Wednesday, July 31, 2013

प्रेमचंद भारत के किसान को साहित्य के केंद्र मे लाये

शोकनगर। दिनांक 30 जुलाई 2013 को कालजयी कथाकार मुंशी प्रेमचंद के 133वें जन्मदिन की पूर्व संध्या पर उनकी स्मृति को समर्पित एक महत्वपूर्ण आयोजन अशोकनगर भारतीय जन नाट्य संघ ( इप्टा ) और प्रगतिशील लेखक संघ ने संयुक्त रूप से स्थानीय माधव भवन में आयोजित किया । इस कार्यक्रम में अनेक श्रोताओं के अलावा पचास से ज़ियादा बच्चे भी शामिल हुये । 

इस अवसर पर बच्चों की रचनाओं पर एकाग्र - 'बाल रंग सम्वाद' ( चौबीस पृष्ठीय अखबार ) का विमोचन मंचासीन संस्कृतिकर्मियों द्वारा किया गया। यह अखबार  बाल एवम किशोर नाट्य कार्यशाला के समापन पर 25 मई को निकाला जाना था, पर इसके प्रकाशन में देरी हुयी। इस अखबार में बच्चों की रचनाओं , चित्रों , साक्षात्कारों और डायरी के अलावा रंगकर्म से संबद्ध महत्वपूर्ण सामग्री प्रकाशित की गयी है ।

'बदलता हिंदी समाज और प्रेमचंद' विषय पर विनोद शर्मा ने आधार वक्तव्य देते हुये कहा कि – “ प्रेमचंद की यह मौलिक उपलब्धि थी के वे भारत के किसान को साहित्य के केंद्र में लाये,  “ उन्होंने आगे बोलते हुये कहा कि ‌- “ शोषण के औजार भले ही बदल गये हों पर उसकी मूल प्रकृति आज भी वही है , स्वतंत्रता के इतने सालों बाद भी किसान जब आत्महत्याएं कर रहे हों तब प्रेमचंद की याद आना स्वाभाविक है ” । 

विनोद शर्मा ने दु:खी मन से कहा कि – “ मैं जिस गांव के स्कूल में पढ़ाने जाता हूं उस गांव का नाई आज भी दलितों के बाल नहीं काटता। गैर बराबरी से अगर हमें लड़्ना है तो हमारे युवाओं को प्रेमचंद को पढना होगा।"    पंकज दीक्षित , अर्चना प्रसाद , विवेक आदि ने भी गोष्ठी में अपने विचार रखे । कार्यक्रम की शुरूआत में इप्टा से जुड़े बच्चों ने केदारनाथ अग्रवाल की कविता "मार हथौड़ा कर-कर चोट"  का गायन किया तथा जनगीत भी गाये । गोष्ठी की अध्यक्षता स्थानीय वरिष्ठ साहित्यकार सत्यनारयण सक्सेना ने की तथा संचालन युवा कवि अभिषेक अंशु ने किया । इप्टा के सचिव सिद्धार्थ ने आमंत्रित-जनों और श्रोताओं का आभार व्यक्त किया ।

Tuesday, July 30, 2013

एक आग जो जलती है अभी -1

-शकील सिद्दीकी

भारत के सांस्कृतिक इतिहास का यह कोई विरल संयोग अथवा सहसा घटित घटना नहीं है कि युगान्तर कारी विकराल मूर्ति भंजक प्रगतिशील लेखन आन्दोलन तथा अपने समय के सामाजिक यथार्थ के सबसे कुशल चित्रेता कथा सम्राट मुंशी प्रेमचन्द के काल-जयी उपन्यास ‘गोदान’ की पचहत्तरवीं वर्ष गांठ एक साथ मनाई जा रही है। साथ ही ऐसी यादगार विभूतियों की जन्म शताब्दियाँ भी, जिन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ व आन्दोलन की संस्थापना, उसकी वैचारिकी व सैद्धान्तिकी रचने एवम् उसके चतुर्दिक विस्तार में उल्लेखनीय भूमिका निभाई। जैसे कि फैज, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर बहादुर सिंह, मजाज़ तथा भगवत् शरण उपाध्याय। सज्जाद जहीर, डॉ. रशीद जहाँ, डॉ. अब्दुल अलीम मुल्कराज आनन्द इत्यादि की जन्म शताब्दियाँ निकट अतीत की ही घटनाएँ हैं। एक ही वर्ष में प्रगतिशील आन्दोलन का आरम्भ तथा गोदान का प्रकाशन (जून 36) काल विशेष में व्याप्त सामाजिक व्यकुलता तथा बदलाव की छटपटाहट की अभिव्यक्ति के दो रूप ही माने जा सकते है। यह कांग्रेस के नेतृत्व से भारतीय बुद्धिजीवियों के मोहभंग का दौर था।

