Friday, April 18, 2014

‘इप्टा’ जेएनयू की 'सीता गली' : घूरे की उधड़ती परतें

‘छन्नो केवल इसलिए सबकी आँखों में नहीं खटक रही है कि वह नीची जाति की है, बल्कि इसलिए भी खटक रही है क्योंकि उसने जिस मकान को ख़रीदा है उस पर मोहल्ले वालों की नज़र थी। रज्जो और छन्नो के चरित्र हनन और घर में आग लगाने वाली घटनाएं यह भी स्पष्ट करती हैं कि एक अकेली स्त्री को संपत्ति से बेदख़ल करने के लिए क्या-क्या प्रपंच किये जाते हैं, फिर छन्नो का मेहतरानी होकर भी उच्च जातियों के बीच आ बसना तो वैसे भी सबके लिए छाती पर साँप लोटने जैसा है ही।’

बीती कई सदियों से व्यक्ति के व्यक्ति से संबंधों में न केवल वर्ण व्यवस्था, बल्कि उसके अंतर्गत विभाजित की गईं जातियाँ व उपजातियाँ भी अपनी भूमिका निभाती रही हैं, इस हद तक कि बाज़ मौकों पर वे व्यक्ति के अस्तित्व को भी नकार देती हैं। यह बात वर्तमान समय में जबकि कानूनी और संवैधानिक रूप से सबके बराबर होने की दुहाई दिये जाने का समय है, लग सकता है कि बीते ज़माने की बात है। पर जो लोग ज़मीनी हक़ीकत से रू-ब-रू हैं वे जानते हैं कि यह रवायत आज भी क़ायम है, उच्च और निम्न होने का भेद आज भी मौजूद है। इसीलिए एक दशक पहले प्रकाशित हुई मैत्रेयी पुष्पा की कहानी ‘छुटकारा’ का कथानक भी प्रासंगिक है।

विगत 14 अप्रैल 2014 को भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की जेएनयू इकाई ने मैत्रेयी पुष्पा की इसी कहानी का नाट्य रूपांतर ‘सीता गली’ शीर्षक से जेएनयू के वार्षिक नाट्य महोत्सव ‘रंग बयार’ में प्रस्तुत किया। समाज के वंचित और दमित तबके की आवाज़ बुलंद करने वाले और उसके अधिकारों को एक रूपरेखा व दिशा देने वाले डॉ. भीमराव अम्बेडकर के जन्मदिवस पर मैला ढोने वाली ‘छन्नो’ की दास्तान का मंचन इप्टा जेएनयू द्वारा किया जाना उस आंदोलन के साथ अपनी आवाज़ मिलाना है जो वंचितों के अधिकार की हिमायत करता है।

