Friday, March 14, 2014

गर्भ : हिंदी थियेटर को ताकत प्रदान करने वाली प्रस्तुति

-आलोक भट्टाचार्य

28 फरवरी की शाम मुंबई के रवीन्द्र नाट्य मंदिर के मंच पर नाट्यकार-रंगकर्मी मंजुल भारद्वाज के नाटक ‘गर्भ’ का मंचन देखा. मेरे साथ दर्शक दीर्घा में हिन्दी के वरिष्ठ लेखक गोपाल शर्मा और प्रसिद्ध शायर सैयद रियाज रहीम भी थे. नाटक के लेखक-निर्देशक मंजुल भारद्वाज ने ‘गर्भ’ के माध्यम से कई नए प्रयोग किए हैं. पहला प्रयोग तो यही कि नाटक की कोई निर्दिष्ट कहानी नहीं है. डेढ़ घंटे के इस नाटक का आधार सिर्फ कुछ भाव, कुछ विचार और कुछ परिस्थितियाँ हैं. गर्भ में क्रमशः आकार पा रहे भ्रूण की वे चिंताएँ इस नाटक में अभिव्यक्ति पाती हैं, जन्म की तमाम नकारात्मक स्थितियों से मुठभेड़ से से संबद्ध जो चिंताएँ उसे आतंकित करती रहती हैं. संसार-समाज की इन नकारात्मक परिस्थितियों में जहाँ कुसंस्कार-अंधविश्वास है, वहीं राजनीतिक भ्रष्टाचार, जातिवाद, प्रांतवाद, भाषावाद और सांप्रदायिक दंगों सहित निहित स्वार्थजनित वे तमाम षडयंत्र हैं, जिनका निरंतर सामना जन्म से लेकर मृत्यु तक किसी व्यक्ति को करना पड़ता है. गर्भस्थ भ्रूण जिसकी कल्पना मात्र से ही आतंकित होकर वापस अपनी माँ के गर्भ को ही विश्वासयोग्य आश्रयस्थल मानकर उसी की निश्चिंत शरण की कामना करता है.

यदि मंजुल भारद्वाज इसी बिंदु पर नाटक को समाप्त करते, तो वह समाज-संसार के विरूद्ध एक नकारात्मक संदेश होता, लेकिन मंजुल के भीतर के प्रगतिशील चिंतक ने ऎसा नहीं होने दिया, और भ्रूण के उस आत्मविश्वास को सामने रखा, जिसके बल पर वह इस संसार की खूबसूरती को देख पाता है और समाज के न्यायप्रिय तथा सहानुभूतिपूर्ण उस उजले पक्ष को जान पाता है, जिसके दम पर तमाम अन्यायों के बावजूद यह दुनिया जीवित है, जीवंत है.

मंजुल ने बड़ी खूबसूरती से भ्रूण के जन्म, अस्तित्व और भावनाओं के साथ प्रकृति और पर्यावरण के गहरे रचनात्मक रिश्तों की शाश्वतता को भी उभारा है. और लगे हाथों पर्यावरण-प्रदूषण के खिलाफ भी चेतावनी दे दी है. उन्होंने पौराणिक-वैदिक काल से ही शास्त्रीय आतंक के आवरण में वर्णित पंचभूत-पंचतत्व को धार्मिक-आध्यात्मिक संभ्रम से मुक्त करके सहज प्राकृतिक सत्य और स्वाभाविक प्रक्रिया के रूप में उपस्थित किया है. मनुष्य के साथ प्रकृति और पर्यावरण के रिश्ते की मार्मिक व्याख्या की है.

प्रस्तुति के समापन को मंजुल ने बहुत ही उद्देश्यपूर्ण और जीवंत बना दिया है, जब मंचस्थ सभी कलाकारों ने मंच से नीचे आकर दर्शकों के हाथ थामकर उन्हें भी मंच पर ले जाकर नाटक के कथ्य और मंचन का सहभागी बना दिया. अभिनेता-अभिनेत्रियों के साथ दर्शकों को भी मंच पर थिरकते-समूहगान गाते देख यह अहसास होता है कि थियेटर मात्र कोई निहारने की कलावस्तु नहीं, वह जीवन का सहज अंग है और खास-ओ-आम जन-साधारण के भीतर भी सतत उपस्थित है, उसे बस जगाने भर की देर है. ऎसा करके मंजुल ने न सिर्फ यह साबित किया कि ‘गर्भ’ के कथ्य से दर्शक पूर्णतः सहमत हैं, बल्कि यह भी बताया कि ‘गर्भ’ के माध्यम से मंजुल जो संदेश वृहत्तर समाज को देना चाहते हैं, उस संदेश के संप्रचार-प्रसार में दर्शकों की जिम्मेदारी भी होनी चाहिए और भागीदारी भी. वैसे भी मंजुल मानते हैं कि दर्शक ही सबसे पहला रंगकर्मी होता है, क्योंकि नाटककार जहाँ अपने कथ्य दर्शक-समाज यानी समाज से ही उठाता है, वहीं प्रस्तुति को संभव भी दर्शक समाज ही करता है और सार्थक भी. रंगकर्म में दर्शकों की भूमिका-सहभागिता सर्वाधिक प्रेरक तत्व है.