इतिहास का क्रमिक विकास बताता है कि लन्दन में जुलाई 1935 में प्रोग्रेसिव राईटर्स एसोसिएशन के गठन, जिसका प्रथम अधिवेशन इ.एम. फारेस्टर के सभापतित्व में हुआ तथा इसके ऐतिहासिक महत्व के घोषणा पत्र के जारी होने के उपरान्त सज्जाद जहीर की लन्दन से वापसी पर तब की सांस्कृतिक राजधानी इलाहाबाद में जस्टिस वज़ीर हसन (सज्जाद ज़हीर के पिता) के आवास पर दिसम्बर 1935 में प्रेमचन्द की उपस्थिति में प्रलेस की पहली इकाई के गठन का फैसला हुआ। इसी बैठक में अप्रैल 1936 में लखनऊ में प्रलेस का प्रथम राष्ट्रीय अधिवेशन करने का भी निर्णय लिया गया। बैठक में प्रेमचन्द व सज्जाद जहीर के अतिरिक्त मुंशी दयानारायण निगम, मौलवी अब्दुल हक, अहमद अली, डॉ. रशीद जहाँ, जोश मलीहाबादी व फिराक गोरखपुरी इत्यादि उपस्थित थे। एजाज हुसैन भी। प्रगतिशीलता को ठोस वैचारिक-सांस्कृतिक अभियान का रूप देने के पक्ष में व्यवहारिक रणनीति बनाने का अवसर दिया था, ‘‘हिन्दुस्तानी एकेडमी’’ (इलाहाबाद) के एक समारोह ने जिसमें हिन्दी-उर्द़ू के अनेक विख्यात रचनाकार सम्मिलित हुए थे।

तीव्र होते सघन संक्रमण के उस दौर में अप्रैल 36 आते-आते सृजन व बौद्धिकता के क्षेत्र में बहुत कुछ घटित हो चुका था। रूसी इंकिलाब, हाली का मुक़दमा-ए-शेरो शायरी, सरसैय्यद तहरीक, प्रेमाश्रम, सेवासदन और कर्म भूमि, माधुरी, हंस तथा रामेश्वरी नेहरू की पत्रिका स्त्री दर्पण के साथ ही शेख अब्दुल्लाह की खातून (अलीगढ़) और सत्य जीवन वर्मा की पहल पर बना हिन्दी लेखक संघ। फासीवाद के विरूद्ध कला और संस्कृति की रक्षा के लिए 1935 में पेरिस में सम्पन्न हुआ लेखकों और संस्कृति कर्मियों का ऐतिहासिक सम्मेलन। जिसने सज्जाद जहीर को गहरे तक प्रभावित किया। जो उस सम्मेलन में मौजूद थे। साहित्य, अभिव्यक्ति के दूसरे माध्यमों में प्रगतिशीलता मानवीय कला दृष्टि व जीवन मूल्य की हैसियत पाने के संघर्ष में थी। राम विलास शर्मा जिसे स्वतः स्फूर्त यर्थाथवाद कहते आये हैं। सौन्दर्य के प्रति दृष्टिकोण में भी सन् 36 के बाद जैसी न सही परन्तु तब्दीली अवश्य आई थी। नवम्बर 1932 में सज्जाद ज़हीर के सम्पादक में चार कहानीकारों के कहानी संग्रह अंगारे का प्रकाशित होना तथा मार्च 1933 में उस पर प्रतिबन्ध लग जाना। 15 अप्रैल 1933 को महत्वपूर्ण अंग्रेजी दैनिक ‘‘लीडर’’ में अंगारे के कहानीकारों द्वारा इस प्रतिबन्ध के विरोध व भर्त्सना में एक संयुक्त बयान प्रकाशित होना, भविष्य में भी ऐसा लेखन जारी रखने का संकल्प प्रकट करना तथा यथास्थितिवादी वसोन्मुख पतन शील सामंती जीवन व कला मूल्य के विरूद्ध प्रगतिशील बदलाव परक दृष्टिकोण के प्रचार-प्रसार को रचनात्मक अभियान की शक्ल देने के उद्देश्य से ‘‘लीग ऑफ़ प्रोग्रेसिव आथर्स’’ का प्रस्ताव इस प्रेस वक्तव्य में प्रस्तुत किया गया था।

यह शोध अभी शेष है कि आखि़र क्यों प्रगतिशील लेखकों की लीग बनाने के प्रस्ताव को उस समय अमली जामा नही पहनाया जा सका। जबकि बाद के वर्षों में प्रगतिशील लेखक संगठन-आन्दोलन को बनाने-फैलाने में अंगारे के इन चारों कहानी कारों की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण थी और यह कि किन कारणों से सज्जाद ज़हीर ने प्रगतिशील आन्दोलन के दस्तावेज़ की हैसियत रखने वाली पुस्तक ‘‘रौशनाई’’ में ‘‘लीडर’’ में प्रकाशित बयान व उसमें लीग ऑफ़ प्रोग्रेसिव आथर्स’’ के गठन के प्रस्ताव का उल्लेख नहीं किया। क्या इस कारण कि ‘अंगारे’ के प्रकाशन के बाद से ही उनके और अहमद अली के बीच मतभेद आरम्भ हो गये थे, जो आगे अधिक तीखे होते गये और यह कि लीडर में छपे बयान में मुख्य भूमिका अहमद अली ही की थी। यहाँ उस विभाजक रेखा पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है जो अंगारे की कहानियों के कथा तत्व, उनकी वैचारिक भूमि तथा प्रेमचन्द के अध्यक्षीय सम्बोधन में निहित वृहत्तर सामाजिक यथार्थ की चिन्तन शीलता के बीच खिंचती दिखाई पड़ी थी, जिसने 1945 में हैदराबाद में हुए प्रगतिशील लेखकों के एक सम्मेलन में बड़े विवाद का रूप ले लिया था। यशपाल के दादा कामरेड (1943) को लेकर भी राम विलास शर्मा ने ऐसी ही एक रेखा खींची है।

इतिहास का यह भी एक विस्मयकारी तथ्य है कि राम विलास शर्मा ने 1950 में प्रेलेस में प्रगतिशील शब्द को लेकर भी आशंका प्रकट की थी। उनकी आपत्ति प्रगतिशीलता के लिए बुद्धिवाद की अनिवार्यता पर भी थी। डॉ. नामवर सिंह के अनुसार, उन्होंने लेखकों को शिविरों में बांटनें वाले इस संगठन का नाम अखिल भारतीय जनवादी लेखक संघ, अथवा परिसंघ (All India Union or Federation of Democratic Writers) रखने का प्रस्ताव दिया था।

