेब का समर्थन कर रहीं थीं। शाहजहां स्वयं दारा के पक्ष में था जोकि अकेला ही उस दौरान आगरा में था। शाहजहां के काले संगमरमर के महल के ख्वाब को पूरा करने के लिए दारा तैयार था। उस समय का मुगल दरबार राजनैतिक पैंतरेबाजियों का अखाड़ा बना हुआ था। 

नाटक औरंगजेब के दो जासूसों की बातचीत से शुरू होता है जो बताते हैं कि उन पर भी नजर रखी जा रही है। ये औरंगजेब के शक्की स्वभाव का बयान है। नाटक में इतिहास के उन हिस्सों को लिया गया है जो उस समय औरंगजेब, दाराशिकोह और शाहजहां के बीच के द्वंद्व को ठीक तरह से उभारते हैं। 

नाटक उस समय महल के अंदर चल रहे उतार चढ़ाव पर पैनी नजर डालता है। इस सत्ता संघर्ष के सभी खिलाड़ी अलग अलग स्वभाव और अलग अलग राह के राही है। शाहजहां रूमानी और अपने आप में खोये हुए हैं। औरंगजेब मजहबी हैं तो दारा बहुलता के हामी हैं। नाटक शाहजहां और औरंगजेब, दारा और औरंगजेब, जहांनारा और रोशनआरा के बीच के अंतर को पकड़ने की कोशिश करता है। शाहजहां अतीत में तो दारा भविष्य और औरंगजेब वर्तमान में रहता है।औरंगजेब की जीत उसकी जमीनी सच्चाई से करीब होने पर है मगर उम्र के आखिरी पड़ाव में वो बिल्कुल अकेला है अपने से सवाल पूछता हुआ। उसका राज्य बिखर रहा है और वो कुछ नहीं कर पा रहा है।

निर्देशक के एस राजेन्द्रन ने बताया कि औरंगजेब नाटक इतिहास के किरदारों और महलों के अंदर चल रही शतरंजी चालों को सामने लाता है। एक ढहते साम्राज्य का सबसे ज्यादा फायदा सत्ता के गलियारों में घूमने वाला अवसरवादी उच्च वगै और मिलिट्री उठाती है और ये वर्ग अपने फायदे के सभी समझौते करने को तैयार रहता है। शाहजहां की दोनों पुत्रियां अपने अपने पसंदीदा भाई की तरफ से अपनी अपनी चालें चलती हैं। ये माहौल का परिणाम था जो उस दौरान मुगल दरबार के गलियारों और तख्त के आसपास मौजूद था।
इस नाटक का मुख्य तत्व हमें वह आधार प्रदान करता है जिससे हम सत्ता के शीर्ष पर बैठे चरित्रों की मनोदशा, उनके डर, उनकी चिन्ताओं को समझ सकें जो परिस्थितियों के संकट पर घिरते जाने के साथ साथ और भी घनी होती जाती हैं। यह नाटक इमरजेंसी लगने के पहले सन् 1974 में लिखा गया। यह नाटक अन्य चीजों के अलावा एक देश एक भाषा एक धर्म के सिद्धांत की आलोचनात्मक पड़ताल करता है। औरंगजेब की आज के समय में कहीं ज्यादा राजनैतिक और सांस्कृतिक प्रासंगिकता है।

नाटक में औरंगजेब बने महेन्द्र मेवाती ने अभिनय का कीर्तिमान स्थापित किया। औरंगजेब के व्यक्तित्व और उसकी विचित्रताओं, उसकी मनोदशा को मेवाती ने सच्ची अभिव्यक्ति दी। दारा के रूप में इमराज राजा नाटक के दूसरे नायक नजर आते हैं। जहांनारा बनी आशिमा खन्ना बहुत शानदार थीं। रोशनारा बनी प्रियंका शर्मा, शाहजहां बने नीलेश दीपक ने कमाल का अभिनय किया। नाटक सैट भव्य था और शाहजहंा के महल का पूर्ण आभास कराता था। नाटक के अंत में निर्देशक के एस राजेन्द्रन को श्री हरि भटनागर की पेन्टिग स्मृतिचिन्ह के रूप में प्रदान की गई।

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