Saturday, August 24, 2013

रंगकर्म को अपनी आलोचना खुद गढ़नी होगी

-संजय पराते

रंगकर्म भी इसी मीडिया में अपनी जगह तलाश रहा है, लेकिन उसकी यह तलाश इसलिए पूरी नहीं हो रही है, क्योंकि अभी रंगकर्म का कार्पोरेटीकरण उतना नहीं हुआ है। रंगकर्म आज भी जनकर्म से जुड़ा है। जब तक वह जनता से जुड़ा रहेगा, कार्पोरेट नियंत्रित मीडिया में उसको स्थान नहीं मिलेगा। इसीलिए  रंगकर्म को अपनी आलोचना खुद गढ़नी होगी। 


1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के साथ देश में विकासमान   स्वाधीनता आंदोलन के संघर्ष में सांस्कृतिक क्षेत्र में जिस संगठित वामपंथी हस्तक्षेप की शुरूआत हुई थी, मुंबई में 25 मई, 1943 को इप्टा (इंडियन पीपुल्स् थियेटर एसोसियेशन) की स्थापना उसका चरमोत्कर्ष था। इसने देशवासियों की स्वतंत्रता, सांस्कृतिक प्रगति और आर्थिक न्याय की आकांक्षा को मूर्त रूप दिया तथा कला के क्षेत्र को विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के दायरे से बाहर निकालकर मेहनतकशों का, मेहनतकशों के लिए जन-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। संस्कृति के क्षेत्र में इस वामपंथी हस्तक्षेप ने सांस्कृतिक कायापलट का काम किया। इस धारा ने न केवल परंपरागत कला रूपों की चुनौती दी तथा समाज की पूंजीवादी-सामंती विचार-दृष्टियों को बदला, बल्कि इस दायरे से बंधे कला सर्जकों को भी बदला। इस तरह जो सृजनशीलता सामने आयी, वह अपेक्षाकृत उन्नत संस्कृति की वाहक थी और वर्गीय संस्कृति की पक्षधर भी। इस सृजनशीलता ने मेहनतकशों की संस्कृति को रचने-गढ़ने का काम किया और स्वाधीनता संघर्ष में वामपंथी राजनीति को आम जनता के जेहन में स्थापित करने का काम भी। इस दौर में राजनीति और संस्कृति कर्म एक दूसरे की सहचर थी। इस संस्कृति कर्म ने ‘कला, कला के लिए’ के कलावादी नारे को ठुकराया और ‘कला, जनता के लिए’ के जनवादी नारे को स्थापित किया। इस विशाल सांस्कृतिक आंदोलन ने आम जनता को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ सांस्कृतिक रुप से एकजुट किया। इस आंदोलन ने आम जनता की पिछड़ी हुयी चेतना को बड़े पैमाने पर झिंझोड़ा, आम जनता के पैरों में बंधी रूढ़िवाद और अंधविश्वास की बेड़ियों को तोड़ा, उसे प्रगतिशील, जनवादी चेतना से लैस किया। इसके फलस्वरूप स्वाधीनता आंदोलन के राजनैतिक संघर्ष में वह बड़े पैमाने पर सड़कों पर उतरी। इस राजनैतिक-सांस्कृतिक आंदोलन के विशाल प्रभाव का आंकलन महज इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि   स्वाधीनता पश्चात् हुये पहले आम चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी सबसे बड़े विपक्षी दल के रुप में उभरी।

