Tuesday, August 20, 2013

सदी बोल रही है

-नासिर अहमद सिंकदर
न् 1912 को सहारनपुर में जन्मी, ज़ोहरा सहगल की 2013 में प्रकाशित आत्मकथा-पुस्तक ‘करीब से’ में ‘मंच और फिल्मी पर्दे’ से जुड़ी उनकी बेशकीमती यादें दर्ज हैं। यह एक सूचनात्मक वाक्य भर नहीं है। किसी भी लेखक का व्यक्तित्व और संघर्षशील जीवन मिलकर, और रचनात्मक होकर आत्मकथा का रूप लेते हैं। जाहिर है, ज़ोहरा सहगल जैसी आला शख्सियत और सौ बरस लंबा या एक सदी का जीवन मिलकर, और रचनात्मक होकर कैसी आत्मकथा रचेंगे- इस किताब को पढ़कर महसूस किया जा सकता है।ज़ोहरा सहगल की यह आत्मकथा दलित लेखकों द्वारा लिखित आत्मकथाओं की तरह नहीं है, जहाँ आत्मकथा का स्वरूप व्यक्तिगत ज्यादा होता है, तथा आत्मकथा का मूल आधार सामाजिक उत्पीड़न होता है और संघर्ष भी इसी के समानांतर उभरता है। न यह आत्मकथा उन प्रसिद्ध लेखिकाओं की तरह लिखी गई है, जिसमें अपने प्रेम संबंधों को आम करना मकसद होता है। दरअसल ज़ोहरा सहगल एक प्रतिबद्ध और जागरूक महिला रही हैं। वे इप्टा की सदस्य भी रहीं। यही वजह है कि उनकी यह आत्मकथा ‘आत्म’ की कथा होते हुए भी सामाजिक परिवेश रचती है। उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता और जागरूकता का परिचय भी इस किताब में मिलता है।

मशहूर उर्दू शायर फिराक गोरखपुरी का एक शे‘र है - ‘‘हर उक्द-ए-तकदीरे जहां खोल रही है/हां ध्यान से सुनना यह सदी बोल रही है।’’ इस किताब में बहुत ‘करीब से’ ‘उक्द-ए-तकदीरे-जहां’ खोलती, ज़ोहरा सहगल की जुबानी ‘सदी बोल रही है’। किताब में ज़ोहरा सहगल ने अपने एक सदी के जीवन के सफरनामें की स्मृतियों को कालखण्ड में विभाजित करते हुए उपशीर्षकों के माध्यम से व्यक्त किया है। इन यादों का शीर्षक भी उन्होंने अपने जीवन और जीवन की घटनाओं से जोड़ा है। मसलन किताब के पहले खण्ड ‘1919-1929 बचपन और लाहौर’ में उन्होंने अपने जन्म, बचपन तथा शिक्षा आदि का जिक्र किया है। इस खण्ड में लाहौर का जिक्र इसलिए है कि यहां उन्होंने क्वीन मेरीज कॉलेज में दाखिला लिया था तथा मात्र दस साल की उम्र में ‘जैक एण्ड द बीन स्टॉक’ नामक स्कूली नाटक में जैक की भूमिका निभाई थी और अंग्रेजी अध्यापिका मिस हार्वे से वाहवाही पाई थी।

‘1930-1933 यूरोप और डांस स्कूल’ शीर्षक से दूसरे खण्ड में पढ़ाई के बाद पायलट बनने से इन्कार और डांस प्रशिक्षण हेतु जर्मन के विगमेन स्कूल में दाखिला तथा प्रशिक्षण के बाद पुनः भारत पहुँचने तक का जिक्र किया है। इस खण्ड में उन्होंने अपने विदेश दौरे की अधिकतर यादों को मेफसिस (ज़ोहरा सहगल के मामा) को लिखे पत्रों के माध्यम से व्यक्त किया है। वे 1933-1935 तक भारत में ही रहीं, जिसे उन्होने ष्पहली वापसीष् शीर्षक के अन्तर्गत रखा है। यहां उन्होंने अपने लाहौर के बचपन के स्कूल में प्रिंसिपल मिस कोक्स के कहने पर डांस शिक्षिका के रूप में भी कार्य किया। दो साल बाद मशहूर नृत्य निर्देशक उदयशंकर के डांस ग्रुप में शामिल होने का न्योता मिला। इस ग्रुप के साथ उन्होंने पहली बार 8 अगस्त 1935 को कलकत्ता के द न्यू एम्पायर थिएटर में नृत्य प्रस्तुत किया। इसके बाद उन्होंने इसी ग्रुप के साथ बर्मा, सिंगापुर, मलय प्रायद्वीप, रंगून, क्वालालम्पुर, बेल्जियम, हालैंड, डेनमार्क, पोलैंड, स्विटजरलैण्ड, इटली आदि देशों में नृत्य प्रदर्शित किए। उदय शंकर बैले कम्पनी के साथ पूरे यूरोप के नृत्य प्रदर्शन को विस्तार से उन्होंने ‘उदयशंकर बैले कम्पनी’ (1735 -1938) शीर्षक के अन्तर्गत रखा है। इसके बाद वे पुनः भारत आईं जिसे उन्होंने किताब के खण्ड में ‘दूसरी वापसी’ कहा है।