बहरहाल प्रगतिशील आन्दोलन के पचहत्तरवें वर्ष में कई सारे जरूरी प्रश्नों के साथ ही इस प्रकार के लुप्त हो आये प्रश्नों से भी मुठभेड़ की आवश्यकता महसूस की जा सकती है। भुला दिये गये इस प्रसंग को भी याद किया जा सकता है कि लंदन (1935) लखनऊ (1936) घोषणा पत्रों के जारी होने तथा प्रेमचन्द के ऐतिहासिक अध्यक्षीय सम्बोधन से पूर्व 1935 में ही उर्दू में प्रकाशित अख्तर हुसैन रायपुरी के लेख ‘‘अदब और जिन्दगी’’ का व्यापक स्वागत हुआ। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसका हिन्दी अनुवाद कराके ‘‘माधुरी’’ में प्रकाशित किया। 1936 में नागपुर में हुए हिन्दी साहित्य सम्मेलन के  अधिवेशन में इस लेख पर आधारित घोषणा पत्र पर मौलवी अब्दुल हक प्रेमचन्द के साथ ही पण्डित जवाहर लाल नेहरू तथा आचार्य नरेन्द्र देव ने भी हस्ताक्षर किये। लेख में अख्तर हुसैन रायपुरी का जोर इस बात पर है कि साहित्य को जीवन की समस्याओं से अलग नहीं किया जा सकता, समाज को बदलने की इच्छा जगाने वाला साहित्य ही सच्चा साहित्य है। भारत में प्रगतिशील साहित्य की आवश्यकता विषय पर शिवदान सिंह चौहान के लेख ने जो 1937 में विशाल भारत में प्रकाशित हुआ, प्रगतिशीलता के पक्ष में फिजा को साजगार बनाने में मदद की।

यह छोटी सी भूमिका इस कारण कि नित नये आते हिन्दी पाठक आन्दोलन के पचहत्तरवें वर्ष में कुछ अचर्चित रह जाने वाली जरूरी सच्चाईयों से परिचित हो सकें। और इसलिए भी कि प्रगतिशील आन्दोलन की सुसंगत वैचारिक शुरूआत की समग्र प्रेरणाएँ यूरोपीय नहीं थीं, जिसका आरोप इस पर दक्षिणी पंथी प्रतिक्रियावादी   धार्मिक व अन्य विभिन्न विचार क्षेत्रों तथा सत्ता सर्मथक खेमों की ओर से लगाया जाता रहा है। कभी अंग्रेजी दैनिक स्टेट्समैन ने इस अभियान में अग्रणी भूमिका ली थी तथा समाज में हिंसा व अराजकता फैलाने का आरोप लगाते हुए प्रगतिशील लेखक संघ पर प्रतिबन्ध लगाने की गुहार लगायी थी। प्रगतिशील दृष्टि सम्पन्न साहित्यिक संगठन के निर्माण की चर्चा के दौर में ही गोदान जैसे किसान केन्द्रित उपन्यास की, बदलाव की चेतना जिसमें एक आग की तरह प्रवाहित है, रचना प्रक्रिया का गतिशील होना तथा लन्दन प्रवास से वापस आये सज्जाद जहीर का पहले अधिवेशन की अध्यक्षता के लिए प्रेमचन्द से आग्रह करना संकेत करता है कि दोनों की बुनियादी चिन्ताओं में कोई विपरीतता नहीं थी। ठीक उन्हीं दिनों किसानांे के अखिल भारतीय संगठन का अस्तित्व में आना और किसान आन्दोलन का तेज होना, इस संकेत को अधिक चमकदार बनाता है। यहाँ अधिवेशन की तिथियों का भी अपना महत्व है। ये तिथियाँ (9-10 अप्रैल), लखनऊ में आयोजित किसान सम्मेलन के साथ जोड़ कर निश्चित की गयी थीं, कुछ किसान लेखकों के अधिवेशन में शरीक भी हुए थे। तब और भी जब हम पाते हैं कि सज्जाद जहीर आन्दोलन के आरम्भिक दिनों में किसानों के बीच कवि सम्मेलन, मुशायरे तथा साहित्यिक सभाओं की परम्परा स्थापित करने की कोशिश कर रहे थे जैसा कि बाद के वर्षों में कानपुर, बम्बई, अहमदाबाद, मालेगाँव इत्यादि औद्योगिक नगरों में मजदूरों के बीच घटित होती दिखाई पड़ी। यह आयोजन आमतौर पर टिकट से होते थे। इनके विज्ञापन नया पथ तथा दूसरी पत्रिकाओं में अब भी देखे जा सकते हैं। यानी कि ‘गोदान’ प्रगतिशीलता के महाभियान के गति पकड़ने से पहले ही प्रगतिशील रचना कर्म के उच्च प्रतिमान के रूप में सामने आ चुका था। 75वें वर्ष में इसकी आलोचना के कुछ नये आयाम अवश्य निर्मित हैं।

