Tuesday, April 29, 2014

अंतर्राष्ट्रीय नृत्य दिवस –29 अप्रेल 2014 सन्देश - मूरा मेरज़ूकी, फ़्रांसीसी नर्तक व नृत्य निर्देशक


र कलाकार अपनी कला से गौरवान्वित होता है|

हर कलाकार उस कला के पक्ष में खड़ा रहता है, जिससे साक्षात्कार ने उसकी दुनिया, उसका जीवन बदल दिया | जिसकी खोज और साधना में वो सब कुछ भूल गया, उस कला के आदान- प्रदान की प्रबल इच्छा है उसमें | किसी आवाज़ का अनुनाद हो, नया शब्द हो, मानवता के पक्ष में किसी साहित्य की व्याख्या हो, संगीत हो जिसके अभाव में हम ब्रम्हाण्ड से संवाद नहीं कर सकते या वह पल, जो सौंदर्य, संवेदना, सौहार्द और गरिमा का द्वार खोल देता है |
मेरी प्रतिष्ठा एक नर्तक और नृत्य निर्देशक के रूप में है और इसके लिए मैं नृत्य कला का कृतज्ञ हूँ | नृत्य ने मुझे सुन्दर अवसर दिये , इसके अनुशासन ने मुझे जीवन मूल्य व आचार-व्यवहार सिखाया और ऐसे माध्यम प्रदान किये, जिनसे मैं हर दिन एक नयी दुनिया की तलाश करता हूँ |

मेरे सबसे निकट यह कला मुझे ऊर्जा और उदारता के साथ लगातार भरोसा देती है कि जैसे नृत्य ही ऐसा कर सकता है | इसकी कविता मुझे आश्वासन, साहस और आनंद से भर देती है |

काश ! मैं कह सकता कि नृत्य के बिना मेरा अस्तित्व ही नहीं है, न ही उस अभिव्यक्ति की क्षमता के बगैर, जो मुझे नृत्य से मिली और न ही इस कला से संचारित उस आत्मविश्वास के बिना, जिससे मैं डर और आशंकाओं को पराजित करते हुए आगे बढ़ता हूँ |

नृत्य को मेरा नमन, जिसने विश्व की जटिलताओं और भौतिकताओं से घिरे मेरे जैसे इंसान को एक ऐसा संवेदनशील नागरिक बनाया, जो कला के माध्यम से समाज में परिवर्तन लाने में प्रयासरत है और उस हिप-हॉप संस्कृति के प्रति वफ़ादार भी, जो नकारात्मक शक्तियों को सकारात्मक ऊर्जा में तब्दील कर देती है |

मेरी श्वासों में रची-बसी नृत्य कला मुझे सम्मानित करती है और मैं इस सम्मान की गरिमा और रक्षा के प्रति सजग हूँ | मैं अपने आस-पास तनाव और कुंठा से ग्रसित कामगार वर्ग के ऐसे युवाओं को देखता हूँ ,जो न केवल समाज से कटे हैं वरन अपने भविष्य के प्रति भी दिशाहीन व निराश हैं | मैं भी उनमें से एक हूँ, और हम सब भी | उनमें जिजीविषा जगाने और जीवन के प्रति आशावान बनाने की दिशा में मैं एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत हूँ और प्रेरित भी, संभवतः दूसरों से अधिक |

हम सब की समृद्धि से ही तो समाज समृद्ध होगा | किसी भी व्याख्यान या तर्क की तुलना में संस्कृति हमें गहराई से जोड़ती है | तो, साहस के साथ आगे बढिए, खतरे उठाइए – बावजूद इसके कि नफ़रत और गतिरोधों का सामना करना होगा | दुनिया का सौंदर्य और संवेदना हमेशा आपके पक्ष में होगी – जैसे नृत्य मेरे साथ – जो अपने सम्पूर्ण सार व तत्वों सहित शरीर संचालन और अद्वितीय ऊर्जा के साथ सामाजिक और नस्ली भेदभाव ख़तम करने की दिशा में मानवता को अनुपम अभिव्यक्तियों तक लाकर एक दूसरे से जोड़ता है |

मैं अपनी बात रेने शा के शब्दों के साथ समाप्त करना चाहूंगा जो मुझे हमेशा याद दिलाती रहती है कि किसी भी पूर्वनिश्चित भूमिका में अपने आप को सीमित मत होने दो |

अपने लिए अच्छे संयोग बनाओ, अपना भाग्य स्वयं सुनिश्चित करो, खतरे उठाओ, सब तुम्हारे साथ होंगे |

तो, कोशिश करो, गिरो, सम्हलो, फिर से शुरू करो – लेकिन सबसे अहम है नृत्य करो, करते रहो, कभी मत रुको !

अनुवाद – अखिलेश दीक्षित, इप्टा लखनऊ


भारत में भारतीय जन नाट्य संघ द्वारा प्रसारित.

Sunday, April 27, 2014

साम्प्रदायिकता फासीवाद विरोधी मंच’ की तरफ से अपील एवं आमंत्रण

बनारस में 04 मई, 2014 को होने वाले कन्वेंशन के लिए
‘साम्प्रदायिकता फासीवाद विरोधी मंच’ की तरफ से अपील एवं आमंत्रण

साथियों!

2014 का लोक सभा चुनाव ऐसे समय में होने जा रहा है जब पूँजीपति, मीडिया एवं फासीवादी शक्तियों का ऐसा गठजोड़ तैयार हो गया है जो तथाकथित विकास के नाम पर वोट माँग रहा है। विगत दो दशकों में किसानों, आदिवासियों, दलितों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं एवं श्रमिक वर्ग की मुसीबतें बढ़ी हैं। धनिकों एवं वंचितों के बीच खाई चौड़ी हुई है।

आज भारत की बहुलतावादी संस्कृति खतरे में है। देश के अन्दर जाति, धर्म एवं नस्ल के फासीवादी उभार ने सत्ता पर वर्चस्व स्थापित करने के लिए हमारे सांस्कृतिक ताने-बाने को तार-तार कर दिया है। हालांकि जनता ने इन साम्प्रदायिक शक्तियों को लगातार खारिज किया है। उन्हें मुकम्मल तौर पर सत्ता पर कभी काबिज नहीं होने दिया। नतीजतन साम्प्रदायिक राजनीति के सहारे सत्ता पर वर्चस्व स्थापित करने में नाकाम रहने वाली भाजपा और नरेन्द्र मोदी अब विकास का ढोल पीट रहे हैं। इनके विकास की ढोल में जो पोल है उसे जाहिर करने की जरूरत है। 