"1943-1945 प्यार शादी और एक बार फिर लाहोर" शीर्षक खण्ड में अपने वैवाहिक जीवन पर बातें करती हैं तथा लाहौर पहुंचकर ज़ोरेश नामक डांस स्कूल खोलती हैं। लेकिन कुछ दिनों बाद पुनः बंबई पहुंचती हैं। 1945 से 1959 तक के अपने 15 वर्षों को वे पृथ्वी थिएटर और इप्टा के माध्यम से याद करती हैं। पृथ्वी थिएटर के नाटकों ‘गद्दार’, ‘आहूति’, ‘पठान’ आदि में अभिनय तथा इप्टा से जुडे़ पृथ्वीराज कपूर, बलराज और दमयंती साहनी, कृष्ण चंदर, इस्मत चुगताई, सलिल चौधरी, रविशंकर, डेविड, आगा खान जैसे कई लेखकों, गीतकारों, संगीतकारों को वे याद करती हैं। वे अपनी संस्मरण यात्रा में इप्टा के संस्थापक अनिल डि सल्वा को भी याद करना नहीं भूलतीं। वे उस वक्त इप्टा की अन्य राज्यों की इकाइयों का भी जिक्र करती हैं। 1947 में वे इप्टा की उपाध्यक्ष बनीं। इस दौरान इप्टा के साथियों को जब सरकार की ओर से परेशान किया गया तो उन्होंने, अंतरिम भारत सरकार के उपाध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू को पत्र भी लिखा। वे अपनी आत्मकथा में तत्कालीन इप्टा की दो महत्वपूर्ण उपलब्धियां भी बताती हैं। पहली- ‘धरती के लाल फिल्म’ का निर्माण तथा दूसरी- जवाहरलाल नेहरू की किताब ‘दि डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ पर आधारित बैले। उन्होंने इस खण्ड में पृथ्वी थिएटर के बनने की पूरी प्रक्रिया को भी लिखा है। पृथ्वी थिएटर के ‘शकुंतला’, ‘दीवार’, ‘पठान’, ‘गद्दार’, ‘आहूति’, ‘कलाकार’, ‘किसान’ नाटकों के कथानक को भी बयान किया है। पृथ्वी थिएटर के अंतिम नाटक ‘किसान’ का पहला शो 26.10.56 को हुआ द्य

‘1959-1962 दिल्ली’ खण्ड में उनके पारिवारिक संघर्ष की कहानी है। 1962 के वर्ष को उन्होंने मास्को बाकू, बर्लिन, डेसडेन, प्राग शीर्षक के तहत तथा 1962-1973 को ‘लंदन: मंच और फिल्मी पर्दा’ शीर्षक के तहत लिखा। 1974 से वे भारत में ही रहते हुए सक्रिय रहीं। तथा 1976 से 1996 तक लंदन में भी कई फिल्मों में अभिनय किया। वे आज भी भारतीय सिनेमा और रंगमंच में सक्रिय हैं। वीरजारा, चीनी कम, संावरिया जैसी हाल की (2006) कई फिल्मों में उन्होंने अभिनय किया। इस खण्ड ष्पिछले दशकष् में उन्होंने अपने बच्चों के पारिवारिक जीवन का भी उल्लेख किया है।

