Tuesday, February 25, 2014

इप्टा छपरा का 21 वां सम्मेलन, छेड़ा जायेगा सांप्रदायिकता के विरूद्ध रंग-अभियान

परा। देश में सबल धर्मनिरपेक्ष सत्ता की स्थापना,  नारी सशक्तिकरण और भ्रष्टाचार निषेध के लिए इप्टा,  छपरा का 21 वाँ सम्मलेन रविवार 23 फरवरी को ओम प्रकाश नगर रामजयपाल कॉलेज के ऑडिटोरियम में साम्प्रदायिकता के विरुद्ध कारगर रंग अभियान चला साझी संस्कृति अक्षुण रखने के संकल्प के साथ संपन्न हुआ। सम्मलेन का उद्घाटन प्राचार्य डॉ राम श्रेष्ठ राय ने किया तो वहीँ राज्य परिषद् सदस्य अजय कुमार अजय ,राज्यकार्य समिति सदस्य अमित रंजन और लाल बाबू यादव ने इप्टा कि अवधारणा को स्पष्ट करते हुए वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य में इप्टा और रंगकर्मियों की चिंता पर विस्तार से चर्चा की। डॉ लालबाबू यादव ,डॉ रामश्रेष्ठ राय और दिनेश कुमार पर्बत के तीन सदस्यीय अध्यक्ष मंडल की अध्यक्षता में संपन्न सम्मलेन में प्रस्ताव पारित किया गया कि इप्टा जनसंवाद कायम कर लोगों के बीच जाये कि देश गांधी के मार्ग पर ही चलेगा न कि गोडसे की राह में ।  सम्मलेन में जनहित में रंगकर्मियों से सबल विपक्ष की भूमिका निभाने की अपील की गयी। रंगकर्मियों पर लटकती काले क़ानून ड्रमस्टिक परफार्मेंस एक्ट को समाप्त करते हुए सांस्कृतिक नीति बनाकर तुरत लागू करने की सरकार से मांग, कि गयी। सीबीएससी की तर्ज़ पर बिहार बोर्ड के स्कूलों में नाटक का पाठ्यकर्म लागू करने की मांग भी की गयी। सम्मलेन प्रमंडलीय मुख्यालय छपरा में भिखारी ठाकुर रंगशाला के निर्माण तक सामान विचार धारा वाले सांस्कृतिक संगठनो के साथ लगातार संघर्ष , जेपी विश्वविद्यालय में नाटक की पढ़ाई शुरू करने के लिए अभियान का प्रस्ताव भी पारित किया गया। सम्मलेन में `साम्प्रदायिता के विरोध की जरूरत` पर सार्थक बहस की गयी। 21 वें सम्मलेन में सचिव अमित रंजन ने सचिव का प्रतिवेदन और साल भर के आय व्यय का लेखा जोखा पेश किया ,जिस पर बब्लू राही ,दिनेश कुमार पर्वत ,कंचन बाला ,लालबाबू यादव ,श्याम सानु , आरती सहनी ,चन्दन कुमार आदि ने गम्भीर बहस की और कतिपय संशोधनों के साथ धवनिमत से प्रतिवेदन पारित हुआ.

सर्वसम्मति से 21 सदस्यीय कार्यकारिणी का गठन किया गया। संरक्षक डॉ लाल बाबू यादव बनाये गए। अध्यक्ष डॉ वीरेंद्र नारायण यादव ,उपाध्यक्ष डॉ वीरेंद्र कुमार सिंह बीतन,डॉ राम श्रेष्ठ राय और श्याम सानु , सचिय अमित रंजन ,संयुक्त सचिव बबलू राही ,सह सचिव आरती साहनी और अशोक कुमार ,कोषाध्यक्ष दिनेश कुमार पर्वत बने ,उपाधयक्ष का एक पद रिक्त रखा गया। तो दूसरी ओर कार्यकारिणी सदस्यों में डॉ उषा कुमारी ,कंचन बाला ,पूनम सिंह ,रामबली सहनी ,चन्दन कुमार ,विवेक कुमार श्रीवास्तव ,मुन्ना कुमार ,शिवांगी सिंह का चयन किया गया ,तीन पद रिक्त रखे गए। 

कंचन बाला ,समीर परिमल ,बबलू राही ,रंजीत सिंह की जनवादी ग़ज़लों और लाल बाबू यादव के अभियान गीत से सम्मलेन का समापन हुआ। भिखारी ठाकुर रंगभूमि में इप्टा के साम्प्रदायिकता विरोधी नुक्कड़ नाटक अभियान `हल्ला बोल `का उद्घाटन संरक्षक डॉ लाल बाबू यादव ने किया ,कलाकारों द्वारा नुक्कड़ नाटक `सामरथ को नहीं दोष गुसाईं `की प्रस्तुति की गयी जिसमे मुन्ना कुमार ,रणजीत कुमार ,बिहारी कुमार ,अशोक कुमार ,सुग्रीव ,विनय ने अभिनय किया।

Friday, February 21, 2014

ताज की छाया में उर्फ किस्से आगरे के

गरा। ताजगंज की गलियां, राम बारात, चचा निसार और मियां सलीम की आपसी जोड़तोड़। तमाम सच्चे और काल्पनिक किरदारों को साथ लेकर लिखे गए नाटक के जरिए गुरुवार को आगरा और यहां के लोगों की अहमियत को बताने की कोशिश की गई। इप्टा की ओर से सूरसदन में प्रस्तुत किए गए नाटक ‘ताज की छाया में उर्फ किस्से आगरे के’ का मंचन देख, दर्शकों ने खूब तालियां बजाईं।

शिल्पग्राम में भीड़ न देखकर जिस तरह की निराशा जताई जा रही थी, गुरुवार को सूरसदन की तस्वीर उससे उलट थी। यहां नाटक देखने के लिए अच्छी खासी संख्या में लोग पहुंचे। चार लेखकों अमृतलाल नागर, राजेंद्र रघुवंशी, जितेंद्र रघुवंशी, विशाल रियाज के लिखे नाटकों का मंचन मार्मिक भी था और संदेश देने वाला भी। जितेंद्र रघुवंशी के नाटक ‘राम बारात’ के माध्यम से आगरा की प्रसिद्ध राम बारात की मस्ती और उसमें आने वाली परेशानियों को इंगित किया गया। बताया गया कि राम बारात के लिए पापड़ भी बेलने पड़ते हैं।

नाटक ‘क्या कहने आगरे के’ के जरिए ताजगंज की बस्तियों के उस दौर को दिखाया गया, जब यहां जूते के कामकाज में घाटा होने के बाद कारीगरों की कमी हो गई थी। सभी चाय की दुकानों पर अपनी जिंदगी के सपनों में खोया करते थे। वहीं निसार के फिल्म बनाने की हसरत और मियां सलीम के शेर-ओ-शायरी व फेंकू किस्म की प्रवृत्ति पर मोहल्ले के लड़के उन्हें छेड़ा करते थे।

