Tuesday, July 16, 2013

वह शाम आज भी साथ है

कैलाश वाजपेयी
-कैलाश वाजपेयी

पंडित नरेंद्र शर्मा का घर बांद्रा स्थित हमारे आवास वाटर फील्ड रोड से ज्यादा दूर नहीं था।चाहिए तो यह था कि हम 594 परितोष प्लाजा, खार में बने उनके घर सबसे पहले पहुंचते।मगर हमें लगा कि उनके विषय में अधूरी जानकारी के साथ जाना अशोभन होगा। इसलिएटाइम्स के दफ्तर में ही हम अपने मित्रों से नरेंद्रजी के विषय में प्रश्न किया करते थे। नरेंद्र जीउन्नीसवीं सदी के चौथे दशक में ही मुंबई आ गए थे। बॉम्बे टॉकीज की अधिष्ठार्थी देविकारानी ने युसुफ खान नाम वाले किसी पठान युवा को अपनी फिल्म ‘ज्वार-भाटा’ का नायकबनाने की बात जब सोची तो उन्होंने पंडित नरेश शर्मा से पूछा, ′इस युवक को किस फिल्मीनाम के साथ परदे पर उतारा जाए।′ पंडित नरेंद्र शर्मा ने उन्हें शायद ‘वासुदेव’ के साथ‘दिलीप कुमार’ नाम सुझाया।

देविका रानी को दिलीप कुमार नाम जंच गया और इस तरह युसुफ मियां दिलीप कुमार केनाम से ‘ज्वार-भाटा’ फिल्म के नायक बनकर रुपहले परदे पर आए। चालीस के दशक मेंउनका गीत ‘नैया को खेवैया के किया हमने हवाले’ ′ज्वारा भाटा′ के साथ खासा लोकप्रियहुआ था। अस्तु नरेंद्रजी के यहां जाने के पहले हम यह बता दें कि शोध के दिनों में हम नरेंद्रशर्मा के ‘प्रवासी के गीत’, ‘पलाशवन’, ‘हंसमाला’ आदि रचना संग्रह पढ़ चुके थे। उस युग केअन्य कवियों ‘बच्चन’, ‘अंचल’ और भगवती चरण वर्मा आदि उत्तर छायावादी कवियों कीतुलना में हमें नरेंद्र शर्मा पहले भी अधिक नयशील लगे थे। उनके द्वारा सन 1957 में शुरूकिए गए विविध भारती रेडियो कार्यक्रम की छाप भी हमारे मन में थी। चलने से पहले यहसोचकर कि प्रश्नोत्तर की नौबत अगर आई तो कुछ कोरे कागज साथ लिए जाना बेहतर होगा,तो बाकायदा एक नोटबुक भी साथ ले ली। नरेंद्रजी ने मुस्कुराते हुए पास बैठने को कहा, फिरआई चाय और गुजराती ढोकला, जिसे शायद उनकी धर्मपत्नी ने घर पर ही बनाया था। बातेंशुरू हुईं। हमने सकुचाते हुए पूछा, ′आपने जब लिखना शुरू किया, तब तक प्रगतिशील आंदोलन शुरू हो चुका था। सभी रचनाकार मार्क्स की विचारधारा से प्रभावित होकर नए ढंगकी रचनाएं लिखना शुरू कर चुके थे। स्वयं पंत जी ने अपने नए संग्रह को ‘ग्राम्या′ नाम दियाथा। तब फिर आप गीत की नितांत व्यक्तिनिष्ठ सीमारेखा पारकर, प्रगतिशीलता की ओरउन्मुख क्यों नहीं हुए?′
पं. नरेन्द्र शर्मा


नरेंद्र जी ने संयत शब्दों में स्पष्टीकरण कुछ यों दिया। ′मार्क्स का दर्शन सचमुच नया औरअकाट्य है। मार्क्स स्वयं महापुरुष योग में पैदा हुआ था। इसलिए वह तमाम खंडन-मंडन केबावजूद इतिहास में अमर रहेगा। मैं स्वयं उस कवि को प्रगतिशीलता के उतना ही निकटमानता हूं, जो वस्तु स्थिति और उसकी छाया में अकुलाने वाली इकाई की सक्रिय सामर्थ्यऔर सीमाओं तथा वस्तुस्थिति और इकाई के घात प्रतिघातपूर्ण पारस्परिक संबंध औरतदजनित गतिशीलता के नियम को जितना अधिक समझता है और व्यावहारिक जीवन मेंउतारता है। उसकी तथ्य ग्राहकता, प्रगतिशीलता की पहली सीढ़ी है। रही मेरी बात, मैं तोइलाहाबाद विश्वविद्यालय के दिनों से ही मानता आया हूं कि कविता और संवेदना के बीचनाभिनाल का संबंध है। अगर कोई सिद्धांत विशेष के खांचे में मनोवेगों का द्रव्य डालेगा तोउसका फलागम क्वाथ होगा, कविता नहीं।′ हमारे इसरार करने पर नरेंद्र जी ने उदाहरण देतेहुए खुलासा किया जब तक आदमी को आग का पता नहीं था वह कच्चा मांस खाता था। जबउसे आग पैदा करने की युक्ति आ गई तब वह पाक कला की ओर बढ़ा। गुफाओं की जगह ईंटोंके घर में रहने लगा। यह सब प्रगति उसने विचारधारा का फलसफा पढ़कर नहीं की। हमनेडरते-डरते कहा, नरेंद्रजी हमें तो मार्क्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद सर्वाधिक अकाट्य औरभरोसेमंद लगता है, नरेंद्र जी तपक कर बोले- ‘अकाट्य तो कणाद का दर्शन भी नहीं है, बौद्धोंका अपोहवाद भी नहीं है। विचारों के इतिहास में जिस तरह कपिल, उदयन, नागार्जुन औरअसंग रह गए, मार्क्स भी रहेगा।′ इसके बाद नरेंद्र जी ने पूछा, ′तुमने वैदिक साहित्य पढ़ा? ′अगर नहीं तो जाओ जाकर पढ़ो- ऋग्वेद-जिसमें दो उपनिषद अनुस्यूत हैं पढ़ो,अथर्ववेद-जिसमें उनतालीस उपनिषद अनुस्यूत हैं पढ़ो, सामवेद-जिसमें छांदोग्य और केनउपनिषद अनुस्यूत हैं पढ़ो, शुक्ल यजुर्वेद-जिसमें वृहदाराण्यक और ईशोपनिषद अनुस्यूत हैंपढ़ो।, उस शाम पंडित नरेंद्र शर्मा से अपना जो संबंध बना, वह दिल्ली आकर भी तब तकबना रहा जब तक हमें विजिटिंग प्रोफेसर बना कर सरकार न मैक्सिको नहीं भेज दिया।उनके जन्मशती वर्ष पर हमारा उन्हें नमन।

मुंबई में एक शाम पंडित नरेंद्र शर्मा से जो संबंध बना, वह दिल्ली आकर भी बना रहा। पंडितनरेंद्र शर्मा मृदुभाषी मनीषी थे। गृहस्थ किस्म से संन्यासी। उन्होंने हमें सही मोड़ पर सहीजीवन की शैली दी। उनके जन्मशती वर्ष पर हमारा उन्हें नमन!

अमर उजाला से साभार

1 comment:

  1. नमस्ते पंडित नरेंद्र शर्मा मेरे पापा जी हैं।
    My Blog : http://www.lavanyashah.com/2013/04/a-daughter-remembers-jyoti-kalash.html

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