आखिर मोदी के विकास का मॉडल क्या है? इस सम्बन्ध में प्राप्त अधिकृत तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि गुजरात के विकास का नवउदारवादी मॉडल कारपोरेट जगत की हिफाजत करता है और किसानों की जमीन औने-पौने दाम पर उन्हें मुहैया कराता है। आर्थिक विकास दर के हिसाब से प्रति व्यक्ति आय के मामले में गुजरात का स्थान 2011 में छठा था और प्रति व्यक्ति कर्ज के मामले में उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों से गुजरात आगे है और ऊपर से सीना 56 इंच का है। सामाजिक कार्यकर्ता रोहिणी हेंसमेन की रिपोर्ट के मुताबिक इस आर्थिक प्रगति की भारी कीमत गुजरात के आम लोगों ने चुकायी है। भारत के अन्य राज्यों की तुलना में गरीबी का स्तर सबसे अधिक है। निजी कंपनियों को बड़े पैमाने पर जमीनें आवंटित की गई, जिससे लाखों किसान, मछुवारे, चरवाहे, खेतिहर, मजदूर, दलित व आदिवासी अपने घरों से बेघर हो गए। मोदी राज में 2011 तक आर्थिक बदहाली से परेशान होकर 16,000 श्रमिकों, किसानों और खेतिहर मजदूरों ने आत्महत्या कर ली। गुजरात का मानव विकास सूचकांक, उसके समान प्रति व्यक्ति आय वाले अन्य राज्यों की तुलना में सबसे कम है। बड़े राज्यों में नरेगा को लागू करने के मामले में गुजरात का रिकार्ड सबसे खराब है। गरीबी, भूख, शिक्षा और सुरक्षा के मामलों में मुसलमानों की हालत बहुत बुरी है। मोदी ने यह दावा किया है कि गुजरात में कुपोषण का स्तर इसलिए अधिक है क्योंकि वहाँ के अधिकांश लोग शाकाहारी हैं और दुबले-पतले व फिट बने रहना चाहते हैं। इसका खण्डन करते हुए एक जाने-माने अध्येता ने कहा है कि इसका असली कारण है मजदूरी की कम दर, कुपोषण घटाने के उद्देश्य से शुरू की गयी योजनाओं को ठीक से लागू न किया जाना, पीने योग्य पानी की कमी और साफ-सफाई का अभाव। रिपोर्ट बताती है कि शौचालयों के इस्तेमाल के मामले में गुजरात 10वें नम्बर पर है। यहाँ की आबादी का 65 प्रतिशत हिस्सा खुले में शौच करने को मजबूर है, जिसके कारण पीलिया, डायरिया, मलेरिया व अन्य रोगों के मरीजों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। अनियंत्रित प्रदूषण के कारण किसानों और मछुवारों ने अपना रोजगार खो दिया है और भारी संख्या में लोग दमे, टीबी व कैंसर से ग्रस्त होकर मर रहे हैं। 

हेंसमेन की रिपोर्ट को माने तो गुजरात में भ्रष्टाचार आसमान छू रहा है। जिन लोगों ने इस भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाया, उनकी दुर्गति हुई। गुजरात में भारत की कुल आबादी का 5 प्रतिशत हिस्सा रहता है परन्तु हाल के वर्षों में सूचना के अधिकार कार्यकर्ताओं पर देश भर में हुए हमलों में से 20 प्रतिशत गुजरात में हुए। जिन आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्याएं हुई, उनमें से 22 प्रतिशत गुजरात के थे। 2003 से लेकर 10 साल तक लोकायुक्त का पद खाली पड़ा रहा। जब 2011 में राज्य के राज्यपाल और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने न्यायमूर्ति आर.ए. मेहता को इस पद के लिए चुना तो मोदी ने इस नियुक्ति के खिलाफ उच्चतम न्यायालय तक कानूनी लड़ाई लड़ी। बताया जाता है कि इस पर 45 करोड़ रूपए खर्च किए गए। उच्चतम न्यायालय द्वारा इस निर्णय को उचित ठहराए जाने के बाद भी राज्य सरकार ने मेहता के साथ सहयोग नहीं किया और नतीजतन उन्हेांने यह पद स्वीकार करने से इंकार कर दिया। हेंसमेन की रिपोर्ट बताती है कि गुजरात के आम लोगों ने आर्थिक प्रगति की भारी कीमत चुकाई है। 

साथियों, इन फासीवादी ताकतों के मंसूबे नाकाम होने चाहिए। इस खतरनाक दौर में जनता को सावधान करने की जरूरत है। इस बार के चुनाव में देश के सामने अब तक का सबसे खूंखार फासीवादी चेहरा नरेन्द्र मोदी के रूप में हमारे सामने है। सत्ता में आने के बाद फासीवादी ताकतों का तांडव कैसा होगा, इसकी बानगी अभी से ही बनारस में मोदी के चुनाव प्रचार के दौरान मिलने लगी है। मोदी समर्थक अपने प्रतिद्वंदियों और विरोधियों के साथ जगह- जगह मार-पीट और गाली-गलौज कर रहे हैं, झुंड बाँध-बाँध कर सार्वजनिक स्थलों पर मोदी के आलोचकों को अपमानित कर रहे हैं, किसी भी विवेकशील अभिव्यक्ति का गला घोंट रहे हैं। उन्मादी नारों के साथ शहर के संवेदनशील इलाकों की फिजा बिगाडने की कोशिश में लगे हैं। यह सब अभी ही, ठीक चुनाव के दरमियान हमारी आँखों के सामने बनारस की धरती पर रोज-ब-रोज घट रहा है।

दरअसल साम्प्रदायिकता का सर्प फिर फुफकारता हुआ जहरीली सांस छोड़ रहा है और इससे हवायें दमघोटू होती जा रही है। हम जानते हैं कि 1948 में भारत विभाजन के बाद महात्मा गाँधी की हत्या के साथ ही गोडसे की विनाशकारी विरासत लगातार अपनी मंजिल तय करती चली आ रही है जिसकी राह में 1992का बाबरी मस्जिद ध्वंस और 2002 के गुजरात का दंगा महज मामूली पड़ाव है। लेकिन देश की मिलीजुली तहजीब में विश्वास करने वाली जनता ने इन्हें अभी तक बराबर खारिज ही किया है और हुकूमत का मौका बाकायदा कभी नहीं दिया। इस बार भी ऐसा ही होना है। बहरहाल, अब नयी चाल-ढाल के साथ यह साम्प्रदायिक फासीवाद हमारे सामने है और अबकी बार विकास के नाम पर कारपोरेट के कन्धे पर सवार है। जाहिरा तौर पर कांग्रेस के भ्रष्टाचार से आजीज आ चुकी जनता को अपने पक्ष में करने के लिए विकास का झांसा नरेन्द्र मोदी और भाजपा की ओर से दिया जा रहा है।

साथियों, यह तथाकथित विकास हमारी सदियों पूर्व से मिली-जुली सांस्कृतिक, सामाजिक समरसता तथा साम्राज्य विरोधी भावना जिसके चलते हमने स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई लड़ी थी, उसे निर्मूल करने का छदम् प्रयास है। देश की मीडिया जिसकी छवि अबतक बहुत स्वच्छ एवं निष्पक्ष रही है, वह कारपोरेट घरानों और तथाकथित धर्म गुरुओं के साथ मिलकर नकली विकास का अनर्गल प्रलाप कर रही है।

साथियों, नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में इन्हीं फासीवादी शक्तियों ने अयोध्या एवं गुजरात के बाद वाराणसी को अपना अगला पड़ाव बनाया है। यदि यहाँ इन खतरनाक ताकतों को कामयाबी मिली तो संघ परिवार का यह मॉडल देश में अराजकता और विखण्डन को ही विस्तार देगा। परिणाम स्वरूप सामाजिक समरसता तो समाप्त होगी ही, साथ ही दबे, पिछड़े एवं वंचित तबको के लिए संविधान में जो अधिकार मिला है वह भी समाप्त हो जायेगा। इस प्रकार के मॉडल में साहित्य, संस्कृति, वैज्ञानिक सोच, तर्क और संवाद, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, मानवाधिकार और भाईचारे के लिए कोई स्थान नहीं है।