-अर्जुन गिरी

























Wednesday, February 19, 2014

मुक्तिबोध और इप्टा के मेल की रंग-भाषा

रायपुर इप्टा का 17वां ‘मुक्तिबोधी’ नाट्य समारोह

-संजय पराते

मुक्तिबोध हिन्दी और छत्तीसगढ़ के एक ऐसे कवि हैं, जो अपनी विशिष्ट काव्य-भाषा व वामपंथी काव्य-चेतना के लिए जाने जाते हैं। उनकी याद में रायपुर इप्टा द्वारा आयोजित नाट्य समारोह ने संस्कृति के क्षेत्र में एक ऐसे रंग-समारोह का रुप ले लिया है, जो अपने विशिष्ट रंग-हस्तक्षेप के लिए अब जाना जाता हैं। मुक्तिबोध और इप्टा का यह मिलन भाषा को रंग से जोड़ता है और एक नयी रंग-भाषा का सृजन करता है। इस बार 8-11 फरवरी, 2014 तक आयोजित इस 17वें समारोह में पूर्व-रंग भी शामिल था, जो मुक्तिबोध की कविताओं को संगीत में ढालकर भाषा को रंग से जोड़ रहा था और एक नयी रंग-चेतना पैदा कर रहा था। इस प्रकार रंग और भाषा मिलकर संस्कृति के क्षेत्र में एक सार्थक हस्तक्षेप कर रही थी।

रायपुर इप्टा के 17वें मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाट्य समारोह की शुरूआत यदि विजय तेंदुलकर के मराठी नाटक ‘अशी पाखरे येती’ (हिन्दी अनुवाद ‘पंछी ऐसे आते हैं’- सरोजिनी वर्मा) से हुई है, तो यह इप्टा के व्यापक वैचारिक सरोकार को ही दिखाता है। तेंदुलकर ने यह नाटक काफी समय पहले 70 के दशक में लिखा था, लेकिन तब से सामाजिक-राजनैतिक मूल्यों में और ज्यादा गिरावट आई है। स्त्री के प्रति सामंती सोच में आज भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। आज भी स्त्री प्रेम के लिए स्वतंत्र नहीं है, उस पर ‘खाप’ पंचायतों और‘ काली टोपी, खाकी पैंट’ का जबरदस्त पहरा है। वेंलेन्टाइन-डे पर मोरल पुलिसिंग और इज्ज़त के नाम पर हत्याओं के वीभत्स रूप सामने आ रहे हैं और देश के गली-कूचों में ‘निर्भया’ प्रकरण हो रहे हैं। इसीलिए यह पुराना नाटक आज भी जिंदा व सामयिक है।

विजय तेंदुलकर का रंग-संसार बहुत व्यापक है और रंग-छवियों को गढ़ने में उन्हें महारत हासिल है। इन छवियों में हमारी अपनी जिंदगी के सभी रंग घुलेहोते हैं। रंगों का ये समावेशन एक ऐसी दुनिया का सृजन करता है, जिससे रंग-दर्शक शीघ्र ही अपना तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं। यह आत्मीयता धीरे से दर्शकों को बौद्धिक विमर्श की ओर धकेल देती है-- इस विमर्श में समाज, राजनीति, संस्कृति सभी कुछ शामिल होते हैं और रंग-दर्शकों के अवचेतन पर प्रहार करते हैं। इस प्रहार से एक ऐसी सामाजिक-राजनैतिक चेतना का निर्माण होता है, जो समाज और जीवन को आगे बढ़ाता है और सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया को परिष्कृत करता है। तेंदुलकर सभ्यता और संस्कृति की खाल ओढ़े समाज की बेरहमी से चीर-फाड़ करते हैं और रंगमंच को प्रगतिशील सामाजिक परिवर्तन के लिए वैचारिक द्वंद्व का मंच बना देते हैं। वे समाज के साथ राजनीति के संबंधों को अनावृत्त करते हैं और इस मायने में वे महज़ नाटक रचते-गढ़ते नहीं हैं, बल्कि नाटकीय ढंग से समाज-संस्कृति के क्षेत्र में हस्तक्षेप करते हैं। इस प्रक्रिया को बाधित करने वाली दक्षिणपंथी-पुरातनपंथी सोच को यह हस्तक्षेप निश्चित ही रास नहीं आयेगा।

विजय तेंदुलकर का यह नाटक लगभग तीन घंटे का है और इसे सामयिक-संपादित कर डेढ़ घंटे का बनाने में निर्देशक मिनहाज़ असद की अथक मेहनत झलकती है। इसीलिए इस कसे हुए नाटक में झोल खोजना आसान नहीं है। रंगमंच पर सामाजिक अंतरसंबंधों से उपजा वैचारिक द्वंद्व शुरू से अंत तक बना रहा। इस रंग-तनाव ने रंग-दर्शकों की अंतर्चेतना को सोने नहीं दिया और दर्शकों की पूरा सहानुभूति नायिका सरू के साथ खड़ी हो गई। लेकिन सरू में जो अरूण आत्मविश्वास जगाता है, उसकी आंतरिक सुंदरता से उसे परीचित कराता है, स्त्री प्रेम के अधिकार की चेतना जगाता है और स्त्री-स्वतंत्रता का उद्घोष करता है, वही अरूण पुरूषवादी मानसिकता से मुक्त नहीं है और सरू के जीवन से पलायन कर जाता है। सरू के जीवन में प्रेम के लिए फिर वही विश्वास राव बच जाता है, जिसे उसने ठुकरा दिया था और फिर से प्रेम मां-बाप का एक थोपा हुआ बंधन बन जाता है।

आज का सामाजिक यथार्थ भी लगभग यही है। जवान बेटी की शादी न हो पाने की मां-बाप की चिंता और किसी भी तरह उसे घर से विदा करने का दबाव, सरू का विश्वास राव को नापसंद करना और अरूण के प्रति चाहत का इज़हार, फिर बाप-बेटा की प्रताड़ना और इस सबके बीच मां की विवशता, अंत में मां-बाप का अरूण के लिए तैयार होना, लेकिन उसका पलायन-- यह सब मिलकर एक ऐसी रंग-सृष्टि का निर्माण करते हैं, जिसके साथ दर्शक स्वयं को मंचस्थ पाता है। इस सबके बीच बण्डा की यह एकाकी चिंता कि सरू की शादी के बिना उसकी शादी कैसे हो पाएगी और इस चिंता को वह अपनी तथाकथित हिन्दू संस्कृति के गुणगान के जरिये औचित्य प्रदान करता है। मिनहाज़ असद ने पूरे नाटक के एक-एक फ्रेम को बड़ी ख्ूाबसूरती से गढ़ा-कसा है और निर्देशकीय कौशल का परिचय दिया है। पात्रों के अभिनय और मिनहाज़ के निर्देशन ने एक ऐसे रंगानुशासन का प्रभाव पैदा किया है, जो विजय तेंदुलकर के इस नाटक का पुनर्पाठ करता है। तेंदुलकर और मिनहाज़ की फ्रिक्वेंसी यहां पूरी तरह मैच करती है।