अपनी इस किताब में ज़ोहरा सहगल ने अपने पूर्वजों का इतिहास भी लिखा है और एक तरह से वंशावली भी दी है। नवाबी खानदान से लेकर 33 पीढ़ी पूर्व नौंवी हिजरी में क्वास अब्दुल राशिद के यहूदी मजहब को छोड़कर पैगम्बर के हाथों इस्लाम कुबूल करने तक का जिक्र किया है। परिवार के इतिहास के 33 पीढ़ियों का तजकिरा किताब में है। तो 34 वीं पीढ़ी (ज़ोहरा सहगल के बाद) किस मजहब की बनी ? यह हिन्दुस्तान में जब तब बदअमनी के बीज बोने वालों को सोचना चाहिए। वैसे भी इस किताब में लेखिका ने अपने जीवन का फलसफा कुछ यूं व्यक्त किया है: ‘‘आखिरकार धर्म एक खूंटी ही तो है, जिस पर जरूरत के समय टँगा जा सके। लेकिन मेरा विश्वास है कि यह खूंटी, यह सहारा इनसान को अपने भीतर ढूंढना चाहिए।’’ (पृष्ठ 7)

ज़ोहरा सहगल ने अपनी आत्मकथा को लिखने का मकसद कुछ यूं बयान किया है- ‘‘ मेरे लिए इस किताब को लिखने की खास वजह एक ऐसा काम हाथ में लेेना था जिसमें मैं खुद को डुबा सकूँ, साथ ही मैं अपनी जिन्दगी में जो कुछ हुआ उन सब बातों को पूरी तरह से भूल जाने से पहले ही लिख डालना चाहती थी। इनमें से बहुत सारी बातें बहुत पुरानी हैं, ऐसा लगता है वो सब किसी और जन्म में हुआ था, इसके बावजूद कुछ यादें इतनी जीवन्त हैं जैसे कल ही की बात हो।’’ (पृष्ठ 23) ऊपर दिए गए इस किताब का सार संक्षेप उन्हें इस मकसद में कामयाब बनाता है।

कुल मिलाकर ज़ोहरा सहगल ने अपनी आत्मकथा में सौ साला जिन्दगी की कभी बहुत पुरानी तथा कभी एकदम जीवन्त- आज ही की लगने वाली यादों को दर्ज किया है। इन यादों में उनके बचपन, शिक्षा, परवरिश, शादी-ब्याह, देश विदेश की यात्राएँ, नृत्य प्रशिक्षण, पृथ्वी-थिएटर, इप्टा, सिनेमा, ब्रिटिश रंगमंच आदि से जुडे़ कई प्रसंग हैं। कुल 12 खण्डों में विभाजित इस पुस्तक का महत्वपूर्ण खण्ड उदय शंकर बैले कप्पनी की यादों और पृथ्वी थिएटर तथा इप्टा की यादों का खण्ड है। इस किताब में पृथ्वी थिएटर द्वारा मंचित सभी नाटकों के कथानक भी विस्तार से मौजूद है, तथा लेखिका के नाम पृथ्वीराज कपूर के पत्र इस किताब की महत्वपूर्ण उपलब्धि हैं। किताब के पूरे खण्ड पढ़कर यह बात भी उभरती है कि वे जीवन भर नृत्य और अभिनय को लेकर सक्रिय रहीं

इस आत्मकथा के जीवन प्रसंग किस्सागोई के अंदाज में प्रस्तुत किए गए हैं। दूसरे खण्ड यूरोप और डांस स्कूल की यादों को उन्होंने जहां पत्रों के माध्यम से रखा वहीं नवें खण्ड ‘मास्को, बाकू, बर्लिन, डेªसडेन, प्राग’ को डायरी फार्म में लिखा। जीवन प्रसंगों के बीच में फ्रांसिसी मुहावरे, वेदों आदि के उद्धरण से वे रूपक भी तैयार करती हैं।

