Tuesday, November 12, 2013

बलराज साहनी व नरेन्द्र दाभोलकर को समर्पित आज़मगढ़ फिल्मोत्सव

जमगढ़। 18, 19 और 20 अक्टूबर, 2013 को ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ का 33वाँ आयोजन नेहरू हाल आज़मगढ़ में दूसरे आज़मगढ़ फिल्मोत्सव के रूप में सम्पन्न हुआ। द ग्रुप, जन संस्कृति मंच और आजमगढ़ फिल्म सोसाइटी द्वारा आयोजित यह कार्यक्रम इस बार ‘इप्टा’ के संस्थापकों में से एक और महान अभिनेता बलराज साहनी के शतवार्षिकी तथा अन्ध आस्था के खिलाफ वैज्ञानिक चेतना के लिए संघर्ष करने वाले डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर की स्मृति को समर्पित किया गया। इस फिल्मोत्सव की थीम धार्मिक उन्माद और अन्ध आस्था के खिलाफ, अभिव्यक्ति की आजादी एवं लोकतंत्र की  रक्षा तथा जल जंगल जमीन के लिए प्रतिरोध की संस्कृति को बनाया गया।

फिल्मोत्सव का उद्घाटन जन संस्कृति मंच के संस्थापक सदस्य एवं प्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक ने किया। इस अवसर पर अशोक भौमिक ने ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ और भारतीय चित्रकला’ पर दृश्य प्रदर्शन के साथ एक रोचक व्याख्यान दिया। उन्होंने प्रगतिशील भारतीय चित्रकारों चित्त प्रसाद, जैनुल आबेदीन, सोमनाथ होड़ द्वारा बंगाल के अकाल, तेभागा व तेलंगाना आन्दोलन और बांग्लादेश की आजादी के संघर्ष पर बनाये चित्रों के माध्यम से भारतीय चित्रकला में प्रतिरोध की संस्कृति की विवेचना की। उन्होंने कहा कि आज की चित्रकला और जनता के बीच सम्बन्ध बहुत कमजोर हो गया है, इसलिए समकालीन चित्रकारों का एक वर्ग जनता के संघर्ष और प्रतिरोध की पहचान नहीं कर पा रहा है। चित्त प्रसाद, सोमनाथ होड़, जैनुल आबेदीन, कमरुल हसन न सिर्फ जनता और उसके आन्दोलन से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे बल्कि उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता भी जनता के साथ थी। उन्होंने आगे कहा कि आज  की चित्रकला को पूँजीपति वर्ग ने हाईजैक कर लिया है जिसका आम आदमी के संघर्षों से कोई वास्ता नहीं है। इस जटिल समय में भी कुछ चित्रकार बाजार की ताकत के खिलाफ संघर्ष करते हुए गरीब जनता के पक्ष में चित्र बना रहे हैं, जिन्हें सामने लाना जरूरी है।

उद्घाटन सत्र में स्वागत वक्तव्य देते हुए जय प्रकाश नारायण ने कहा कि आजमगढ़ की धरती प्रतिरोध की धरती है जिसका इतिहास और वर्तमान जनविरोधी और प्रतिगामी शक्तियों के खिलाफ संघर्षो से भरा है। नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या की घटना का जिक्र करते हुए उन्होने कहा कि आज सत्ता और जन विरोधी ताकतें जनता के पक्ष में काम कर रही प्रगतिशील और जनवादी ताकतों को कुचलना चाहती है, जिसके खिलाफ संगठित प्रतिरोध जरूरी है। जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय सचिव मनोज कुमार सिंह ने इस मौके पर ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ की वर्ष 2006 में शुरू हुई यात्रा का विस्तार से परिचय दिया और कहा कि प्रतिरोध का सिनेमा शोषित, उत्पीड़ित जनता के पक्ष में खड़ा सिनेमा है और वह सत्ता एवं कारपोरेट, मीडिया घरानों द्वारा उपेक्षित और दबा दिये जा रहे सच को जनता के सामने ला रहा है।