इस 6 पात्रीय नाटक में हर पात्र महत्वपूर्ण था और किसी की भी अनुपस्थिति से नाटक पूरा नहीं किया जा सकता था। इस नाटक के 4 पात्र सुनील तिवारी (अरूण), काशी नायक (अन्ना), संजय महानंद(बण्डा) तथा अंशु दास मानिकपुरी (सरू) तो सीधे छत्तीसगढ़ी सिनेमा से जुड़े हैं और सिनेमाई पोस्टरों में छाये रहते हैं। इन पोस्टरों से इप्टा-जैसे सांस्कृतिक सरोकारों के लिए उनका रंगमंच पर उतरना एक सुखद अनुभूति है और निश्चय ही सिनेमा के जरिये जो छाप वे नहीं छोड़ पाते, इस रंगमंच पर अपने अभिनय के जरिये उन्होंने छोड़ा है। सांस्कृतिक लठैतधारी (बण्डा) के रुप में संजय महानंद ने अपने बेहतरीन अभिनय की छाप छोड़ी है। नवीन त्रिवेदी जनसंचार के छात्र रहे हैं और रंगकर्म को यदि वे संवाद-संचार का माध्यम बना रहे हैं, तो उनका स्वागत ही किया जाना चाहिए। विश्वास राव के रूप में अपने छोटे से रोल में उन्होंने अच्छा अभिनय किया है। विनीता पराते अपेक्षाकृत एक नयी अभिनेत्री है और यह उनका चैथा नाटक ही है, लेकिन अपने अभिनय को उन्होंने और निखारा है। मां के चरित्र को उन्होंने सहज तरीके से जिया है। कुल मिलाकर, अभिनय और निर्देशन ने इस नाटक को यादगार बना दिया। असीम दत्ता और हरमीत सिंह जुनेजा ने नाटक के संगीत को तैयार किया था। सादगी भरे मंच को अरूण काठोटे ने तैयार किया था और युवा पात्रों को प्रौढ़ रुप देने का बेहतरीन काम सुभाष धनगर का था। प्रकाश व्यवस्था का काम बल्लू सिंह संधू ने बेहतरीन ढंग से संभाला।

समारोह के तीसरे दिन ‘विवेचना’, जबलपुर ने भी तेंदुलकर के नाटक ‘खामोश! अदालत जारी है’ का मंचन किया। इस नाटक का मंचन कई टीमों द्वारा रायपुर में हो चुका है, लेकिन निर्देशक विवके पांडे इसमें अपना रंग भरने में सफल रहे और कई बार देखे-सराहे जा चुके इस नाटक को प्रस्तुत कर एक बार फिर से उन्होंने सराहना बटोरी। विजय तेंदुलकर कोई क्लासिक नहीं रचते, लेकिन इस नाटक में हिंसा-प्रतिहिंसा का एक ऐसा खेल जरूर खेलते हैं कि सभ्यता की खाल ओढ़े वकील सुखात्मे (आशुतोष द्विवेदी), नाट्य मंडली के मालिक काशीकर (नवीन चैबे), उसकी पत्नी (अर्पणा शर्मा), सेवक बालू , सावंत (अमित निमजे), कार्णिक (सूरज राय), रोकड़े (मनीष तिवारी) और पोंछे (रविन्द्र मुर्हार) आदि सभी की परतें धीरे-धीरे खुल जाती है और उनका ओछापन तथा लघुता सबके सामने आ जाती है। पूरी थीम नाटक के अंदर नाटक की है। इस काल्पनिक नाटक में जिस मिस बेणारे (अलंकृति श्रीवास्तव) पर भ्रूण हत्या का आरोप लगाया जाता है, उसके खिलाफ फैसला दिया जाता है कि समाज व सभ्यता को कलंकित होने से बचाने के लिए वह अपने गर्भ में पल रहे भ्रूण को गिरा दे। इस प्रकार तेंदुलकर मनुष्य की पाशविक प्रवृत्ति को उजागर करते हैं। निर्देशन, संगीत, प्रकाश, अभिनय-- सब मिलाकर नाटक को बेहतरीन तरीके से आगे बढ़ाते हैं और पूरा नाटक रंग-दर्शकों की चेतना को झकझोरने में कामयाब होता है। मिस बेणारे की भूमिका में अलंकृति श्रीवास्तव के अभिनय को अलग से रेखांकित अवश्य करना चाहिए कि उन्होंने चरित्र के अंदर घुसकर अभिनय किया है और उनका अभिनय इतना बेहतरीन था कि नाटक समाप्त होने के बाद भी वे चारित्रिक अवस्था से बाहर नहीं आ पाई थीं। इतने संवेदनशील और विवादित विषय पर अभिनय के बल पर वे रंग-दर्शकों की सहानुभूति और समर्थन मिस बेणारे के लिए ले पाई। एक दूसरे दृष्टिकोंण से यह नाटक स्त्री देह की स्वतंत्रता, उसकी निजता और गरिमा तथा वर्तमान में साहित्य में चल रहे स्त्री विमर्श से भी जुड़ता है। अपने समय में तेंदुलकर ने भारतीय समाज में स्त्री की जिस स्थिति को रेखांकित किया था, ‘विवेचना’, जबलपुर ने उसे पुनः रेखांकित करने का सार्थक प्रयास किया।