आज जबकि मैला साफ करने के लिए अभिशप्त दलित समुदाय के एक वर्ग को वैकल्पिक रोजगार मुहैया करा चुकने की और ‘इस कार्य में अब पूरे हिन्दुस्तान में कोई संलग्न नहीं है’ जैसी घोषणाएं सरकारी तौर पर की जा चुकी हों, तब नाटक का कथानक दलित समुदाय के उस जीवन को रेखांकित करता है जो उसके रोजगार के साधन से कहीं ज़्यादा उसकी जाति के आधार पर सामाजिक व्यवस्था द्वारा तय किया जाता है। कथानक के अनुसार जब तक छन्नो मेहतर बस्ती में रहते हुए सीतागली के सारे घरों का मैला साफ करती है तब तक वह सब की प्रिय है। उसके विवाह, बेटी के जन्म और पति की मृत्यु पर गली के सारे परिवारों का व्यवहार उसके प्रति वैसा ही है जैसा अपने परिवार के सदस्य के प्रति हो। वे उसकी खुशी में खुश भी होते हैं और उसके ग़म में सांत्वना भी देते हैं। लेकिन जैसे ही वह उनकी गली में एक मकान ख़रीदती है, सबकी आँखों की किरकिरी बन जाती है। कथानक के यहाँ पहुँचने पर एक और महत्वपूर्ण बिंदु उद्घटित होता है कि छन्नो केवल इसलिए सबकी आँखों में नहीं खटक रही है कि वह नीची जाति की है, बल्कि इसलिए भी खटक रही है क्योंकि उसने जिस मकान को ख़रीदा है उस पर मोहल्ले वालों की नज़र थी। मकान की पूर्व मालकिन कुसुमी की अम्मा वृद्ध और असहाय है, अकेली है जिसे मोहल्ले से खदेड़ने के लिए उस पर रात में हमला किया गया, उसने मकान छन्नो को बेचा जो विधवा है और संतान सिर्फ एक बेटी है रज्जो। कहानी के अंत तक चलने वाली रज्जो और छन्नो के चरित्र हनन और घर में आग लगाने वाली घटनाएं यह भी स्पष्ट करती हैं कि एक अकेली स्त्री को संपत्ति से बेदख़ल करने के लिए क्या-क्या प्रपंच किये जाते हैं, भले ही फिर वह नीची जाति की छन्नो हो या फिर उच्च जाति की कुसुमी की अम्मा। फिर छन्नो का मेहतरानी होकर भी उच्च जातियों के बीच आ बसना तो वैसे भी सबके लिए छाती पर साँप लोटने जैसा था ही।

छन्नो के सीतागली में आ बसने पर गली वालों की बौखलाहट, छन्नो के बहिष्कार और उसे सबक सिखाने के इरादों के बीच उमेश और सुरेखा की छन्नो के प्रति सहानुभूति, पेशकार के छन्नो के प्रति अनुराग के तार भी दिखाई देते हैं। उमेश, सुरेखा की सांत्वना और पेशकार का ढाढस ऐसे तार हैंं जो भीतर कहीं उसका भला चाहते हैं लेकिन समाज के बीच कुछ कहने से कतराते हैं कि कहीं उन पर कोई उंगली न उठे। खुलकर छन्नो की लानत-मलामत कर रहे बाकी किरदारों की तुलना में यह किरदार एक तरफ इन्सानियत का अहसास भी कराते हैं क्योंकि वे छन्नो की सलामती को लेकर बेचैन हैं, वहीं समाज की उस मानसिकता को भी दिखाते हैं जहाँ सच जानते हुए भी अपनी खाल बचाने के लिए चुप रह जाना बेहतर समझा जाता है।

गली वालों के दुव्र्यवहार के बाद रज्जो की जिद के चलते छन्नो द्वारा मैला साफ करने का काम बंद कर देना सीतागली के निवासियों के लिए बड़ी मुसीबत खड़ी कर देता है। पूरी गली गंदगी से किचपिचाई हुई पड़ी है। वे तमाम जतन करते हैं कि छन्नो के बिना उनका काम चल जाए पर जब नहीं चलता तो वे पुलिस का सहारा लेते हैं, यह सोचकर कि पुलिस की धौंस के आगे छन्नो काम पर वापस आना शुरू कर देगी। वे छन्नो को बहलाने की भी कोशिश करते हैं लेकिन रज्जो के आत्मसम्मान और तीखे तेवरों के आगे उनकी यह कोशिश नाकामयाब होती हैं। यहां छन्नो और रज्जो के बहाने दो पीढ़ियों का द्वंद्व भी सामने आता है। छन्नो के लिए उसके संडास ही उसकी जिन्दगी हैं, उसके संवादों में इस काम को अपनी नियति मान लेने, गली वालों के विरोध के बाद सब कुछ खत्म हो जाने का भाव है। रज्जो इसे नियति नहीं मानती, वह बेहतर और गौरवपूर्ण जीवन की ओर कदम बढ़ाने की हिमायती है और इसके लिए वह मोहल्ले वालों के चेहरों पर चढ़े भलमनसाहत के नकाब को नोंचने से भी नहीं चूकती, वह सबको कड़े जवाब देती है। वह समाज में मौजूद दोहरे मापदण्डों और उच्च वर्ग द्वारा तैयार किये गए सामाजिक नियमों की सारी परतों को उधेड़ देना चाहती है जिनके नीचे उसका, उसके पूरे समुदाय का अस्तित्व दबा दिया गया है। कुल मिलाकर छन्नो के इर्द-गिर्द घूमने वाली कहानी, सभ्य समाज के दोहरे चरित्र, जाति व्यवस्था पर चोट करते हुए संपत्ति पर महिलाओं के अधिकार, जाति आधारित कर्म और जाति से बाहर इन्सान के अस्तित्व जैसे कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर गंभीर विमर्श की ज़रूरत को उजागर करती है।