इस तीन दिवसीय फिल्मोत्सव में उद्घाटन फिल्म के रूप में डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर को समर्पित प्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी स्टीफेन हाकिंस द्वारा प्रस्तुत टी.वी. प्रोग्राम- ‘क्यूरिआसिटी : डिड गॉड क्रियेट द यूनिवर्स’ दिखाई गयी। पहले दिन का समापन सत्र बलराज साहनी को समर्पित किया गया। इस उपलक्ष्य में एम.एस. सथ्यु की फिल्म ‘गर्म हवा’ दिखाई गयी। यह ‘इप्टा’ के कलाकारों द्वारा अभिनीत फिल्म है और इसके गीत और संवाद कैफ़ी आज़मी के हैं जो स्वयं ‘इप्टा’ के संस्थापक सदस्य थे। ‘‘गर्म हवा’’ साम्प्रदायिक विभाजन की त्रासदी पर बनी एक क्लासिक फिल्म है। दूसरे दिन जिन फिल्मों का प्रदर्शन हुआ उनमें शार्ट फिल्म ‘प्रिण्टेड रेनबो, दस्तावेजी फिल्म बिदेसिया इन बम्बई,  न्यूज़ वीडिओ ‘मुजफ्फरनगर टेस्टीमोनियल्स’, दस्तावेजी फिल्म ‘खयाल दर्पणः पाकिस्तान में शास्त्रीय संगीत की खोज के मायने’ शामिल रहीं। शाम को भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष पर प्रतिरोध का सिनेमा ने गुरूदत्त के अवदान को याद करते हुए उनकी फिल्म ‘प्यासा’ का प्रदर्शन किया।

बच्चों के सत्र में किस्सागोई का मजा
तीसरे दिन का एक पूरा सत्र बच्चों की रचनात्मकता और उनसे मुखातिब फिल्म और किस्से-कहानियों का रहा। इसकी शुरूआत बच्चों द्वारा बनाये चित्रों से हुई। आयोजन हॉल में बच्चों ने अपनी पसन्द के चित्र बनाये। चित्र बनाने के लिए सामग्री फिल्मोत्सव आयोजन समिति की ओर से वितरित की गयी। बच्चों द्वारा बनाये इन चित्रों को कार्यक्रम स्थल पर प्रदर्शित भी किया गया जिसका अवलोकन दर्शकों के साथ-साथ फिल्मोत्सव में आये अतिथियों संजय मट्टू, यूसुफ सईद, नकुल साहनी, संजय जोशी, भगवान स्वरूप कटियार, मनोज सिंह, अशोक चौधरी, सौरभ वर्मा, आलोक श्रीवास्तव, जितेन्द्र राव, राजन पाण्डे, मीना राय, राम नरेश, बैजनाथ, इन्द्रेश मैखुरी, मदन चमोली एवं अतुल सती आदि ने किया। इसके बाद दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापक और अंग्रेजी समाचार वाचक संजय मट्टू ने अपनी आकर्षक किस्सागोई से बच्चों को मंत्रमुग्ध कर दिया। बच्चों के साथ-साथ उपस्थित अभिभावक और सामान्य दर्शक भी संजय मट्टू द्वारा किस्सा सुनाने की जीवंत आकर्षक शैली के मोहपाश से अपने को बचा नहीं पाये। संजय मट्टू का किस्सा जल जंगल जमीन और बच्चों की दुनियां पर केन्द्रित रहा। इसके पश्चात बच्चों के लिए दो फिल्मों का प्रदर्शन भी हुआ। पहली फिल्म लुइस फॉक्स की ‘सामान की कहानी’ (द स्टोरी ऑफ स्टफ) और दूसरी फिल्म राजन खोसा की ‘गटटू’ थी। दोनों फिल्में बच्चों के द्वारा खूब पसन्द की गयीं।