इस समारोह का दूसरा दिन प्रोवीर गुहा के नाम था, जो अपना ‘अल्टरनेटिव लीविंग थियेटर लेकर आये थे। इस नाट्य दल ने उनके निर्देशन में ‘विषदकाल’ पेश किया। यह नाटक गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचना ‘विसर्जन’ पर आधारित है। इस नाटक को टैगोर ने अपने उपन्यास ‘राजश्री’ के आधार पर लिखा था। मूल कहानी बहुत ही सरल व मर्मस्पर्शी है। गोमती के किनारे एक छोटा सा गांव है त्रिपुरा। रघुपति इस गांव का पंडित है, जो लोगों को सुख-शांति के लिए पशु बलि व मानव बलि देने पर मजबूर करता है, अन्यथा गांव में अशांति और दुखों का पहाड़ टूटने का भय दिखाता है। इस बलि से गोमती लाल नदी में बदल जाती है। इस बलि प्रथा पर राजा रोक लगा देता है, इससे रघुपति बौखला जाता है और राजा की बलि लेने के लिए षड़यंत्र करता है। राजा का भाई अंत में अपना राजरक्त देता है इस शर्त के साथ कि आगे से कोई बलि नहीं ली जाएगी। टैगोर की यह कथा जितनी सरल है, इसका मंचन उतना ही कठिन। बंगाल में शंभु मित्र जैसे दिग्गज की प्रस्तुति भी फ्लाप हो गयी थी। लेकिन इस नाटक का आकर्षण इतना जबरदस्त है कि हर बांग्ला टीम इसे अवश्य ही खेलना चाहती है। प्रोवीर गुहा भी इस मोह को छोड़ नहीं पाये और ‘विषदकाल’ के रुप में इस नाटक को उन्होंने एक नयी रंग-सज्जा के साथ प्रस्तुत किया है। इप्टा के मंच पर यह उनकी 36वीं प्रस्तुति थी और निश्चित ही ‘विसर्जन’ को ‘विषदकाल’ के रुप में प्रस्तुत करने में वे बेहद सफल रहे। अपनी प्रस्तुति में उन्होंने प्रकाश, संगीत, नृत्य और देह भंगिमा का भरपूर उपयोग तो किया ही है, हिंसा के खिलाफ संदेश देते हुए उन्होंने इसे सामयिक बनाने की भी कोशिश की है। बंगाल में हो रहे खून-खराबे को भी उन्होंने स्लाइड के माध्यम से प्रस्तुत किया है, तो ‘हजार चैरासी की मां’ का जिक्र भी उनकी रंगमंचीय राजनीति का स्पष्ट था। प्रकाश व तकनीक के सामंजस्य से दृश्यांतरण को उन्होंने सहज संभव बनाया। अपनी प्रस्तुति में बंगाल के लोकरंग का उन्होंने बेहतरीन उपयोग किया। पात्रों के अभिनय में नुक्कड़ शैली स्पष्ट थी, जो प्रोवीर गुहा का स्वभाविक झुकाव है। मौन उन्हें बर्दाश्त नहीं है और रंगमंच शुरू से अंत तक संगीत से भरा रहा। इससे शोरगुल का प्रभाव भी पैदा हुआ, जो नाटक के दृश्य के सहज संपे्रषण में बाधक बना।

प्रोवीर गुहा बांग्ला रंगमंच के राजनैतिक रुप से जागरूक कार्यकर्ता हैं और उनका वामपंथी झुकाव स्पष्ट है। रंगमंच के क्षेत्र में वे उस रंगमंचीय सक्रियता में विश्वास करते हैं, जो दर्शकों के बीच मुद्दों को लाये और उन्हें उत्तेजित करे--इतना उत्तेजित करें कि वे दो ग्रुपों में बंट जायें और विवाद करें। इस विवाद के जरिये वे अपने रंग-दर्शकों से संवाद स्थापित करना चाहते हैं। रंगमंच पर यह उनका द्वंद्ववादी प्रयोग है। इस मायने में वे उस प्रायोगिक एवं व्यावहारिक रंगमंच में विश्वास करते हैं, जो समाज व समय के प्रति अपने को जिम्मेदार मानता है और खासकर हाशिये पर पड़े समुदायों, गांवों को, झुग्गियों को, फुटपाथियों को, बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं को संबोधित करने को अपनी रंगमंचीय प्राथमिकता मानते हैं। वे रंगमंच के समस्त औजारों का उपयोग इसी प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए करते हैं। उनके नाटकों में चरित्र महत्वपूर्ण नहीं होते जो मुद्दे उठाते हैं, बल्कि वे मुद्दों को उठाने के लिए चरित्रों का निर्माण करते हैं। इसलिए वे बने-बनाये नाटकीय विधान को नकारने का साहस भी जुटाते हैं। अतः वे नाटक को किसी उत्पाद के रुप में नहीं, प्रक्रिया के रुप में देखते हैं जो प्रतिरोधी चरित्रों को जन्म देते हैं। इस प्रकार, प्रोवीन गुहा प्रतिरोध के रंगमंच के अगुवा प्रतिनिधि हैं।

12वें मुक्तिबोध नाट्य समारोह में दिवंगत हबीब तनवीर ने भी ‘विसर्जन’ को ‘राजरक्त’ के रुप में प्रस्तुत किया था। प्रोवीर ने अपनी प्रस्तुति में बांग्ला गीत-संगीत तथा हिन्दी-अंग्रेजी के संवादों का मिला-जुला उपयोग किया है, तो तनवीर साहब ने बांग्ला के गीतों तथा हिन्दी-छत्तीसगढ़ी के संवादों का खूबसूरती से प्रयोग किया था। तनवीर के हाथों छत्तीसगढ़ीलोकरंग में बंगाल की आत्मा पूरी तरह जीवित थी। टैगोर एक, उनका उपन्यास ‘राजश्री’ और नाटक ‘विसर्जन’ एक--लेकिन दो एकदम भिन्न प्रस्तुतियां ‘विषदकाल’ और ‘राजरक्त’ रंग-दर्शकों ने दोनों का मजा लिया, दोनों को सराहा। हिन्दुस्तानी रंगमंच की यही खासियत है, जो हमारी साझा संस्कृति से विकसित होती है--अंधविश्वास, कट्टरता, पोंगा पंथ व रुढि़वाद के खिलाफ प्रगतिशील-जनवादी जीवन-मूल्यों को आगे बढ़ाती हुई। जिस छत्तीसगढ़ में सरकार बारिश के लिए यज्ञ करती है, जिसके मंत्री-संत्री अपने अंधविश्वासों के खुले प्रदर्शनों के लिए बलि देते हैं और कानून व्यवस्था की जर्जर स्थिति को ग्रहों का प्रकोप बताने से नहीं चूकते, वह छत्तीसगढ़ निश्चय ही ऐसे विषदकाल में है, जहां प्रोवीर गुहा की रंगमंचीय उपस्थिति बहुत जरूरी थी। इस कठिन राजनैतिक समय में इप्टा के इस सांस्कृतिक हस्तक्षेप को सराहा जाना चाहिए।