फलस्वरूप प्रगतिशील आन्दोलन के पचहत्तर वर्ष के इतिहास को गोदान व प्रेमचन्द से अलग करके नहीं देखा जा सकता। भले ही कथा सम्राट आन्दोलन का भौतिक नेतृत्व बहुत कम समय ही कर पाये हों। उसी तरह जैसे अंगारे, हंस, माधुरी, विशाल भारत, रूपाभ तथा नया अदब व नया साहित्य, इण्डियन लिट्रेचर, परिचय को अलग नहीं किया जा सकता और न ही उसे उन्नीसवीं सदी के भारतीय नवजागरण से असम्बद्ध किया जा सकता है और न सदी के उत्तरार्द्ध में अंकुरित उन बहसों से जो आस्था, ज्ञान जीवन पद्धति तथा मानवीय     अधिकारों से सम्बन्धित थी। नवजागरण ने अपने को खोजने पाने तथा स्वाधीनता की लालसा को बौद्धिक आवेग दिया था कारणवश प्रेमचन्द का समूचा लेखन तथा प्रगतिशील आन्दोलन परस्पर पूरक होते दिखाई पड़े तो यह स्वाभाविक तरीके़ से हासिल हुई बड़ी उपलब्धि ही थी। सरसैय्यद तहरीक और प्रेमचन्द्र के साहित्य के समान प्रगतिशील रचनाओं ने भी समाज को प्रभावित किया तथा राष्ट्रीय संस्कृति के निर्माण में अपने हस्तक्षेप की ऐतिहासिकता प्राप्त की।

प्रगतिशील कवियों-शायरों की रचनाएँ न केवल मज़दूरों-किसानों के आन्दोलनों को गति व धार दे रही थी बल्कि आजादी के मतवालों के दिलों में भी आग भर रही थी। बताने की ज़रूरत नहीं कि इकबाल की एक काव्य रचना में सबसे पहले राजनैतिक अर्थों में  प्रयुक्त हुआ ‘‘इंकिलाब’’ शब्द कहाँ से आया था और कैसे वह बहुत थोड़े समय में समूचे उत्तरी-पूर्वी भारत में परिवर्तनकारी उत्तेजना का प्रतीक बन गया कि उसने क्रांतिकारी आन्दोलन के भी अति-प्रिय उद्बोधन की हैसियत प्राप्त की। एक शब्द के भीतर छिपे हुए महाप्रलय के संकेत से लोग पहली बार परिचित हुए; याद कीजिए फैज का तराना। एक अकेला शब्द दमित जनता की मूल्यवान पूँजी के रूप में जन संघर्ष की थाती बन गया, उसी तरह जैसे भोर, सुबह या सहर शब्द जो उम्मीद और बदलाव का रूपक बन गया। भोर या सुबह होने का मतलब केवल उजाला होना नहीं बल्कि एक अंधकारमयी सामाजिक राजनैतिक व्यवस्था से उजासमयी व्यवस्था में जाना, समय का साम्यवादी होना अथवा अमीरों की हवेली का गरीबों की पाठशाला बनना, तख्तों का गिरना, ताजों का उछलना या राज सिंहासन का डांवाडोल होना हो गया।

प्रगतिशील आन्दोलन जिन कुछ खास लक्ष्यों को लेकर आगे बढ़ रहा था, उनमें विभिन्न भारतीय भाषाओं के बीच अजनबीपन व दूरियों को कम करना भी था। यह कोई साधारण घटना नहीं है कि सन् 36 के ठीक दो वर्ष बाद संघ का दूसरा अधिवेशन कलकत्ता में हो रहा था। जहाँ यदि एक ओर महाकवि रवीन्द्र नाथ टैगोर एक संदेश के द्वारा आन्दोलन व  अधिवेशन का स्वागत कर रहे थे, और जनता से अलग-थलग रहने पर अपनी आलोचना, तो दूसरी ओर बंगभाषी महानगरी में उर्दू, अरबी व जर्मन भाषाओं के एक विद्वान डॉ. अब्दुल अलीम को प्र.ले.संघ का महासचिव बनाया गया था। उनके द्वारा दिया गया भारतीय भाषाओं को रोमन लिपि में लिखे जाने का विवादास्पद प्रस्ताव इसी समय आया था। बांगला, उर्दू, हिन्दी के अतिरिक्त अधिवेशन में पंजाबी, तेलगू इत्यादि भाषाओं के लेखक भी सम्मिलित हुए थे। बलराज साहनी और उनकी नव वधु दमयन्ती भी। छायावाद के इसी अवसान काल में सुमित्रानन्दन पंत व निराला भी प्रगतिशीलता की ओर आकृष्ट हुए थे। अज्ञेय के आकर्षण का भी तकरीबन यही काल है। पन्त ने रूपाभ को एक तरह से आन्दोलन के लिये समर्पित कर दिया था। डॉ. नामवर सिंह इसे संयुक्त मोर्चे की साहित्यिक अभिव्यक्ति कहते हैं। लेकिन आन्दोलन के कर्णाधारों को अधिक चिंता उत्तरी-पूर्वी भारत में उर्दू-हिन्दी लेखकों के संयुक्त मोर्चा को लेकर थी। नागरी प्रचारिणी सभा, हिन्दी साहित्य सम्मेलन तथा अंजुमन तरक्क़ी उर्दू इत्यादि के भाषागत अभियानों से दोनों भाषा भाषी शंका व संशय के घेरे में थे। हिन्दुस्तानी के विकल्प ने हिन्दी भाषियों की शंका को अधिक गहरा किया था, कारणवश यदि कुछ लोगों को उर्दू लेखकों की पहल पर प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना में भी उर्दू के पक्ष में कोई रणनीतिक कार्यवाही महसूस हुई हो तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए। और न आरम्भिक वर्षों में आन्दोलन के प्रति उनके ठण्डे रवैये पर। यकीनी तौर पर थोड़े अन्तरालोपरान्त वे बड़ी संख्या में आन्दोलन के साथ आये, उनकी भागीदारी से संगठन व आन्दोलन दोनों को अप्रतिम बल व विस्तार प्राप्त हुआ। अपनी शिनाख्त के प्रति संवेदनशील रहते हुए वे एक दूसरे के निकट आये फलरूप औपनिवेशक साम्राज्यवादः फासीवाद, युद्ध, सांप्रदायिकता,  धर्मोन्माद बंगाल के महादुर्भिक्ष के खि़लाफ़ तथा जनसंघर्षों के विविध अवसरों पर दोनों भाषाओं के रचनाकार साझे मंच पर दिखाई पड़े। फासीवादी युद्ध के विरूद्ध उर्दू-हिन्दी लेखकों का साझा बयान इस सिलसिले की महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में सामने आया। जो नया साहित्य में प्रकाशित हुआ।