आत्मकथा का अंत जोहरा सहगल के इस टीस भरे वाक्य से होता है: सच बोलूं तो मैं बहुत कुछ और कर सकती थी। मुझमें कुछ हुनर था और मुझे वह मौके मिले जो मेरी पीढ़ी की बहुत-सी औरतों को नहीं मिले। मैंने उनका क्या किया ? ‘जोरेश’ में भागीदार के बतौर काम करने के अलावा मैंने कभी भी अपना खुद का कोई काम शुरू नहीं किया। पहले मैं उदयशंकर और उसके बाद पृथ्वीराज कपूर जैसे कलाकारों के साथ जुड़ी और उनकी मशहूरी की रोशनी का ही लुत्फ लेती रही।. . . . . यह सच है कि मैंने शारीरिक और मानसिक तौर पर बहुत कड़ी मेहनत की, लेकिन मैं अपने लिए और भी बड़ा नाम कमा सकती थी अगर मैंने अपना कोई थिएटर ग्रुप या स्कूल शुरू किया होता’’ (पृष्ठ 241) वे जब यह सब कहती हैं तो मुझे गिरीश करनाड के ‘तुगलक’ नाटक का अंत याद आता है। मुहम्मद का बरनी से कहा संवाद- ‘‘जो चाहे मेरी दरियादिली, मेरी सखावत, मेरी जिन्दादिली सब कुछ लूट के ले भागे फिर भी मैं रहूंगा बरनी, मेरे साथ मेरा अपना मैं रहेगा और मेरी सनक रहेगी।’’ सचमुच इस किताब के माध्यम से जोहरा सहगल रहेंगी और हमारे साथ रहेंगी।

कलाकार इप्टा की ओर इस तरह से खिंचे चले आते थे जैसे मधुमक्खियाँ शहद की ओर

चालीस के दशक की शुरुआत से ही मुंबई में प्रतिभाशाली लेखकों ने मिलकर प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन यानी प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) नाम से एक साझा मंच बनाया था। ख्वाजा अहमद अब्बास, मुल्कराज आनंद, सरदार जाफरी और राजेन्द्र सिंह बेदी जैसे नामचीन लेखक इस मंच के चमकते सितारे थे। सिलोन (बरास्ता बंगलौर) से एक युवा पत्रकार अनिल डि सिल्वा के दिमाग में एक थियेटर आन्दोलन शुरू करने का विचार आया और लोगों को ऐसा जँचा कि पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन की नींव पड़ गयी। 

इप्टा एक स्वयंसेवी संगठन था जिसका मकसद पैसा कमाना न होकर समाज के मौजूदा शासकों के अन्याय के खिलाफ कलाकारों की आवाज को एक मंच मुहैया करना था। चाहे वह गीत हों, कविताएँ हों, बैले हों या नाटक-सभी का मकसद अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना था। उस दौर का हर कलाकार जिसका थोड़ा -बहुत भी नाम हो, इप्टा में शामिल था। कलाकार इप्टा की ओर इस तरह से खिंचे चले आते थे जैसे मधुमक्खियाँ शहद की ओर। संगठन में कला के हर क्षेत्र की बड़ी से बड़ी शख्सियतें शामिल थीं।

हालाँकि इप्टा के हर एक सदस्य का नाम ले पाना मुमकिन नहीं है लेकिन आज इतने सालों बाद याद करने पर कुछ नाम जो मुझे याद आ रहे हैं, वो इस तरह हैं- मंचीय कलाकारों में पृथ्वीराज कपूर, बलराज और दयमंती साहनी, दिना गांधी, हबीब तनवीर, चेतन और उमा आनंद, उजरा और हामिद बट, कृष्ण धवन, सफदर मीर, हिमा केसरकोडी, रोमेश थापर, सरजूू पांडे, शैकत कैफी शामिल थे। यह बस मुट्ठी भर लोगों के नाम ही हैं। लेखकों में बहले बताए जा चुके नामों के अलावा कृश्न चंदर, करतार सिंह दुग्गल, इस्मत चुगताई, विश्वमित्र आदिल, बलवंत गार्गी और बहुत सारे और मशहूर लेखक इप्टा से जुड़े थे। डांस करने वालों में शान्ति और गुल बर्धन, नरेन्द्र शर्मा, शांता गांधी, देवेन्द्र शंकर, सचिन शंकर और प्रभात गांगुली वगैरह थे। संगीतकारों में रविशंकर, सलिल    चौधरी, सचिन देव बर्मन, शिशिर बर्मन, नागेन डे, जतिन्द्रनाथ कोलोइ और अवनी दास गुप्ता शामिल थे। 