वाद-विवाद-संवाद की द्वंद्वात्मक पद्धति का प्रयोग इप्टा भिलाई की तीसरे दिन की प्रस्तुति मंथन में भी देखने को मिला। दिवंगत शरीफ अहमद लिखित इस नाटक का निर्देशन किया था त्रिलोक तिवारी ने। इस दो पात्रीय नाटक में संजीव मुखर्जी ने केवट और राजेश श्रीवास्तव ने पंडित की भूमिका अदा की थी। दोनों का अभिनय बेहतरीन था। मंच सज्जा साधारण थी और सुभाष धनगर की रुपसज्जा पात्रानुकूल। वस्त्र-विन्यास मणिमय मुखर्जी का था। हमारे शास्त्रीय ग्रंथों में भी वाद-विवाद-संवाद की तार्किक पद्धति का गहरा प्रभाव देखने को मिलता है। अतः साहित्य और संस्कृति तथा इसकी एक शाखा रंगमंच भी इससे अछूती नहीं है। यह पद्धति हर चीज को नकारने, उस पर अविश्वास करने तथा वाद-विवाद के जरिये संवाद स्थापित करने और वर्गीय सत्य उद्घाटित करने पर जोर देती है। जो लोग आध्यात्मिकता की आड़ में अंधविश्वास और भाग्यवाद को अपना जीवनाधार बनाते हैं, वे इस पद्धति को पचानहीं पाते। इसीलिए चार्वाक नकारने की हद तक उनके निशाने पर रहे हैं। लेकिन सच्चाई यही है कि संपूर्ण गति का सार द्वंद्व ही है, द्वंद्व से ही समय और समाज आगे बढ़ता है। द्वंद्व से ही किसी पुरानी चीज से नयी चीज निकलकर आती है। ‘मंथन’ में इस प्रक्रिया को बड़ी ही खूबसूरती से उभारा गया है। संवादों के जरिये इस द्वंद्व को उभारने में बस इतनी छोटी और सीधी-सादी कहानी का सहारा लिया गया है कि नदी का पुल टूट गया है और नदी पार जाने के लिए नाव और केवट का ही सहारा रह गया है। पूरे दिन थकान से चूर होकर केवट खाने-पीने में व्यस्त है और पंडित जी को नदी पार ले जाने के लिए तैयार नहीं। पंडित उसे पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक, ईश्वर-- सबकी बात कहकर डराता है, लेकिन केवट अपने मजेपन में खिलंदड़ी के साथ पंडित की बात को काटता जाता है। अंत में पंडित खुद खाने-पीने लगता है और इस पाप का बोझ केवट पर डालता है। संवाद की इसी प्रक्रिया में पंडित को सांप काट लेता है और केवट पंडित के शरीर का विष चूसकर उसे तो बचा लेता है, लेकिन स्वयं सिधार जाता है।

पूरा नाटक मंचस्थ दो पात्रों की संवाद अदायगी के सहारे आगे बढ़ता है, लेकिन मुखर्जी और श्रीवास्तव ने इसमें अपने रंग भर दिये हैं। ये रंगीन संवाद दर्शकों को हंसाते-गुदगुदाते हैं और उसकी चेतना पर जमी धूल को हल्के से झाड़ते भी है। पूरा नाटक आस्तिक और नास्तिक दोनों समूहों के लिए दर्शनीय है और यही इस नाटक की सफलता है। इस समारोह का रंगारंग व भव्य समापन हुआ नादिरा बब्बर के ‘ये है बाॅम्बे मेरी जान’ से।रंगारंग इसलिए कि महाराष्ट्र मंडल के रंगमंच पर नादिरा के नाटक में जीवन के सभी रंग उपस्थित थे। ये सभी रंग मिलकर जादुई यथार्थवाद का सृजन कर रहे थे- जिसमें हास्य था, तो करूणा भी थी, संघर्ष था तो सुकून भी था, प्यार और नफरत भी थी। नादिरा के इस रंग में बाॅम्बे (मुंबई) नहीं कि झलक थी, लेकिन इसकी संवेदनायें किसी भी महानगर से जोड़ी जा सकती थीं और इसका विस्तार रोजी-रोटी और बेहतर जीवन की तलाश में संघर्ष कर रहे लोगों की संवेदनाओं तक किया जा सकता था। इसे संपूर्ण ड्रामा कहा जा सकता था, जिसमें सिनेमाई झलक और सीरियलों की स्पष्ट छाप थी। इसे देखते हुए मुझे ‘अमर अकबर एंथोनी’ और बहुत पुराने सीरियल ‘नुक्कड़’ की याद आ रही थी। लेकिन नादिरा के ये रंग बहुत ही सहज-स्वभाविक थे और इसमें किसी प्रकार की कृत्रिमता की गंध नहीं थी। नादिरा के इस जीवन रंग को रंग-दर्शकों का भरपूर प्रतिसाद मिला। पिछले तीन दिनों की तुलना में सबसे ज्यादा रंग-दर्शक इसी नाटक में आये, प्रेक्षागृह में पैर रखने की जगह नहीं थी, फिर भी पूरी तरह अनुशासित। इसकी नादिरा ने भी भूरि-भूरि प्रशंसा की। वास्तव में इस नाटक को ‘हिन्दुस्तानी रंगमंच’ के रुप में रेखांकित किया जा सकता है, जिसकी चर्चा इस समारोह की विचार संगोष्ठी में हो रही थी।


बंबई एक लघु भारत है, जहां हर धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा और प्रांत के लोग बसते हैं। इनमें से अधिकांश बंबई के होकर रह जाते हैं और बहुत सारे बंबई से बहुत कुछ लेकर और बहुत कुछ देकर चले जाते हैं। बंबई केवल
मुंबईवासियों या मराठियों की ही नहीं है, सबकी है। बंबई हमारे महान भारत की ‘साझा हिन्दुस्तानी संसकृति’ का प्रतिनिधित्व करता है। बंबई की यही साझा संस्कृति नादिरा के रंग में खिल उठी है, जहां हिन्दू-मुस्लिम-ईसाई, मद्रासी-बिहारी-लखनवी सभी भाई-भाई के रंग बिखेरते हैं--अपनी मानवीय कमजोरियों, झगड़ों, तुच्छताओं और चालाकियों के बावजूद। उनमें गंगा-जमुनी तहज़ीब प्रवाहित होती है और हिन्दुस्तानी दिल धड़कता है। वे सभी अपने को स्थापित करने के संघर्ष में जुटे हैं और एक-दूसरे की परेशानियों में साथ हैं। इन परेशानियों में उनकी व्यक्तिगत परेशानियां तो हैं ही, महानगरीय जीवन जिस संकट की चपेट में आ रहा है, मसलन- धार्मिक आधार पर पुलिस प्रताड़ना, आतंकवाद, क्षेत्रीय उन्माद- उसकी भी परेशानियां हैं। लेकिन इन सब परेशानियों का एक ही हल है कि लोग-बाग एकजुट रहें। नादिरा की नाट्य संस्था ‘एकजुट’ एकजुटता के इस संदेश को रंग-दर्शकों तक सम्प्रेषित करने में कामयाब रही है। इस नाटक की कामयाबी इस तथ्य में भी निहित है कि नादिरा मनोरंजन के जिस तत्व को नाटक के लिए प्रधान मानती हैं, वह तत्व भरपूर तो था ही, बिना किसी राजनैतिक हल्ले और प्रचार के बंबई की सामाजिक-आर्थिक अंतर्संबंधों को भी उजागर करता है, जिसकी रचना में कथित ‘बाहरी’ लोगों का काफी योगदान है  नाटक अपने सम्पूर्ण गठन में सामूहिक प्रस्तुति ही होती है-- एकल अभिनय सहित। यह सामूहिकता निर्देशन, अभिनय, गीत-संगीत, रुप-मंच सज्जा, प्रकाश, ध्वनि इन सभी में लयबंद्ध से पैदा होती है और तभी दर्शकों तक किसी नाटक का अपेक्षित प्रभाव सम्प्रेषित हो पाता है। यदि इनमें से किसी एक का भी तालमेल अन्य से बिगड़ जाये, तो अच्छे नाटक का भी सत्यानाश होने में देर नहीं लगती। नाटक की सामूहिकता को ‘एकजुट’ ने पूरी तरह उभारा। यही कारण है कि रंग-दर्शक भी तीजनबाई के हाथों नादिरा को स्वर्गीय कुमुद देवरस सम्मान से सम्मानित होते देखते हुए गौरवान्वित महसूस कर रहे थे। यह मुंबई के किसी रंगकर्मी का सम्मान नहीं था, बल्कि हिन्दुस्तानी रंगमंच का हिन्दुस्तानी कलाकार के हाथों सम्मान था।