अब वह वक्त हमारे सामने है, साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों और बुद्धिजीवियों को अपनी कमर कसनी होगी। दरअसल यह हमारी जिम्मेदारी है। हम प्रगतिशील, जनवादी, धर्मनिरपेक्षतावादी तथा मानवाधिकार के लिए संघर्षरत संगठनों ने मिलकर एक साझी रणनीति तय करते हुए- ‘साम्प्रदायिकता फासीवाद विरोधी मंच’ के बैनर तले 04 मई, 2014 को बनारस में ‘मोदी हराओ’ का जनता से आह्वान किया है। इस अभियान को आगे ले जाना और जनता में उसे असरदार तरीके से पहुँचाना हमारे लिए चुनौतीपूर्ण कार्य है। इतिहास के इस बेहद खतरनाक समय में हमारी भूमिका और जिम्मेदारियों की यह अग्नि परीक्षा भी है।

साथियों, हम जानते हैं कि संघ परिवार और भाजपा ने अपने एजेण्डे को देश पर थोपने के लिए बनारस को केन्द्र बनाया है और इसीलिए नरेन्द्र मोदी को बनारस के लोकसभा चुनाव में खड़ा किया है। बनारस जो युगों से सांस्कृतिक समरसता का संवाहक रहा है वह संघ परिवार के इस कुचक्र को अच्छी तरह समझता है और समय आने पर इसका माकूल जवाब भी इन्हें देगा। पूरी दुनिया में मशहूर बनारस अपने फक्कड़ मिजाज और मिलीजुली तहजीब के लिए जाना जाता है। यह गौतमबुद्ध, कबीरदास, तुलसीदास, रविदास, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और प्रेमचन्द का शहर है। इतिहास के हर कालखण्ड में अपनी सकारात्मक एवं अग्रणी भूमिका के लिए इस शहर की अलग पहचान रही है। 

साथियों, इस अपील के साथ हम आपको 04 मई, 2014 को बनारस में होने वाले कन्वेंशन में शिरकत करने के लिए आमंत्रित करते हैं। इस कन्वेंशन में देश के नामी-गिरामी साहित्यकार, संस्कृतिकर्मी, सिनेमा से जुड़ी महत्वपूर्ण शख्सियतें, सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार, बुद्धिजीवी, छात्र एवं नौजवान बड़ी संख्या में भाग लेने के लिए आ रहे हैं। निश्चित रूप से आपकी उपस्थिति और हमारी एकजुटता से इन जनविरोधी, विभाजनकारी एवं साम्प्रदायिक ताकतों के झूठ का पर्दाफाश करना और उनकी जमीनी हकीकत बताते हुए उन्हें शिकस्त करना ज्यादा आसान होगा और तब देश की हुकूमत पर काबिज होने से हम इन्हें शायद रोकने की कारगर और असरदार लड़ाई लड़ सकें। 

आप अपने आने की सूचना हमें अविलम्ब दें ताकि हम आपके आवास एवं भोजन का प्रबन्ध कर सकें। इस सम्बन्ध में आप डॉ. संजय श्रीवास्तव (9415893480), डॉ. मुनीज रफीक खान (9415301073), डॉ. गोरख नाथ (9839541426) डॉ. प्रभाकर सिंह (8004924509) से सम्पर्क कर सकते हैं।

ईमेल - sks045@rediffmail.com | munizak@hotmail.com | gnpupc@gmail.com.

क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ हमें आपकी प्रतीक्षा है।

कार्यक्रम

• 4 मई, 2014, रविवार।
• सुबह 10:00 बजे से शाम 5:00 बजे तक सभा।
• शाम 5:00 से 6:00 बजे तक, कबीरचैरा से लहुराबीर स्थित प्रेमचन्द प्रतिमा तक सांस्कृतिक मार्च।
स्थान:- कबीरमठ, पिपलानी कटरा चौराहा, कबीरचौरा, वाराणसी।

संचालन समिति: अलीजावेद, जितेन्द्र रघुवंशी, हरिश्चन्द्र पाण्डेय, प्रणय कृष्ण, विभूति नारायण राय, दीपक मलिक, मुनीजा रफीक खान, मुहम्मद आरिफ, व्योमेश शुक्ल, प्रशान्त शुक्ल, आनन्द दीपायन।
समन्वय समिति: किरन शाहीन, अमित सेन गुप्ता, सबा नकवी, अपूर्वानन्द, चौथीराम यादव, राकेश, वीरेन्द्र यादव, संतोष भदौरिया, शकील सिद्दीकी, जयप्रकाश धूमकेतु, सीमा आजाद,विश्वविजय।

आयोजन समिति:
शाहीना रिजवी, बलिराज पाण्डेय, एम.पी. सिंह, गया सिंह, जवाहर लाल कौल ‘व्यग्र’, मूलचन्द सोनकर, शिवकुमार पराग, संजय कुमार, दीप्ति रंजन पटनायक, राजकुमार, श्रीप्रकाश शुक्ल, आशीष त्रिपाठी, गोरख नाथ, प्रभाकर सिंह, आनन्द तिवारी, अशोक आनन्द, दानिश जमाल सिद्दीकी, अलकबीर, निरंजन सहाय, अनुराग कुमार, नीरज खरे, वंदना चौबे, कविता आर्या, सर्वेश कुमार सिंह, चन्द्रशेखर, रविशंकर उपाध्याय।

अध्यक्ष-काशीनाथ सिंह | संयोजक - संजय श्रीवास्तव

Friday, April 25, 2014

IN THE SUPPORT OF THE ACTIVISTS OF VARANASI.

The election of 2014 is not an ordinary election. It is a balatant outrageous attack by the fascist Hindutatva forces on the Ganga-Jamani culture. Ganga-Jamani culture has been over several centuries the strongest foundation of our Nation. The fascist forces in our country, right from its inception has been cleverly and mischievously planning to put an end to Ganga-Jamani culture and force their agenda of Hindutatva. They operate from behind the curtain in the name of culture, and yet they are the confirmed enemies of Ganga-Jamani culture. They use various other names but never utter the word of Ganga-Jamani culture. It is only because of the fusion of the muslim culture. This very Ganga-Jamani culture over the centuries has upheld several attacks and by its strength has not not faced them bravely but with courage has weakened them by assimilating them among itself.

It is most unfortunate that the social media of our country, knowing or perhaps unknowingly has fallen into the trap of these fascists and foreign forces in propagating their dangerous agenda among the masses. Their questions are framed so cleverly that they have the answers in them, which they wish. It is not surprising that the youth and the masses have fallen a prey to it, to the slogan of Vikas-Development, without seeing or getting proper information about it. They have only heard it on the debates on T.V .Even in the bygone years of Hitler and Mussolini many eminent authors, like Luigi Pirandello had joined the fascist party of Mussolini. What to say about the youth of today who no ideology whatsoever, and their minds are the fertile ground where poisonous seeds can be sowed easily. The social media very irresponsible has exactly done so in propagating development, yet not clearly defining it or physically showing it. No development of any kind, any how, any way, any where in the world can be done without the development of culture. One sided development if at all only creates a huge gulf between the rich and the poor. The Social media has not talked even for minute about culture in their national debates. Neglecting culture has clearly shown the damage that it has done. This is the most uncultured election that I have seen since 1952.Even the debates on media are unmannerly and completely uncultured..