अब इसको क्या कीजिए कि जिस प्रकार अनेक लब्ध प्रतिष्ठित रचनाकारों ने अन्तिम सांस तक प्रगतिशील आन्दोलन से अपनी सम्बद्धता को खण्डित नहीं होने दिया उसी प्रकार विडम्बनाओं ने भी इतिहास का साथ नहीं छोड़ा। देश  विभाजन से पूर्व यदि 1945 में उर्दू के प्रगतिशील लेखकों का सम्मेलन हैदराबाद में हो रहा था तो सन 47 में विभाजन के ठीक एक माह बाद हिन्दी के प्रगतिशील रचनाकारों का अधिवेशन साम्प्रदायिक तनाव के बीच इलाहाबाद में आयोजित हुआ। उसी इलाहाबाद में जहाँ प्रगतिशील लेखन आन्दोलन की नींव पड़ी थी, रमेश सिन्हा द्वारा लिखित जिसकी रिपोर्ट कम्युनिस्ट पार्टी के साप्ताहिक ‘‘जनयुग’’ तथा अन्य पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई। उसी अधिवेशन में उर्दू का एक नौजवान जोशीला शायर (अली सरदार जाफरी) उर्दू लेखकों के अकेले प्रतिनिधि के रूप में हिन्दी के प्रगतिशील लेखकों को समूचे सहयोग का आश्वासन देते हुए उनसे राष्ट्र भाषा के मुद्दे पर जल्द बाजी में कोई फैसला न लेने की मार्मिक अपील कर रहा था। अलग-अलग    अधिवेशनों का यह सिलसिला बाद में भी जारी रहा। दूसरे रूपों में भाषा विवाद भी जारी रहा। उत्तर प्रदेश में माहौल ज्यादा उत्तेजना पूर्ण था। कभी-कभी कटुता इतनी गहरी हुई कि एक ही संगठन के लोग भिन्न शिविरों में विभाजित होकर एक दूसरे के खिलाफ ताल ठोंकते नज़र आये। जिसका दुखद उदाहरण प्रलेस के स्वर्ण जयन्ती समारोह अप्रैल 1986 लखनऊ में देखने मे भी आया। गौरवपूर्ण इतिहास के पचहत्तरवें वर्ष का यथार्थ यह है कि प्रमुख रूप से कुछ उर्दू लेखकों द्वारा आरम्भ किये गये इस आन्दोलन में उर्दू रचनाकारों की भागीदारी लगातार कम होती गयी है। वैसे केन्द्रीय धारा के लेखकों एवम् महिला रचनाकारों की दूरी भी आन्दोलन से बढ़ी है।

भाषा के प्रश्न पर कम्युनिस्ट पार्टी छोड़ देने वाले राहुल सांकृत्यायन ने देश की तमाम जनपदीय बोलियों को जातीय भाषा मानते हुए उनके अपने-अपने प्रदेश बनाने का सुझाव रखा तो उर्दू के मुद्दे पर उनसे सहमति रखने वाले राम विलास शर्मा ने इस पर घोर आपत्ति की। विडम्बना यहाँ भी है। पचहत्तर वर्ष के पूर्णता काल में यह मुद्दा नया ताप ग्रहण कर रहा है। जनपदीय बोलियों की रक्षा और  अधिकार के प्रति संवेदनशीलता का विस्तार हुआ है। ज़ाहिर सी बात है ऐसे में प्रगतिशील लेखक संध को निश्चित दृष्टिकोण अपनाने की ज़रूरत पड़ सकती है।

जारी


IPTA Events in August 2013

2-14 August,Agra (U.P.)-
Nukkad Natak "Udghosh"

2 August,Jaipur (Rajasthan)-
Vivechana,Jabalpur's play "Dus Din ka Anshan"

4 August,Udaipur (Rajasthan)-
"Dus Din ka Anshan"

4 August,Patna (Bihar)-
6th Lalit Kishor Sinha Memorial Lecture"Rashtravad,Dharm aur Nagarik"

11 August,Thirukovilar (Tamil Nadu)-
Cultural Festival

12 August,Auraiya (U.P.)-
Shaheed Memorial March;Nukkad plays by Orai IPTA

22 August,Allapuzha (Kerala)-
Folklore Day

31 August-1 September,Delhi-
Delhi State IPTA Conference

Friday, July 26, 2013

वामन केंद्रे होंगे एनएसडी के नये निदेशक

नेशनल स्‍कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) के नए निदेशक के तौर पर प्रो. वामन केंद्रे का नाम तय होने की खबर है।वामन मुंबई विश्व विद्यालय के नाट्य व कला विभाग के प्रमुख तथा संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष भी रहे हैं।