वामपंथ के इस सांस्कृतिक हस्तक्षेप को रुपाकार देने में पी.सी.जोशी व सज्जाद जहीर की महत्वपूर्ण भूमिका थी। इप्टा के पहले सम्मेलन में जो अखिल भारतीय समिति गठित की गई थी, उसके सदस्यों में बंकिम मुखर्जी, एस.ए. डांगे, सज्जाद जहीर तथा अरूण बोस भी शामिल थे, जो क्रमशः अखिल भारतीय किसान सभा, एटक, प्रलेसं तथा ऑल इंडिया स्टूडेन्ट फेडरेशन का प्रतिनिधित्व करते थे। कमेटी के इस स्वरूप से ही यह पता चलता है कि वामपंथ का यह सांस्कृतिक हस्तक्षेप महज संस्कृति कर्म नहीं था, बल्कि हमारे समाज के मेहनतकश तबकों से सांस्कृतिक जुड़ाव के लिये हस्तक्षेप था, जो देश के जन मानस तथा स्वाधीनता आंदोलन को एक निश्चित राजनैतिक दिशा देना चाहता था। इप्टा के स्थापना सम्मेलन में अध्यक्षीय भाषण देते हुए हीरेन मुखर्जी ने आव्हान किया था- ‘‘लेखक और कलाकार आओ, अभिनेता और नाटक लेखक आओ, हाथ और दिमाग से काम करने वाले आओ और स्वयं को आजादी और सामाजिक न्याय की नयी दुनिया के निर्माण के लिये समर्पित कर दो। यदि हम चाहें तो यह आदर्श वाक्य स्वीकार कर लें कि ‘मजदूर इस पृथ्वी के नमक हैं और उनकी नियति या उनके भविष्य का हिस्सा बनना, हमारे युग का सबसे बड़ा साहसपूर्ण कार्य है’।’’ यह इस देश के भविष्य की आवाज थी। इस मायने में यह संस्कृति कर्म एक निश्चित वामपंथी राजनैतिक कर्म भी था।

प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन की इस धारा ने लेखकों और रंगकर्मियों के दायरे से बाहर जाकर भी विभिन्न कला रुपों से जुड़े संस्कृतिकर्मियों को भी बड़े पैमाने पर आकर्षित किया। नृत्य, संगीत, चित्रकला से जुड़े अनगिनत लोग इस सांस्कृतिक आंदोलन का हिस्सा बने। ये सभी लोग वामपंथी या कम्युनिस्ट भी नहीं थे, लेकिन देश और मेहनतकश जनता के प्रति प्रतिबद्ध थे, उनकी तमाम अभिव्यक्तियां शोषण और गुलामी से मुक्ति तथा एक सुंदर, समतापूर्ण समाज के निर्माण की अभिव्यक्तियां बनीं। वे सही मायनों में ‘पृथ्वी के नमक’ का हक अदा करना चाहते थे। यह नमक मेहनतकशों के पसीने से निकलता है और सागर को नमकीन करता है। सागर के इसी खारेपन से वह असीमता प्राप्त करता है। बकौल बलराज साहनी (इप्टा की यादें)- ‘‘मनुष्य की आत्मा, सीमित होने के कारण, असीम की याचक है और समुद्र में से असीम की यह भावना प्राप्त हो सकती है।’’
इप्टा और प्रलेसं की बुनियाद पर विकसित इस प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन ने सर्जनात्मकता की एक बड़ी लहर पैदा की। हमारे देश के नामी-गिरामी संस्कृतिकर्मी, लेखक और कलाकार- ख्वाजा अहमद अब्बास, बलराज साहनी, दमयंती साहनी, शंभु मित्र, तृप्ति भादुड़ी, प्रेम धवन, सरदार जाफरी, सचिन देव बर्मन, मोहन सहगल, कृश्न चंदर, साहिर लुधियानवी, कैफी आजमी, मजरूह सुल्तानपुरी, शंकर शैलेन्द्र, जोहरा सहगल, भूपेन हजारिका, सलिल चौधरी, इस्मत चुगताई, विमल रॉय, हेमंत मुखर्जी, राजेन्द्र सिंह बेदी, ऋत्विक घटक, उत्पल दत्त, ऋषिकेश मुखर्जी व अन्य- इसी आंदोलन की उपज हैं। वे अपने-अपने कला क्षेत्र के अग्रणी हैं। ये सब मिलकर एक आंदोलन को रुपाकार देते हैं।

