Monday, January 21, 2013

रायपुर इप्टा का 'मुक्तिबोधी' नाट्य समारोह


इप्टानामा के लिये संजय पराते की रिपोर्ट

ह रायपुर इप्टा द्वारा आयोजित 'मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाटय समारोह' (11-15 जनवरी, 2013) का 16वां आयोजन था। 16वां वर्ष किशोरावस्था से वयस्कता की ओर संक्रमण की अवस्था होती हैं। अपनी तमाम छोटी-मोटी कमजोरियों के बावजूद इस आयोजन ने एक बार फिर आश्वस्त किया कि रायपुर की रंग सक्रियता सिर्फ रंगमंच तक सीमित नहीं है, बलिक रंगकर्म के सरोकारों तक विस्तृत है। यह आयोजन केवल नाटय प्रदर्शन के लिए ही नहीं, बलिक विचार-विमर्श और रंग-संगीत के लिए भी याद किया जाएगा। रंग-उपादानों के घोर अभाव के बावजूद रायपुर की रंग-ऊर्जा किसी भी महानगर के रंगमंच को टक्कर देने का मादृदा रखती है। 

मुक्तिबोध को हर साल याद करना महत्वपूर्ण है, लेकिन इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि यह स्मरण रस्म-अदायगी भर नही है। नाम के अनुरूप ही पूरा आयोजन 'मुक्तिबोधी' था- उस उददेश्य के प्रति समर्पित, जिसके लिए मुक्तिबोध ता-उम्र संघर्ष करते रहे। सड़ी-गली और पिछड़ी चेतना से मुक्ति के लिए संघर्ष का यह बोध ही इस आयोजन को विशिष्ट बनाता है और इप्टा के रंगकर्म को दूसरे सभी आयोजनों से अलग करता है। आखिर मानव मुक्ति का अभियान- जो उसके वर्गीय शोषण के संघर्ष से सीधा जुड़ा है- कभी एकांगी तो रहेगा नहीं। वह न केवल बहुआयामी है, बलिक बहुरंगी भी है। एकांगिता और एकरंगिता तो मनुष्य को केवल संकीर्ण ही बना सकते हैं और संकीर्णता कभी किसी को मुक्ति नहीं देती। वामपंथी राजनीति की संकीर्णता के साथ भी यही बात लागू होती है, जिसे वामपंथी संस्कृति-कर्म ही तोड़ता है। इसी मायने में इप्टा का यह संस्कृति-कर्म महत्वपूर्ण है कि वामपंथ की जड़ता और खामोशी को ये तोड़ने का काम करता है- यह मनुष्य को मनुष्य बनाने का रचनात्मक अभियान है। इसीलिए ये आयोजन 'मुक्तिबोधी' था। 

लेकिन समारोह की पहली संध्या पर ही खलल पड़ा- वैसे ही, जैसे यह सामान्य धारणा है कि शुभ काम में खलल तो पड़ता ही है। उसके बिना काम की 'शुभता का महत्व स्थापित नहीं हो पाता। आना तो था बनारस की किसी टीम को 'कामायनी का प्रदर्शन करने, लेकिन मोबाइल युग में संचार ठप्प हो गया और खैरागढ़ संगीत विश्वविधालय के नाटय विभाग की टीम ने वाहवाही लूटी। उन्होंने डा. योगेन्द्र चौबे के निर्देशन में हरिशंकर परसाई के व्यंग्य 'वैष्णव की फिसलन' का मंचन किया। हरिशंकर परसाई धर्म के गोरखधंधे से अच्छी तरह वाकिफ थे। इस गोरखधंधे पर उन्होंने पूरी जिंदगी चोट की और बदले में मार खाई। मार से उनके व्यंग्य की धार और तीखी हुई। 'वैष्णव की फिसलन' इसका प्रमाण है। यह पूरी व्यवस्था के फिसलने और ढहने की कहानी है- सामाजिक नैतिकता, अर्थव्यवस्था और राजनीति के- सबके फिसलने-ढहने की कहानी। जब धर्म में धंधा घुस जाता है और यह धधा राजनीति से हाथ मिला लेता है, तो ईश्वर भी पूरी व्यवस्था का बंधक बन जाता है। उसका विकृत मानव विरोधी, सभ्यता विरोधी, धर्म विरोधी चेहरा उजागर होने लगता है। इसीलिए धर्म को राजनीति से अलग रखने की जरूरत है और धंधे से भी। धर्मनिरपेक्षता की राजनीति की जरूरत भी इसीलिए बनी हुई है- वरना शोषणकारी व्यवस्था उत्पीडि़त जनता से उसकी अज्ञानता का फायदा उठाकर पूजा-पाठ करवाती रहेगी, गणेश की मूर्तियों को दूध पिलवाती रहेगी, मसिज़दें ढहाती रहेगी और दंगे करवाकर वोट बटोरती रहेगी। डा. योगेन्द्र चौबे इसी मायने में सफल निर्देशक हैं कि परसाई की सोच के अनुसार धर्म के धंधे को राजनीति के धंधे से जोड़ने में सफल रहे। शमशेर आलम वैष्णव और धीरज सोनी विष्णु के रुप में खूब जमें। संगीत व मंच सज्जा भी आवश्यकतानुसार अच्छी थी। 

नाटय समारोह की दूसरी संध्या रस-रंग को समर्पित रही। बोधायन के प्रहसन पर आधारित नाटक 'भिक्षुक और गणिका का प्रदर्शन किया फोक आर्ट, चंडीगढ़ के ओजस्वी कलाकारों ने और निर्देशिका थीं डा. रानी बलबीर कौर। डा. कौर को इप्टा द्वारा स्वर्गीय कुमुद देवरस सम्मान से सम्मानित किया गया। यह सम्मान रंगमंच से जुड़ी महिला को दिया जाता है। डा. कौर पूर्व में भी कई सम्मानों से नवाजी जा चुकी हैं। उनकी ये प्रस्तुति बेहद आकर्षक थी और रंगमंच के सभी रंगों की झलक दिखला रही थी। पात्रों का रंगाभिनय, उनकी शारीरिक गतियां, रंग-संगीत और प्रकाश सभी यह अहसास करा रहे थे कि रंगदर्शक एक लोकरंग का रसास्वादन कर रहे हैं। लेकिन इस नाटक की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि नाटक का पूरा उत्तरार्ध गैर-यथार्थवाद की भावभूमि पर खड़ा है और इसीलिए दूसरे निर्देशकों की तरह वे भी इसे आधुनिक संदर्भों से जोड़ने में असफल रहीं।

संस्कृत साहित्य की एक धारा दर्शन के क्षेत्र में भाववाद और भौतिकवाद के संघर्ष पर टिकी है। बोधायन का प्रहसन भी इसी संघर्ष को अभिव्यक्त करता है और अंत में भाववाद को समर्पित होता है। संन्यासी के 'मोक्ष और उसके शिष्य शांडिल्य का 'माया-मोह इसी संघर्ष की अभिव्यकित है। यह नाटक सातवीं सदी का है और हम इक्कीसवीं सदी मे जी रहे हैं। इन 14-15 सदियों में दर्शन और विचारधारा के क्षेत्र में मानव समाज ने एक लंबी छलांग लगायी है। अब आत्मा और अध्यात्म शुद्धता और पवित्रता के दायरे से निकलकर व्यवसाय बन गया है और आधुनिक मानव समाज की समस्याओं का हल अध्यात्म और आत्मा की पवित्रता के दायरे में खोजना बेतुका है। इसीलिए बोधायन के प्रहसन को आधुनिक आत्मा देने की जरूरत है, वरना रंग-तत्वों से सुसजिजत रंगमंच दर्शकों का केवल मनोरंजन कर सकता है। 

नाटय समारोह की तीसरी संध्या में फिर परसाई छाये रहे। पुणे के निर्देशक प्रसाद वानारसे ने 'लड़ी नजरिया प्रस्तुत की, जिसमें पात्रों का अभिनय जितना मंझा हुआ था, संगीत पक्ष भी उतना ही जोरदार और रंग-प्रकाश दोनों के अनुकूल। नाटक में व्यंग्य तो था ही, सामाजिक-राजनैतिक मुददे भी थे, इन मुददों के विविध पक्ष भी थे, संवेदना थी, आक्रोश था और सबसे बढ़कर सौदेश्यता भी। प्रसाद के लिए रंगमंच के सरोकार बहुत ही स्पष्ट हैं और 'लड़ी नजरिया' एक लोकरंजक नाटक साबित हुआ। शुरू से अंत तक रंगदर्शक इस नाटक से बंधे रहे और यह सम्मोहन नाटक खत्म होने के बाद भी भंग नहीं हुआ। 

सनकी बाबा (हिमांशु तलरेजा), नाम्या (राकेश कुमार), सावित्री (रविजा चौहान) और कथावाचक (रोहन सचदेव)- इन सबने परसाई की कल्पना को रंगमंच पर उतारा। वर्तमान व्यवस्था के सभी प्रतीक नाटक में विद्ममान हैं। गांधीवाद से लेकर बाबावाद तक। अन्ना टोपी से लेकर केजरी टोपी तक। रामदेव के योगासन से लेकर साधिवयों के भोगासन व छल-कपट तक। आंदोलन, आमरण अनशन और आत्मदाह की धमकियां तक। ये सब मिलकर एक विराट परिदृश्य की रचना करते हैं। 

लेखक और निर्देशक जब एक दृष्टि और एक सौद्देश्यता के साथ मंचित होते हैं, तो रंगमंच पर किस तरह का निखार आता है, 'लड़ी नजरिया' इसका प्रमाण है। तब रंगदर्शक भी निरपेक्ष व तटस्थ नहीं रहते। दर्शक दीर्घा भी रंगमंच का हिस्सा बन जाती है और तब दर्शकों की संवेदनायें भी जागृत हो जाती हैं और पात्रों के सुख-दुख का वे भी हिस्सा बन जाते हैं। रंगमंच तभी सफल कहलाता है और 'लड़ी नजरिया' की सफलता भी इसी से जुड़ी है। 

अगली संध्या पर दो प्रस्तुतियां हुईं। पहली प्रस्तुति रायपुर इप्टा की थी- के पी सक्सेना लिखित और रवीन्द्र गोयल निर्देशित 'गज फुट इंच'- एक साफ-सुथरा और हल्का-फुल्का व्यंग्य। जीवन में ऐसे हास्य की भी बहुत जरूरत है, जो रंग दर्शकों के कमजोर होते फेफड़ों में हवा भरने का काम करे। इस काम को अंशुदास (जुगनी), राजा पांडे (टिल्लू), प्रिया शर्मा (गुल्लू), मुस्कान (टिल्लू की मां) और रवीन्द्र गोयल (पोखरमल) ने बखूबी निभाया।

दूसरी प्रस्तुति थी- भिलाई इप्टा की 'रामलीला'- अशफाक खान के निर्देशन में एक उददेश्यपूर्ण नाटक। अपने आर्थिक हितों को साधने के लिए इस देश की सांप्रदायिक ताकतों द्वारा किये जा रहे नंगे नाच का खुलासा। इस नाटक को बाबरी मसिज़द के विध्वंस के पहले लिखा गया था। संघी गिरोह तब इस विवाद को गरमा ही रहा था और राम के बहाने अयोध्या और पूरे देश की शांति भंग की जा रही थी। इस देश की हिंदू सांप्रदायिक ताकतें एक ऐसी 'लीला खेलने की तैयारी कर रही थी, जिसमें रावण का नहीं, इस देश की सौहाद्र्रपूर्ण सांस्कृतिक परंपराओं का दहन होना था। 'रामलीला' के मैदान को 'महाभारत' के युद्ध क्षेत्र में बदलने का षड़यंत्र रचा जा रहा था- जिसके बाद केवल तबाही मचनी थी, बसितयां उजड़नी थीं, मरघट का सन्नाटा और घृणा नफरत की दीवारें खड़ी होनी थीं। ये ताकतें सफल भी हुर्इं- 'रामलीला भंग हुई, एक लंबे रक्तरंजित 'महाभारत के बाद राम को पलायन करना पड़ा और रावण मुस्कुराता रहा। दस साल बाद यही 'महाभारत फिर गुजरात में रचा गया और मोदी सत्तासीन हुये। मोदी के भाजपाई राज में मानव विकास सूचकांक भले ढह गये हो, इन ताकतों का आर्थिक साम्राज्य आज भी जगमगा रहा है। कलिकाप्रसाद और अली बहादुर इसी साम्राज्य के प्रतिनिधि हैं, जो असल खेल तो जमीन हड़पने का खेल रहे हैं, लेकिन निशाने पर वह 'रामलीला है, जो मुसिलमों की भागीदारी के बिना पूरी नहीं होती, जो हिंदू-मुसिलमों के सहयोग से एक समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा के रुप में विकसित हुर्इ है। शोषण की व्यवस्था को बनाये रखने वाली ताकतों को यही संशिलष्टता रास नहीं आती। उन्हें पाषाण युग के हथियार अच्छे लगते हैं। 

इस नाटय समारोह का अंत हुआ मोहन राकेश के 'आधे-अधूरे' के मंचन से। जबलपुर की 'विवेचना' गंभीर रंगकर्म के लिए जानी जाती है। न केवल नाटकों के चयन के हिसाब से,बलिक प्रस्तुति के लिहाज से भी। नाटककार की कल्पना को रंगमंच पर उतारना किसी भी निर्देशक के लिए आसान नहीं होता और मोहन राकेश तो निर्देशकों के लिए हमेशा चुनौती ही रहे हैं। चुनौती की इस कसौटी पर अपने निर्देशन व अभिनय दोनों में विवेक पांडे व प्रगति पांडे खरे उतरे। मोहन राकेश अपने नाटकों को एक नयी रंगभाषा में प्रस्तुत करते हैं। यह रंगभाषा जीवन की त्रासदी और नाटकीय विडंबनाओं को गति देती है और इससे रंग विस्तार की व्यापक संभावनायें पैदा होती हैं। इन संभावनाओं का पूरा उपयोग 'विवेचना ने अपनी रंग प्रस्तुति में किया है। विवेक पांडे ने महेन्द्रनाथ व जुनेजा सहित सभी पुरुष पात्रों को मंच पर एक साथ जिया है और कहीं एकरसता नहीं दिखी।