रंगकर्म के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिये स्वयं राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय भी उन्हें पूर्व में मनोहर सिंह पुरस्कार से सम्मानित कर चुका है। महाराष्ट्र इप्टा से जुड़े वामन केंद्रे की पहचान एक ऐसे रंगकर्मी के रूप में है जिनके नाटक दर्शकों की नब्ज को थामे रहने के साथ सामाजिक सरोकारें से भी उतनी ही शिद्दत के साथ जुड़े होते हैं।


वामन कुछ दिनों पूर्व रायपुर में  "रंगकर्म व मीडिया" विषय पर आयोजित एक संगोष्ठी में भाग लेने आए थे, जिसमें उन्होंने रंगकर्म के अन्य विविध आयामों पर भी विस्तार से चर्चा की थी, जिसकी रपट आप इसी ब्लाग पर देख सकते हैं : http://iptanama.blogspot.in/2012/06/blog-post.html

Monday, July 22, 2013

अच्छा इंसान ही बन सकता है अच्छा कलाकार


भिलाई में आयोजित इप्टा के 13 वें राष्ट्रीय सम्मेलन में हंगल साहब अस्वस्थता के कारण नहीं आ सके थे, पर उन्होंने अपना रिकार्डेड संदेश जरूर भिजवाया था। उनका संदेश था: ‘‘हमें हिम्मत नहीं हारनी है। काम करते रहना है और बढ़ते रहना है, लेकिन खराब प्ले नहीं करना है, खराब गाने नहीं गाना है। लगातार नयी चीजों को, नये लोगों को लाना है।’’ वे कहते थे कि अच्छा कलाकार बनने का रास्ता, अच्छा इंसान बनने के रास्ते से  ही गुजरता है। उनके साथी कलाकार रमेश राजहंस, उनकी कुछ यादें साझा कर रहे हैं:  

यवंत दलवी के नाटक  सूर्यास्त का रियाज था। स्थान सांताक्रूज वेस्ट म्यूनिसिपल स्कूल का दूसरी मंजिल स्थित हाल। समय 6.30 बजे शाम। हंगल साहब गाँधीवादी स्वतंत्रता सेनानी के पिता की भूमिका करते थे और उनका बेटा चीफ मिनिस्टर की भूमिका। निर्देशक प्रेम श्रीवास्तव शुरु के शो के बाद कभी आते ही नहीं थे। नाटक के दूसरे अभिनेता भी अपनी-अपनी सुविधानुसार साढ़े सात-आठ बजे तक आते थे । लेकिन हंगल साहब ठीक 6.30 बजे हाजिर। वे समय के इतने पाबंद कि आप उनके आने से अपनी घड़ी मिला सकते थे। मैं उनसे थोड़ा पहले यानी छः - सवा छः बजे तक जरूर पहुँच जाता था । मैं उनका बहुत आदर करता था और वे मुझसे बहुत स्नेह करते थे। अतः मुझे ये अच्छा नहीं लगता था कि वे जब रियाज स्थल पर पहुँचे तो वहाँ कोई न हो। इसलिए मैं दफ्तर से निकल भागता हुआ आता था। कभी-कभी खीझ भी होती थी कि समय पर कोई नहीं आता है, फिर भी इतने सीनियर होते हुए भी वह रोज खामखाह समय पर आकर बैठ जाते हैं। एक दिन मैंने कह दिया - हंगल साहब आप क्यों इतनी जल्दी आ जाते हैं, जबकि आप जानते हैं कि साढे़ सात - आठ बजे से पहले दूसरे एक्टर आयेंगे नहीं। आप सीनियर हैं। आप की एंट्री भी बाद में होती है, तो खामखाह इतना पहले आने से क्या फायदा? उन्होंने मुझे घूर कर देखा, हँसे और कहा-‘‘ये आप मुझसे कह रहे हैं? औरों कि बुरी आदत के दबाव में मैं अपनी एक अच्छी आदत छोड़ दूं?

मैं अवाक! मुझे खुद पर शर्म भी आने लगी कि क्या बेहूदा सवाल मैंने उनसे पूछा। पर उसी समय मैंने यह भी तय कर लिया कि हंगल साहब की यह आदत आज से सदा-सदा के लिए मैं भी अपना लेता हूं । इसके बाद हंगल साहब ने एक वाकया सुनाया। वे जब 1949 में कराची से जेल से छूटने के बाद मुंबई आये थे, तो उन्हें चर्चगेट के पास के प्रसिद्ध टेलरिंग शॉप में कटर का जॉब 500 रुपये मासिक वेतन पर मिला, जहाँ वे सिर्फ सूट काटते थे। उस दुकान के ग्राहक मुंबई के नामी - गिरामी उद्योगपति, बैरिस्टर, फिल्म अभिनेता आदि हुआ करते थे । नौकरी में एक शर्त हंगल साहब ने यह रखी थी कि शाम को 5 बजे के बाद उनकी छुट्टी होनी चाहिए ताकि नाटक के रिहर्सल पर वे समय पर पहुँच सके।