ये रायपुर है मेरी जान, जहां साझा हिन्दुस्तानी संस्कृति धड़कती है- सांस्कृतिक लठैतों के हमलों के बावज़ूद।

पता- नूरानी चैक, राजा तालाब, रायपुर (छ.ग.) मो.- 094242-31650

Tuesday, February 11, 2014

इप्टा, जामिया दिल्ली द्वारा ‘आधी रात के बाद’ नाटक का मंचन

ई दिल्ली : ‘डॉक्टर शंकर शेष’ लिखित सामाजिक राजनैतिक तत्वों पर आधारित व कमल कुमार बत्रा द्वारा निर्देशित नाटक ‘आधी रात के बाद’ का सफल मंचन भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा), जामिया दिल्ली इकाई द्वारा जामिया मिल्लिया इस्लामिया के हबीब तनवीर ओपन एयर थिएटर में हुआ.

यह नाटक सामाज के कई  कुरीतियों, नकली दवाइयां बनाने वाली कंपनियों का सरकार पर दबदबा और बिल्डर माफिया की मनमानियों को उजागर करती है. जज और चोर की आधी रात के बाद चली बातचीत में ये सारे मामले चोर ने उजागर किये. यहां तक कि ग़रीबों की झुग्गी झोपड़ियों को किस तरह ख़त्म करके वहां बिज़नेस किया जाता है और आवाज़ उठाने वालों को कैसे मार दिया जाता है… ये सारे मसले इस नाटक के मुख्य बिंदु थे.

इस नाटक में जज के किरदार में वारिस अहमद, चोर के किरदार में सालिम नक़वी और पड़ोसी पत्रकार के किरदार में मुहम्मद वसीम की प्रस्तुति काबिले तारीफ रही. माहौल ऐसा हो गया कि बारिश बावजूद दर्शकों ने नाटक का भरपूर लुत्फ़ उठाया.

इस नाटक में लाइट्स की ज़िम्मेदारी आज़ाद, म्यूजिक फ़वाद शैख़, कॉस्टयूम गीत संधू ने और मेकप मुहम्मद इरशाद सैफी ने निभाई. नाटक के समाप्ती पर जामिया के ड्रामा इंचार्ज शकील खान ने लोगों का शुक्रिया अदा किया.विशेष मेहमान के तौर पर गज़नफर ज़ैदी (फाइन आर्ट्स के डीन), प्रोफ़ेसर मुहम्मद गुफरान किदवई (डिपार्टमेंट ऑफ़ आर्ट एजुकेशन), उस्ताद ज़मीर (ग़ज़ल गायक), हारिस हक़ (सीपीआई जामिया नगर के महा सचिव), एत्काद अहमद, मुहम्मद मुस्लिम, ज़फर उल्लाह, अफरोज़ आलम साहिल, तालीफ़ हैदर, ज़फ़र इक़्बाल फ़ारूक़ी, मुकेश मकवाना आदि मौजूद रहें.

ANDHRA PRADESH IPTA ORGANIZED CHANDRA RAJESHWARA RAO BIRTH CENTENARY CULTURAL FESTIVALS

 ANDHRA PRADESH PRAJA NATYA MANDALI (IPTA) ORGANIZED  CHANDRA RAJESHWARA RAO BIRTH CENTENARY CULTURAL FESTIVALS

Praja Kala Ushavalu  in Karnool Distt: at Pathikonda on January 27,28,29











Sunday, February 9, 2014

रंग तेंदुलकर: पोस्टर फाड़कर निकला नाटक

-संजय पराते
विजय तेंदुलकर का रंग-संसार बहुत व्यापक है और रंग-छवियों को गढ़ने में उन्हें महारत हासिल है। इन छवियों में हमारी अपनी जिंदगी के सभी रंग घुले होते हैं। रंगों का ये समावेशन एक ऐसी दुनिया का सृजन करता है, जिससे रंग-दर्शक शीघ्र ही अपना तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं। यह आत्मीयताधीरे से दर्शकों को बौद्धिक विमर्श की ओर धकेल देती है-- इस विमर्श में समाज, राजनीति, संस्कृति सभी कुछ शामिल होते हैं और रंग-दर्शकों के अवचेतन पर प्रहार करते हैं। इस प्रहार से एक ऐसी सामाजिक-राजनैतिक चेतना का निर्माण होता है, जो समाज और जीवन को आगे बढ़ाता है और सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया को परिष्कृत करता है। तेंदुलकर सभ्यता और संस्कृति की खाल ओढ़े समाज की बेरहमी से चीर-फाड़ करते हैं और रंगमंच को प्रगतिशील सामाजिक परिवर्तन के लिए वैचारिक द्वंद्व का मंच बना देते हैं। वे समाज के साथ राजनीति के संबंधों को अनावृत्त करते हैं और इस मायने में वे महज़ नाटक रचते-गढ़ते नहीं हैं, बल्कि नाटकीय ढंग से समाज-संस्कृति के क्षेत्र में हस्तक्षेप करते हैं। इस प्रक्रिया को बाधित करने वाली दक्षिणपंथी-पुरातनपंथी सोच को यह हस्तक्षेप निश्चित ही रास नहीं आयेगा।

रायपुर इप्टा के 17वें मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाट्य समारोह की शुरूआत यदि विजय तेंदुलकर के मराठी नाटक ‘अशी पाखरे येती’ (हिन्दी अनुवाद ‘पंछी ऐसे आते हैं’- सरोजिनी वर्मा) से हुई है, तो यह इप्टा के व्यापक वैचारिक सरोकार को ही दिखाता है। तेंदुलकर ने यह नाटक काफी समय पहले 70 के दशक में लिखा था, लेकिन तब से सामाजिक-राजनैतिक मूल्यों में और ज्यादा गिरावट आई है। स्त्री के प्रति सामंती सोच में आज भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। आज भी स्त्री प्रेम के लिए स्वतंत्र नहीं है, उस पर ‘खाप’ पंचायतों और‘ काली टोपी, खाकी पैंट’ का जबरदस्त पहरा है। वेंलेन्टाइन-डे पर मोरल पुलिसिंग और इज्ज़त के नाम पर हत्याओं के वीभत्स रूप सामने आ रहे हैं और देश के गली-कूचों में ‘निर्भया’ प्रकरण हो रहे हैं। इसीलिए यह पुराना नाटक आज भी जिंदा व सामयिक है।