मोहन राकेश का 'आधे-अधूरे सातवें दशक का नाटक है। आधुनिक भारत के इतिहास में सातवां दशक बहुत उथल-पुथल भरा था- न केवल राजनैतिक रुप से, बलिक अर्थव्यवस्था के लिहाज से भी। फिर परिवार और समाज ही इससे कैसे अछूता रहता? मोहन राकेश ने अपने सांस्कृतिक सरोकारों को समाज और परिवार से जोड़ा। नाटय आंदोलन के क्षेत्र में यह एक नई सृजनात्मक रंग-चेतना थी। सत्तर के दशक की तुलना में आज यह सामाजिक तनाव और ज्यादा गहरा हो गया है और इसीलिए आज भी यह नाटक बहुत प्रासंगिक है। 'आधे-अधूरे की नायिका सावित्री  (प्रगति पांडे) अपने अधूरेपन को मानने को तैयार नहीं है। वह महेन्द्रनाथ में पूर्णता की खोज करती है और जीवन में निराशा और ऊब उसके पल्ले पड़ती है। यह मध्यवर्गीय जीवन की त्रासदी है कि पूर्णता की खोज से ऐसे नये तनावों का जन्म होता है, जिससे बचा जा सकता है और संकटग्रस्त जीवन में भी थोड़ा सुख खोजा जा सकता है। लेकिन पूर्णता की मांग पूरे जीवन को नष्ट कर देती है। लेकिन यह सवाल फिर भी अपनी जगह है कि जिस चरम पर जाकर मोहन राकेश ने नाटक का अंत (महेन्द्रनाथ का लौटकर आना) किया है, वह भारतीय समाज क निराशावाद है या नियतिवाद? या फिर इस पूरी त्रासदी का हल कहीं और है? दुर्भाग्य की बात है कि भारतीय समाज के तनावों को मंचित करने वाले नाटक अब नहीं के बराबर आ रहे हैं। यह सामाजिक रंगकर्म कार्पोरेटी सीरियलों में कहीं गुम सा हो गया है। 

समारोह में इन पूर्ण नाटय प्रस्तुतियों के अलावा नेशनल एसोसिएशन फार ब्लाइंडस 'प्रेरणा की नेत्रहीन छात्राओं ने लोकगीत तो प्रस्तुत किये ही, भीष्म साहनी कृत और निसार अली निर्देशित 'चीफ की दावत का भी मंचन किया। इप्टा रायपुर ने नुक्कड़ नाटक 'सरकार का निजीकरण का मंचन किया। दीपक और पूनम की टीम ने दिवंगत हबीब तनवीर के नाटक के गीतों को प्रस्तुत किया। गोविंदराम निर्मलकर ने नाटय समारोह का उद्घाटन किया। उन्होंने छत्तीसगढ़ के 'नाचा जैसी लोकप्रिय विधा के प्रति सरकारी उदासीनता पर नाराजगी और चिंता जाहिर की। 'रंगकर्म के सरोकार' विषय पर हई गोष्ठी में प्रसार वानारसे व डा. रानी बलबीर कौर ने विचारोत्तेजक वक्तव्य रखा। 

कुल मिलाकर इस समारोह ने रायपुर के रंगकर्म की जीवंतता को पुन: रेखांकित किया। छत्तीसगढ़ के संस्कृति विभाग ने जिस नाट्य कर्म को दोयम दर्जे पर रख दिया है, ऐसे में इप्टा का यह समारोह संस्कृति विभाग को उसका असली चेहरा तो दिखाता ही है। 

Friday, January 18, 2013

सरोकारी पत्रकारिता के पतन की गाथा है ‘प्रिंटलाइन’


‘‘प्रिंट लाइन के भीतर के लोग प्रिंट लाइन का संयम तोड़कर बाहर आ गये हैं। उसके बाहर ढेर सारे अपनों के बीच यह पहचानना मुश्किल हो गया है कि कौन मीडिया से है और कौन नहीं।’’


जाहिर है कि वह जमाना अब चला गया जब ‘प्रिंट लाइन’ के भीतर के लोग प्रिंटलाइन की मर्यादा को न केवल समझते थे बल्कि इसका सम्मान करते हुए कभी भी ‘लक्ष्मण-रेखा’ को लांघने की कोशिश नहीं करते थे। अब तो लोग ‘प्रिंट लाइन’ के भीतर दाखिल ही इसलिये होते हैं कि उन्हें ‘प्रिंट लाइन’ के बाहर आने का कोई बढ़िया-सा अवसर हासिल हो सके। पिछले लगभग चार दशकों में हिंदी पत्रकारिता के उतार (चढ़ाव तो शायद ही हो! ) की पूरी कथा परितोष चक्रवर्ती के नवीनतम उपन्यास प्रिंट लाइन’ में पढ़ी जा सकती है, जिसे हाल ही में ‘ज्ञानपीठ’ ने प्रकाशित किया है। किताब का लोकार्पण पिछले दिनों रायपुर में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने किया व इस समारोह में देशभर के लेखक, पत्रकार, आलोचक-चिंतकों ने भागीदारी की। छत्तीसगढ़ राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के इस कार्यक्रम की अध्यक्षता कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने की।

‘धर्मयुग’ में नहीं जाने से लेकर ‘रविवार’ को छोड़ने तक परितोष के पास पत्रकारिता का एक लंबा अनुभव है पर उनके पाँवों में ‘भँवरी’ (चकरी) लगी हुई है इसलिये वे किसी एक जगह टिककर नहीं रह पाते। नौकरियाँ छोड़ने का रोग उन्हें खाज की तरह रहा है जो उन्हें कोई 15-16 जगह घुमाता रहा और इसी सिलसिले में अनेकानेक लोग उनके संपर्क में आए जो इस उपन्यास के पात्र हैं - कई वास्तविक नामों से और कुछ काल्पनिक। लगभग हकीकत और थोड़े फसाने को लेकर रचा गया यह उपन्यास एक ओर तो विगत् चार दशकों की हिंदी पत्रकारिता का लेखा-जोखा है तो दूसरी ओर नायक ‘अमर’ की जीवनी भी जो इस समस्त घटनाक्रम में सक्रिय रूप से सम्मिलित है। 

उपन्यास का एक किरदार ‘कप्पू’ भी है, जिसके साथ काम करने का अवसर इन पंक्तियों के लेखक को भी हासिल हुआ, इसलिये उपन्यास व लोकार्पण कार्यक्रम के विस्तार में जाने से पहले -निश्चय ही क्षमायाचना के साथ- कुछ निजी अनुभव। उन दिनों अखबार में साहित्यिक पत्रकारिता का अवसान पूरी तरह नहीं हुआ था और अखबार में नया होने के कारण मैं हरेक पत्रकार को ‘साहित्यकार’ समझते हुए उन्हें बड़ी श्रद्धा व आदर के साथ देखा करता था। परितोष, दीवाकर मुक्तिबोध (गजानन माधव मुक्तिबोध जी के सुपुत्र व रायपुर के वरिष्ठ पत्रकार ) व कप्पू उर्फ निर्भीक वर्मा उसी अखबार में काम करते थे। मैंने पहले भी कहीं जिक्र किया है कि अखबार का माहौल दमघोंटू था और हर वक्त कर्फ्यू जैसा लगा रहता था, जहाँ किसी को भी हँसते-बोलते देख लिये जाने पर फौरन गोली मार दिये जाने का अंदेशा बना रहता था। दीवाकर स्वाभाव से ही गंभीर थे और मैंने उन्हें प्रायः चुपचाप अपना काम करते हुए ही देखा था। ‘कर्फ्यू’ तोड़ने का काम या तो परितोष करते या कप्पू और इसलिये ही हम नये ‘रंगरूटों’ के हीरो थे। एक बार प्रधान संपादक जी ने कप्पू को समय पर अखबार के दफ्तर में आने की सलाह दी तो ‘‘टाइम पर आना और टाइम पर जाना’’ के मौन नारे के साथ कप्पू घर से एक बड़ी -सी अलार्म घड़ी लेकर आने लगे जो टेबल में उनके ठीक सामने रखी रहती, ताकि समय पर जाने में चूक न हो। लेकिन असल किस्सा कुछ और है।

मैंने अर्ज किया कि तब साहित्यिक व ‘मिशन वाली पत्रकारिता’ का अंत तो नहीं हुआ था लेकिन नयी तकनीक के आगमन के साथ बाजारवाद की पदचाप सुनाई पड़ने लगी थी, जो इतनी महीन थी कि कम से कम हम जैसे नये रंगरूटों की पकड़ से बाहर थी। कोई नया आदमी मिलता और कप्पू से परिचय कराया जाता तो काम के बारे में कप्पू का कहना होता, ‘‘जी मैं रद्दी बेचने का काम करता हूँ।’’ परितोष इस पर मुस्कुराते रहते और मैं आहत होता कि पत्रकारिता जैसे ‘महान’ व ‘पवित्र’ कार्य को कप्पू इस तरह लांछित कर रहे हैं और उन्हें परितोष का मूक समर्थन हासिल है। बहुत बाद में जब दिल्ली में एक ट्रेड यूनियन के दफ्तर में काफी दिनों तक अपना डेरा रहा तो उन दिनों अंग्रेजी के दो बड़े अखबारों में कीमत घटाकर ज्यादा पन्ने देने की प्रतिस्पर्धा चल रही थी। एक दिन बातों ही बातों में अखबार के हॉकर ने बताया कि ‘‘लंबे समय की मजबूरी है, वरना अखबार को बाँटने के बदले यदि उसे रद्दी में बेच दिया तब भी उतने ही पैसे मिल जायेंगे।’’ मुझे उसी क्षण कप्पू व परितोष की याद आयी और दरअसल ‘प्रिंट लाइन’ की समस्त कथा उस पूरे दौर कथा है जिसमें सरोकारी पत्रकारिता रद्दी बेचने के कारोबार में बदल गयी। 

छत्तीसगढ़ के छोटे-से गाँव से उपन्याय का नायक अखबारी लेखन की शुरूआत करता है और रायपुर के एक अखबार से सक्रिय पत्रकारिता में प्रवेश करते हुए अंततः देश की राजधानी दिल्ली में पहुँचता है जहाँ उसकी नियति बाजारू हथकंडों द्वारा छले जाने के लिये अभिशप्त है। लेकिन मजे की बात यह है कि ‘मिशन’ के खाज का मारा नायक अब भी ‘‘सब कुछ लुटाकर होश में आये तो क्या किया’’ कहने के बजाय ‘‘जो घर फूँके आपना’’ के मंत्र का जाप करता दिखाई पड़ता है। इसलिये लक-दक गाड़ियों में घूमने व लाखों की सैलरी लेने वाले आज के पत्रकारों के लिये यह पत्रकार किसी अजूबे से कम नहीं है जो संपादक-प्रबंधक द्वारा छूट दिये जाने पर भी अपने लिये न्यूनतम वेतन तय करता है और एक डूबती हुई पत्रिका को बचाने और चलाने के लिये अपना वेतन व खर्च कम कर लेता है। 

लेकिन इस आत्मकथात्मक उपन्यास में केवल पत्रकारिता की कथा नहीं है। बहुस-सी और भी कथायें हैं जो साथ-साथ चलती रहती हैं। छत्तीसगढ़ के गाँवों कस्बों में वर्ण-व्यवस्था, गाँवों से मजदूरों का पलायन, आपातकाल के काले दिन, पृथक छत्तीसगढ़ का आंदोलन -आदि अनेक प्रसंग कथा में बार-बार में आते हैं ओर इस कथा को अत्यंत रोचकता के साथ इतिहास की तरह भी पढ़ा जा सकता है। छत्तीसगढ़ की कथा यहाँ की प्रमुख पैदावार धान के उल्लेख के बगैर पूरी नहीं हो सकती सो कुछ पन्नों पर आप धान की विभिन्न किस्मों से भी रू-ब-रू हो सकते है। सबसे बड़ी बात यह है कि किताब को पढ़ने के लिये प्रयास की जरूरत नहीं है, किताब स्वयं को पढ़ाती चलती है। यह रोचकता मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को भी नजर में आयी और उन्होंने कहा कि  इस किताब को पढ़े बगैर मुझे चैन नहीं आयेगा, अभी थोड़ी पढ़ी तो बेचैन हूँ। इसे पढ़ते हुए बहुत आनंद आ रहा है।  आलोचकों पर चुटकी लेते हुए उन्होंने कहा कि आप विद्वानों को तो और भी अधिक आनंद आयेगा।

दिल्ली के वरिष्ठ समीक्षक व मुख्य वक्ता डॉ. अजय तिवारी ने  इसे दांपत्य-प्रेम का अद्भुत उपन्यास बताया जो प्रेमचंद के यहाँ दिखाई पड़ता है। उन्होंने कहा कि सिर्फ इसी वजह से उपन्यास की कुछ कमियों को -जो उपन्यासकार की हड़बड़ी की वजह से उत्पन हुई हैं -खारिज किया जा सकता है। दिल्ली के ही कवि व समीक्षक डॉ. जितेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा कि यह किसी निष्कर्ष में पहुँचने की जल्दबाजी वाला उपन्यास नहीं है बल्कि यहाँ पर अर्थ की अनेक सभावनायें हैं। यह प्रश्न पूछने वाली, प्रश्न पूछने का शऊर पैदा करने वाली, बेचैनी उत्पन्न करने वाली व सच को सच की तरह कहने का साहस प्रदान करने वाली रचना है। अपने अध्यक्षीय भाषण में डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने कहा कि उन्हें इस बात का फख्र हासिल है कि उन्हें इस रचना को ड्राफ्ट दर ड्राफ्ट लेखन -प्रक्रिया के दौरान ही पढ़ने का गौरव हासिल है, ठीक वैसे ही जैसे कोई व्यक्ति अपनी नयी गाड़ी के इंजन को रवां करने के लिये उसे अपने मित्र को सौंप देता है।

चर्चा का सूत्र थमाने के लिये परितोष ने भी संक्षिप्त वक्तव्य दिया। कहते हुए वे थोड़े भावुक हो गये, हालांकि उनका सेंस ऑफ ह्यूमर विपरीत परिस्थितियों में कुछ ज्यादा ही जागृत हो जाता है। जब वे दिल्ली से अपनी पत्रिका निकाल रहे थे और घाटे में चल रहे थे तो अचानक मैंने देखा कि पत्रिका के अंग्रेजी संस्करण के शुभारंभ की घोषणा की गयी है। मैंने तुरंत फोन घनघनाया और इस उलट-बाँसी का आशय पूछा। परितोष ने कहा कि ‘‘तुम नहीं समझोगे। गरीब आदमी ही ज्यादा बच्चे पैदा करता हैं।’’ लेकिन यहाँ पर वे रूआँसे-से हो गये। पता नहीं ऐसा क्यों होता है कि तस्वीर खिंचवाते हुए प्रेमचंद के जूते फटे हुए दिखाई पड़ते हैं और बोलते हुए परितोष का गला रूंध जाता है! हिंदी-समाज अपने लेखकों के साथ ऐसा बर्ताव क्यों करता है?