Courtesy : hindustantimes


एक दिन एक पारसी महोदय, जो पूरी तरह पश्चिमी रंग-ढंग में ढले उद्योगपति थे, दुकाम में शाम 5 बजे पधारे। दुकान मालिक पशोपेश में  था। हंगल साहब ने बड़ी नम्रता से अंग्रेजी में उस भद्र पुरुष से कहा - ‘‘जेंट्लमैंन! आइ एम सॉरी, आइ शैल नाट बी एबल टू एटेंड यू  एज आइ हैव टू लीव द प्लेस इमेडिएटली, सो दैट आइ कैन एटेंड द रिहर्सल आफ द प्ले आन टाइम। इट विल नाट बी प्रापर टू कीप अदर एक्टर्स वेटिंग। आइ बेग योर पार्डन। प्लीज डू कम टूमारो, इट विल बी माइ प्लेजर टू एटेंड यू विद अनडिवाइडेड एटेंशन।’ उस व्यक्ति ने पहले बेहतरीन सूट में सजे-धजे जवान को गौर से देखा और फिर उसी रौ में उतनी ही भद्रता से मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘श्योर -श्योर. कैरी ऑन यंगमैन। आई शैल डू कम टूमारो टू बी मेजस्ड् बाइ ए वंडरफुल यंगमैन लाइक यू।’’ बाद में दोनों अच्छे परिचित हो गये। ....तो हंगल साहब का नाटक के प्रति लगाव और जुनून का यह आलम था। बाद में कई बार उन्हें इसकी वजह से नौकरी से हाथ धोना पड़ा।

हिन्दी फिल्म, रंगमंच के मशहूर अभिनेता ए.के. हंगल (पूरा नाम अवतार कृष्ण हंगल) ऐसे ही अपने बनाये उसूलों के अनोखे व्यक्तित्व थे, सदा हँसमुख, शालीन और शिष्ट, पर सचेत और चौकस। वे भीतर से बहुत गंभीर और विचारवान व्यक्ति थे, पर गंभीरता उनके चेहरे से हमेशा टपकती नहीं रहती थी। वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के केवल कार्ड होल्डर सदस्य ही नहीं थे, मार्क्सवाद के सिद्धांतो में उनकी अटूट आस्था थी और उन्हें अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में उतारने का भरपूर प्रयास करते रहे, अंतिम साँस तक। पर कभी दूसरों पर अपनी    विचारधारा थोपने या रोपने का प्रयास उन्होंने नही किया। गाहे-बगाहे मैं मजाक भी करता था, कम्युनिस्टों को इस दुनिया को बदलना है, अब आप ऐसे पैसिव रहेंगे, तो दुनिया कैसे बदलेगी सर!’ मेरा इशारा इप्टा के उन सदस्यों की ओर होता था जो अपने को गैर राजनैतिक घोषित करते थे और सिर्फ अपनी लाभ-हानि देखने में लगे रहते थे। वे हँसते हुए कहते थे- देखो जी घोडे़ को घास तक ले जाया जा सकता है पर जबरदस्ती खिलाया नहीं जा सकता... फिर रूस की पूरी जनता कम्युनिस्ट थोड़े ही है। उनका कहना था कि समाज में हमेशा अनेक तरह के विचार रहेंगे, सबको  साथ लेकर चलना होगा।

हंगल साहब उम्र के रिश्ते को नहीं मानने वाले थे, वे दिमागी रिश्तों में विश्वास करते थे। अगर आप दीन-दुनिया, समाज, राजनीति, व्यक्ति के अनूठेपन, थियेटर, सिनेमा, संगीत, कला आदि के सूक्ष्मदर्शी और पारखी हैं, तो हंगल साहब की आप से खूब जमती। कराची के जेल अनुभवों का वे पुरानी किस्सागो शैली में यूँ बयान करते थे कि चरित्र और माहौल आप की आँखो के सामने खड़ा हो जाता था। रूस, गोर्बाचोव, ग्लास्नोस्त और पेरेस्त्रोइका, चेकेलोवास्किया, पोलैंड, चीन, बंगाल और केरल सरकार की नीतियों और कार्यों पर हमारी कितनी गरमागरम बहसें और बातचीत हुई हैं, कह नहीं सकता। खुले दिल का इतना प्रतिबद्ध कलाकार मैंने दूसरा नहीं देखा।

आजादी के बाद इप्टा, मुंबई के प्रायः सभी ऊर्जावान कलाकार और कार्यकर्ता हिन्दी फिल्म उद्योग में चले गये थे। आजादी से पहले हिन्दी फिल्मों का मुख्य केंद्र लाहौर था। देश विभाजन के बाद लाहौर के फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों ने मुंबई को अपने कार्यक्षेत्र का केन्द्र बनाया। नये सिरे से उद्योग नयी जमीन में पाँव जमाने की कोशिश कर रहा था। समर्पित और प्रशिक्षित कलाकारों और तकनीशियनों की मांग थी, जिसकी पूर्ति सहज ही इप्टा के सदस्यों ने की और मुंबई इप्टा निष्क्रिय हो गयी।

1949 में ए.के. हंगल कराची से मुंबई अपनी पत्नी और एकमात्र पुत्र विजय हंगल के साथ आते हैं, सिर्फ बीस रुपये जेब में लिये। कराची के पुराने मित्र बंधुओं के सहयोग से जैसे ही दाल-रोटी का कुछ जुगाड़ बैठा तो वे मुंबई के कामरेडों, कम्युनिस्ट पार्टी आफिस और इप्टा के साथियों की खोज में सुर्खरू हो गये। तभी मुंबई इप्टा के रामाराव और आर.एम. सिंह उनकी खोज करते हुए एक दिन उस दुकान में हाजिर हुए जहाँ वे नौकरी में लगे थे। और इस तरह मुंबई इप्टा के पुनर्गठन का प्रयास इन तीनों की मुहिम से फिर से शुरु हो गया। तब से मृत्यु पर्यंत हंगल साहब मुंबई इप्टा के ‘फ्रेंड, फिलॉसफर और गाइड‘ बने रहे। कहा जा सकता है कि इप्टा मुंबई के पुनर्जागरण के वे पुरोधा थे।