I salute the family of respected Ustad Bismullah Khan Sahib who have refused to nominate the name of Modi. How could they do when they are the devoted of Mahadev, and Bismullah Khan used to play Shahnai at the temple when the doors of the temple were opened on the first ray of the Sun.

This battle is not fought on the battle ground of kurukshetra. That was the battle of brothers from one clan{Vansh}. Today,s battle is fought in every corner of India. Every race, every community is actively involved. We are aware of the end of Mahabharat. Should we keep quite and let that happen once again. The things have gone out of hands. It is needless to go into the reasons. Every individual is in some way or other is responsible. But we the progressive front who are the strong believer of Ganga-Jamani culture should unitedly come forward and face the fascist bull, on the ground, and by catching it by the horns bring it to its knees and inflict the fatal blow and put an end to it.

RANBIR SINH

President
Indian Peoples theatre Association{IPTA}
DUNDLOD HOUSE ,JAIPUR;HAWA SARAK:JAIPUR
MOB:9829294707

Tuesday, April 22, 2014

मुझसे मेरा संडास मत छीनो!

इति शरण

"मुझसे मेरा संडास मत छीनो! संडास ही तो मेरी जिंदगी है!" एक औरत का रोते हुए, हारे स्वर में यह कहना शायद विचित्र ही लगे। संडास, मैला, कचरा आखिर किसी की जिंदगी कैसे हो सकती है! वह भी ऐसे समय में, जब हम एक विकसित समाज में जीने की बात करते हैं। मगर विकास के इस मायाजाल के पीछे आज भी एक ऐसा समाज है, जहां मैला, संडास, कचरा लोगों की जिंदगी का एक हिस्सा है और आम समाज में उन लोगों को हीन दृष्टि का सामना करना पड़ता है। कुछ इन्हीं सच्चाइयों को जब जेएनयू इप्टा ने ‘सीता गली’ नाटक की प्रस्तुति के जरिए सबके सामने लाने की कोशिश की, तब मेरे सामने बचपन की कुछ वैसी तस्वीरें आ गर्इं, जहां मैंने खुद ऐसी घटनाओं को होते देखा था। बात तब की है जब मैं स्कूल में पढ़ती थी। मेरी एक सहपाठी को सिर्फ इसलिए नीची और हीन दृष्टि का सामना करना पड़ता था कि वह पीढ़ियों से गंदगी साफ करने को मजबूर एक खास जाति से ताल्लुक रखती थी। हमारी शिक्षिका भी कई बार उसके पुराने और गंदे कपड़ों को निशाना बनाते हुए उसे उसके ‘नीची’ जाति से होने का ताना दिया करती थी। जबकि उसके पुराने और गंदे कपड़ों का कारण उसकी जाति नहीं, बल्कि उसकी गरीबी थी। कक्षा के बाकी लोग उसके साथ बैठने या खाने से परहेज करते थे।

खैर, ‘इप्टा’ के इस नाटक में मैंने उन सभी घटनाओं को एक बार फिर देखा, जहां नाटक की मुख्य पात्र में मुझे मेरी वह सहपाठी नजर आई। यह नाटक मैत्रेयी पुष्पा की रचना ‘छुटकारा’ का नाट्य रूपांतरण था। नाट्य समारोह ‘रंगबयार’ के अंतिम दिन मनीष श्रीवास्तव के निर्देशन में ‘सीता गली’ के जरिए समाज में व्याप्त छुआछूत, जातिवाद आदि समस्याओं पर रोशनी डालने की कोशिश की गई और तथाकथित ऊंची जाति के समाज का ढोंग दिखाया गया और खुद को सभ्य कहने वाले इस समाज की असभ्यता और अमानवीयता को पटल पर लाया गया।

कहानी में मुख्य पात्र के रूप में छन्नो अपनी शादी के बाद से ही सीता गली में मैला और संडास उठाने का काम करती है। सीता गली को साफ-सुथरा रखना ही उसके जीवन का जैसे एक लक्ष्य हो। सीता गली के कुछ लोग छन्नो को मानते जरूर हैं, मगर दूर से। जब वह सीता गली में ही मकान खरीद लेती है, तब से शुरू होता है सारा तमाशा। जो औरत गली की सफाई के लिए अपनी सारी जिंदगी लगा देती है, उसके ही गली में आने से वहां रहने वालों को गली के अशुद्ध होने की चिंता सताने लगती है।

छन्नो की बेटी से भी उम्मीद की जाती है कि वह भी वही काम करे जो उसकी मां करती है। समाज दूसरे काम करने पर उसे ताने और गालियां देता है। मगर छन्नो की हिम्मती बेटी रज्जो लोगों से डरती नहीं है। वह संडास का काम छूट जाने से अपनी मां की तरह दुखी नहीं, बल्कि खुश है कि उसकी मां को अब वह काम नहीं करना पड़ेगा। इससे उसके भीतर एक सकारात्मक सोच की झलक दिखती है। वास्तविक जीवन में भी ऐसे ही सोच की जरूरत है, ताकि समाज का यह सबसे ज्यादा शोषित वर्ग इस भेदभाव के खिलाफ आवाज उठा सके। हम अगर अपने आसपास नजर घुमाएं तो ऐसी कई छन्नों और रज्जो हमें आज भी मिल जाएंगी। लेकिन हम अक्सर इन घटनाओं को अनदेखा कर देते हैं। उस स्थिति में यह नाटक और उसकी प्रस्तुति समाज की आज की वास्तविकताओं पर हमारे सामने कुछ सवाल खड़े करती है। इंसानियत के अलावा और न जाने कितने सवाल, जो हमें एक बार सोचने पर जरूर मजबूर करते हैं।

साभार :जनसत्ता 22 अप्रैल, 2014

Monday, April 21, 2014

INTERNATIONAL DANCE DAY 29th APRIL, 14 Message by: MOURAD MERZOUKI, French Choreographer and Dancer



About MERZOUKI:


Born in Lyon in 1973, Mourad Merzouki began practicing martial arts and circus arts at the age of seven. When he was fifteen, he encountered hip-hop culture for the first time and through it, he discovered dance. 


He quickly decided to develop this form of street art while also experimenting with other choreographic styles, particularly with other dance artists Maryse Delente, Jean-François Duroure and Josef Nadj.

The wealth of his experiences fed his desire to direct artistic projects, blending hip hop with other disciplines. It is what he did in 1989 with Kader Attou, Eric  Mezino and Chaouki Saïd when he created his first company „Accrorap‟.

In 1994 the company performed Athina during Lyon‟s Biennial Dance Festival; it was a triumph that brought street dance to the stage.  Merzouki‟s travels have led him into unchartered territory, where dance can be a powerful means of communication. In order to develop his own artistic style and sensitivity, Merzouki established his own In January 2006, the Company Käfig began residing in Espace Albert Camus in Bron. This linked theatre with the festival Karavel, created in 2007 by Mourad Merzouki, programming notably around 10 hip hop companies

In parallel, he imagined and conceived a new place of choreographic creation anddevelopment,  which led to Pôle Pik opening its doors in Bron in 2009. In June 2009, Mourad Merzouki was appointed director of the Centre chorégraphique de Créteil et du Val de Marne. He continues to develop his projects there, with an accent on openness to the world. In 18 years, the choreographer has created 22 productions, and his company gives on average 150 performances per year around

The 2014 International Dance Day Message
Every artist will always defend the art form whose encounter has changed his life. For that which he has sought and lost and for that which he has the burning desire to share: be it the echo of a voice, the discovered word, the interpretation of a text for humanity, the music without which the universe will stop speaking to us, or the movement which opens the doors to grace.