- दिनेश चौधरी

यहां भी देखें : http://bhadas4media.com/print/8007-2013-01-18-08-47-08.html

Tuesday, January 15, 2013

राही मासूम रजा और कैफी आजमी



विभूति नारायण राय
-विभूति नारायण राय
राही मासूम रजा और कैफी आजमी में कई अद्भुत समानतायें हैं.दोनो आर्थिक रूप से पिछडे पूर्वी उत्तर प्रदेश में जन्मे, पले, शिक्षा के लिए बाहर गये , जन पक्षधर राजनीति से जुडे और रोजगार तथा रचनात्मकता के अंतिम पडाव के रूप में मुम्बई जा बसे . दोनो ने अपने गांव जंवार की मिट्टी को अपनी लेखकीय ऊर्जा का स्रोत बनाया . राही ने तो गंगौली को हिन्दी समाज की जातीय चेतना का अविभाज्य अंग बना दिया. उनके लगभग सभी उपन्यासों में गाजीपुर और उसके आस-पास का परिवेश मौजूद है. वे साम्प्रदायिकता या उपनिवेश वाद के खिलाफ लडाई में हथियार की तरह भोजपुरी प्रांत की लोक परम्पराओं और समरसता की तीव्र चेतना का इस्तेमाल करतें हैं. कैफी ने अपनी शायरी में अपने गांव मिजवां का उस तरह तो उल्लेख नहीं किया है पर साम्राज्यवाद , धार्मिक कट्टरता और सामाजिक गैर बराबरी के विरूद्ध लिखी गयी उनकी कविताओं में उन बिम्बों , प्रतीकों और प्रसंगों को तलाशना बहुत मुश्किल नहीं है जो भोजपुरी और उससे सटे अवधी भाषी इलाकों में बहुतायत से उपलब्ध है. दोनो लेखकों में एक समानता यह भी है कि उन्हें जब याद किया जाता है तो उनके इलाके का भी जिक्र किया जाता है. आज जब हमारे बहुत से लेखक आत्मकेन्द्रित और इलाका विहीन लेखन कर रहें हैं यह एक विशिष्ट तथ्य है जिसे इन दोनो का मूल्यांकन करते समय हमें ध्यान रखना चाहिए .
राही मासूम रजा

इन समानताओं के बावजूद एक ऐसा क्षेत्र भी है जहां ये दोनो अलग अलग खडे दिखायी देतें हैं. भिन्नता के इस बिंदू को रेखांकित करने के लिए मैं एक आपबीती सुनाना चाहूंगा.श्री रामानन्द सरस्वती पुस्तकालय , जोकहरा ,आजमगढ ने 17-18 अक्तूबर 2003 को ''राही मासूम रजा और हिन्दुस्तानी परम्परा'' शीर्षक से एक राष्ट्रीय विमर्श का आयोजन किया था. इसमें कमलेश्वर, असगर वजाहत, कुंवरपाल सिंह , नमिता सिंह वगैरह शरीक हुए . इस कार्यक्रम के अंतिम सत्र के रूप में जोकहरा से गंगौली तक की यात्रा प्रस्तावित थी. पूर्वी उत्तर प्रदेश की बदहाल सडक़ों से गुजरते हुए लेखकों और संस्कृति कर्मियों का जत्था देर शाम गंगौली पहुंचा .धूमकेतु जी के उत्साही कार्यकर्ताओं ने पहले से ही एक सभा की व्यवस्था कर रखी थी . राही के पैतृक आवास के एक बडे से दालान में गांव के लोगों की भीड ज़मा थी. कुछ लोग गाजीपुर और मऊ से भी आये थे. पुस्तकालय ने आधा गांव का उर्दू संस्करण छापा था .इसका लोकार्पण होना था और फिर छोटी सी सभा प्रस्तावित थी . मौजूदा लोगों में राही के निकट के रिश्तेदार, बाल सखा और कुंवरपाल सिंह जैसे लोग शामिल थे जिनकी राही से वर्षों घनिष्टता रही थी, इसलिए स्वाभाविक था कि माहौल राही की स्मृति तथा भावुकता से सराबोर हो उठा. भविष्य में राही पर केन््रद्रित नियमित कार्यक्रम गंगौली में हो इस पर जोर दिया गया. कुछ वक्ताओं ने गंगौली वासियों को मीठी लताड भी लगाई कि उन उन्होंने राही के लिए कुछ भी नहीं किया .यहां तक कि राही का पैतृक आवास भी बुरी हालत में है, सब कुछ टूट फूट रहा है , कोई नियमित दिया बाती करने वाला भी नहीं है .....वगैरह वगैरह.


मैं किसी काम से सभा के पिछले भाग में गया . किसी भी दूसरी सभा की तरह वहां खुसुर-पुसुर हो रही थी . मंच के एक वक्ता ने प्रश्न पूछा , ''गंगौली गांव के लोगों ने राही के लिए क्या किया?'' 

''राही ने हमारे लिए क्या किया ?'' एक दबी क्रोधित आवाज मेरे कानो से टकराई .थोडी देर के लिए मैं स्तब्ध रह गया. जिस गंगौली गांव को राही ने पूरी दुनियां के लिए एक परिचित नाम बना दिया हो उसका कोई बाशिंदा अगर यह बात कहे तो इस पर क्या कहा जा सकता है? मैंने इस असंतोष के कारण तलाशने शुरू किये .

कुछ लोगों से ही बातचीत करने पर कारण भी मिल गये .राही पढने और नौकरी के सिलसिले में अलीगढ अौर फिर वहां से बम्बई गये .अलीगढ में उन्होंने अपना कालजयी उपन्यास आधा गांव लिखा. यही वह कृति थी जिसने गंगौली गांव को हिन्दी समाज का एक परिचित नाम बना दिया . बाद की दूसरी रचनाओं में गाजीपुर के आस पास इलाका रचता बसता रहा .राही गंगौली को लिखते तो रहे पर वहां लौटे कभी नहीं .हर साल दो साल पर संदेश जरूर आता या कोई गंगौली वाला टकरा जाता तो वादा किया जाता कि इस साल मोहर्रम में घर आयेंगे. फिर एक कमजोर आश्वासन कि इस बार फंस गये पर अगला मोहर्रम तो गंगौली में ही मनाया जायेगा. लेकिन यह अगला साल कभी नहीं आया. यद्यपि किसी ने कहा नहीं लेकिन जो लोग पूर्वी उत्तर प्रदेश की गरीबी और बेतकुल्लफी से वाकिफ हैं वे बिना किसी शिकायत किये भी यह मान सकतें हैं कि इलाज , नौकरी की तलाश या फिर किसी अन्य मदद के लिए गंगौली से कोई न कोई बम्बई पहुंचता रहा होगा और उसकी अपेक्षा यही रही होगी कि बम्बई शहर में राही जैसा कामयाब व्यक्ति उन्हें अपने घर में टिकायेगा, उन्हें बम्बई घुमायेगा, उनकी नौकरी लगवायेगा या फिर उनके इलाज की व्यवस्था करेगा. अपने भोले ग्रामीण उत्साह में ये भूल जाते रहे होंगे कि बम्बई जैसे महानगर में कोई नीम का पेड नहीं होता जिसकी छांव तले चारपाई डालकर आप हफ्तों मेहमानबाजी करातें रहें .अपने मन में कडवाहट लिये ऐसे लोग लौटते रहें होंगे .

राही ने अपने बचपन और जवानी की दहलीज पर पहुंचने तक गंगौली की मिट्टी से जो कुछ अर्जित किया था-चाहे वह भाषा रही हो , किस्सागोई की तमीज हो या गंगोजमनी तहजीब -उसी को जिन्दगी भर बेचते रहे .

इसके बरक्स कैफी क़ा जीवन भिन्न है .उन्होंने आजमगढ क़े मिंजवा गांव से अपनी रचनात्मक ऊर्जा हासिल की .पढने के लिए लखनऊ के एक मदरसे में दाखिल हुए और शायरी , इप्टा, पार्टी और जनान्दोलनों से गुजरते हुए राही की ही तरह बम्बई की फिल्मी दुनियां में दाखिल हुए. बम्बई में उन्होंने शोहरत और दौलत दोनो मिली . यह बहुत स्वाभाविक होता अगर उन्होंने अपनी जवानी की मुश्किल जिन्दगी को स्मृतियों में सुरक्षित रखते हुए उम्र का तीसरा और चौथा पहर बम्बई की आरामदेह दुनियां में बिताने का फैसला लिया होता. पर उन्होंने ऐसा नहीं किया. जिस समय वे दुनियांदारी के लिहाज से सफलता के शीर्ष पर थे , उन्होंने फैसला किया कि वे बम्बई छोडक़र मिंजवां में रहेंगे .यह आज से तीस पैंतीस साल पुराना मिंजवां था जब उत्तर प्रदेश के ज्यादातर दूसरे गांवों की तरह वहां कोई सडक़ नहीं थी , बिजली का नाम लेते तो लोग हंसने लगते , शिक्षा शहरी लोगों की विलासिता समझी जाती थी.ऐसे मिंजवां में रहने का फैसला कोई सनकी ही कर सकता था.कैफी ने यह फैसला किया और उनकी मिंजवां मे वापसी से वहां की तकदीर भी बदलने लगी .उनकी शख्शियत का ही प्रभाव था कि प्रदेश के राजनैतिक नेतृत्व और नौकरशाही ने मिंजवां में सडक़ और बिजली पहुंचाई. अपनी जमीन पर कैफी ने लडक़ियों का स्कूल कायम किया . मिंजवां वापसी के शुरूआती दिनों में ही कैफी क़ा स्वास्थ्य खराब हो गया.उन्हें फालिज मार गया था. मिंजवां और उसके आसपास के कस्बों फूलपुर , शाहगंज या आजमगढ में आज भी बहुत अच्छी स्वास्थ्य सेवायें उपलब्ध नहीं हैं ,उन दिनो तो हालात और भी खराब थे .बम्बई में, जहां उनके परिवार के दूसरे सदस्य रहते थे, उनकी देखभाल भी बेहतर हो सकती थी और देश का सर्वोत्कृष्ट इलाज भी उन्हें मिल सकता था. पर वे मिंजवां छोड क़र नहीं गये . बम्बई और मिंजवां के बीच उनका आन जाना चलता रहता था.बाद के सालों में जब इलाज के लिए बम्बई रहना ज्यादा जरूरी हो गया तब जाकर इस व्यवस्था में यह परिवर्तन जरूर आया कि मिंजवां में उनके आने की नियमितता और रूकने की अवधि कम हो गयी पर पूरी तरह से बंद नहीं हुयी.मृत्यु के बाद ही मिंजवां से उनका संबंध टूटा .

राही और कैफी में कौन बडा था? यह एक ऐसा सवाल है जिसका कोई सीधा उत्तर नहीं हो सकता .लेखकों की तुलना के कोई सर्वमान्य निकष नहीं तय हुयें हैं.ऊपर दोनों के व्यक्तित्वों और जीवन दृष्टि के जिस फर्क को रेखांकित किया गया है उसपर कुछ बातें की जा सकतीं हैं . सबसे बडा सवाल तो यह है कि क्या लेखक को ऐक्टिविस्ट होना चाहिए? वह जिस जमीन से जुड क़र लिखता है या जिस परिवेश से आता है क्या उसका कोई ॠण उस पर होता है ? इस ॠण को उतारने के लिए उसे कैफी की तरह वहां जाकर कुछ करना चाहिए या राही जैसा लेखन ही इसके लिए पर्याप्त होगा?
कैफी व शबाना

हमारे सामने बहुत से उदाहरण हैं जिनमें लेखकों ने अपने मूल्यों के लिए , जिनमें वे यकीन रखते थे, आंदोलनो और सशस्त्र संघर्षों में भाग लिया . 1789 की फ्रांसीसी क्रांति ,सोवियत उभार या स्पेनिश गृह युद्ध जैसे बहुत से उदाहरण हैं जिनमें संस्कृति कर्मियों ने बढ चढक़र हिस्सा लिया और अपनी जानें भी दीं .भारत में भी स्वतंत्रता आंदोलन और तेलंगाना के सशस्त्र विद्रोह में बहुत से लेखकों ने भाग लिया था.हाल के दिनों में नक्सलवादी और जयप्रकाश नारायण के आंदोलनों में भी लेखकों ने भाग लिया था.इस मसले पर कुछ लेखकों की राय मिली है.वे मानतें हैं कि उनका लेखन ही उनका ऐक्टिविज्म है.साम्प्रदायिकता या साम्राज्यवाद के खिलाफ अपने लेखन से वे अपना प्रोटेस्ट दर्ज करतें हैं और यही उनका ऐक्टिविज्म है. मेरी इस इस सिलसिले में बहुत से लेखकों से बातें हुयीं हैं और मैने पाया है कि एक बडी संख्या इसमें यकीन करती है. इस तरह से सोचने वाले सभी कलावादी नहीं हैं.काफी बडी संख्या में प्रगतिशील भी यही सोचतें हैं .मुझे नहीं लगता कि हम आसानी से किसी फैसले पर पहुंच सकतें हैं.स्पेनिश गृह युद्ध, आपातकाल , 1984 या हाल का गुजरात का अनुभव किसी समाज में कभी-कभी आतीं हैं जब फैसला करना अनिवार्य और आसान हो जाता है. बहुत से लेखक उस समय भी घरों में रहना पसंद कर सकतें हैं .कैफी ने जिस समय मिंजवां लौटने का फैसला किया उस समय ऐसी कोई स्थिति नहीं थी .वे किसी तात्कालिक दबाव के तहत नहीं लौटे. लौटे तो अपनी जमीन और लोगों से ज्यादा सरोकारों के कारण .राही नहीं लौटे. उनके लेखन को देखा जाय तो उनके गंगौली से सरोकार किसी मायने में कमतर नहीं है फिर भी उन्होंने एक बार गंगौली छोडा तो फिर कभी नहीं लौटे. मैं जब दोनो के फैसले की तुलना करता हूं तो किसी निश्चित नतीजे पर नहीं पहुंच पाता पर मुझे लगता है कि कैफी के मिंजवां वापसी को केन्द्र पर रखकर लेखकों के ऐक्टिविज्म पर एक बहस जरूर छेडी ज़ा सकती है.

