Sunday, January 26, 2014

इप्टा संहति:पुराने साथियों के साथ गाना-बजाना-खाना

पटना में इप्टा का इतिहास उतना ही लम्बा है जितना देश के आज़ाद होने का. इतिहास अपने सात दशक को पूरा करने की ओर अग्रसर है. जननाट्य आन्दोलन का जो कारवाँ 1947 में पटना में सांगठनिक ढाँचे में आया था लगातार कभी तेज़ रफ़्तार से तो कभी माध्यम ताल में चलता रहा है. इस कदमताल के दौरान हज़ारों साथी आयें साथ चलें। अपने साथ जो कुछ बेहतर था, श्रेष्ठ था उसे नाटक, गीत, संगीत, नृत्य, मंच, वेष-भुषा, कविता, पोस्टर, टिकट, कार्ड, बात-विचार आदि के द्वारा इप्टा के मंच से प्रस्तुत किया। इस कदमताल के साथी जुड़ते रहें, अपने जीवनयात्रा की राह में थोड़े व्यस्त हुए. फिर नए साथी जुड़े और कारवाँ आगे, आगे बढ़ता रहा. पटना में इप्टा आंदोलन के नए पुराने साथी विगत 28 एवं 29 दिसम्बर, 2013 को मिलें और "गाना-बजाना-खाना" किया. अवसर था "इप्टा संहति' के आयोजन का. पटना युवा आवास के परिसर में पटना इप्टा के साथी जुड़े 90 के पूर्वार्द्ध से जुड़े हरेक साथी का संपर्क सूत्र ढूंढा गया. एक से दूसरे का संपर्क साधा, दूसरे से तीसरे का, चौथे, पाँचवे से यह सूत्र पचास-सौ तक पहुँच गया.  फिर चर्चा का दौर चला, एक से दो विचार मिलें। प्रयोजन आयोजन पर चर्चा की गई. सहमति बनी, बजट तैयार हुआ और तय हुआ कि 2 दिन मिलेंगे और 'खाना', 'बजाना' व 'गाना' करेंगे।
 
शनिवार की सर्द सुबह से ही लोग आने लगे. पुराने दिनों को याद करते हुए, उन हरेक पल को याद करते हुए लोगों आना शुरू हुआ. हर चेहरे के साथ गुदगुदाते, मीठे पल. नाटक का वह सीन, यह पात्र और वह शो. मुस्कान के साथ बीते दिन सिनेमा के तरह जीवित हो रहे थे. हाल चाल पूछने के पहले ही पुराने संवाद, गीत होंठो पर आने लगे. साथ में परिवार - पति. पत्नी और बच्चे। कुछ अचकचाये जाने- अनजाने चेहरों को पहचान का अभिवादन कर और स्वीकार रहे थें. तो यही ----अंकल हैं, यही वह आँटी हैं. बिलकुल रंगमंच सा माहौल. जैसे कोई सम्मेलन या नाट्य मंचन हो. सामने स्टेज बना हुआ है. पुरानी गतिविधियों के बैनर, पोस्टर आदि लगे हैं. प्रॉपर्टीज, नाटक के कपडे टंगे हैं. अदालत से एक कटघरा बना है. तभी श्रीकांत किशोर की आवाज़ सुनील किशोर के साथ गूँजती है "सब बैठें अब शुरू करते हैं". फिर शुरू हुआ सिलसिला जिसका सब इंतज़ार कर रहे थें - "इप्टा संहति". पटना इप्टा की सचिव उषा वर्मा ने ग़ुलाब भेंट किया स्वागत दिल से स्वागत। फिर सीताराम सिंह का रोमांचित कर देने वाला गायन।
अब 'आप बीती' की बारी थी. एक एक कर सब आयें रश्मि सिन्हा, श्रीकांत किशोर, सोनल झा, सुबोध कुमार चौधरी, मनोज वर्मा, सुमन जोशी, दिग्विजय द्विवेदी, रविन्द्र कुमार प्रियदर्शी, फ़रीद खान, नूतन तनवीर, नुपूर, फीरोज़, दीप नारायण, विनोद कुमार, अपूर्वानन्द, राजेश कुमार, निवेदिता झा, विष्णुपद मनु, रामनाथ, मोना, पारस, सीताराम सिंह, पूर्वा भारद्वाज, आशीष झा, ग़ौस अली, इश्तियाक़, संजय मुखर्जी, संजीव सुमन, आशुतोष मिश्रा, संजय सिन्हा और तनवीर अख्तर. सबने इप्टा के अनछूहे  पल को साझा किया. साथ गाना गया और खाया भी. बातें करते-करते कब शाम आ गई पता ही नहीं चला. अँधेरा और ठण्ड दोनों बढ़ने लगें. मजमा बातें करते हुए युथ हॉस्टल के आँगन में आ पहुँचा.
तनवीर अख्तर ने माइक संभाली और कहा "गाना होगा, बजाना होगा साथ ही एक छोटा सा नाटक".
फिर शुरू हुआ "तू ज़िन्दा है तो ज़िंदगी की जीत पर यकीन कर, अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर"; शंकर शैलेन्द्र के इस गीत से शुरू हुआ शाम का सफ़र. सभी गाते हुए एक दूसरे के मुहं देख रहें थें "अरे इसको भी पूरा याद है!". फिर सलिल चौधरी का नैया पार लगा और एक छोटा सा नाटक "ख़ुदा हाफ़िज़". सबके मन मचलने लगे बोल उठें ताल सजें और एक के बाद के पुराने बोल निकलने लगें शब्द चलने लगे. नाटकों के गीत, जनगीत, संवाद और अपना अंदाज़. सब एक साथ. शरीर  तो थकने का नाम ही नहीं ले रहा था पर समय का क्या बड़ा निर्दयी और रामजी उससे ज्यादा. "जल्दी चलिए खाना ठंडा हो रहा है". "ठंडा हो गया तो फिर गर्म नहीं होगा", "आप कहेंगे की रामजी ने ख़राब खाना बना दिया" "ज़ल्दी चलो". खैर कोई उपाय ना था रात का भोजन हुआ और फिर सोना। कल सुबह जो उठना था. पर नींद किसे आने वाली थी.