नियामगिरि हम सबका है  
तीसरे दिन लंच के बाद ‘नियामगिरि वर्डिक्ट’ और ‘उत्तराखण्ड आपदाः जिम्मा किसका’ प्रदर्शित हुई। ‘नियामगिरि वर्डिक्ट’ में उड़ीसा के नियामगिरि में जल जंगल जमीन के लिए चल रहे संघर्ष को दिखाया गया है। नियामगिरि में दुनिया के सबसे शुद्ध बाक्साइट के पहाड़ हैं जिसमें डोंगरिया कोंध अपने गांव बसाकर रहते हैं। यह फिल्म दिवंगत समाजवादी कार्यकर्ता किशन पटनायक द्वारा लांजीगढ़ में दिये भाषण से शुरू होती है। इसके बाद आन्दोलन के कई दृश्यों से होती हुई यह पहुंचती है वर्तमान में जब सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार राज्य सरकार द्वारा नियामगिरि के 112 गांवों में से 12 गांवों में ग्राम सभाएं करायी जा रही है। इन ग्रामसभाओं में जिला जज और मीडिया के सामने सभी गांवों के लोग खुलकर उड़ीसा सरकार, प्रशासन व वेदान्ता के खिलाफ और नियामगिरि को बचाने के पक्ष में बोल रहे हैं। यह फिल्म आदिवासी आन्दोलन की गवाह है जिसमें कुछ समाजवादी, साम्यवादी सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा आदिवासियों के साथ एकमेक होते हुए कारपोरेट घरानों और तानाशाहीपूर्ण सरकार के खिलाफ इंकलाब की आवाज को बुलन्द किया गया है।

फिल्मों के बीच आपदा की सुध
‘उत्तराखण्ड में आपदाः जिम्मा किसका’ में उत्तराखण्ड से आये सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता इन्द्रेश मैखुरी, मदन चमोली और अतुल सती ने अपनी दृश्यात्मक प्रस्तुतियों से उत्तराखण्ड आपदा के लिए जिम्मेदार कारकों पर प्रकाश डाला। इन प्रस्तुतियों से उत्तराखण्ड से आयी इस टीम ने कारपोरेट मालिकों द्वारा जल जंगल जमीन जैसी प्राकृतिक सम्पदा की बेतहाशा लूट और सरकारों की इसमें मिलीभगत को उघारा।तीसरे दिन की शाम गोरखपुर फिल्म सोसाइटी और लखनऊ फिल्म सोसाइटी की फिल्म के नाम रही। लखनऊ में रह रहे अवामी शायर तश्ना आलमी के जीवन और शायरी पर भगवान स्वरूप कटियार और अवनीश सिंह की फिल्म ‘अतश’ दिखाई गयी। समापन फिल्म के रूप में संजय जोशी द्वारा निर्देशित और मनोज सिंह व अशोक चौधरी द्वारा निर्मित फिल्म ‘सवाल की जरूरत’ दिखाई गयी। दोनों फिल्में साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद के बढ़ते खतरे से उत्पन्न मानवीय चिन्ताओं को केन्द्र में रखती हैं। ‘सवाल की जरूरत’ फिल्म सामाजिक-राजनीतिक चिन्तक तथा गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के संरक्षक रहे स्व. रामकृष्ण मणि त्रिपाठी से की गयी बातचीत पर आधारित है। आजमगढ़ में जन्मे, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पढ़े और गोरखपुर विश्वविद्यालय में अध्यापक रहे रामकृष्ण मणि त्रिपाठी ने साम्प्रदायिकता की राजनीति पर अपनी बेबाक राय रखी है। इसके अतिरिक्त आज के दौर में उपस्थित आवाम की दिक्कतों और राजनीति की दिशा को लेकर भी उनकी टिप्पणियां मानीखेज हैं।
वैकल्पिक जन सांस्कृतिक मेले की शुरुआत  
तीन दिन तक चलने वाला यह फिल्मोत्सव धार्मिक आयोजनों, त्योहारों और मेलों के बीच एक वैकल्पिक जन सांस्कृतिक मेले के रूप में अपनी अलग पहचान बनाने में सफल रहा। इसमें दिखाई गयी फिल्मों और दर्शकों से फिल्मकारों के संवाद ने इस फिल्मी मेले को जीवंत बना दिया। अशोक भौमिक के उद्घाटन वक्तव्य और प्रतिरोध की चित्रकला पर दृश्यात्मक प्रस्तुतियों ने दर्शकों को उनके अपने जीवन के चित्रों से रूबरू कराया। अपने प्रभावशाली प्रदर्शन से उन्होंने दूसरे आजमगढ़ फिल्मोत्सव को यादगार बना दिया। नकुल साहनी के न्यूज़ वीडियो ‘मुजफ्फरनगर टेस्टीमोनियल्स’ को सर्वाधिक दर्शक मिले और साम्प्रदायिकता के बढ़ते खतरों पर सार्थक संवाद भी हुआ।