लैंगिक परिप्रेक्ष्य में इस आंदोलन की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि रंगकर्म और संस्कृति के क्षेत्र में जिस समय महिलाओं की उपस्थिति नगण्य ही थी, इसने बड़े पैमाने पर महिलाओं को संस्कृति कर्म से जोड़ा और पुरुष सत्तावाद को न केवल चुनौती दी, बल्कि उसका अतिक्रमण भी किया। दीना गांधी, शांता गांधी, शीला भाटिया, रेवा राय चौधरी, रेखा जैन, स्नेह सान्याल, उषा भगत आदि ऐसी महिलायें हैं, जो सभ्य परिवारों से आती थीं। समाज की पुरुष सत्तात्मक संरचना उनकी सीमाओं को निर्धारित करती थी- परिवार के अंदर और बाहर भी। उन्होंने दोनों का मुकाबला किया- ‘चरित्रहीनता’ के आरोपों के साथ। इनमें से कईयों का विकास राजनैतिक कार्यकर्ता के रुप में भी हुआ- कम्यून में रहते हुए। अपने राजनैतिक विश्वासों के बल पर ही वे अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर सकीं। लता सिंह ने बताया है (इप्टा की महिलायें)- ‘‘शीला भाटिया के अनुसार, प्रतिबंधों के बावजूद ‘मेरे दिमाग की यहां परवरिश हो रही थी’।’’ कम्यून ने इन महिलाओं को न केवल ‘संस्कारों की जकड़न’ से मुक्त किया बल्कि ‘झिझक और बंधन’ को तोड़कर उनके विश्वास को भी बढ़ाया। कम्यून उनके लिए ‘रंगकर्म की कार्यशाला’ थी।
संगठित वामपंथी आंदोलन में बिखराव आने के साथ ही इस सांस्कृतिक आंदोलन में भी बिखराव आया। इस आंदोलन की संगठित  धमक कमजोर पड़ी। देश में फांसीवादी-प्रतिगामी ताकतें मजबूत हुयीं- न केवल राजनैतिक रुप से, बल्कि वैचारिक रुप से भी। लेकिन इसके बावजूद सच यही है कि आज भी देश में जितने भी अग्रणी कला सर्जक हैं, उनमें से बहुमत इसी प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन से ही जुड़े हैं। वे राजनैतिक-आर्थिक- सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में पैदा हो रही नयी चुनौतियों का सामना करने के लिये इस आंदोलन को पुनः संगठित करने की जद्दोजहद में लगे हैं, ताकि इप्टा-प्रलेसं की विरासत को नये परिप्रेक्ष्य में आगे बढ़ाया जा सके। मानव मुक्ति के अभियान में यह वामपंथी विचारधारा की श्रेष्ठता को ही प्रतिबिंबित करता है।

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कला की अन्य विधाओं से रंगकर्म इस मायने में अलग होता है कि यह सामूहिक प्रस्तुति होती है। लेखक, अभिनेता, निर्देशक, गीत-संगीत, मंच सज्जा, रुप सज्जा, प्रकाश व दर्शक-- ये सभी मिलकर नाटक का निर्माण करते हैं। इस कारण एकल नाट्य प्रस्तुति भी व्यक्तिगत नहीं बन पाती। फिल्म जहां निर्देशक का  माध्यम है, वहीं नाटक अभिनेता का। लेकिन केवल अभिनेता का नहीं, क्योंकि रंगकर्म सबका साझा प्रयास है। रंगकर्म दर्शकों से सीधे संवाद करता है, जबकि फिल्म को दर्शकों की प्रतिक्रिया का इंतजार होता है। एक मायने में रंगकर्म मानव जाति द्वारा उपलब्ध सभी कला रुपों का सामूहिक निवेश ही होता है।