I have, for dance, not only the pride of a dancer and choreographer, but profound gratitude. Dance gave me my lucky break. It has become my ethics by virtue of its discipline and provided the means through which I

Closer to me than anything else, it gives me strength each day through the energy and generosity as only dance

Could I say that I wouldn‟t exist without dance? Without the capacity for expression it has given me? Without the confidence I have found in it to overcome my fears, to avoid dead ends?

Thanks to dance, immersed in the beauty and complexity of the world, I have become a citizen. A peculiar citizen who reinvents the social codes in the course of his encounters, remaining true to the values of the hip-hop culture which transforms negative energy into a positive force.

I live and breathe dance daily as an honour. But I am living with this honour deeply concerned. I witness around me the loss of bearings and the inability of some of the youth from the working class, growing up in tension and frustration, to imagine their future. I am one of them; so are we all. I am driven, perhaps more than others, by setting an example, to help them fuel their lust for life.

For isn‟t society richer with the richness of each of us?

Culture, more than any discourse, unites. So have courage and take risks despite the obstacles and the hatred with which you will no doubt be confronted; the beauty of the world will always be by your side. Like dance has been for me. With its singular force to eliminate social and ethnic distinctions, leaving but the movement of bodies in their essence, of human beings returning to their pure expression, unique and shared.

I would like to end by quoting René Char whose words remind me daily to not let anyone confine us to scripted

“Push your luck, hold on tight to your good fortune, and take your risk. Watching you, they will get used to it.”

So try, fail, start all over again but above all, dance, never stop dancing!

Friday, April 18, 2014

‘इप्टा’ जेएनयू की 'सीता गली' : घूरे की उधड़ती परतें

‘छन्नो केवल इसलिए सबकी आँखों में नहीं खटक रही है कि वह नीची जाति की है, बल्कि इसलिए भी खटक रही है क्योंकि उसने जिस मकान को ख़रीदा है उस पर मोहल्ले वालों की नज़र थी। रज्जो और छन्नो के चरित्र हनन और घर में आग लगाने वाली घटनाएं यह भी स्पष्ट करती हैं कि एक अकेली स्त्री को संपत्ति से बेदख़ल करने के लिए क्या-क्या प्रपंच किये जाते हैं, फिर छन्नो का मेहतरानी होकर भी उच्च जातियों के बीच आ बसना तो वैसे भी सबके लिए छाती पर साँप लोटने जैसा है ही।’

बीती कई सदियों से व्यक्ति के व्यक्ति से संबंधों में न केवल वर्ण व्यवस्था, बल्कि उसके अंतर्गत विभाजित की गईं जातियाँ व उपजातियाँ भी अपनी भूमिका निभाती रही हैं, इस हद तक कि बाज़ मौकों पर वे व्यक्ति के अस्तित्व को भी नकार देती हैं। यह बात वर्तमान समय में जबकि कानूनी और संवैधानिक रूप से सबके बराबर होने की दुहाई दिये जाने का समय है, लग सकता है कि बीते ज़माने की बात है। पर जो लोग ज़मीनी हक़ीकत से रू-ब-रू हैं वे जानते हैं कि यह रवायत आज भी क़ायम है, उच्च और निम्न होने का भेद आज भी मौजूद है। इसीलिए एक दशक पहले प्रकाशित हुई मैत्रेयी पुष्पा की कहानी ‘छुटकारा’ का कथानक भी प्रासंगिक है।

विगत 14 अप्रैल 2014 को भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की जेएनयू इकाई ने मैत्रेयी पुष्पा की इसी कहानी का नाट्य रूपांतर ‘सीता गली’ शीर्षक से जेएनयू के वार्षिक नाट्य महोत्सव ‘रंग बयार’ में प्रस्तुत किया। समाज के वंचित और दमित तबके की आवाज़ बुलंद करने वाले और उसके अधिकारों को एक रूपरेखा व दिशा देने वाले डॉ. भीमराव अम्बेडकर के जन्मदिवस पर मैला ढोने वाली ‘छन्नो’ की दास्तान का मंचन इप्टा जेएनयू द्वारा किया जाना उस आंदोलन के साथ अपनी आवाज़ मिलाना है जो वंचितों के अधिकार की हिमायत करता है।

आज जबकि मैला साफ करने के लिए अभिशप्त दलित समुदाय के एक वर्ग को वैकल्पिक रोजगार मुहैया करा चुकने की और ‘इस कार्य में अब पूरे हिन्दुस्तान में कोई संलग्न नहीं है’ जैसी घोषणाएं सरकारी तौर पर की जा चुकी हों, तब नाटक का कथानक दलित समुदाय के उस जीवन को रेखांकित करता है जो उसके रोजगार के साधन से कहीं ज़्यादा उसकी जाति के आधार पर सामाजिक व्यवस्था द्वारा तय किया जाता है। कथानक के अनुसार जब तक छन्नो मेहतर बस्ती में रहते हुए सीतागली के सारे घरों का मैला साफ करती है तब तक वह सब की प्रिय है। उसके विवाह, बेटी के जन्म और पति की मृत्यु पर गली के सारे परिवारों का व्यवहार उसके प्रति वैसा ही है जैसा अपने परिवार के सदस्य के प्रति हो। वे उसकी खुशी में खुश भी होते हैं और उसके ग़म में सांत्वना भी देते हैं। लेकिन जैसे ही वह उनकी गली में एक मकान ख़रीदती है, सबकी आँखों की किरकिरी बन जाती है। कथानक के यहाँ पहुँचने पर एक और महत्वपूर्ण बिंदु उद्घटित होता है कि छन्नो केवल इसलिए सबकी आँखों में नहीं खटक रही है कि वह नीची जाति की है, बल्कि इसलिए भी खटक रही है क्योंकि उसने जिस मकान को ख़रीदा है उस पर मोहल्ले वालों की नज़र थी। मकान की पूर्व मालकिन कुसुमी की अम्मा वृद्ध और असहाय है, अकेली है जिसे मोहल्ले से खदेड़ने के लिए उस पर रात में हमला किया गया, उसने मकान छन्नो को बेचा जो विधवा है और संतान सिर्फ एक बेटी है रज्जो। कहानी के अंत तक चलने वाली रज्जो और छन्नो के चरित्र हनन और घर में आग लगाने वाली घटनाएं यह भी स्पष्ट करती हैं कि एक अकेली स्त्री को संपत्ति से बेदख़ल करने के लिए क्या-क्या प्रपंच किये जाते हैं, भले ही फिर वह नीची जाति की छन्नो हो या फिर उच्च जाति की कुसुमी की अम्मा। फिर छन्नो का मेहतरानी होकर भी उच्च जातियों के बीच आ बसना तो वैसे भी सबके लिए छाती पर साँप लोटने जैसा था ही।