मुजफ्फरनगर का सच
‘मुजफ्फरनगर टेस्टीमोनियल्स’ ने जहां राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा चलाये जा रहे दुष्प्रचार पर एक लगाम लगायी वहीं उत्तर प्रदेश की सपा सरकार और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की मिलीभगत को भी उघारा। दर्शकों से चर्चा के दौरान यह बात भी उभर कर आयी कि हिन्दूवादी साम्प्रदायिक राजनीति अब सिर्फ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके राजनीतिक संगठन भारतीय जनता पार्टी तक ही नहीं सीमित है बल्कि कांग्रेस पार्टी द्वारा भी लगातार यह काम किया जा रहा है और भारतीय राष्ट्र को हिन्दूवादी मिथों और आदर्शों से परिभाषित किया जा रहा है।दर्शकों से संवाद के दौरान नकुल साहनी ने बताया कि मुजफ्फनगर हिंसा दंगा नहीं था बल्कि वह एक नरसंहार था जिसके लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ कई महीनों से अपनी तैयारी कर रहा था और इसमें दूसरे प्रदेशों से उसके प्रशिक्षित लोग शामिल थे। इसे पूरी तरह से गुजरात 2002 की तरह अंजाम दिया गया। नकुल साहनी ने करीब 70,000 मुस्लिम विस्थापन को लेकर मीडिया की चुप्पी को भी सामने रखा। उन्होंने दर्शकों के सवाल का जबाब देते हुए कहा कि जितने सरकारी शिविर हैं उसमें सिर्फ एक शिविर ऐसा था जिसमें 500 हिन्दू या गैर मुस्लिम शरणार्थी थे जिन्होंने इस आशंका से गांव छोड़ा था कि मुस्लिम-बहुल गांव में कहीं उनके ऊपर हमला न हो जाय। इन सरकारी शिविरों के अलावा मुस्लिम शरणार्थियों की एक बड़ी संख्या मदरसों में है। ऐसे ही लोनी स्थित एक मदरसे में नकुल साहनी ने पीडि़तों से बयान लिये। लोनी में करीब 10 हजार मुस्लिम शरणार्थी अब भी मौजूद हैं।नकुल साहनी की इस फिल्म में दर्शक दीर्घा जहां पूरी तरह से भरी हुई थी वहीं इसे देखने मुस्लिम युवक और युवतियां तथा बुर्कानशीं औरतें भी आयीं। इस फिल्म का यह असर था कि फिल्म के बाद दो दिन नकुल साहनी इस फिल्म की माँग करने वालों से घिरे रहे, चूँकि इसकी कोई डी.वी.डी. नहीं थी लिहाजा उन्होने पेन ड्राइव में इसे उपलब्ध कराया।

ख्याल दर्पण के बहाने पाकिस्तान में मौसिकी की खोज
इस फिल्म के तुरन्त बाद प्रदर्शित यूसुफ सईद की फिल्म ‘ख्याल दर्पणः पाकिस्तान में शास्त्रीय संगीत की खोज के मायने’ ने लम्बी होने के बावजूद जहां खूब दर्शक बटोरे वहीं सर्वाधिक प्रशंसा भी इसी फिल्म को मिली। दर्शकों से सबसे लम्बा संवाद भी युसुफ सईद के साथ हुआ 10 मिनट के निर्धारित संवाद को 30 मिनट तक बढ़ाया गया। यूसुफ सईद की इस फिल्म ने इस मिथ को तोड़ा कि शास्त्रीय संगीत सिर्फ हिन्दू संगीत है और उसके कोई आम सरोकार नहीं होते। शास्त्रीय संगीत सिर्फ बड़े-बड़े होटलों में 16वीं सदी के दरबारों के स्थानापन्न के रूप में नहीं बल्कि आम लोगों के बीच उनके सरोकारों से भी आगे बढ़ सकता है और उसका विस्तार भी हो सकता है।