इप्टा के गठन के बाद हमारे देश के रंगकर्म को जबरदस्त गति मिली। उनके सरोकारों में भी बदलाव आया। अब रंगकर्म स्वान्तः सुखाय की अवधारणा से संचालित नहीं था, बल्कि मनुष्य के सुख-दुख उसके केन्द्र में थे। इप्टा का नारा था-- ‘‘पीपुल्स थियेटर स्टार्स पीपुल’’ (जनता ही जनता के रंगकर्म के केन्द्र में है।)। यह एक निष्प्राण नारा नहीं था, बल्कि कलाकारों को समाज और समाज के प्रति अपने वृहत्तर सामाजिक दायित्वों से अवगत कराता था। आम जनता के पास लोकरंग से जुड़ी एक समृद्ध परंपरा थी। इप्टा ने इस परंपरा को बड़ी कुशलता के साथ आधुनिकता से जोड़ा। चूंकि इस आंदोलन का वामपंथी राजनीति से घनिष्ठ संबंध था, देश के स्वाधीनता आंदोलन में, फासीवाद   विरोधी आंदोलन में, शोषण से मुक्ति के लिए सामाजिक क्रांति के आंदोलन में और देश में साझा संस्कृति विकसित करने में इसका योगदान अभूतपूर्व था। जैसा कि भीष्म साहनी (साझा संस्कृति के पक्ष में) ने नोट किया था-- ‘‘इप्टा ने रंगशालाओं की चारदीवारी को लांघकर, जनता तक सीधे पहुंचने का प्रयास किया था। इसने अपनी बात जनता की जुबान में कही। ...इप्टा उन सवालों को उठाता था, जो समाज को उद्वेलित करते थे और उसका नजरिया प्रगतिशील और एकदम नया होता था।
सबसे बड़ी बात यह थी कि वह एक ऐसी विचारधारा से प्रेरित था जो आजादी, धर्मनिरपेक्ष मूल्यों, समानता और सामाजिक न्याय पर आधारित था और इसके मंच का इस्तेमाल पूर्ण समानता और पारस्परिक आदरभाव के आधार पर, देश के सभी हिस्सों के सभी भाषायी और सांस्कृतिक ग्रुप मिल-जुलकर करते थे।’’
इस कालखंड में पतंग का प्रतिशोध, जापान का प्रतिरोध करें (सुकांत भट्टाचार्य), जबानबंदी, नवान्न, शहीद की पुकार, नये जीवन के लिए, अंतिम अभिलाषा जैसे नाटक देश के विभिन्न हिस्सों में बड़े पैमाने पर खेले गये। लेकिन यह रंगकर्म गीत-संगीत के बिना पूरा नहीं होता। जनता से जुड़े विभिन्न विषयों पर क्रांतिकारी गीतों की बाढ़ आयी। लोक संगीत की धुन और लोक नृत्यों की थाप पर यह क्रांति परवान चढ़ी। मैं भूखा हूं, हंगर डांस, कॉल ऑफ द ड्रम, स्पिरिट ऑफ इंडिया, इंडिया इमोर्टल तथा होली नृत्य जैसे नृत्य नाटकों ने पूरे देश में   धूम मचाई और भाषा की दीवार को ढहा दिया। ‘बंगाल की आवाज’ नामक कार्यक्रम बड़े पैमाने पर मुंबई, गुजरात और महाराष्ट्र में हुए और बंगाल के अकाल पीड़ितों के लिए जबरदस्त राहत इकट्ठा की गयी। इन कार्यक्रमों ने पूरे देश को वर्गीय भावना से अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट किया। इप्टा की इन गतिविधियों की जानकारी तथा कार्यक्रमों की रिपोर्टिंग पीपुल्स वार, पीपुल्स एज, स्वाधीनता और जनशक्ति जैसे अखबारों में विस्तार से मिलती है।

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मीडिया को आजकल टी.वी. और समाचार पत्रों को तक ही सीमित किया जा रहा है, जबकि इसका अर्थ काफी व्यापक है। रंगकर्म भी मीडिया है, क्योंकि यह विचार, अनुभूतियों और भावों का संचार करता है। लेकिन जैसे-जैसे मीडिया के क्षेत्र में कार्पोरेट क्षेत्र का दखल बढ़ता गया है, वैसे-वैसे अभिव्यक्ति के अन्य स्रोत इलेक्ट्रोनिक और प्रिंट मीडिया पर ज्यादा से ज्यादा निर्भर हो गये हैं। रंगकर्म भी इसी मीडिया में अपनी जगह तलाश रहा है, लेकिन उसकी यह तलाश इसलिए पूरी नहीं हो रही है, क्योंकि अभी रंगकर्म का कार्पोरेटीकरण उतना नहीं हुआ है। रंगकर्म आज भी जनकर्म से जुड़ा है। जब तक वह जनता से जुड़ा रहेगा, कार्पोरेट नियंत्रित मीडिया में उसको स्थान नहीं मिलेगा। इसीलिए मेरा मानना है कि रंगकर्म को अपनी आलोचना खुद गढ़नी होगी।