छन्नो के सीतागली में आ बसने पर गली वालों की बौखलाहट, छन्नो के बहिष्कार और उसे सबक सिखाने के इरादों के बीच उमेश और सुरेखा की छन्नो के प्रति सहानुभूति, पेशकार के छन्नो के प्रति अनुराग के तार भी दिखाई देते हैं। उमेश, सुरेखा की सांत्वना और पेशकार का ढाढस ऐसे तार हैंं जो भीतर कहीं उसका भला चाहते हैं लेकिन समाज के बीच कुछ कहने से कतराते हैं कि कहीं उन पर कोई उंगली न उठे। खुलकर छन्नो की लानत-मलामत कर रहे बाकी किरदारों की तुलना में यह किरदार एक तरफ इन्सानियत का अहसास भी कराते हैं क्योंकि वे छन्नो की सलामती को लेकर बेचैन हैं, वहीं समाज की उस मानसिकता को भी दिखाते हैं जहाँ सच जानते हुए भी अपनी खाल बचाने के लिए चुप रह जाना बेहतर समझा जाता है।

गली वालों के दुव्र्यवहार के बाद रज्जो की जिद के चलते छन्नो द्वारा मैला साफ करने का काम बंद कर देना सीतागली के निवासियों के लिए बड़ी मुसीबत खड़ी कर देता है। पूरी गली गंदगी से किचपिचाई हुई पड़ी है। वे तमाम जतन करते हैं कि छन्नो के बिना उनका काम चल जाए पर जब नहीं चलता तो वे पुलिस का सहारा लेते हैं, यह सोचकर कि पुलिस की धौंस के आगे छन्नो काम पर वापस आना शुरू कर देगी। वे छन्नो को बहलाने की भी कोशिश करते हैं लेकिन रज्जो के आत्मसम्मान और तीखे तेवरों के आगे उनकी यह कोशिश नाकामयाब होती हैं। यहां छन्नो और रज्जो के बहाने दो पीढ़ियों का द्वंद्व भी सामने आता है। छन्नो के लिए उसके संडास ही उसकी जिन्दगी हैं, उसके संवादों में इस काम को अपनी नियति मान लेने, गली वालों के विरोध के बाद सब कुछ खत्म हो जाने का भाव है। रज्जो इसे नियति नहीं मानती, वह बेहतर और गौरवपूर्ण जीवन की ओर कदम बढ़ाने की हिमायती है और इसके लिए वह मोहल्ले वालों के चेहरों पर चढ़े भलमनसाहत के नकाब को नोंचने से भी नहीं चूकती, वह सबको कड़े जवाब देती है। वह समाज में मौजूद दोहरे मापदण्डों और उच्च वर्ग द्वारा तैयार किये गए सामाजिक नियमों की सारी परतों को उधेड़ देना चाहती है जिनके नीचे उसका, उसके पूरे समुदाय का अस्तित्व दबा दिया गया है। कुल मिलाकर छन्नो के इर्द-गिर्द घूमने वाली कहानी, सभ्य समाज के दोहरे चरित्र, जाति व्यवस्था पर चोट करते हुए संपत्ति पर महिलाओं के अधिकार, जाति आधारित कर्म और जाति से बाहर इन्सान के अस्तित्व जैसे कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर गंभीर विमर्श की ज़रूरत को उजागर करती है।

नाटक की शैली ऐसी थी कि तकरीबन हर कलाकार अपने आप में एक किरदार भी था और किस्सागो भी। हालांकि कुछ जगहों पर अंतिम दर्शक तक आवाज़ पहुँचाने में सफलता हाथ नहीं लगी और तकनीकी पूर्वाभ्यास का अभाव नजर आया, बावजूद इसके नाटक अपने शुरुआती 50 मिनट तक कहीं भी दर्शक को ऊबने का मौका नहीं देता। केवल अंतिम दृश्य में आकर एक लंबे एकल संवाद के चलते नाटक की गति कुछ धीमी पड़ जाती है। दर्शकों की प्रतिक्रिया के अनुसार सभी कलाकारों ने अपनी भूमिका बहुत ही अच्छे ढंग से निभाई। कम संवादों के बावजूद अपने अभिनय कौशल से कृतिका भाटिया ने अम्मा की ठसकदार मौजूदगी को बनाए रखा। छन्नो की भूमिका में शिखा सलारिया व बिपाशा घोष और रज्जो की भूमिका मेें इन्दु के अभिनय ने दर्शकों को बांधे रखा। इसके अलावा सुरेखा, मुंशियानी, पंडिताइन, उमेश, मिर्ज़ा जी, पेशकार, पंडित डम्बर प्रसाद की भूमिका में क्रमशः वर्षा आनंद, इति शरण, शिखा सलारिया, क्षितिज वत्स, रजनीश ‘साहिल’, शिशु चंदम व निशांत चैहान की प्रस्तुति को दर्शकों ने सराहा। हवलदार की छोटी सी भूमिका में विनोद कोष्टी और मिर्जा जी के चेले व राजपाल की भूमिका में कैलाश पाण्डे ने अपनी अलग छाप छोड़ी।

नाटक का सबसे मजबूत पक्ष कथानक के अनुरूप गीतों का समावेश रहा। ‘ये सब कहने की बात है’, ‘जात में आकर नाम बदलते’ ‘जो दूर-दूर चलते थे उल्फ़त जता रहे’ और ‘आओ खोलें घूरे की परतें’ जैसे गीत न केवल कहानी को आगे बढ़ा रहे थे बल्कि विषय से जुड़े अन्य बिन्दुओं को भी दर्शकों के सामने रख रहे थे। मनीष श्रीवास्तव और रजनीश ‘साहिल’ के लिखे गीतों की धुन तैयार की थी बिपाशा घोष, कैलाश पाण्डे और विशाल धीमान ने। कहानी को मंचीय नाटक और किस्सागोई की मिली जुली शैली में प्रस्तुत करने के मनीष श्रीवास्तव के निर्देशकीय प्रयोग, गीत-संगीत और कलाकारों को दर्शकों से मिली सराहना के आधार पर कहा जा सकता है कि दर्शकों के जे़हन तक अपनी बात पहुँचाने के अपने उद्देश्य में नाटक सफल रहा।

- रजनीश ‘साहिल’ 09868571829

Thursday, April 17, 2014

Defeat the model of divisive and communal forces

THE RESOLUTION PASSED AGAINST THREAT OF COMMUNAL FASCISM BY JOINT COMPAIGN COMMITEE OF WRITERS AND CULTURAL ORGANISATIONS AT THE BEHEST OF P.W.A ,I.P.T.A , JALES AND JASAM ON 9TH APRIL 2014 AT VARANASI
The parliamentary elections in 2014 are being held in a situation where a typical combination of corporate, media and fascist forces have combined on the issue of so called development which in last more than two decades has increased the miseries of farmers, advisis, dalits, minorities, women and working class as a whole and has widened the gap between affluent and deprived classes.
The model being projected has deep rooted disrespect to centuries old composite culture, unity in diversity, harmony and anti-imperialistic secular legacy of our freedom struggle . Never before the so called free media has come out in such a big way to manufacture consent in favour of this model openly and discretely supported by some communal swamis and religious gurus.
This model has specifically chosen Varanasi as their next center after Ayodhya and Gujrat to carry forward their soft fascist hindutva agenda under the leadership of Narendra Modi. If allowed to succeed, this model of 'SANGH PARIVAR' shall not only lead to chaos, disintegration, social- disharmony but shall also result in curbing basic democratic rights and privileges earned by deprived sections of the society within the framework of our constitution. There is no space for serious literature, culture, scientific temperament, freedom of expression, issues related to international brotherhood, peace, disarmament and environment in this model.
We the writers, artists, social and cultural activists are of the firm opinion that this model of hatred, violence and of many hidden agendas is anti- people. We know that Varanasi , since ages being a seat of our cultural ethos and free intellectual discourse shall not allow the chief propagator of this model to succeed. We call upon the electorate of Varanasi and of whole country to defeat this model of divisive and communal forces and to elect a pro people alternative.
Date : 09.04.2014, Varanasi