हिन्दीसमय.काम से साभार

Saturday, January 12, 2013

क्या प्रगतिशील आंदोलन को पुनर्जीवित किया जा सकता है?

- राधे दुबे

यों तो दमनकारी, रूढ़िग्रस्त व्यवस्थाओं को बदलने और व्यक्ति व समाज को बंधन-मुक्त करके प्रगति के पथ पर आगे बढ़ाने के आंदोलन इतिहास में बराबर होते आए हैं और आज भी हो रहे हैं, परंतु यहाँ मेरा तात्पर्य 75 वर्ष पहले (अक्तूबर 1936 में) प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के साथ संस्कृति के क्षेत्र में शुरू हुए आंदोलन से है। तब साहित्य के साथ-साथ संगीत और ललित कला के क्षेत्रों में नये-नये प्रयोग किये गये थे। भुखमरी के शिकार ग़रीब देहाती लोगों और शहरों के रास्तों पर पत्थर तोड़ती मजूरिनों को लेकर कविताओं, कहानियों और उपन्यासों की रचना की गयी थी। फिर बंगाल के अकाल के दौरान शुरू हुए इंडियन पीपुल्स थियेटर असोशियेसन ‘इप्टा’, ने अपने जुझारू नाटक पेश किये, जिनसे देश के कोने-कोने में तहलका मच गया।

देश में पुनर्जागरण काल कुछ दशक पहले ही बंगाल में आरंभ हो गया था और महान साहित्यकारों ने समाज की उग्र समस्याओं को साहस से उठाया था। परंतु प्रगतिशील आंदोलन ने उन प्रयासों में एक नया सार भर दिया। उसने समाज के क्रिया-कलापों को वर्ग-संघर्ष की दृष्टि से समझने और घटनाओं को अलग-अलग नहीं, बल्कि सम्बद्ध रूप में देखने की परिपाटी को जन्म दिया। उस काल में जब हमारी आज़ादी की लड़ाई अपने निर्णायक दौर में प्रवेश कर रही थी, मज़दूरों और किसानों के सवाल उठाना अत्यंत महत्वपूर्ण था। देश में घट रही घटनाओं को अंतर्राष्ट्रीय गतिविधियों की पृष्ठभूमि में देखना भी कम महत्वपूर्ण नहीं था, क्योंकि उन वर्षों में फासिस्ट ताक़तें दुनिया को नरक में भेजने की तैयारियाँ कर रही थीं। प्रगतिशील आंदोलन का इतिहास अत्यंत गौरवशाली रहा, परंतु खेद की बात है कि अब उसे लकवा मार गया है और वह केवल लक़ीर पीट रहा है। ऐसा क्यों हो गया? इसके कारण क्या हैं?

हमारे कुछ नीम हकीम बेहिचक कहते हैं कि जब पी.सी.जोशी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव थे, प्रगतिशील संगठनों के बाग़ फल-फूल रहे थे और जब बी.टी. रणदिवे आये, उन्हें पाला मार गया। इसलिए रणदिवे ज़िम्मेदार हैं। क्यू.ई.डी.। लेकिन थ्योरम हल नहीं हुई। रणदिवे के काल में ‘इप्टा’ ने उनकी संकीर्णतावादी, दुस्साहसी नीति का अनुसरण करते हुए एक-दो नेहरू-विरोधी नाटक खेले थे जिससे बलराज साहनी को बहुत अफ़सोस हुआ था। उन जैसे दूसरे लोग भी खिन्न हुए थे। लेकिन रणदिवे 1948 के आरंभ में आये थे और 1950 के आरंभ में चले गये। तो उन दो वर्षों की ग़लतियों को पिछले 62 वर्षों में सुधारा क्यों नहीं गया? यह भी याद किया जा सकता है कि ‘इप्टा’ की केन्द्रीय मंडली को, जो अंधेरी (बम्बई) में अभ्यास करती थी, कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से सहायता 1947 के मध्य में ही, यानी जोशी के कार्यकाल में ही बंद कर दी गयी थी। प्रगतिशील संगठनों के जीवनभर भरण-पोषण का ठेका कम्युनिस्ट पार्टी ने कभी नहीं लिया। उन्हें बैसाखी देना पार्टी का काम नहीं है। वह तो संगठनों को मार्ग दिखाती है। जन संगठन पार्टी से सम्बद्ध होते हैं, परंतु पार्टी के अनुशासन में बंधे नहीं होते और होने भी नहीं चाहिए क्योंकि इससे उनके स्वाभाविक विकास में बाधा पड़ती है।

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प्रगतिशील संगठनों की आज की स्थिति और पिछली आधी शताब्दी की उनकी कहानी को वस्तुगत दृष्टि से देखना चाहिए। सांस्कृतिक क्षेत्र का प्रगतिशील आंदोलन कालविशेष की उपज था और परिस्थितियाँ बदल जाने के कारण उसकी क्षमता क्षीण होने लगी। दूसरे विश्व युद्ध का ज्वालामुखी फटने के बाद का क्रांतिकारी ज्वार मोटे तौर पर 1949 में चीनी जन क्रांति की विजय के बाद ठंडा पड़ गया था। फिर कुछ वर्ष बाद सोवियत संघ के नेता ख्रुश्चोव ने स्तालिन के तथाकथित काले कारनामों का कच्चा चिठ्ठा खोला जिससे न सिर्फ कम्युनिस्ट आंदोलन का समर्थन करनेवाले परिधि के लोगों की हिम्मत पस्त हो गयी, बल्कि स्वयं कम्युनिस्टों के एक अंग का विश्वास डगमगा गया।

इधर हमारे देश ने नयी करवट ले ली थी और उसके इतिहास का नया दौर शुरू हो गया था। वह स्वाधीनता की प्राप्ति का सुप्रभात था। जन साधारण की तरह वामपंथी झुकाववाले परिधि के लोग भी राज्य की घोषणाओं में नयी संभावनाओं के द्वार खुलते देख रहे थे। समाजवादी देशों ने अपने-अपने दूतावास और देश के विभिन्न नगरों में अपने काउंसिल-दफ्तर और सूचना केन्द्र खोल दिये थे जहाँ सबसे पहले वामपंथी लोगों का स्वागत किया जाता था। बम्बई का सिनेमा जगत समाज की समस्याओं और दायमी बीमारियों को उठा रहा था और उसके चुम्बक ने न सिर्फ ख्वाजा अहमद अब्बास जैसे परिधि के लोगों, बल्कि बलराज साहनी, साहिर लुधियानवी, शंकर शैलेन्द्र और मजरूह सुल्तानपुरी जैसे प्रतिबद्ध कम्युनिस्टों को भी अपनी ओर खींच लिया। गये तो कैफ़ी और अलीसरदार जाफरी जैसे शायर भी थे, लेकिन जाफरी जम नहीं पाये। दो शब्दों में कहा जाये तो प्रगतिशील आंदोलन की भूतपूर्व और सम्भावित हस्तियाँ और आम तौर पर मध्यम वर्ग के लोग उन दिनों नये सब्ज़ बाग़ देख रहे थे।

कांग्रेस सरकार से मोह भंग कुछ बरस बाद हुआ। शक्तियों का संतुलन बदल गया। पहले अहीर, जाट, गूजर, राजपूत आदि दरम्यानी तबक़ों के लोग उठे जिन्हें राम मनोहर लोहिया ने ‘अजगर’ बताया फिर दलितों और पिछड़े वर्ग के लोगों ने अपनी कमर सीधी की और सिर उठा लिये। यह सचमुच में एक ज़लज़ला था। जो आंदोलन महाराष्ट्र और तमिलनाडू में कुछ दशक पहले छिड़ा था, अब उत्तरी भारत के हिन्दी भाषा-भाषी इलाक़ों में फैल गया। कोई दो हज़ार साल पहले मनु द्वारा स्थापित की गयी समाज की व्यवस्था को चुनौती दी जाने लगी। वी.पी. सिंह की सरकार ने मंडल कमीशन की सिफारिशें मंजूर कर लीं और दलितों, दूसरे पिछड़े वर्गों के लोगों और शिड्यूल्ड जन-जातियों – आदिवासियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था का ऐलान कर दिया।

देखना दिलचस्प है कि हमारे प्रगतिशील संगठनों की ओर से, मूल-परिवर्तन की आकांक्षी वामपंथी शक्तियों की ओर से इस घटना-चक्र की प्रतिक्रिया क्या हुई। वे कहने लगीं कि यह ‘जातिवाद’ है जिसकी ‘सम्प्रदायवाद’ की तरह ही निंदा करनी चाहिए। तुलना अनोखी थी। सम्प्रदायवादी देश को धर्म के आधार पर विभाजित रखना चाहते हैं और उसकी प्रगति के मार्ग में प्रधान बाधा है, जबकि दलित और दूसरे पिछड़े वर्गों के लोग न केवल शोषित और उत्पीड़ित हैं, बल्कि देश की आबादी का वह अधिकाँश भाग हैं जिसकी शिरकत के बिना देश का उत्थान ही असंभव है। फिर भी कहा गया कि जातियों का यह आंदोलन वर्गीय एकता को तोड़ने का हथकंडा है और प्रगतिशील लोगों को उससे खबरदार रहना चाहिए। साहित्यकार पीछे नहीं रहे। भीष्म साहनी जैसा जाना-माना व्यक्तित्व आरक्षण के सवाल को लेकर त्राहि-त्राहि करने लगा और ‘मैरिट’ की – योग्यता और प्रतिभा की बलि चढ़ जाने की दुहाई देने लगा। इसे कहते हैं उल्टी चाल, जबकि चाहिए था कि प्रगतिशील संगठन वक्त के साथ क़दम मिलाकर चलते।

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प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के समय के नारे अपना औचित्य खो चुके हैं और बेमानी हो गये हैं। बासी निवालों को चबाने और जुगाली करने से अब कुछ हासिल नहीं हो सकता। वह साम्राज्यशाही के ख़िलाफ़ लड़ाई और देश में एके का ज़माना था, आज समाज के हर दबे-कुचले तबके के अधिकारों के लिए लड़ने का सवाल है। अमरीका को कोसना और मनमोहन सिंह सरकार की नव-उदारवादी नीति पर लानत भेजना महज़ ज़बानी जमा-खर्च है। जनता से जुड़ी उग्र समस्याएं हर तरफ़ मुँह बाये खड़ी हैं। महाजनों के कर्ज़ चुकाने में असमर्थ हो जाने के कारण पिछले 16 बरसों में लगभग तीन लाख ग़रीब किसान आत्म-हत्या कर चुके हैं। खाने-पीने की पौष्टिक चीज़ों से वंचित बच्चों और माताओं को देखते हुए हमारे देश ने सारी दुनिया को पीछे छोड़ दिया है। ग़रीबी, बेकारी और निरक्षरता की इन्तहा मुसलमानों के बीच नज़र आती है और ऊपर से उन्हें आर.एस.एस और भाजपा के बजरंगियों के हमले झेलने पड़ते हैं। बिहार में दलितों की झोपड़ियों को बच्चों और नारियों समेत जला दिया जाता है, यू.पी. और मध्य प्रदेश में नवदम्पत्तियों को अलग-अलग जाति के होने के कारण पेड़ों से लटका दिया जाता है, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में ‘खाप’ नाम की देहाती पंचायतें मध्य-युगीन, सामंती नमूने के ज़हर बुझे, रक्त-रंजित फतवे जारी करती हैं। मगर अन्ना हज़ारे और उनकी टीम जैसे समाज के स्वयं नियुक्त ठेकेदारों को ऐसे अत्याचारों की नहीं, केवल भ्रष्टाचार की चिंता है।

त्रासदियाँ बहुत सी हैं जो साहित्य में प्रतिबिम्बित होने और संस्कृति में परिलक्षित होने की माँग करती हैं ताकि समाज को झकझोरा जा सके। देश के सबसे पुराने बाशिन्दों – आदिवासियों का चीत्कार जंगलों की हवाओं में तिरोहित हो जाता है। झारखंड, उड़ीसा और खास तौर से छत्तीसगढ़ के आदिवासियों पर जो जुल्म और सितम ढाये जाते हैं, उन्हें पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उनके जंगल उनके नहीं रहे, उनकी ज़मीन उनकी नहीं रही, उनका जल उनका नहीं रहा और उनके पहाड़ भी उनके नहीं रहे। दंडकारण्य में अब नये राक्षस – कौरपोरेट हल्के आ गये हैं जो खनिज पदार्थ निकाल-निकाल कर पहाड़ोंको खोखला कर रहे हैं और पेड़ काट-काट कर ज़मीन को वीरान बना रहे हैं। उन्हीं कौरपोरेट हल्कों के सुख और सुविधा की ख़ातिर आदिवासियों को ‘माओवादी हत्यारों के ख़िलाफ़ मुहिम’ के नाम पर गोलियों से भूना जाता है। हाल ही में, 29 जून को 19 निर्दोष लोगों को बाक़ायदे मार डाला गया। जब छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री को बताया गया कि वे तथाकथित माओवादी नहीं थे, उनमें से दो तो 15-15 बरस के स्कूली बालक थे, तो बेशर्मी के साथ उन्होंने जवाब दिया कि माओवादियों ने उन्हें ढाल की तरह इस्तेमाल किया था। आदिवासियों के दुख-दर्द में शरीक होनेवाला कौन है? उनके हक़ में आवाज़ कौन उठाता है? शायद अकेली महाश्वेता देवी! और हाँ, अरुंधति राय भी।