रंगकर्म के लिए इप्टा के समय से आज का समय और स्थितियां काफी भिन्न हैं। इप्टा का समय नवोन्मेश  का दौर था, साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के पराजय का दौर था। आज का समय वैश्वीकरण का, नवउपनिवेशवाद का और साम्राज्यवाद के मजबूत होने का दौर है। आज का समय सोवियत संघ के विखंडन के बाद पनपी निराशा का दौर है। लेकिन आम जनता की वैकल्पिक राजनीति की खोज जारी है, क्योंकि शोषण से मुक्ति की मानवीय आकांक्षा शाश्वत है। इस आकांक्षा को वामपंथ ही स्वर दे सकता है। लेकिन वामपंथ को फिर से इसके लायक बनना होगा कि वह वैश्विक चुनौती का मुकाबला कर सके। इसलिए यह वामपंथ के चिंतन का भी दौर है। इसके लिए इप्टा की समृद्ध विरासत की बुनियाद पर रंगकर्म को एक नये सांस्कृतिक-जागरण का बीड़ा उठाना पड़ेगा। आम जनता से सीधे संवाद के हर मुमकिन रास्ते खोजने होंगे, उसका कुशलता से उपयोग करना होगा। क्या यह सच नहीं है कि हिंदी भाषी क्षेत्रों में वामपंथ की जन सभायें और आम बैठकें सांस्कृतिक शून्यता का शिकार हैं?इसके लिए वामपंथ को रंगकर्म के साथ अपने टूटे रिश्तों को जोड़ने की पहलकदमी करनी होगी। रंगकर्म के लिए जन समर्थन ही कार्पोरेटी मीडिया को जगह देने के लिए बाध्य कर सकता है।

यह मेरे अनुभव की बात है कि आज मीडिया में रंगकर्म को जो भी जगह मिल रही है, वह समीक्षा नहीं, मात्र रिपोर्टिंग होती है। यह रिपोर्टिंग भी नाट्य दलों के ब्रोशर के आधार पर ही होती है। इस रिपोर्टिंग में नाटक की कहानी और पात्रों के नाम भरकर उल्लेख होता है। रंग-समीक्षा तो अखबारों और चैनलों से सिरे से गायब है। मेरा मानना है कि रंग-समीक्षा के बिना रंगकर्म पूरा नहीं होता। यह समीक्षा ही दर्शकों-पाठकों के लिए नाटक को खोलती है, उनकी विचार-दृष्टियों को परिष्कृत करती है और किसी नाटक को उसकी सही जगह भी दिखाती है। पूंजीवादी मीडिया ठीक यही नहीं चाहता, क्योंकि अन्य समाचारों की तरह रंगकर्म भी उनके लिए मात्र एक ‘माल’ है-- अखबारी पन्नों/चैनलों में बेचने के लिए। इस स्थिति का मुकाबला करने के लिए रंग-समीक्षकों को ही आगे आना होगा तथा रंग-समीक्षा को भी नियमित रंगकर्म के दायरे में लाना होगा। इसकी शुरूआत कविता/कहानी गोष्ठियों की तरह नाट्य गोष्ठियों से की जा सकती है। इससे नये उत्कृष्ट नाटकों के चयन और मंचन में भी रंगकर्म को मदद मिलेगी। इसी तरह से रंगकर्म अपनी आलोचना खुद गढ़ सकता है। यह आलोचना जितनी सशक्त होगी, मीडिया पर हावी कार्पोरेटी रवैया भी उतनी ही तेजी से बदलेगा।

छत्तीसगढ़ के विशेष संदर्भ में मैं यह कहना चाहूंगा कि यहां नियमित रंगकर्म का नितांत अभाव है। राजकमल नायक, मिन्हाज असद, जलील रिजवी, मिर्जा मसूद, निसार अली, अजय आठले व राधेश्याम तराने जैसे निर्देशक हैं, जिनकी नाट्य मंडलियों में नये रंगकर्मियों की आवक-जावक लगी रहती है। लेकिन उनके अपने रवैये के कारण रंगकर्मियों को रंगकर्म के प्रति कोई विशेष प्रेरणा नहीं मिलती। ये निर्देशक भी साल में एक-आध प्रस्तुति कर रंगकर्म के प्रति अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं।