‘गर्भ’ आदि से अंत तक एक स्तब्धकारी, वाकरूद्धकारीरोमांचक अनुभव है. वाक्य-वाक्य में संदेश है, क्षोभ है, आक्रोश है, लेकिन फिर भी कहीं भी तनिक भी बोझिल या लाउड नहीं, अत्यंत रोचक है. भावप्रवण के साथ-साथ बौद्धिक भी.  सभी कलाकारों ने उच्चस्तरीय अभिनय किया है. लेकिन प्रमुख पात्रों की लंबी बड़ी भूमिकाओं के सफल निर्वाह के लिए निश्चित रूप से अश्विनी नांदेड़कर और सायली पावस्कर की विशेष सराहना करनी ही होगी. शेष कलाकार है काजल देवंती, अली, अरुण और राहुल. इनमें से दोनों प्रमुख अभिनेत्रियों सहित दो-एक और भी कलाकार हिंदीतर भाषी हैं, अतः उनके यत्सामान्य उच्चारणदोष के बावजूद उनकी सराहना ही करनी होगी. पूरी प्रस्तुति ही रवीन्द्रनाथ ठाकुर की प्रख्यात नाट्यविधा ‘नृत्यनाट्य’ शैली में बाँधी गई है, जिसे ऎसा भावनृत्य कहा जा सकता है, जो बहुत ही सॉफ्ट हो. साहित्यकार गोपाल शर्मा ने इस नृत्यशैली को शास्त्रीय नृत्यशैली का विखंडन बताया.अत्यंत ही प्रभावशाली ‘गर्भ’ के गीतों की धुनों और पार्श्वसंगीत की रचना की है प्रसिद्ध गायिका-संगीतज्ञ डॉ. नीला भागवत ने. उनका काम भी सॉफ्ट होने के बावजूद परिपक्व है.

मंजुल ने प्रस्तुति के समापन के बाद अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए मुझे बुलाया, तो पूरी प्रस्तुति से प्रभावित और लगभग मुग्ध मैंने कहा कि इस प्रस्तुति ने मुझे पिछले 20-22 दिनों से चल रहे एक जबरदस्त शोक-पर्व से मुक्त किया. यह शोक था महान अमेरिकी गायक पीट सीगर (1920-2014) की मृत्यु का. अमेरिका का यह गायक अमेरिका भी जीवनभर पूँजीवाद और साम्राज्यवाद का कट्टर विरोधी तो रहा ही, रंगभेद-नस्लभेद का भी कठोर आलोचक रहा और संगीत के माध्यम से जीवनभर दलितों-शोषितों के पक्ष में अपनी रचनात्मक आवाज बुलंद करता रहा. दक्षिण अफ्रीका, वियतनाम आदि कई सन्दर्भों में यह मस्ताना गायक अमेरिकी होने के बावजूद अमेरिका के लिए असुविधाजनक और असमंजसकारी बना रहा. वह हमेशा ही अमेरिकी विदेशी नीति का कट्टर आलोचक रहा. अमेरिका में उनके गाने पर प्रतिबंध लगाया गया, उनके संगीत कार्यक्रमों में पत्थरबाजी की गई. उसके बैंड ‘वीवर्स’ पर वामपंथी होने के आरोप में रोक लगा दी गई. लेकिन तमाम अत्याचारों से बिल्कुल भी न डरकर पीट सीगर गाते रहे मुक्ति के गीत, आशाओं और स्वप्नों की पूर्त्ति के गीत.

साधारण लोग शायद उन्हें पहचान न पा रहे हों, लेकिन उनके जिस एक गीत ने उन्हें विश्वभर में अमर बना रखा है, जिस गीत ने पूँजीवाद-साम्राज्यवाद-शोषण-अत्याचार-नस्लभेद-रंगभेद आदि के खिलाफ तमाम जन आंदोलनों, मजदूर-किसान आंदोलनों को नई ताकत दी, नई प्रेरणा दी, जो गीत संघर्षशील जनता का एंथम यानी ‘अस्मिता-गीत’ के तौर पर जगभर का सर्वाधिक प्रसिद्ध गीत बनकर उभरा, उस ‘वी शैल ओवरकम वन डे’ के अमर रचनाकार-गायक के तौर पर दुनियाभर की गली-गली के बच्चे भी शायद उन्हें जान लें, पहचान लें. भारत में इस गीत का अनुवाद ‘हम होंगे कामयाब एक दिन’ कितना लोकप्रिय है, बच्चे-बूढे, शिक्षित-अशिक्षित हर वर्ग में, यह कहने की जरूरत नहीं. पीट सीगर के गीत का यह हिंदी अनुवाद किया है एक सीगर भक्त गायक प्रबुद्ध बंद्योपाध्याय ने.इन्हीं पीट सीगर की मृत्यु (94 वर्ष की उम्र में) के सदमे में मैं आकुल था, उससे छूट नहीं पा रहा था, कि मंजुल के ‘गर्भ’ की प्रस्तुति ने मुझे उबारा. ‘गर्भ’ देखकर मुझे लगा ‘आई हैव ओवरकम !’ यह प्रस्तुति हिंदी थियेटर को ताकत प्रदान करती है।

3 comments:

  1. Bahut badhiya likka hai Alokji ne. Paripreksha aor sandarbhon ke beech Manjulji ki natya kala ko paibast karte huye. Mujhe afsos hai kisi karanvash main is prastuti ko dekhne se mehroom raha. Insa alla fir moka milega. Dono ko badhai.

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  2. Bahut badhiya likka hai Alokji ne. Paripreksha aor sandarbhon ke beech Manjulji ki natya kala ko paibast karte huye. Mujhe afsos hai kisi karanvash main is prastuti ko dekhne se mehroom raha. Insa alla fir moka milega. Dono ko badhai.

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  3. Manjul Bhardwaj ji, aapke hindi rangmanch ke prati samarpan ko dekhkar va jankar bahut khushi hue.............. Bhaut bahut shubhkamnaye Aapko va aapke Rangmanchiya prayason ko !!!

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