Wednesday, April 16, 2014

लेखकों-कलाकारों ने की सांप्रदायिक ताकतों को हराने की अपील

वाराणसी। प्रगतिशील लेखक संघ, इप्टा, जलेस और जसम के लेखकों और सांस्कृतिक संगठनों की सयुंक्त अभियान समिति द्वारा सांप्रदायिक फासीवाद के खतरे के खिलाफ वाराणसी में 9 अप्रैल 2014 को पारित प्रस्ताव

2014 में संसदीय चुनाव ऐसी स्थिति में हो रहा है जब कार्पोरेट, मीडिया और फासीवादी ताकतों ने तथाकथित विकास के मुद्दे पर गठजोड़ बना लिया है. इस विकास ने पिछले दो दशकों से अधिक के समय में किसानों, आदिवासियों दलितों, और अल्पसंख्यकों की तकलीफें बढाई हैं , तथा अमीर और वंचित वर्गों के बीच की खाई चौड़ी की है .

जनता के सामने पेश किया जा रहा यह मॉडल सदियों पुरानी मिली –जुली संस्कृति , अनेकता में एकता,सद्भाव और हमारे स्वतंत्रता संग्राम की साम्राज्यवाद विरोधी,धर्मनिरपेक्ष विरासत का असम्मान है. तथाकथित स्वतंत्र मीडिया अभूतपूर्व ढंग से इतने बड़े पैमाने पर इस मॉडल के प्रति सहमति गढ़ने के लिए खुलेआम आ गया है और जो अलग-अलग तरीकों से कुछ सांप्रदायिक स्वामियों और धार्मिक गुरुओं द्वारा समर्थित है

अयोध्या और गुजरात के बाद इस मॉडल के अगले केंद्र के रूप में वाराणसी को चुना गया है ताकि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में उनके नरम फासीवादी हिंदुत्ववादी एजेंडे को आगे ले जाया जा सके. अगर इसे सफल होने दिया गया तो “संघ परिवार” का यह मॉडल न सिर्फ अराजकता ,विघटन ,सामाजिक वैनमस्यता की ओर ले जायेगा बल्कि समाज के वंचित वर्गों द्वारा हमारे संविधान के तहत अर्जित मूल लोकतांत्रिक अधिकारों और सुविधाओं में कटौती करेगा. इस मॉडल में गंभीर साहित्य, संस्कृति, वैज्ञानिक प्रवृति, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, अंतर्राष्ट्रीय भाईचारे, शांति, निरस्त्रीकरण और पर्यावरण से संबंधित मुद्दों के लिए कोई स्थान नहीं है.

हम लेखकों, कलाकारों, सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं की दृढ़ राय है कि घृणा, हिंसा और बहुत से गुप्त एजेंडों वाला यह मॉडल जनविरोधी है. हम जानते हैं कि युगों से हमारे सांस्कृतिक मूल्यों एवं मुक्त बौद्धिक विमर्श का स्थान वाराणसी इस मॉडल के मुख्य प्रचारक को सफल नहीं होने देगा .हम वाराणसी और पूरे देश के मतदाताओं से अपील करते हैं कि विभाजनकारी और सांप्रदायिक ताकतों के इस मॉडल को हरायें तथा जनपक्षधर विकल्प का चुनाव करें.

- प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस), भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा), जनवादी लेखक संघ (जलेस), जन संस्कृति मंच (जसम)
दिनांक: 2014/09/04, वाराणसी

Wednesday, April 9, 2014

‘गढ़े जा रहे हैं नकली नायक’ : महादेव नारायण टंडन स्मृति व्याख्यान में शैलेन्द्र कुमार

गरा। अहंकार, वर्चस्व और दंभ की भाषा राष्ट्रवाद के वास्तविक विचार से कोसों दूर है। आभासी सत्य की दुनिया टेक्नोलॉजी के सहारे नकली नायकों को गढ़ रही है। यह बात झारखंड के युवा सामाजिक कार्यकर्ता शैलेन्द्र कुमार ने कही। वे 6 अप्रेल को स्वतंत्रता सेनानी और कम्युनिस्ट नेता कामरेड महादेव नारायण टंडन की 11 वीं पुण्यतिथि पर बोल रहे थे।

आगरा के माथुर वैश्य भजन सभागार में रविवार को ‘वैकल्पिक राजनीति की चुनौतियां’ विषय पर विचार व्यक्त करते हुए शैलेन्द्र कुमार ने ‘भारत दुर्दशा’ को रेखांकित करते बाजार के दबावों, विकास के वैकल्पिक रास्ते की जरूरत, राजनीति और संस्कृति के अंतर्संबंधों का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि कामना की राजनीति ज्यादा आसान है, बदलाव की कोशिशें मुश्किल हैं। इसके लिए विमर्श और जनता से व्यापक जुड़ाव जरूरी है।

इस दौरान इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के उपाध्यक्ष डा. जेएन टंडन ने कहा कि युवाओं से नई राजनीतिक सभ्यता व संस्कृति के निर्माण की आशाएं हैं। अध्यक्षीय भाषण में सर्वोदयी नेता शशि शिरोमणि ने अर्थव्यवस्था की ओर से समाजशास्त्र के खत्म होने की बात कही। इस दौरान डा. केसी गुरनानी, हरीश सक्सेना, चौ. बदन सिंह, डा. मुनीश्वर गुप्ता, रमाशंकर राजपूत, अरूण सोलंकी, एमपी दीक्षित, एसके समी, मुकेश अग्रवाल, राहुल कुमार आदि मौजूद रहे। श्रमिक नेता रमेश मिश्रा ने सभी का आभार जताया। संचालन समन्वयक जितेन्द्र रघुवंशी ने किया।

•माथुर वैश्य सभागार में‘वैकल्पिक राजनीति की चुनौतियां’ विषय पर बोले सामाजिक कार्यकर्ता शैलेन्द्र कुमार

Monday, April 7, 2014

इप्टा, छपरा के बालमंच द्वारा "अंधेर नगरी" का मंचन


छपरा। विश्व रंगमंच दिवस आैर हिंदी रंगमंच दिवस के मौके पर इप्टा, छपरा के बालमंच द्वारा भारतेंदु के कालजयी नाटक "अंधेर नगरी" का मंचन स्थानीय रामजयपाल कालेज परिसर में किया गया। नाटक का निर्देशन कंचन बाला ने किया था। इसके माध्यम से कमजोर आैर निरंकुश शासन तंत्र की विडंबनाआें को रेखांकित करते हुए सशक्त प्रजातंत्र के लिये लोकतंत्र के महापर्व में मतदान की अपील की गयी।

नाटक में दुर्बल, डरपोक आैर सिरफिरे राजा की भूमिका में संभव संदर्भ ने कमाल का अभिनय किया। वहीं मंत्री के रूप में आरीन राज आैर अन्य भूमिकाआें में सि़द्धार्थ, अनुभव, सागर मित्रा आैर रीतिका ने भी उल्लेखनीय भूमिकायें कीं। इंशा जहरा, सोनल, श्रुति, अदीब हसन, कारूण्य राज, आदित्य दुबे, भास्कर बोस के मासूम आैर सहज अभिनय से नाटकीय कथ्य प्रच्छन्न रूप से जीवंत हो सका।