इन निर्देशकों में भी जोखिम उठाने का साहस नहीं है। अतः वे रंगमंच पर उन्हीं प्रस्तुतियों को देते हैं, जो कई बार खेली जा चुकी हैं। चूंकि ये नाटक पहले भी कई बार खेले-देखे जा चुके हैं, उन्हें इसे रचने में किसी निर्देशकीय कौशल का परिचय नहीं देना पड़ता। जोखिम के अभाव में वे इन नाटकों का पुनर्पाठ भी नहीं कर पाते। राजेश कुमार जैसे कई नाटककार समसामयिक विषयों पर नाटक लिख रहे हैं, लेकिन रंग-दर्शक इनके स्वाद से वंचित हैं। इस सिलसिले में दिवंगत हबीब तनवीर को याद करना अप्रासंगिक नहीं होगा, जिन्होंने जोखिम उठाया। परंपरा को आधुनिकता के साथ जोड़कर रंगकर्म को एक नयी दिशा दी। इस प्रयास में उन्हें संघी गिरोह के हमलों का भी शिकार होना पड़ा। इसी जोखिम ने उन्हें रंग-मीडिया में स्थापित भी किया।

प्रदेश का अधिकांश रंगकर्म राज्य के सहयोग की बाट जोहता है, जो कि उन्हें मिलनी नहीं है। सरकार का अपना दर्शन प्रगतिशील रंगकर्म से सहयोग की इजाजत नहीं देता, अतः संस्कृति विभाग बजट का रोना रोता रहता है, जबकि फिल्मी गानों के कार्यक्रम और अभिनेत्रियों के नृत्य आयोजन के लिए उसके पास पैसों की कोई कमी नहीं है। नाचा जैसे छत्तीसगढ़ की जो परंपरागत लोक- विधायें हैं, उसका उपयोग वह प्रतिगामी दृष्टि से करता है। अतः लोक दर्शक इसका भरपूर मजा तो लेता है, लेकिन साथ ही वह प्रतिगामी जीवन-दृष्टि को भी ग्रहण करते जाता है।

इप्टा जैसी संस्थायें रंग-क्षेत्र की शून्यता को अपने वार्षिक नाट्य समारोहों के जरिये तोड़ने का प्रयास करती है, लेकिन वे ठहरे जल में फेंके गये कंकड़ से पैदा लहरों के ही समान है। नुक्कड़ नाटकों के जरिये वर्ष भर दर्शकों से संवाद करने की इप्टा की परंपरा का तो लोप ही हो चुका है। चूंकि रंगकर्म अब जनता से संवाद नहीं कर रहा है, रंगकर्म के नाम पर गिने-चुने रंग-मंचन हो रहे हैं। राजधानी में एक आधुनिक प्रेक्षागृह बनाने की मांग, केवल ‘मांग’ तक सीमित होकर रह गयी है। इप्टा के वार्षिक समारोहों में इस मांग को दोहराने की रस्म-अदायगी जारी है।

रंगकर्म के क्षेत्र में वर्तमान की चुनौती यही है कि रस्म-अदायगी की जड़ता से उबरकर रंगों को उसके विस्तार में प्रवाहित किया जाये। धुप्प अंधकार से भरपूर रोशनी की ओर बढ़ा जाये। रंगों को प्रिज्मों से गुजारकर उसकी सर्जनात्मकता और गतिशीलता को आम जनता के बीच रखा जाये। रंगकर्म एक आश्रित कला न बने, बल्कि जनकर्म बनकर अपनी आलोचना खुद गढ़े-- जन मीडिया के दरबार में। इस रंगकर्म को सीधे-सीधे अपना राजनैतिक रिश्ता भी तय करना होगा। क्या समग्र वामपंथ इस चुनौती को स्वीकार कर पायेगा?

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