आ गया रविवार 29 दिसंबर 2013. नाश्ते के बाद मिलें और 'यहाँ से देखें' की बात. श्रीकांत किशोर ने 1998 तक के सफ़र को ताज़ा किया तो संजय ने 2000 से 2012 तक की गतिविधियों को रखा. लगा जैसे पूरा इतिहास पढ़ा जा रहा है. पर यह तो कल ही था जब हम नाटक करते थें और इतना समय बीत गया. राजेश कुमार ने पुरानी तस्वीरों के द्वारा एक फ़िल्म दिखाई तो सुनील किशोर ने दूसरी। जावेद अख्तर खां, अलका, आशुतोष, इश्तियाक़ और सारे साथियों ने इप्टा के जनगीत गायें। कबीर, ख़ुसरो, मख़दूम, सलिल चौधरी और भी कई सारे पुराने साथ-साथ गए हुए गीत. 
इसके साथ ही आ पहुँचे नन्द किशोर नवल, वसी अहमद, आलोक धन्वा, समी अहमद, संतोष कुमार, भारती एस० कुमार, नीति रंजन झा, अंजना प्रकाश, रवि प्रकाश, डा० सत्यजीत, डा० शकील. सबने सुना, हर छोटे बोलें, अपने इप्टा की बात और बड़े बुजुर्ग सिर्फ सुनें. वे भी मुग्ध थें कई पीढ़ियों को एक साथ देखते हुए. 
गाते-बजाते पता ही नहीं चला कि समय कब बीत गया अब विदाई का समय था. पर इस वादे के साथ कि फिर मिलेंगे , अब संपर्क में रहेंगे, आयें या ना आयें गतिविधियों की सूचना ज़रूर दें. मैं वहाँ रहते हुए क्या सहयोग कर सकता हूँ, एक आदमी एक-एक संवाद. गूँजते रहें.  2 दिनों का आयोजन तो ख़त्म हुआ पर हज़ारों यादें ताज़ा हुईं। नए साथियों का पुराने साथियों के प्यारा सा साक्षात्कार।
 
- फीरोज़  अशरफ़ खां 
         

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