अब इसके बरअक्स तसवीर देखिए। आज हमारे शहरों में डिपार्टमेंट स्टोरों की – जिन्हें मॉल कहा जाता है, कतारों पै कतारें खड़ी हो रही हैं। उनके माल की चकाचौंध का उपभोग करनेवाले नये दुर्योधन फर्श को कुंड और कुंड को फर्श समझने की ग़लती नहीं करते। वे तो अमरीका के रॉकफैलर और डू पोंट से होड़ लेनेवाले तबकों के लोग हैं; वे बम्बई के तीन-तीन हैलीपेडों, हैंगिंग गार्डनों और जिमनेसियमों से शोभायमान 27 मंजिली अट्टालिका ‘अंतीला’ के स्वामी, अम्बानी के भाईबंद हैं। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी की ‘दरियादिली’ और भूमंडलीयकरण की प्रक्रिया की ‘मेहरबानी’ से ‘उपभोक्तावादी संस्कृति के गुलदस्ते’ हमारे शहरों में बिखर गये हैं।

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आम लोगों की कंगाली और दूभर ज़िंदगी की वजह से नहीं, तो उनका मखौल उड़ानेवाले नये और पुराने धनिकों की ऐशो-इशरत को देखकर ही हमारे जनवादी प्रगतिशील साहित्यकारों को अल्लामा इक़बाल की तरह गर्जना करनी चाहिए कि ‘जिस खेत से दहकाँ को मयस्सर नहीं होती रोज़ी, उस खेत के हर गोशए-गंदुभ को जला दो!’ तभी वे प्रगतिशील कहलाने के हक़दार हो सकते हैं।

‘उपभोक्तावादी संस्कृति’ के भंडाबरदार जीवन के उच्च मूल्यों को ठोकर मार रहे हैं। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त को उन्होंने सिर के बल खड़ा कर दिया है। वे कहते हैः ‘तन सेवा और मन सेवा, जीवन और धन सेवा’ ही सब कुछ है। ‘जनसेवा’ और ‘भुवनसेवा’ को कौन पूछता है?.....बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों की तरह एक बार फिर रणभेरी गूँजनी चाहिए। ‘उपभोक्तावादी संस्कृति’ के साजो-सामान की होली जलानी चाहिए, उसी तरह जैसे गाँधी जी के असहयोग आंदोलन के समय विदेशी कपड़ों की होली जलायी गयी थी।

देश की बदल गयी परिस्थितियों में 1936 से शुरू हुए प्रगतिशील आंदोलन को पुर्नजीवित नहीं किया जा सकता। लेकिन उसमें नयी जान डाली जा सकती है, उसे नया रूप दिया जा सकता है। एकदम ज़रूरी है कि नया आंदोलन सीमित और संकुचित न हो, वह किसी दल विशेष की अमलदारी बनकर न रह जाये। प्रगति के आकांक्षी और जनवाद के हामी सभी लोगों के लिए उसके द्वार खुले होने चाहिए और उसके संचालक-मंडल को फरमानबाज़ी से बाज़ आना चाहिए। ऐसा आंदोलन ही पिछले आंदोलन की परम्परा को आगे बढ़ा सकता है। 

Monday, January 7, 2013

बलराज साहनी और सआदत हसन मंटो


- शेष नारायण सिंह

24 साल पहले कुछ राजनीतिक गुंडों ने दिल्ली के कलाकार, सफ़दर हाशमी को बहुत  ही क्रूर तरीके से मार  डाला था। सफ़दर हाशमी पर हमला उस दिन हुआ जब वे मजदूरों के एक इलाके में नुक्कड़ नाटक प्रस्तुत कर रहे थे .बाद में उनके साथियों ने राजनीतिक गुंडई को चुनौती दी और उसी जगह पर जाकर सफ़दर के अधूरे नाटक का मंचन किया . 1 जनवरी  1989 के दिन सफ़दर हाशमी पर जानलेवा हमला हुआ था. उनकी याद में  सफ़दर हाशमी मेमोरियल  ट्रस्ट बनाया  गया .इसी ट्रस्ट का नाम सहमत है .सफ़दर की शहादत के एक साल बाद 1 जनवरी 1990 के दिन उनके साथी और देश भर के कलाकार, साहित्यकार,संगीतकार और संस्कृति से जुड़े सभी पक्षों के प्रगतिशील लोग इकठ्ठा हुए और  दिल्ली के मंडी हाउस इलाके में साहित्य और संस्कृति का एक जश्न मनाया . उसके बाद हर साल सफ़दर की याद में सहमत के तत्वावधान में दिल्ली में भारतीय उप महाद्वीप के बुद्दिजीवियों और कलाकारों का मेला लगता है और अवाम की अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार का उत्सव मनाया जाता है . इस उत्सव में पिछले 24 वर्षों से प्रगतिशील कलाकार और संस्कृतिकर्मी अपने को सम्बद्ध पाता है .

इस साल सहमत ने 1 जनवरी का कार्यक्रम जन-कलाकार बलराज साहनी और सआदत हसन मंटो की याद को समर्पित किया . बलराज साहनी और मंटो का ज़िक्र किये बिना बीसवीं सदी के जनवादी आन्दोलन के बारे में बात पूरी नहीं की जा सकती है .बलराज साहनी ने इस देश को गरम हवा जैसी फिल्म दी .कहते हैं कि एम एस सत्थ्यूके निर्देशन में बनी फिल्म ,गरम हवा में बंटवारे के दौर के असली दर्द को जिस बारीकी से रेखांकित किया गया वह वस्तुवादी कलारूप का ऊंचे दर्जे का उदाहरण है . बलराज साहनी को उनकी फिल्मों के कारण आमतौर पर एक ऐसे कलाकार के रूप में जाना जाता है जिनका फिल्मों के बाहर की दुनिया से बहुत वास्ता नहीं था . लेकिन यह बिलकुल अधूरी सच्चाई है . बलराज साहनी बेशक बहुत बड़े फिल्म अभिनेता थे लेकिन एक बुद्धिजीवी के रूप में भी उनका स्तर बहुत ऊंचा है . बलराज साहनी ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का पहला कन्वोकेशन भाषण दिया था। बाद के वर्षों में विश्वविद्यालय में दाखिला लेने वाले छात्रों को सीनियर छात्रों की ओर से उस भाषण की साइक्लोस्टाइल कापी दी जाती थी . बलराज साहनी का वह भाषण शिक्षा की दुनिया में संस्कृति के सकारात्मक हस्तक्षेप की मिसाल के रूप में देखा जाता है .

बलराज साहनी की मौत के बाद महान पत्रकार , फिल्मकार और बुद्धिजीवी  ख्वाजा अहमद अब्बास ने उनकी याद में एक मज़मून लिखा था जिसकी कुछ पंक्तियाँ शामिल किये बिना मेरा यह मज़मून अधूरा रह जाएगा। ख्वाजा साहेब ने लिखा था  की बलराज साहनी ने अपनी जिंदगी के बेहतरीन साल, भारतीय रंगमंच तथा सिनेमा को घनघोर व्यापारिकता के दमघोंटू शिकंजे से बचाने के लिए और आम जन के जीवन के साथ उनके मूल, जीवनदायी रिश्ते फिर से कायम करने के लिए समर्पित किए थे।

बहुत से लोग इस पर हैरानी जताते थे कि बलराज साहनी  कितनी सहजता और आसानी से आम जन के बीच से विभिन्न पात्रों को मंच पर या पर्दे पर प्रस्तुत कर गए हैं, चाहे वह धरती के लाल का कंगाल हो गए किसान का बेटा हो या हम लोग का कुंठित तथा गुस्सैल नौजवान; चाहे वह दो बीघा जमीन का हाथ रिक्शा खींचने वाला मजबूर इंसान हो या काबुलीवाला का पठान मेवा बेचनेवाला या फिर इप्टा के नाटक "आखिरी शमा" में मिर्जा गालिब का बौद्धिक  रूपांतरण ही क्यों न हो। बलराज साहनी कोई यथार्थ से कटे हुए बुद्धिजीवी या  कलाकार नहीं थे। आम आदमी से उनका गहरा परिचय स्वतंत्रता के लिए तथा सामाजिक न्याय के लिए जनता के संघर्षों में उनकी हिस्सेदारी से निकला था। उन्होंने जुलूसों में, जनसभाओं में तथा ट्रेड यूनियन गतिविधियों में शामिल होकर और पुलिस की नृशंस लाठियों और गोलियां उगलती बंदूकों का सामना करते हुए यह भागीदारी की थी। गोर्की की तरह अगर जिंदगी उनके लिए एक विशाल विश्वविद्यालय थी, तो जेलों ने जीवन व जनता के इस चिरंतन अध्येता, बलराज साहनी के लिए स्नातकोत्तर प्रशिक्षण का काम किया था।

इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन, जिसे इप्टा के नाम से ही ज्यादा जाना जाता है, का जन्म दूसरे विश्व युद्ध तथा बंगाल के भीषण अकाल के बीच हुआ था और बलराज साहनी इसके पहले कार्यकर्ताओं में से थे। एक अभिनेता की हैसियत से भी और एक निदेशक की हैसियत से भी, उनका इप्टा के खजाने में शानदार योगदान रहा था। सब से बढक़र वह एक संगठनकर्ता थे। किसी भी मुकाम पर इप्टा अपने नाटकों के जरिए जिस भी लक्ष्य के लिए अपना जोर लगा रहा होता था, चाहे वह फासीविरोधी जनयुद्ध हो या नृशंस दंगों की पृष्ठïभूमि में हिंदू-मुस्लिम एकता का सवाल हो, वह चाहे  अफ्रीकी जनगण की मुक्ति हो या फिर साम्राज्यवाद के खिलाफ वियतनाम का युद्ध , बलराज साहनी हमेशा सभी के मन में उस लक्ष्य के प्रति हार्दिकता व गहरी भावना जगाते थे। काबुलीवाल फिल्म में बलराज साहनी ने जिस तरह से ऐ मेरे प्यारे वतन का सीन अभिनीत किया था वह आज भी हर उस आदमी को अपने वतन की याद दिलाता है जो अपने घर से दूर है . हालांकि यह गाना अफगानिस्तान छोड़कर आये एक मेवा बेचने वाले की टीस थी।

मंटो के बारे में  उनके जन्मशती के हवाले से पिछले एक साल से बहुत चर्चा हुई है . इस अवसर पर सहमत ने एक किताब भी प्रकाशित की . जनवादी लेखक और पत्रकार राजेन्द्र शर्मा ने इस किताब का सम्पादान किया है . किताब की भूमिका में उन्होंने मंटो के होने का अर्थ समझाने की  कोशिश की है . वे मंटो को भारतीय और  हिंदी पाठकों के  सामने बहुत ही बेबाक तरीके से प्रस्तुत करते हैं .  राजेन्द्र शर्मा ने लिखा  है  कि 1931 में यानी उन्नीस बरस की उम्र में जलियांवाला बाग त्रासदी पर पहली कहानी ‘तमाशा’ से शुरू करने वाले मंटो ने, मुश्किल से बाईस साल के अपने लेखकीय जीवन में इतना लिखा, गद्य की इतनी विधाओं में लिखा और इतने ऊंचे दर्जे का लिखा कि  मंटो की चमक  सबसे अलग  दिखाई देती है। मुश्किल से बाईस साल में बाईस कहानी संग्रह (बाईस दर्जन से ज्यादा कहानियां), एक उपन्यास, पांच रेडियो नाटक संग्रह, तीन लेख संग्रह, दो निजी खाकों के संकलन इतना सब कोई जुनूनी ही रच सकता था।  मंटो के देश के विभाजन के बाद पाकिस्तान में लाहौर में जा बसने के ‘कारणों’ और ‘संदेशों’ पर तो बहस हो सकती है और यह बहस शायद कभी खत्म भी न हो, पर इसमें बहस की कोई गुंजाइश नहीं है कि यह फैसला, व्यक्ति सआदत हसन को बहुत-बहुत भारी पड़ा। 

मंटो को अपने ‘दूसरे वतन’ बंबई से इतनी मोहब्बत थी कि वह बंबई छूटने के बाद भी खुद को ‘चलता-फिरता बंबई’ कहते थे.उस बंबई में उसने ‘चंद रुपयों से लेकर हजारों और लाखों कमाए और खर्च किए’ थे। दूसरी तरफ लाहौर में डेरा डालने के साढ़े चार बरस बाद भी मंटो को यह लिखना पड़ रहा था कि, ‘‘दिन रात मशक़्क़त के बाद मुश्किल से इतना कमाता हूं जो मेरी रोजमर्रा की जरूरियात के लिए पूरा हो सके। ये तकलीफदेह एहसास हर वक्त मुझे दीमक की तरह चाटता रहता है कि अगर आज मैंने आंखें मींच लीं तो मेरी बीवी और तीन कमसिन बच्चियों की देखभाल कौन करेगा।’’ फिर भी, जो चीज मंटो को खाए जा रही थी, वह न उसे पाकिस्तान में मिला सलूक था और न छूटे हुए पहले और दूसरे ‘वतनों’ की याद। 