नाटक की शैली ऐसी थी कि तकरीबन हर कलाकार अपने आप में एक किरदार भी था और किस्सागो भी। हालांकि कुछ जगहों पर अंतिम दर्शक तक आवाज़ पहुँचाने में सफलता हाथ नहीं लगी और तकनीकी पूर्वाभ्यास का अभाव नजर आया, बावजूद इसके नाटक अपने शुरुआती 50 मिनट तक कहीं भी दर्शक को ऊबने का मौका नहीं देता। केवल अंतिम दृश्य में आकर एक लंबे एकल संवाद के चलते नाटक की गति कुछ धीमी पड़ जाती है। दर्शकों की प्रतिक्रिया के अनुसार सभी कलाकारों ने अपनी भूमिका बहुत ही अच्छे ढंग से निभाई। कम संवादों के बावजूद अपने अभिनय कौशल से कृतिका भाटिया ने अम्मा की ठसकदार मौजूदगी को बनाए रखा। छन्नो की भूमिका में शिखा सलारिया व बिपाशा घोष और रज्जो की भूमिका मेें इन्दु के अभिनय ने दर्शकों को बांधे रखा। इसके अलावा सुरेखा, मुंशियानी, पंडिताइन, उमेश, मिर्ज़ा जी, पेशकार, पंडित डम्बर प्रसाद की भूमिका में क्रमशः वर्षा आनंद, इति शरण, शिखा सलारिया, क्षितिज वत्स, रजनीश ‘साहिल’, शिशु चंदम व निशांत चैहान की प्रस्तुति को दर्शकों ने सराहा। हवलदार की छोटी सी भूमिका में विनोद कोष्टी और मिर्जा जी के चेले व राजपाल की भूमिका में कैलाश पाण्डे ने अपनी अलग छाप छोड़ी।

नाटक का सबसे मजबूत पक्ष कथानक के अनुरूप गीतों का समावेश रहा। ‘ये सब कहने की बात है’, ‘जात में आकर नाम बदलते’ ‘जो दूर-दूर चलते थे उल्फ़त जता रहे’ और ‘आओ खोलें घूरे की परतें’ जैसे गीत न केवल कहानी को आगे बढ़ा रहे थे बल्कि विषय से जुड़े अन्य बिन्दुओं को भी दर्शकों के सामने रख रहे थे। मनीष श्रीवास्तव और रजनीश ‘साहिल’ के लिखे गीतों की धुन तैयार की थी बिपाशा घोष, कैलाश पाण्डे और विशाल धीमान ने। कहानी को मंचीय नाटक और किस्सागोई की मिली जुली शैली में प्रस्तुत करने के मनीष श्रीवास्तव के निर्देशकीय प्रयोग, गीत-संगीत और कलाकारों को दर्शकों से मिली सराहना के आधार पर कहा जा सकता है कि दर्शकों के जे़हन तक अपनी बात पहुँचाने के अपने उद्देश्य में नाटक सफल रहा।

- रजनीश ‘साहिल’ 09868571829

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