विजय तेंदुलकर का यह नाटक लगभग तीन घंटे का है और इसे सामयिक-संपादित कर डेढ़ घंटे का बनाने में निर्देशक मिनहाज़ असद की अथक मेहनत झलकती है। इसीलिए इस कसे हुए नाटक में झोल खोजना आसान नहीं है। रंगमंच पर सामाजिक अंतरसंबंधों से उपजा वैचारिक द्वंद्व शुरू से अंत तक बना रहा। इस रंग-तनाव ने रंग-दर्शकों की अंतर्चेतना को सोने नहीं दिया और दर्शकों की पूरा सहानुभूति नायिका सरू के साथ खड़ी हो गई। लेकिन सरू में जो अरूण आत्मविश्वास जगाता है, उसकी आंतरिक सुंदरता से उसे परीचित कराता है, स्त्री प्रेम के अधिकार की चेतना जगाता है और स्त्री-स्वतंत्रता का उद्घोष करता है, वही अरूण पुरूषवादी मानसिकता से मुक्त नहीं है और सरू के जीवन से पलायन कर जाता है। सरू के जीवन में प्रेम के लिए फिर वही विश्वास राव बच जाता है, जिसे उसने ठुकरा दिया था और फिर से प्रेम मां-बाप का एक थोपा हुआ बंधन बन जाता है।

आज का सामाजिक यथार्थ भी लगभग यही है। जवान बेटी की शादी न हो पाने की मां-बाप की चिंता और किसी भी तरह उसे घर से विदा करने का दबाव, सरू का विश्वास राव को नापसंद करना और अरूण के प्रति चाहत का इज़हार, फिर बाप-बेटा की प्रताड़ना और इस सबके बीच मां की विवशता, अंत में मां-बाप का अरूण के लिए तैयार होना, लेकिन उसका पलायन-- यह सब मिलकर एक ऐसी रंग-सृष्टि का निर्माण करते हैं, जिसके साथ दर्शक स्वयं को मंचस्थ पाता है। इस सबके बीच बण्डा की यह एकाकी चिंता कि सरू की शादी के बिना उसकी शादी कैसे हो पाएगी और इस चिंता को वह अपनी तथाकथित हिन्दू संस्कृति के गुणगान के जरिये औचित्य प्रदान करता है। मिनहाज़ असद ने पूरे नाटक के एक-एक फ्रेम को बड़ी ख्ूाबसूरती से गढ़ा-कसा है और निर्देशकीय कौशल का परिचय दिया है। पात्रों के अभिनय और मिनहाज़ के निर्देशन ने एक ऐसे रंगानुशासन का प्रभाव पैदा किया है, जो विजय तेंदुलकर के इस नाटक का पुनर्पाठ करता है। तेंदुलकर और मिनहाज़ की फ्रिक्वेंसी यहां पूरी तरह मैच करती है।

इस 6 पात्रीय नाटक में हर पात्र महत्वपूर्ण था और किसी की भी अनुपस्थिति से नाटक पूरा नहीं किया जा सकता था। इस नाटक के 4 पात्र सुनील तिवारी (अरूण), काशी नायक (अन्ना), संजय महानंद(बण्डा) तथा अंशु दास मानिकपुरी (सरू) तो सीधे छत्तीसगढ़ी सिनेमा से जुड़े हैं और सिनेमाई पोस्टरों में छाये रहते हैं। इन पोस्टरों से इप्टा-जैसे सांस्कृतिक सरोकारों के लिए उनका रंगमंच पर उतरना एक सुखद अनुभूति है और निश्चय ही सिनेमा के जरिये जो छाप वे नहीं छोड़ पाते, इस रंगमंच पर अपने अभिनय के जरिये उन्होंने छोड़ा है। सांस्कृतिक लठैतधारी (बण्डा) के रुप में संजय महानंद ने अपने बेहतरीन अभिनय की छाप छोड़ी है। नवीन त्रिवेदी जनसंचार के छात्र रहे हैं और रंगकर्म को यदि वे संवाद-संचार का माध्यम बना रहे हैं, तो उनका स्वागत ही किया जाना चाहिए। विश्वास राव के रूप में अपने छोटे से रोल में उन्होंने अच्छा अभिनय किया है। विनीता पराते अपेक्षाकृत एक नयी अभिनेत्री है और यह उनका चैथा नाटक ही है, लेकिन अपने अभिनय को उन्होंने और निखारा है। मां के चरित्र को उन्होंने सहज तरीके से जिया है। कुल मिलाकर, अभिनय और निर्देशन ने इस नाटक को यादगार बना दिया। असीम दत्ता और हरमीत सिंह जुनेजा ने नाटक के संगीत को तैयार किया था।

सादगी भरे मंच को अरूण काठोटे ने तैयार किया था और युवा पात्रों को प्रौढ़ रुप देने का बेहतरीन काम सुभाष धनगर का था। प्रकाश व्यवस्था का काम बल्लू सिंह संधू ने बेहतरीन ढंग से संभाला। कुल मिलाकर,  इप्टा के समारोह का पहला दिन रंगकर्म के क्षेत्र में सार्थक हस्तक्षेप का रहा।

(लेखक की टिप्पणी -बतौर एक दर्शक ही)

Wednesday, February 5, 2014

आगरा :नजीर की मजार पर बसंत मेला

गरा: जन कवि मियां नजीर अकबरावादी के याद में उनकी मजार पर बसंत मेले का आयोजन किया, जिसमें नजीर की रचनाओं का गायन किया गया। इसके अलावा शहर में अन्य कार्यक्रम भी हुए।

ताजगंज स्थित नजीर की मजार पर मेले की शुरुआत विद्यार्थियों ने प्रभातफेरी निकाल कर किया। मजार पर चादरपोशी बज्म ए नजीर के अध्यक्ष उमर तैमूरी ने की। उन्होंने कहा कि नजीर हर मजहब के शायर थे। इप्टा के राष्ट्रीय महामंत्री जितेंद्र रघुवंशी ने नजीर के आगरा से संबंध की चर्चा की। जवाहरलाल गुप्ता, ईश्वरदयाल, अनिल जैन, ब्रजमोहन अरोरा, आरिफ तैमूरी, अशोक दौहरे, अशोक वर्मा आदि ने नजीर के जीवन पर प्रकाश डाला।

इस मौके पर नजीर की रचनाओं का पाठ किया। गजल गायक सुधीर नारायन ने उनकी लोकप्रिय रचना सुनाई-'सब ठाट धरा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा'। सुबोध गोयल, डॉ.विजय शर्मा, प्रमोद सारस्वत, मनीष कुमार ने नजीर की रचनाएं सुनाईं। अंत में धन्यवाद ब्रजमोहन अरोरा ने दिया।