मंटो विभाजन की  की विभीषिका को कभी स्वीकार  नहीं कर पाए . विभाजन का मंटो पर क्या और कैसा असर हुआ था, इसे समझने के लिए शायद विभाजन पर मंटो की कहानियां ही सबसे भरोसेमंद गवाह हैं .। फिर भी विभाजन के साढ़े चार साल बाद मंटो का यह लिखना एक महत्वपूर्ण संकेत है कि, ‘‘मुल्क के बंटवारे से जो इंकलाब बरपा हुआ, उससे मैं एक अर्से तक बागी रहा और अब भी हूं।’’ बेशक, उसी टिप्पणी में मंटो यह भी कहते हैं कि, ‘‘लेकिन बाद में उस खौफनाक हकीकत को मैंने तस्लीम कर लिया’’। लेकिन, मंटो का इसे तस्लीम करना, इस खौफनाक हकीकत को स्वीकार करने की जगह, उसे शिव के हालाहल पान की तरह, अपने भीतर उतार लेना ही ज्यादा लगता है। अचरज नहीं कि मंटो ‘‘तस्लीम करने’’ के दावे के फौरन बाद, उसी सांस में अपनी स्याह हाशिए के बहाने से, जो ‘टोबा टेक सिंह’ की ही तरह, विभाजन की त्रासदी का स्तब्धकारी दस्तावेज है, विभाजन की खौफनाक हकीकत के साथ अपने खास मंटोआई सलूक की अनोखी विशिष्टïता की ओर इशारा करता है:

बहरहाल, विभाजन की विभीषिका को देखने का मंटो का यह खास मुकाम, दो परस्पर जुड़े हुए काम और करता है। पहला, यह मंटो को विभाजन, उससे जुड़ी-चरम अमानवीयता और खून-खराबे को एक तिरछे कोण से देखने और इस तरह इस अमानवीयता के भीतर झांककर, सबसे बढक़र उसकी निरर्थकता को देखने और बहुत ही ठंडे तरीके से तथा मारक ढंग से दिखाने का मौका देता है। ‘टोबा टेक सिंह’ से लेकर, जिसे सहज ही भारतीय उपमहाद्वीप के विभाजन के सबसे बड़े क्लासिक का दर्जा दिया जा सकता है, ‘खोल दो’ या स्याह हाशिए की पांच-सात वाक्यांशों की कहानी ‘मिस्टेक’ तक, विभाजन से अपेक्षाकृत प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी मंटो की अधिकांश रचनाएं, विडंबना और व्यंग्य को अपना मुख्य हथियार यूं ही नहीं बनाती हैं। मंटो सबसे बढक़र इन्हीं हथियारों से विभाजन की सचाई की भयावहता और उसकी सम्पूर्ण निरर्थकता को, एक दूसरे की पृष्ठïभूमि में रखते हैं और इस तरह इसकी भयावहता और निरर्थकता, दोनों को उस तरह रौशन करते हैं, जैसे हिंदी-उर्दू-पंजाबी में दूसरा कोई लेखक नहीं कर पाया है। 
वास्तव में मंटो विभाजन और उसके साथ जुड़ी विभीषिका को, उसकी निरर्थकता तथा भीषणता के अर्थ में ही ‘पागलपन’ के रूपक के जरिए नहीं देखता है बल्कि इस अर्थ में भी पागलपन के रूप में देखते हैं  कि यह पागलपन भी, पागल को इस तरह पूरी तरह नहीं भर सकता है कि वह शुद्ध पागल ही रह जाए और दूसरे किसी भाव की उसके अंदर गुंजाइश ही न बचे। मंटो इस पागलपन को पहचानता है, तो यह भी पहचानता है कि यह पागलपन भी कोई हमेशा बना नहीं रह सकता है। ‘यज़ीद’ इस पागलपन के नशे के धीरे-धीरे टूटने की ही कहानी है। वास्तव में यहां मंटो की सांप्रदायिकता और विभाजन की भी आलोचना, कहीं ज्यादा वास्तविक और मानव-केंद्रित लगती है। 
यह तो निर्विवाद है कि मंटो विभाजन के, हिंदी-उर्दू-पंजाबी के क्षेत्र के सबसे बड़े और सबसे ‘विश्वसनीय गवाह’ हैं। उन्होंने इस त्रासदी को गहरे अर्थों में जिया था और एक अर्थ में अपनी जान से इस गवाही की कीमत चुकायी। हिंदी के लिए, पंजाब से जुड़े या मुस्लिम लेखकों को छोड़ दें तो, विभाजन की यह त्रासदी शायद कभी घटी ही नहीं थी। ऐसा  आबादी की अदला-बदली में हिंदी क्षेत्र में भारी उथल-पुथल होने के बावजूद है। ऐसे में हिंदी के लिए तो विभाजन की त्रासदी का याद दिलाया जाना ही काफी है। फिर भी, मंटो का लेखकीय योगदान, विभाजन की त्रासदी की गवाही तक ही सीमित नहीं है। उल्टे, विभाजन की त्रासदी की उसकी गवाही भी, इंसानियत में और इसीलिए इंसान की बराबरी तथा स्वतंत्रता में, मंटो की गहरी आस्था का ही हिस्सा है। 

साभार : http://sheshji.blogspot.in/2013/01/blog-post_6.html


'जन कलाकार’ थे बलराज साहनी

ख्वाजा अहमद अब्बास
-ख्वाजा अहमद अब्बास

दुर्भाग्य से हमारे देश में जाने माने चित्रकारों, अभिनेताओं तथा गायकों को ‘‘जन कलाकार’’ का खिताब देने का चलन ही नहीं है। उन्हें भी इंजीनियरों, डाक्टरों, ठेकेदारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और यहां तक कि बिल्कुल अनजाने लोगों के भी साथ खड़ाकर पद्मश्री तथा पद्मभूषण के खिताब दे दिए जाते हैं, जो सर्जनात्मक कलात्मक गतिविधियों के क्षेत्र में उनके अनोखे योगदान की अलग से कोई पहचान ही नहीं करते हैं।

बहरहाल, अगर भारत में कोई ऐसा कलाकार हुआ है जो ‘‘जन कलाकार’’ के खिताब का हकदार है, तो वह बलराज साहनी ही हैं। उन्होंने अपनी जिंदगी के बेहतरीन साल, भारतीय रंगमंच तथा सिनेमा को घनघोर व्यापारिकता के दमघोंटू शिकंजे से बचाने के लिए और आम जन के जीवन के साथ उनके मूल, जीवनदायी रिश्ते फिर से कायम करने के लिए समर्पित किए थे।

बहुत से लोग इस पर हैरानी जताते थे कि बलराज साहनी प्रकटत: कितनी सहजता व आसानी से आम जन के बीच से विभिन्न पात्रों को मंच पर या पर्दे पर प्रस्तुत कर गए हैं, चाहे वह धरती के लाल का कंगाल हो गए किसान का बेटा हो या हम लोग का कुंठित तथा गुस्सैल नौजवान; चाहे वह दो बीघा जमीन का हाथ रिक्शा खींचने वाला हो या काबुलीवाला का पठान मेवा बेचनेवाला या फिर चाहे इप्टा के नाटक आखिरी शमा में मिर्जा गालिब का बौद्धिक रूपांतरण ही क्यों न हो। लेकिन, इसका अंदाजा कम लोगों को ही होगा कि इन पात्रों को साकार करने के पीछे जन व जीवन का कितना सघन अध्ययन था और वर्षों की तैयारियों, शोध तथा उन परिस्थितियों में वास्तव में रहकर देखने के बल पर, इन पात्रों को गढ़ा गया था। बलराज साहनी कोई यथार्थ से कटे हुए बुद्धिजीवी तथा कलाकार नहीं थे। आम आदमी से उनका गहरा परिचय (जिसका पता उनके द्वारा अभिनीत पात्रों से चलता है), स्वतंत्रता के लिए तथा सामाजिक न्याय के लिए जनता के संघर्षों में उनकी हिस्सेदारी से निकला था। उन्होंने जुलूसों में, जनसभाओं में तथा ट्रेड यूनियन गतिविधियों में शामिल होकर और पुलिस की नृशंस लाठियों और गोलियां उगलती बंदूकों को सामना करते हुए यह भागीदारी की थी। गोर्की की तरह अगर जिंदगी उनके लिए एक विशाल विश्वविद्यालय थी, तो जेलों ने जीवन व जनता के इस चिरंतन अध्येता, बलराज साहनी के लिए स्नातकोत्तर प्रशिक्षण का काम किया था।

इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन, जिसे इप्टा के नाम से ही ज्यादा जाना जाता है, का जन्म दूसरे विश्व युद्ध तथा बंगाल के भीषण अकाल के बीच हुआ था और बलराज साहनी इसके पहले कार्यकर्ताओं में से थे। एक अभिनेता की हैसियत से भी और एक निदेशक की हैसियत से भी, उनका इप्टा के खजाने में शानदार योगदान रहा था। फिर भी मैं तो अब भी उन्हें इप्टा के एक समर्पित तथा निस्वार्थ जमीनी कार्यकर्ता के रूप में ही याद करता हूं। बाकी सब से बढक़र वह एक संगठनकर्ता थे। किसी भी मुकाम पर इप्टा अपने नाटकों के जरिए जिस भी लक्ष्य के लिए अपना जोर लगा रहा होता था, चाहे वह फासीविरोधी जनयुद्ध हो या नृशंस दंगों की पृष्ठभूमि में हिंदू-मुस्लिम एकता का सवाल हो, वह चाहे नीग्री व अफ्रीकी जनगण की मुक्ति हो या फिर साम्राज्यवाद के खिलाफ वियतनाम का युद्ध, बलराज साहनी हमेशा सभी के मन में उस लक्ष्य के प्रति हार्दिकता व गहरी भावना जगाते थे।

दंगों के दौर में तो वह ऐसे काम करते रहे थे जैसे सिर पर कोई भूत सवार हो–नाटक लिखते थे और दूसरों से (जैसे मुझ से) लिखाते थे, उनका रिहर्सल करते थे और चालों में, बस्तियों में, सड़क़ों पर, चौपाटी की रेत में और कभी-कभी तो प्रेक्षागृहों में भी यानी जगह-जगह पर और हर जगह, इन नाटकों की प्रस्तुति किया करते थे। (मेरे नाटक जुबैदा के अपने निर्देशन के दौरान तो बलराज ने, विशाल कावासजी जहांगीर हॉल में उपस्थित श्रोताओं के बीच बिजली सी ही दौड़ा दी थी, जब नाटक के दौरान उन्होंने हॉल के बीचो-बीच के रास्ते से होते हुए मंच पर, पूरी की पूरी बारात ही बारात ही उतार दी थी, जिसमें आगे-आगे बैंड बाजे से लेकर,सफेद घोड़े पर सवार दूल्हा तक,सब कुछ था।)

बहरहाल,उनकी सबसे लोकप्रिय ऐतिहासिक कामयाबियां फिल्मों में उनके काम के दौर में ही आयी थीं। लेकिन,इन भूमिकाओं में भी जनता के जीवन के साथ उनकी तदाकारता मुकम्मल तथा प्रश्नोपरि थी। उन्होंने जो भी भूमिका अदा की,उसे बड़ी उदारता से यथार्थवाद से संपन्न बनाया।

1945 में इप्टा ने जब फिल्म धरती के लाल बनायी, जिसमें सारे के सारे गैर-पेशेवर अभिनेता-अभिनेत्री थे, उसके लिए लंबे-तड़ंगे तथा नफीस बलराज साहनी ने, जो बीबीसी में दो बरस काम करने के बाद कुछ ही अर्सा हुए लंदन से वापस लौटे थे,खुद को ऐसे आधे-पेट खाकर गुजर करते बंगाली किसान में बदला,जैसे वह अकाल के मारे लाखों किसानों में से ही एक हों।

वह महीनों तक सिर्फ एक वक्त खाकर गुजारा करते रहे थे ताकि कैमरे के सामने उनकी अधनंगी देह,अपने भूख के मारे होने की गवाही दे। और हर रोज कैमरे के सामने जाने से पहले वह अपनी धोती,समूचे शरीर और चेहरे पर भी,कीचड़ मिले पानी का छिडक़ाव कराते थे ताकि हर तरह से अकिंचनता प्रकट हो।

दो बीघा जमीन बिमल राय की अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित करने वाली गाथा थी। यह गाथा थी एक गरीब किसान के जीवट की, जो कलकत्ता में हाथ-रिक्शा चलाकर इतना पैसा इकट्ठा कर लेना चाहता है, जिससे साहूकार के शिकंजे से अपनी दो बीघा जमीन छुड़ा सके। इस भूमिका को अभिनीत करने के लिए बलराज कई हफ्ते तक कलकत्ता में रिक्शा खींचने वालों की बस्ती में रहे थे। यहां उन्होंने रिक्शा खींचने के लिए खुद को प्रशिक्षित ही नहीं किया था बल्कि रिक्शा खींचने वालों के तौर-तरीके भी सीखे थे और सबसे बढक़र उनके जैसा नजर आना सीखा था।

इस फिल्म के सबसे प्रसिद्ध दृश्य में बेचारा रिक्शावाला दस रुपए के एक नोट की खातिर,एक मोटी सवारी को रिक्शे पर बैठाकर,जिसके हास्यभाव में परपीड़न का तत्व शामिल था, एक बग्घी से होड़ करता है जिसे एक घोड़ा खींच रहा होता है और जीत भी जाता है। बिमल राय ने मुझे बताया था कि वह तो दूरी के शॉटों में बलराज के ‘डबल’ के तौर पर किसी पेशेवर रिक्शा खींचने वाले को रखना चाहते थे, लेकिन बलराज को यह बात सुनना भी मंजूर नहीं था। उन्होंने बिना ‘डबल’ का सहारा लिए यथार्थवादी तरीके से इस दृश्य को अभिनीत किया, हालांकि इस दौड़ में करीब-करीब उनके प्राण ही निकल गए होते।