फिल्मी दुनिया के नुमाइन्दों में डेविड, मुबारक, शाहिद लतीफ श्याम और आगा खान थे और इप्टा के मकसद को अपनी कविताओं के जरिये लोगों तक पहुँचाने वाले कवियों में हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय, फैज अहमद फैज, कैफी आजमी, मजाज, मखदूम, साहिर लुधियानवी, सुमित्रानंदन पंत, नियाज हैदर, अख्तरूल ईमान और प्रेम धवन शामिल थे। बिनॉय रॉय, उनकी बहन और अमर शेख जैसे लोकगायक अपनी जबरदस्त आवाजों से सुनने वालों की भीड़ पर जादू का-सा असर करते थे। कहने का मतलब यह कि हर कलाकार किसी न किसी तरह से इप्टा से जुड़ा हुआ था।

एक केंद्रीय समिति संगठन का कामकाज सँभालती थी और हर दो या तीन साल बाद एक अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का नामांकन करती थी। हम लोग दिन में अपने-अपने कामों को निपटाने के बाद शाम को मिला करते थे और सामाजिक सरोकारों के लिये सबमें ऐसा जज्बा होता था कि इप्टा के लिये अपना समय देने में कोई गुरेज नहीं होता था। कभी‘-कभी, अगर हमारी किस्मत अच्छी हुई तो हमारे शो थियेटर में होते थे वरना अक्सर हम बड़े हॉल किराये पर लेते थे जो सस्ते पड़ते थे। हमारे बहुत सारे शो सड़कों और नुक्कड़ों पर, यानी जहाँ भी देखने वाले जमा हो सकें, होते थे।

इस तरह के नेशनल थियेटर का यह विचार इतना प्रभावशाली था कि जल्दी ही देश के दूसरे बड़े शहरों में इसकी शाखाएँ खुल गईं। इनमें से कलकत्ता इप्टा सबसे आगे था जिसमें उत्पल दत्त, शम्भू मित्रा और तृप्ति मित्रा जैसी अभिनय और निर्देशन की बहुत ही नामचीन हस्तियाँ शामिल थीं। जैसे बॉम्बे इप्टा आम लोगों तक अपनी बात पहुँचाने के लिये महाराष्ट्र की लोकशैली ‘तमाशा’ व ‘पवाडा’ का इस्तेमाल करता था वैसे ही कलकत्ता में कलाकार बंगाल की ‘जात्रा’ लोकशैली को आधार बनाकर शो तैयार करते थे। उस समय  भारत अपनी आजादी की लड़ाई के आखिरी दौर से गुजर रहा था तो जाहिरा तौर पर इप्टा के गानों और नाटकों के विषय काफी इंकलाबी और वामपन्थी हुआ करते थे जो हम सबको मिल-जुलकर काम करने के लिये प्रेरित करते थे।

मैं बॉम्बे आने के एकदम बाद ही इप्टा में शामिल हो गई थी और इसके नाटकों में काफी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती थी। 1947 के दौरान इप्टा के कुछ लोगों को सरकार की ओर से परेशान किये जाने के वाकये हुए, कुछ खास नाटकों पर रोक लगा दी गई, कलाकारों को गिरफ्तार किया गया। उस समय देश में अन्तरिम भारत सरकार थी और जवाहरलाल नेहरू उसके    उपाध्यक्ष बनाए गए थे। मैं भी उसी दौरान इप्टा की  उपाध्यक्ष चुनी गयी थी। और मैंने पंडित नेहरू को बहुत ही बेवकूफाना तरीके से बेबाकी दिखाते हुए एक चिट्ठी लिखी-‘‘ मैं यह खत बतौर एक उपाध्यक्ष दूसरे उपाध्यक्ष को लिख रही हूँ....’’ मैंने उन्हें इप्टा के सदस्यों के साथ हो रही ज्यादतियों के बारे में बताते हुए उनसे मदद की गुजारिश की। 

सोचो जरा मेरी गुस्ताखी! हालाँकि उन्होंने बहुत ही जिम्मेदाराना जवाब देते हुए कहा कि उन्हें कलाकारों के साथ हो रहे व्यवहार के बारे में पता नहीं था ओर वह देखेंगे कि इस बारे में क्या किया जा सकता है और हुआ भी वही, कुछ समय बाद ही इप्टा की दिक्कतें खत्म हो गईं। 

(साभार: राजकमल प्रकाशन)
किताब: करीब से
लेखिका: जोहरा सहगल
अनुवाद: दीपा पाठक
मूल्य: रु. 495/-
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन, 1-बी,नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली












1 comment:

  1. कल 22/08/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद!

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