जन मेले में जनता की भागीदारी
‘प्रतिरोध का सिनेमा’ के इस तीन दिवसीय दूसरे आजमगढ़ फिल्मोत्सव की खासियत यह रही कि फिल्मोत्सव प्रारम्भ होने से एक दिन पहले शासन द्वारा नेहरू हाल में आयोजन करने से मना कर दिया गया। इसी समय उड़ीसा समेत आधा देश फायलीन तूफान से जूझ रहा था, आजमगढ़ में भी चार दिनों से मेघों ने डेरा डाल दिया था और जब-तब वे बरस पड़ते थे। इन विपरीत परिस्थितियों के बावजूद आयोजन समिति ने यह चुनौती स्वीकार की और उद्घाटन के लिए सिविल लाइन्स स्थित एक निजी अस्पताल के हाल को चुना। उद्घाटन के समय डेढ़ घण्टे की जोरदार बारिश ने 2 बजे के उद्घाटन को साढ़े तीन बजे पहुँचा दिया। इन सबके अलावा जहरीली शराब से 45 लोगों के काल कवलित हो जाने का साया भी आजमगढ़ पर एक बड़ी विपति की तरह आया था। इसके बावजूद अशोक भौमिक के व्याख्यान और प्रस्तुति के समय पूरा हॉल भर गया था। अगले दो दिन का आयोजन स्थल पुनः नेहरू हाल था जिससे फिर से पूरा सेटअप फिर करना पड़ा। तीसरा दिन और चौंकाने वाला रहा। आरक्षण समर्थकों की महारैली फिल्मोत्सव आयोजन स्थल के ठीक बगल शहीद कुंवर सिंह उद्यान में प्रस्तावित थी जिसके चलते पूरा आयोजन स्थल पुलिस छावनी में बदल गया। कर्फ्यू जैसा माहौल,यहां तक कि पैदल आने के मुख्य रास्तों को भी बन्द कर दिया गया फिर भी दर्शक अपने बच्चों के साथ गली-कूचों से होकर या पुलिस को धता बताकर फिल्मोत्सव तक पहुंचे। संजय मट्टू की किस्सागोई तक 200 बच्चे और उनके अभिभावक आ चुके थे। शाम चार बजे पुलिस की रोक हटते ही दर्शक आने शुरू हो गये और ‘अतश’ तथा ‘सवाल की जरूरत’ दोनों फिल्मों को दर्शकों के साथ-साथ वाहवाही भी खूब मिली। अन्त में डॉ. निशा सिंह यादव द्वारा सितार वादन की प्रस्तुति और दर्शकों द्वारा फिल्मोत्सव की समीक्षा से इस बेहद सफल फिल्मोत्सव का समापन हुआ। आयोजन स्थल पर अशोक भौमिक द्वारा प्रस्तुत चित्रों की प्रदर्शनी तथा समकालीन जनमत, गोरखपुर फिल्म सोसाइटी तथा द ग्रुप के पुस्तकों एवं फिल्मों के स्टाल भी लगे। ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ ने अपने इस तैंतीसवें आयोजन से एक तरफ जहाँ ‘इप्टा’ की विरासत को नये तकनीकी युग के अनुकूल आगे बढ़ाने का काम कियावहीं कारपोरेट मीडिया के विकल्प के रूप में भी खुद को स्थापित किया है। यह एक आवश्यक जन सांस्कृतिक कार्रवाई के बतौर भी अपनी पहचान बनाने की तरफ बढ़ रहा है।
-दुर्गा सिंह, सह संयोजक, आजमगढ़ फिल्म फेस्टिवल
भड़ास4मीडिया से साभार

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