इस फिल्म के सबसे प्रसिद्ध दृश्य में बेचारा रिक्शावाला दस रुपए के एक नोट की खातिर,एक मोटी सवारी को रिक्शे पर बैठाकर,जिसके हास्यभाव में परपीड़न का तत्व शामिल था, एक बग्घी से होड़ करता है जिसे एक घोड़ा खींच रहा होता है और जीत भी जाता है। बिमल राय ने मुझे बताया था कि वह तो दूरी के शॉटों में बलराज के ‘डबल’ के तौर पर किसी पेशेवर रिक्शा खींचने वाले को रखना चाहते थे, लेकिन बलराज को यह बात सुनना भी मंजूर नहीं था। उन्होंने बिना ‘डबल’ का सहारा लिए यथार्थवादी तरीके से इस दृश्य को अभिनीत किया, हालांकि इस दौड़ में करीब-करीब उनके प्राण ही निकल गए होते। इस तरह उन्होंने एक ऐसा शॉट दिया,जिसे यथार्थवादी अभिनय की शानदार विजय के रूप में हमेशा याद किया जाएगा। वास्तव में यह इससे भी बढक़र था। यह तो शोषितों व वंचितों की जिंदगी के सामाजिक यथार्थ का एक मानवीय दस्तावेज है।

वास्तव में यही भूमिका थी जिसने एक महान अभिनेता के रूप में उनकी सर्वोच्चता भी स्थापित की और उन्हें इस देश के करोड़ों मेहनतकशों की आंखों का तारा भी बनाया था। उसके बाद से हमेशा ही उन्हें जनता के अपने अभिनेता के रूप में पहचान हासिल रही थी और सम्मान तथा प्यार मिलता आया था।

काबुलीवाला में,रवींद्रनाथ टैगोर के रचे बहुत ही भोले पठान के प्यारे से पात्र को साकार करने के लिए,उन्होंने रावलपिंडी में गुजरे अपने बचपन की स्मृतियों को फिर से जगाया था,जहां सीमांत क्षेत्र से आने वाले पठान सहज ही और रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा होते थे। इसके अलावा उन्होंने स्थानीय पठानों से संपर्क कर उनसे उनकी बोल-चाल सीखी थी,उनका प्रिय साज़ रबाब बजाना सीखा था और पश्तो के गीत गाना सीखा था। उन्होंने पठानों की हिंदुस्तानी की बोल-चाल की ध्वनि और उसके लालित्य को सीखा था। नाटक के मंच और सिनेमा के पर्दे, दोनों पर ही उन्होंने पठान की यह भूमिका अदा की थी और यह कहना मुश्किल है कि दोनों में किस रूप में प्रस्तुति को, चरित्रांकन की दूसरे से बढक़र विजय माना जाना चाहिए। वर्षों तक वह जहां भी जाते थे, उनके चाहने वाले उनका स्वागत काबुलीबाला के बोलने के तरीके की उनकी प्रस्तुति की नकल कर के किया करते थे।

उनकी अगली महान कामयाबी थी, इप्टा के नाटक आखिरी शमा में मंच पर मिर्जा गालिब के चरित्र तथा व्यक्तित्व की उनकी पुनर्रचना। यह खेद की बात है कि इस पात्र को सिनेमा के पर्दे पर पेश करने की योजना सिरे नहीं चढ़ सकी और इस देश के करोड़ों लोग उनकी इस प्रस्तुति को देखने से वंचित रह गए। फिर भी हजारों लोगों ने तो नाटक के मंच उनकी प्रस्तुति को तो देखा ही।

इस पात्र की प्रस्तुति को पूर्णतम बनाने में बलराज साहनी को, जो एक पंजाबी थे तथा इस पर गर्व करते थे, एक सहूलियत तो यह हुई कि उनका उच्चारण उर्दू का करीब-करीब बेदाग था और उन्होंने अपने दोस्तों से देहली की उर्दू इस तरह सीखी थी,वह इस जुबान में वैसे ही बोल सकते थे, जैसे गालिब बोलते रहे होंगे। उन्होंने मुशाइरा शैली में शाइरी पढ़ने की नफीस कला भी घोंटकर पी ली थी। गालिब के पात्र की उनकी प्रस्तुति इतनी विश्वसनीय तथा जीवंत थी कि गालिब के एक महान पारखी तथा गालिब साहित्य के विद्वान ने कहा था: ‘‘जाहिर है कि महान शायर को मैंने कभी देखा तो नहीं था, पर मैं इतना जरूर जानता हूं कि गालिब ऐसे ही नजर आते,ऐसे ही शायरी पढ़ते और नाटक में चित्रित विभिन्न हालात में उनकी ऐसी ही प्रतिक्रिया रही होती।’’

लेकिन,एक अभिनेता कोई किसानों,कवियों,पठानों आदि की भूमिकाएं ही नहीं करता है। उसका पेशा उससे कहीं और ज्यादा भांति-भांति के पात्रों को अभिनीत करने की मांग करता है। बलराज द्वारा प्रस्तुत अन्य पत्रों में मुझे उनकी एक अंग्लो-इंडियन डाक्टर (राही),जेलर (हलचल),घूम-घूमकर तमाशा दिखाने वाले (परदेशी),फरार कैदी (पिंजरे के पंछी),एक ईमानदारी आदमी जो नाजायज शराबफरोश बन जाता है (दामन और आग),करोड़पति व्यापारी (प्यार का रिश्ता) और पुलिस इंस्पैक्टर (हंसते जख्म) की प्रस्तुतियां याद हैं। अपनी आखिरी फिल्म में,जो बहुत ही उद्देश्यपूर्ण व राजनीतिक रूप से सार्थक फिल्म,गर्म हवा थी,वह आगरा के एक जूता व्यापारी की भूमिका अदा करते हैं,जो विभाजन की विभीषिका का शिकार होता है और फिर भी पाकिस्तान जाने के लिए तैयार नहीं होता है।

इन अलग-अलग भूमिकाओं में से हरेक में वह अपने अभिनय कौशल की छाप छोड़ते हैं। उनका यह कौशल मानव व्यवहार के सहानुभूतिपूर्ण पे्रक्षण और यथार्थवाद के लिए गहरे लगाव,ब्यौरों के प्रति तथा चरित्र व व्यक्तित्व एक एक-एक रग-रेशे के प्रति आश्यचर्यजनक ईमानदारी ने गढ़ा था।

बलराज साहनी ने किसी फिल्म संस्थान से प्रशिक्षण नहीं पाया था। वह अंग्रेजी साहित्य के विद्यार्थी थे। फिर उन्होंने अभिनय का असाधारण कौशल पाया कहां से? जीवन के विद्यालय से ही उन्होंने इंसानों को, उनकी दुर्बलताओं को व मूर्खताओं को,उनकी कमजोरियों को व उनकी शक्तियों को,उनके तौर-तरीकों को तथा उनके बनाव-सजाव के तरीकों को दिलचस्पी से देखना सीखा था।

उनकी वामपंथी सहानुभूतियां तथा संबद्धताएं ही उन्हें इप्टा के हम लोगों के पास लायी थीं। इप्टा का तब गठन हुआ ही था और वह पूरे दिलो-जान से उसके काम में कूद पड़े। वह अभिनय करते और नाटकों का निर्देशन करते तथा मंचन करते और वह भी किन्हीं वातुनुकूलित प्रेक्षागृहों में नहीं बल्कि घूम-घूकर अपने गीत सुनाने वाले लोक गायकों की तरह चौपाटी की रेत पर या फिर मुंबई की झोंपड़-पट्टियों में,जहां चार मेजें जोडक़र अस्थायी स्टेज बना लिया जाता था और पीछे से सडक़ बंद कर,दर्शक सड़क पर ही बैठ जाते थे।

आखिरकार उन्हें और हमें,अपने समय की ज्वलंत समस्याओं पर केंद्रित अपने नाटकों का प्रेक्षागृहों में मंचन करने का भी मौका मिला, लेकिन हमने कभी अपने शुरू के दौर की सोद्देश्यता की खुशबू को और आम लोगों से अपने मूल संपर्कों को कटने नहीं दिया। जनता के प्रति तथा एक सोद्देश्य जन संस्कृति के प्रति यह प्रतिबद्धता ही, बलराज साहनी के लिए उनकी प्रेरणा भी थी और हार्दिक भावना भी।

वह एक अभिनेता थे,लेकिन सिर्फ अभिनेता ही नहीं थे। उनकी असाधारण प्रतिभा की अभिव्यक्ति विभिन्न क्षेत्रों में हुई थी। वह एक वामपंथी रुझान के तथा प्रगतिशील वचनबद्धताओं के राजनीतिक व सामाजिक कार्यकर्ता थे और जब वह कम्युनिस्ट पार्टी के कार्डधारी सदस्य नहीं रहे थे, तब भी यह स्थिति बदली नहीं। वह एक विवेकवादी तथा अज्ञेयतावादी थे और उनमें विश्वास की इतनी दृढ़ता थी कि आखिरी समय तक अपने विश्वास पर अडिग रहे थे।

जब उनकी बेटी की मौत हुई वह चुनाव में इंदिरा कांग्रेस के प्रचार के लिए मध्य प्रदेश में थे। इसी तरह जब भिवंडी में दंगे हुए,वह भिवंडी गए थे और एक मुस्लिम मोहल्ले में,मुसलमानों के साथ दो हफ्ते रहे थे ताकि धर्मनिरपेक्ष भारत में उनका भरोसा बहाल कर सकें। अच्छे कामों के लिए प्रचार करने के लिए वह लगातार देश भर में दौरे करते रहते थे। इप्टा के लिए तथा जुहू आर्ट थिएटर के लिए वह नाटक लिखते थे,उनमें अभिनय करते थे,उनका निर्देशन करते थे और यहां तक कि इन नाटकों में पैसा खर्च भी करते थे। वह फिल्मों से पैसा कमाते थे लेकिन, इस पैसे को अपने लिए एशो-आराम पर खर्च करने की जगह, वह इसमें से ज्यादतर पैसा उन अनेक अच्छे कामों के लिए दे देते थे जिनमें वह यकीन करते थे और जिनके प्रति उनकी प्रतिबद्धता थी। उनसे मेरी आखिरी मुलाकात,एक ऐसे होस्टल की स्थापना की योजना के सिलसिले में हुई थी, जिसमें अरब और भारतीय छात्र साथ-साथ रह सकते हों। जिस रोज उनका इंतकाल हुआ,उस रोज भी,उन्हें दिल का जानलेवा दौरा पड़ने से घंटे भर पहले ही मेरी टेलीफोन पर उनसे बात हुई थी और वह बड़े जोश के साथ हैदराबाद में बालिगा मैमोरियल अस्पताल के निर्माण के बारे में चर्चा कर रहे थे।

एक बेहतर जिंदगी के लिए जनता के संघर्षों में सक्रिय हिस्सेदारी के अनुभव से ही उनका तेजस्वी व्यक्तित्व भरा हुआ था और उसी से उन्होंने उन विविध पात्रों पर एक गहरी व सहानुभूतिपूर्ण पकड़ हासिल की थी, जिन्होंने उन्होंने इतने कौशल से तथा हार्दिक मानवीय भावना के साथ सजीव किया था।

उनके बहुआयामी व्यक्तित्व का प्रस्फुअट सिर्फ अभिनय तक ही सीमित नहीं था। वह एक कहानी लेखक थे। पहले उन्होंने हिंदी में कहानियां लिखीं तथा आगे चलकर अपनी प्यारी पंजाबी जुबान में,जिसके विकास के लिए उन्होंने भावपूर्ण समर्पण से काम किया था। पाकिस्तान के दो हफ्ते के सफर की उनकी यात्रा डायरी,गुजरे जमाने के लिए लगाव की कशिश से भरा एक दस्तावेज है, जिसका रैडक्लिफ की खींची रेखा के दोनों तरफ गर्मजोशी भरा स्वागत हुआ था,जोकि एक भारतीय लेखक के लिए दुर्लभ उपलब्धि है। पंजाबी भाषा,पंजाबी साहित्य तथा पंजाबी संस्कृति पर उनका बड़ा भरोसा था और यह उन्हें पाकिस्तान के किसी भी पंजाबी के साथ तार जोड़ने में समर्थ बनाता था। उनके निधन से कुछ हफ्ते पहले की ही बात है,लाहौर से एक युवा संपादक दोनों देशों के बीच आदान-प्रदान के हिस्से के तौर पर आया था और बलराज ने उसे खाने पर बुलाया था। इस भोज में उन्होंने एक नारा दिया था: ‘‘दुनियाभर के पंजाबियो एक हो।’’ हालांकि वह पंजाबी भाषा के हितायती थे, फिर भी (जवाहरलाल नेहरू की तरह) वह इसकी वकालत करते थे कि सभी भारतीय भाषाओं के लिए रोमन लिपि अपनायी जाए, ताकि उनमें एकता तथा एकमेकता लायी जा सके। कभी-कभी वह रोमन लिपि में हिंदुस्तानी जुबान में अपने दोस्तों को लंबे-लंबे पत्र भी लिखा करते थे।

जब वह शूटिंग के लिए जाते थे, तब भी बराबर गुरुमुखी का टाइपराइटर उनके साथ रहता था। इसी पर वह दोपहर के ब्रेक के दौरान अपने लेख, कहानियां, निबंध, नाटक और यहां तक कि उपन्यास के अंश भी लिखते थे, सभी कुछ पंजाबी में। मिसाल के तौर पर जब वह आगरा में शूटिंग कर रहे थे, वह अपना खाली वक्त मुस्लिम जूता बनाने वालों की जिंदगी के बारे में जानने में लगाते थे क्योंकि वह जिस पात्र का अभिनय कर रहे थे, इसी समाज से आता था। अगर वह पंजाब के किसी गांव में होते थे, वह अपनी शामें गांववालों के बीच, उनकी बोल-ठोली तथा गीतों की टेप पर रिकार्ड करते हुए गुजारते थे,ताकि जनता की भाषा की अपनी शब्दावली को और विस्तृत व समृद्ध बना सकें।