लोहा सारा उन लोगों का, अपनी केवल धार : अजय आठले को रंगकर्म सम्मान

रायगढ़ (छत्तीसगढ) इप्टा के साथी अजय आठले को विगत् दिनों रायपुर के  महाराष्ट्र मंडल द्वारा सत्यदेव दुबे स्मृति रंगकर्म गौरव सम्मान दिया गया। इस अवसर पर उनके द्वारा दिये गये वक्तव्य के असंपादित अंश :


मित्रों ,
मै महाराष्ट्र मंडल रायपुर का आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे इस सम्मान के योग्य समझा किन्तु मुझे यह सम्मान ग्रहण करने में संकोच हो रहा है। जिस महान रंगकर्मी के नाम पर यह सम्मान दिया जा रहा है,  उन्होंने जितना कार्य रंगकर्म के क्षेत्र में किया है उनकी तुलना में मै बहुत ही छोटा हूँ। सत्यदेव जी से मेरा व्यक्तिगत परिचय नहीं था मगर उनके कार्यों के बारे में बचपन से धर्मयुग जैसी पत्रिकाओं में पढता रहा हूँ। मराठी के प्रख्यात नाटककार गोविन्द पुरषोत्तम देशपांडे जी ने लिखा था कि उनके लिखे नाटकों को सबसे अच्छी तरह से दुबे जी ही से समझ पाते है।  मैं अपने नाटकों का पहला ड्राफ्ट उन्हें ही देता हूँ जबकि वैचारिक स्तर पर दुबे जी और गो.पु. जी दोनों ही दो अलग अलग ध्रुव थे। मगर दोनों एक दूसरे का सम्मान करते थे। यह एक संयोग है कि मै गोविन्द पुरषोत्तम देशपांडे जी कि स्कूल का छात्र हूँ, मगर मुझे सम्मान दुबे जी कि स्मृति में दिया जा रहा है। ऐसा अब शायद कला के क्षेत्र में ही सम्भव है ।

दोस्तों,  आज हम बेहद कठिन समय में जी रहे हैं। मै यह मानता हूँ कि रंगमंच को फ़िल्म और टीवी ने नुकसान नहीं पहुँचाया, मगर हमारी नयी आर्थिक व्यवस्था ने गम्भीर नुकसान पहुँचाया है। पहले कलाएं या तो राज्याश्रित हुआ करती थीं या फिर लोकाश्रित, मगर दोनों के बीच एक रिश्ता भी था और एक दूसरे को प्रभावित भी करती थीं। मगर इस नयी अर्थव्यवस्था में जब से बाज़ार का उदय हुआ इसने कलाओं को बहुत नुकसान पहुँचाया। ये अब बाज़ाराश्रित हो गयीं। हमारे समय में सुरों कि महफ़िल सजा करती थी मगर बाज़ार ने इसे सुरों के संग्राम में बदल दिया। हर जगह प्रतियोगिताएं होने लगीं और व्यक्तिवादिता को बढ़ावा मिलने लगा जिससे रंगकर्म जैसी सामूहिक कला को बहुत नुकसान पहुंचा। जिन्हे थोडा भी सुरों का ज्ञान होता है वो अब नाटकों में नहीं आता वो अब सुरों के संग्राम में चला जाता है। जिसे थोडा भी नृत्य आता है, वो अब डांस इंडिया डांस में चला जाता है। जिसे ये सब नहीं आता वो ही अब नाटक में आता है और उनको ही लेकर हमें नाटक करना पड़ता है।
 
इस व्यक्तिवादिता ने सर्वसमावेशी विकास को तो नुकसान पहुँचाया ही है मगर इसने लोकतंत्र के सामने भी गम्भीर चुनौतिया खड़ी कर दीं है। समाज में जब व्यक्तिवादिता बढती है तो समाज में तानाशाही कि प्रवृति को भी प्रश्रय मिलता है,प्रजातान्त्रिक मूल्यों को चोट पहुंचती है आज सबसे ज्यादा हमले प्रजातान्त्रिक संस्थानो पर ही हो रहे हैं ,प्रजातान्त्रिक मूल्यों को चोट पहुंचायी जा रही है,ऐसे समय में मुझे लगता है कि जो लोग रंगकर्म कर रहे हैं वो लोग इस देश में प्रजातान्त्रिक मूल्यों को बचाने कि कोशिश में लगे है और प्रजातंत्र को मजबूत कर रहे हैं यही आज कि सबसे बड़ी क्रांति है। 

बंसी दादा ने एक बार कहा था कि इस देश में तकरीबन पचास हज़ार नाट्य संस्थाएं कार्यरत हैं और अगर अमूमन एक संस्था के पीछे 10-12 सदस्य मान लिया जाये तो यह संख्या 5 से 6 लाख के बीच होती है। ये पांच से छः लाख लोग रंगकर्म से जुड़े हैं या कह लें कि प्रजातान्त्रिक मूल्यों कि रक्षा में जुड़े हैं वैसे देखा जाय तो यह संख्या बहुत छोटी है और बाज़ार बेहद शक्तिशाली। ऐसा लगता है मानो जंगल में आग लगी है और छोटी -छोटी चिड़ियाँ अपनी अपनी चोंच में पानी लेकर इस आग को बुझाने में प्रयास रत हैं। इन स्थितियों में कभी कभी निराशा भी घेरती है। संत कबीर जिन्होंने अपना सारा जीवन अन्याय और असमानता के खिलाफ लगा दिया था और अंतिम समय में भी उन्होंने काशी कि जगह मगहर में जाकर प्राण त्यागे थे वो भी अपने जीवन के उत्तरकाल में निराश हुए थे और उन्होंने गाया था "नैहर से जियरा नैहर से जियरा" तो हम जैसे लोग तो उनकी तुलना में बेहद छोटे लोग हैं। परन्तु मित्रों समाज जब हमारे कार्यों का मूल्यांकन करता है ,हमारे कार्यों को मान्यता देता है तब ये निराशा के बादल छंट जाते हैं तब मन कहता है अब नैहर से जियरा फाटे रे नहीं गाऊंगा अब तो गाऊंगा "कबीरा खड़ा बाज़ार में लिए लुकाठी हाथ ,जो घर फूंके आपनो चले हमारे साथ।"

दोस्तों रंगकर्म एक सामूहिक कर्म है। मै आज जो कुछ भी हूँ इसके पीछे वो लोग हैं जिन्होंने मेरे साथ इन तीस वर्षों में काम किया है। मैंने तीन पीढ़ियों के साथ काम किया है। कुछ लोग अब इस दुनिया में नहीं हैं, कुछ लोग अपनी व्यक्तिगत व्यस्तताओं से दूर हो गए हैं मगर जब तक उन्होंने काम किया जम कर किया। उषा के बिना तीस वर्षों का यह सफ़र असम्भव था। आज यह गौरव सम्मान मै उन सभी छह लाख अनाम साथियो,उषा और इप्टा में मेरे साथ तीस वर्षों तक काम करने वाले साथियों कि ओर से स्वीकार करता हूँ और उन्हें ही यह समर्पित भी करता हूँ बकौल अरुण कमल, "अपना क्या है इस जीवन में ,सब कुछ लिया उधार ,लोहा सारा उन लोगों का,अपनी केवल धार।" धन्यवाद।