यादगार ए आगरा: मेवा कटरा स्थित हजरत मैकश के स्थान पर जश्न ए बसंत का आयोजन किया, जिसमें सूफी संगीत भी प्रस्तुत किया गया। इमरान ने अमीर खुसरो की कव्वाली पेश की। इप्टा के दिलीप रघुवंशी, अंकित शर्मा, विक्रम सिंह, अजय शर्मा, निर्मला सिंह, भगवान स्वरूप ने नजीर की कई रचनाओं को प्रस्तुत किया। शाहीद नदीम, सईद आदि ने रचनाएं सुनाई। संस्था के अध्यक्ष कलाम अहमद ने बसंत बहार लेख का वाचन किया। जितेंद्र रघुवंशी ने नजीर अकबरावादी को याद किया। संचालन विशाल रियाज ने किया।

साभार : दैनिक जागरण


AGRA: The city of the Taj Mahal woke up to a sunny Tuesday, heralding the onset of spring with Basant Panchmi. But Agra has other reasons to celebrate too - 100 years of Dayalbagh, a utopian spiritual commune of the Radhasoami faith, and the birthday of the 18th century people's poet mian Nazeer Akbarabadi who gave Agra its literary recognition along with Mirza Ghalib and Meer Taqi Meer. 

Mian Nazir Akbarabadi, described as "people's poet in sharp contrast to Mirza Ghalib and Mir who were patronised by the elite, the sophisticated and cultured citizenry", said Jitendra Raghvanshi of the Indian People's Theatre Association. 

The modest tomb of Nazir will be lit up as admirers will queue up to pay homage to the poet who sang of love and the life of the common man in Agra and gave the city its unique literary identity.

He wrote about ordinary things that touched the hearts of both Muslims and Hindus, like festivals, dance and theatre, bird fights and kite-flying. Nazir looked at the follies of the royalty with disdain but sang about the antics of Lord Krishna and poked fun at fundamentalists. 

The staging of his "Agra Bazar" play made noted theatre personality Habib Tanvir famous. His poem "Sab thath pada rah jayega jab lad chalega banjara," is still popular in Agra.

Courtesy : The Times of India

Saturday, February 1, 2014

झूठ की चादर का मंचन पटना में

सांप्रदायिक-फ़ासीवादी ताक़तों के ख़िलाफ़ जन जागरूकता बढ़ाने के मकसद से जागृति नाट्य मंच, दिल्ली बिहार का दौरा कर रहा है और दिनांक 02 फरवरी, 2014 (रविवार) को पटना में नाटक "झूठ की चादर" का मंचन करेगा।
पटना इप्टा ने इस नाट्य प्रस्तुति का आयोजन भिखारी ठाकुर रंगभूमि, दक्षिणी गाँधी मैदान (गाँधीजी की पुरानी मूर्ति के समीप) अपराह्न 3.30 बजे आयोजित किया है। इस अवसर पर जागृति नाट्य मंच, दिल्ली मीडिया बंधुओं से बात भी करेंगे।  साथ ही, इस नाटक की प्रस्तुति पूर्वाह्न 11:30 बजे दानापुर रेलवे स्टेशन (खगौल) के समीप सदा, खगौल के सहयोग से किया जाएगा।

छपरा इप्टा का 'पैगाम-ए-मोहब्बत'

परा। सामाजिक-सांप्रदायिक सौहार्द्र के लिये गांधी जयंती से प्रारंभ कार्यक्रम ‘खादी के फूल’ का समापन शहादत दिवस पर ‘हे राम’ के रूप में संपन्न हुआ। इप्टा द्वारा ये कार्यक्रम ‘‘पैमाम-ए-मोहब्बत 2014’’ अभियान के तहत संपूर्ण जिले में आयोजित किये गये।

बापू की शहादत दिवस पर इप्टा, छपरा की पहल पर 23 स्वयंसेवी संस्थाओं व स्थानीय प्रशासन के सहयोग से स्कूली बच्चों द्वारा 5 किलोमीटर लंबी मानव श्रृंखला बनायी गयी तथा नफरत और हिंसा के खिलाफ 2 मिनट का मौन सत्याग्रह रखा गया। इस दौरान स्कूली बच्चों ने मनभावन झांकिया भी प्रस्तुत कीं और गांधी चौक पर स्थानीय कलाकारों द्वारा नुक्कड़ नाटक ‘मत बाँटो इंसान’ प्रस्तुत किया गया। इसके बाद समाहरणालय सभागार में ‘21 वीं सदी में बापू की प्रासंगिकता’ विषय पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें गांधी दर्शन की सांगोपांग विवेचना की गयी। संगोष्ठी का संचालन अमित रंजन ने किया।

इप्टा की मढ़ौरा, भेल्दी, सुतिहार और गड़खा शाखाओं द्वारा भी चार महीनों तक विभिन्न गतिविधियों का आयोजन किया गया। मढौरा के पी.पी. इंटर कॉलेज में बापू को सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से भावभीनी श्रद्धांजलि दी गयी।

इसी दौरान भिखारी ठाकुर जयंती पर इप्टा के नेतृत्व में 16 सांस्कृतिक संस्थाओं के सहयोग से लोक संस्कृति और सद्भाव महोत्सव का आयोजन किया गया, जिसमें विचार गोष्ठी व स्मारिका के विमोचन के अलावा बाल रंगकर्मियों द्वारा नाटक ‘अंधेर नगरी’ का मंचन किया गया। सारण इप्टा समन्वय समिति के संयोजक, राज्य कार्यसमिति के सदस्य व छपरा इप्टा के सचिव अमित रंजन द्वारा प्रेषित जानकारी के अनुसार इप्टा की विभिन्न शाखायें व्यापक पैमाने पर नुक्कड़ नाटकों के प्रदर्शन की तैयारी में लगी हुई हैं। इस अभियान के तहत छपरा शाखा द्वारा 10 फरवरी को बिहार इप्टा नुक्कड़ नाट्य महोत्सव में नाटक ‘समरथ को नहिं दोष गुसाईं’ की प्रस्तुति दी जायेगी।

मुंबई में 24 मार्च से राष्ट्रीय महारंग परिषद

मुंबई! मुंबई विश्वविद्यालय द्वारा दिनांक 24 से 27 मार्च 2014 को चार दिवसीय राष्ट्रीय महारंग परिषद नामक राष्ट्रीय नाट्य सम्मेलन का आयोजन किया जा रहा है। आयोजन का उदृघाटन दिनांक 24 फरवरी को रतन थियम द्वारा निर्देशित नाटक मेकबेथ के मंचन के साथ किया जायेगा।

उक्त महारंग परिषद में भाग लेने के लिये देश भर से रंगकर्मियों, नाट्य प्रशिक्षकों, शोधकर्ताओं व कलाकारों को आमंत्रित किया जा रहा है। सम्मेलन में नाट्य कला से जुड़े विविध पहलुओं पर विचार-विमर्श किया जायेगा।  मुंबई विश्वविद्यालय द्वारा यह आयोजन थियेटर आर्ट एकेडमी, मुंबई तथा राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्ली के सहयोग से किया जा रहा है।