उन्हें साहित्य से प्यार था। उन्हें रंगमंच से प्यार था। उन्हें सिनेमा से प्यार था। उन्हें राजनीति में सभी प्रगतिशील रुझानों से प्यार था। वह सोवियत संघ से प्यार करते थे और वह चीन, वियतनाम, क्यूबा और अरब देशों व उनके जनगण से भी प्यार करते थे। लेकिन, सबसे बढ़कर वह भारतीय जनता से प्यार करते थे और उसके जीवन,उसके संघर्षों, उसकी समस्याओं,उसकी कमजोरियों तथा शक्ति के साथ,खुद को जोड़कर देखते थे। अचरज की बात नहीं है कि उनके आखिरी शब्द थे–‘‘मेरे लोगों को मेरा प्यार देना।’’ 

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Saturday, January 5, 2013

स्त्री-मुक्ति का छद्म


-विजया सिंह
संवैधानिक तंत्र में कई संरचनागत खामियों और मौजूदा कानूनों के क्रियान्वयन के अभाव ने भारतीय स्त्री को अपाहिज बनाए रखा है। उसके पास वह बुनियादी ढाँचा ही नहीं है जहाँ वे अपनी शक्ति का स्वयं और समाज के हित में उपयोग कर सके। यों तो उसके पास समान नागरिक होने का अधिकार है पर यथार्थतः नहीं है। गौरतलब है कि औपनिवेशिक काल की अनेक समस्याएँ स्वाधीन भारत को आनुवांशिक रूप से मिलीं। उस पर भी विकल्पहीन पितृसत्तामक राजनीतिक रवैये ने समय व समाज की माँग को लगातार दरकिनार किया। एक ओर लिंगीय भेदभाव तो दूसरी ओर ब्रितानी शासकों द्वारा जातिगत आधार पर विभिन्न समुदायों को अलग-अलग कानून प्रदान कर दिए गए। फलस्वरूप विभिन्न जनसमुदाय निजी धार्मिक नियमों (पर्सनल लॉ) द्वारा संचालित होने लगे। अतः भारतीय महिलाओं का तिहरा शोषण जारी रहा, पहला, औपनिवेशिक शासन के कारण, दूसरा, मान्य लिंगभेद और तीसरा, सामाजिक-धार्मिक पूर्वाग्रहों और सीमित समाज सुधार की परिकल्पना के कारण।

पीड़ित नारी समाज ने अडिग होकर स्वतंत्रता संग्राम के दौरान समान नागरिकता की माँग की। आगे चलकर अनुच्छेद 44 में संविधान के समक्ष सभी नागरिकों को समान अधिकार दिया गया तथा समान कानूनी सुरक्षा मुहैया कराने की जिम्मेदारी स्वीकार की गई। यहीं नहीं औरतों की सुरक्षा व समानता के हेतु कई प्रावधान निर्धारित किए गए। एकसमान नागरिक संहिता में धर्म, जाति, सम्प्रदाय से इतर हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी और अनुसूचित जातियों इत्यादि सबके लिए एक कानून के साथ सभी समुदायों में स्त्री-पुरुष की अधिकारगत एकरूपता को महत्वपूर्ण माना गया। इनका उल्लंघन किए जाने पर कोई भी नागरिक राज्य के खिलाफ मुकदमा दायर कर सकता है। इस कानून के साथ निजी कानूनों की उपस्थिति ने पारम्परिक असमानता और पूर्वाग्रहों को बनाए रखा। पुंसवादी मानसिकता के कारण लौंगिक रूप से धर्मनिरपेक्ष संहिता का रूपांतरण पुरुष, जाति, वर्ग और बहुसंख्यक समाज के विशेषाधिकार के रूप में हो गया है। आज भी स्त्री हित में कानून पारित करना और उसे लागू करना टेढ़ी खीर हैं।

आठवें दशक में पर्सनल लॉ के स्त्री विरोधी प्रावधानों को लेकर महिला आंदोलन व्यापक रूप से सक्रिय रहा। सन् 1985 में चर्चित शाहबानो केस में उसके पति द्वारा गुजारा भत्ता न दिए जाने पर जनवादी महिला समिति, महिला दक्षता समिति,राष्ट्रीय महिला संघ, दहेज विरोधी चेतना मंच ने आंदोलन किया और गिरफ्तारियाँ दीं। नारीवादियों, समाज-सुधारकों और मुस्लिम उदारवादियो द्वारा यह माँग की गई कि पर्सनल लॉ में सुधार किया जाए तथा धारा 125 (जो सभी धार्मिक बंधनों से मुक्त और ऊपर है) को लागू किया जाए और शाहबानो को उसके पति द्वारा गुजारा भत्ता दिए जाने की अपील की गई। इन व्यापक जनांदोलनों के बावजूद संसद में मुस्लिम महिला संरक्षण विधेयक पेश किया गया।स्वायत्त महिला संगठनों और राजनीतिक महिला संगठनों ने इसका पुरजोर विरोध कर धर्म को राजनीति से दूर रखने, चुनावी रणनीति के तहत साम्प्रदायिक और धर्मांध लोगों को दी जानेवाली तात्कालिक प्रलोभन की मंशा से निजाद पाने एवं धर्म को व्यक्तिगत सम्बंधों का संचालक तत्व न बनाए जाने की माँग की। किंतु वोटों की राजनीति और खास बड़े तबके को खुश रखने हेतु सरकार ने धर्मनिरपेक्षता की एक बिल्कुल भिन्न परिभाषा सर्जित की जिसके अनुसार तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने सभी सम्प्रदायों के निजी कानूनों को शासकीय मंजूरी दे दी। स्त्री हितों और विकास को सरकारी प्रतिगामी रवैये ने गहरा आघात पहुँचाया। महिला संगठनों, नारीवादियों, उदारवादियों द्वारा किए गए प्रयास शून्य पर खड़े हो गए।

आज भी औरत के खिलाफ हिंसा के, बलात्कार के कानूनों में अनेक कमियाँ मौजूद हैं। शादी के बाद जमा की गई संपत्ति, घरेलू श्रम की उत्पादकता की पहचान, राजनीतिक आरक्षण के मसले समस्याप्रद बने हुए हैं। यहाँ तक कि तलाक का कानून भी मूल आधारों को लेकर अंतर्विरोधग्रस्त है। ईसाई पर्सनल लॉ में परगमन करने वाले पुरुष से स्त्री को तलाक का अधिकार प्राप्त नहीं है जबकि पुरुष को है। तलाक के साथ बच्चों की सुरक्षा, संरक्षण और भविष्य से जुड़े गम्भीर मसले हैं। वेतन व श्रम के कानूनों के बावजूद उनकी अवहेलना जारी है।शाहबानो केस के बाद मैरी राय और शहनाज शेख ने ईसाई व मुस्लिम पर्सनल लॉ के खिलाफ याचिका दायर की। उन पर तत्ववादी साम्प्रदायिक गुटों की ओर से भीषण दबाव डाला गया। रूढ़िवाद और ठस्स साम्प्रदायिकता के गाढ़े रंग में जरूरी मुद्दे खो गए। इसी प्रकार सिख पर्सनल लॉ में ‘चादर अंदाजी’ के प्रावधान का महिला संगठनों ने विरोध किया। सिख पर्सनल लॉ में स्त्री का सम्पत्ति पर अधिकार नहीं होता तथा पति की मृत्यु के उपरांत स्त्री का विवाह पति के छोटे भाई (देवर) से बिना उसकी सहमति लिए कर दिया जाता है। सड़कों पर उतर कर औरतों ने इन प्रावधानों का विरोध तो किया लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात। सरकारी इच्छा-शक्ति का पता इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि भारी दबाव में आकर 1987 में कमीशन ऑफ सती प्रीवेन्शन एक्ट पारित किया गया जिसमें सती को आत्महत्या के रूप में परिभाषित किया गया। पारिवारिक सम्पत्ति-शास्त्र, स्त्री का कामुक नियंत्रण और हिंसा के सभी प्रकार के कारकों को दरकिनार करते हुए आत्महत्या की कोशिश करने वाले व्यक्ति को दंडित करने का प्रावधान किया गया जो कि स्वयं पीड़ित औरत थी।


नवउदारवाद और ढाँचागत समायोजन की प्रक्रिया ने स्त्री-मुक्ति का छद्म निर्मित किया है। औरत पहले से ज्यादा गरीब हुई है। पामाली ने लैंगिक विभाजन को भी बड़ा कर दिया है। उसे सहायक श्रम माने जाने के कारण पुरुष को काम पहले मिलता है। उसका उपयोग तात्कालिक संरक्षित श्रम के रूप में होता है। बाद में काम मिलता है और निकाली पहले जाती है। नई अर्थनीति ने उसके वैतनिक और अवैतनिक रूपों पर बुरा प्रभाव डाला है। सरकार की लोक-कल्याणकारी खर्चों में कटौती, बेरोजगारी, अस्थिर आय और चीज़ों की बढ़ती कीमतों के कारण औरत की गतिविधि ज्यादा प्रभावित होती है। उसे घरेलू श्रम के साथ अल्पकालिक काम भी करने पड़ते हैं। परिवार में ज़रूरतों, सुविधा, सुरक्षा और स्वास्थ्य के लिहाज से वह सबसे निचले पायदान पर खड़ी होती है। वह स्वयं, उसके आत्मीय और व्यवस्था मिलकर उसकी अनदेखी करते हैं। देखा जाए तो उसकी बेगारी, मुफ्त आर्थिक सहायता बढ़ी है। अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति से सम्बद्ध नेत्री बृंदा कारात का मानना है कि ”वास्तव में जहाँ तक महिलाओं के अधिकारों का संबंध है, यह एक धोखा है क्योंकि कोई भी ऐसे कानून मौजूद नहीं हैं जो कि ‘बेहतरीन कानून’ माने जाएं। ऐसा संभव है कि कुछ कानून हों जो तुलनात्मक रूप से बेहतर हों पर फिर भी वे महिला और पुरुष के बीच असमानता पर आधारित हैं और एकछत्री कानून का आधार नहीं बन सकते।”

बृंदा कारात कानूनों को लैंगिक रूप में सहिष्णु बनाने पर जोर देती हैं और मानती हैं कि इसका स्वरूप वर्तमान धर्मनिरपेक्ष संविधान के ढ़ाँचे से परे भी फैला हुआ है। कारण कि धर्मनिरपेक्ष संविधान की संरचना कई मायनों में प्रतिकूल दिशा में उत्पादक रही है। साथ ही वे यह आशंका भी व्यक्त करती हैं कि यह मसला अधिक धैर्य, लम्बे समय और राजनीतिक इच्छा-शक्ति की माँग करता है जो तत्कालीन मामलों व सुधार में भटकाव भी ला सकता है- ”क्या तुरंत समान नागरिक संहिता (कॉमन सीविल कोड) के लिए नारा आज भारतीय महिलाओं के हित में है? आज भारतीय महिलाओं की जो आवश्यकता है उससे सम्बंधित उन नाजुक विषयों पर एक लैंगिक दृष्टि से न्यायसंगत कानून जो कि धार्मिक विश्वासों पर आधारित कानून या यहाँ तक कि देश में मौजूदा धर्मनिरपेक्ष कानून के द्वारा निर्धारित ढाँचों के भी परे जाता है। लैंगिक दृष्टि से निष्पक्ष न्याय और समानता की संवैधानिक गारंटियाँ जरूरी नहीं हैं कि कानूनों के किसी ढाँचे से जुड़ी हों। बल्कि मौजूदा कानूनी ढाँचे में तो एकछत्री कानून बहुत हद तक प्रतिकूल उत्पादक हो सकता है। इस मुद्दे को उठाना भी कानूनी सुधार क्षेत्र में जो तुरंत प्राप्त किया जा सकता है उससे एक भटकाव हो सकता है।” अतः उपस्थित कानूनों में व्यापक सुधार की दरकार है।

कानूनों के द्वारा समाजिक परिवर्तन को दिशा मिलती है, दबाव बढ़ता है। किंतु केवल नियम-कानून वैकल्पिक सामाजिक परिवर्तन नहीं कर सकते हैं। एक ओर असल समस्याओं की पहचान जरूरी है दूसरी ओर, दलितों, पिछड़ों और महिलाओं को लेकर संवेदनशील होना भी जरूरी है। संविधान में पितृसत्ता को समस्या न मानकर सामान्य सामाजिक स्वभाव के रूप में देखना औरतों और पिछड़े तबकों के लिए हानिकारक है। पितृसत्ता एवं उसकी वैचारिकता से संघर्ष की आवश्यकता है ताकि न केवल कानून बनें बल्कि वे प्रभावी भी हों। मानवाधिकारों और सामाजिक रवैये को सही दिशा मिले। औरतों की राजनीतिक सचेतनता व कानूनी जागरूकता को बढ़ाने की आवश्यकता है। नीति-नियामक पदों पर उसकी हिस्सेदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए।

 साभार : http://hastakshep.com/?p=28078

Wednesday, January 2, 2013

Some Important IPTA Programmes in January 2013

 LET 2013 BE A YEAR OF FIGHT FOR
 WOMEN'S DIGNITY!


1 January at Jaipur (Rajasthan): Evening of songs dedicated to theatre activists Safdar Hashmi, Sunil Sen and Kumar Santosh. 





1-6 January at Medininagar-Daltonganj (Jharkhand): Week long programmes dedicated to martyrdom of Safdar Hashmi.







4-6 January at Allapuzha (Kerala): Folk Fest, Theatre Fest, District Conference at Kalavoor Sandeep Hall.




5 January at Pune (Maharashtra): Inter-collegiate Drama Competition and State Committee meeting.


7-9 January at Hyderabad (Andhra Pradesh): State Festival of Praja Natya Mandali.





11-15 January at Raipur (Chhattisgarh): 19th Muktibodh Drama Festival.







12 January at Japalpur (Madhya Pradesh): Mumbai IPTA's play - "Moteram ka Satyagrah".




17-19 January ar Mumbai: IPTA's plays at Prithvi Theatre.






20 January at Cuttack (Odisha): Dr. Aloka Rai Memorial Seminar.






23 January at Dindigal (Tamil Nadu): Cultural programme organised by Women Wing of IPTA.



 26-27 January at Kayamkulam (Kerala):State Conference & Festival at K.P.A.C.(Kerala People's Art Club) Hall