यूँ तो हंगल साहब निर्देशक, अभिनेता और नाटककार थे। शुरु में उन्होंने कुछ एकांकी भी लिखे थे, पर मूलतः वे अभिनेता ही थे और अपनी अभिनय कला को उत्तरोत्तर विकसित करते हुए उस शीर्ष तक ले गये जहां कला और कलाकार एक हो जाता है। वे अपने को स्टानिस्लोवस्की पद्धति का अभिनेता कहते थे और स्टानिस्लोवस्की में उनकी अटूट श्रध्दा थी। वे नाटक और उसमें अपनी भूमिका का विश्लेषण और निरुपण बहुत  सावधानी और बारीकी से करते थे। वे इसके लिए मार्क्सवाद के वर्गीय दृष्टिकोण का इस्तेमाल करते थे। वे मानते थे कि मानव समाज कई वर्गों में बँटा हुआ है और हर वर्ग की भी कई परतें होती हैं, जिनका स्वार्थ आपस में टकराता रहता है और संघर्ष चलता रहता है। इसके अलावा मनुष्य ईर्ष्या द्वेष, राग-विराग, प्रेम, घृणा, क्रोध प्रतिशोध जैसी मानवीय कमजोरियों और दया, करुणा, सहानुभूति, सहयोग जैसी अपरिमित शक्तियों का भी पुँज है और इन दोनों का द्वंद्व उसके भीतर चलता रहता है। मनुष्य अपनी कमजोरियों पर विजय पाता हुआ ही ऊपर उठता है। वे अपनी भूमिकाओं के चरित्रों को इन्हीं तानों-बानों से बुनते थे।

साधारणतः अभिनेता अपने संवादों और अपने सह अभिनेताओं के संवादों के माध्यम से अपने चरित्रों का निर्धारण करते है। प्रतिक्रिया और अंतर्प्रतिक्रियाओं के अध्ययन और निरुपण पर वे गहरे नहीं उतरते। वर्षों से कई प्रकार की भूमिकाएँ करते हुए वे क्रिया- प्रतिक्रिया का एक सेट पैटर्न बना लेते हैं, जिसके जोड़-तोड़ से वे नयी भूमिकाओं का चरित्र गढ़ते रहते हैं। अगर वह थोड़ा भी निपुण और चतुर हुआ तोे अपने चरित्र निर्वाह को एक हद तक प्रभावशील भी बना ले जाता है, पर अधिकतर चरित्र को विश्वसनीय बनाने में असफल रहता है। हंगल यहीं बाजी मार -ले जाते थे। वे सामाजिक वर्ग चरित्रों के आधार पर धीरे-धीरे चरित्र के मन और संस्कार में उतरते थे और वहाँ  से उसकी व्यवहारगत क्रिया-प्रतिक्रिया लेकर आते थे और फिर उसे रिहर्सल के दौरान तय करते थे। एक्टिंग को वे 80 फीसदी मानसिक और 20 फीसदी शारीरिक काम मानते थे। वे शो के दौरान किसी प्रकार के इंप्रोवाइजेशन के खिलाफ थे। वे कहते थे कि इसमें सहयोगी अभिनेता के सामने मुश्किलें आती हैं। उसके ध्यान का तारतम्य टूटता है और उसके चरित्र से बाहर निकल जाने का खतरा उत्पन्न हो जाता है। शो के दौरान जो भी होना चाहिए, रियाज में की गयी तैयारी के मुताबिक ही होना चाहिए, नहीं तो नाटक के कथ्य का फोकस बदल अथवा बिखर जायेगा।

इप्टा का एक नाटक है ‘शतरंज के मोहरे’ जो पु.ल. देशपांडे के कालजयी नाटक ‘तुझा आहे तुझा पाशी’ का विजय बापट द्वारा तैयार हिन्दी पाठ है। रमेश तलवार इसके निर्देशक हैं। यह नाटक पारंपरिक हिंदू समाज के गुरुमुख अनुशासनबद्ध धार्मिक जीवन और पाश्चात्य  संस्कृति के संपर्क से आये स्वच्छंद, सहज और निर्बंध जीवन के मूल्यों की टकरावजन्य स्थितियों का जायजा लेता है। इसमें पारंपरिक हिंदू समाज का प्रतिनिधि आचार्य नामक पात्र है, जिसकी भूमिका आज से लगभग 25 वर्ष पहले हंगल साहब किया करते थे और पाश्चात्य संस्कृति के पोषक के प्रतिनिधि रिटायर्ड फारेस्ट आफिसर  की भूमिका मनमोहन  कृष्ण करते थे। यह भूमिका आरंभ से अंत तक एक जैसी, एक ही रंग की है, पर बहुत संपन्न है। लेकिन आचार्य की भूमिका में एक ट्विस्ट है। अंत में,  आचार्य आत्म-साक्षात्कार के क्षणों में अपने जीवन के कठोर अनुशासन के खोखलेपन को स्वीकार करते थे। वे कहते हैं कि वे तो सहज होना चाहते थे, पर समाज ने उन्हें यांत्रिक    कठोरबद्ध अनुशासन में रहने के लिए विवश किया, क्योंकि उसे वही  परंपराबद्ध रूप चाहिए। हंगल साहब ने आचार्य के इस जीवन मोड़ का जो बारीक निरूपण किया था, वह अद्वितीय है। उसमें पूर्णता थी यानी उससे बेहतर कुछ हो नहीं सकता। हँसता-खेलता नाटक अचानक इस तरह गंभीर और हृदय विदारक हो जाता था कि पूरे हॉल में सन्नाटा छा जाता था। कहीं कोई हिलता-डुलता नहीं था। सभी दर्शक अपनी सीट पर मूर्तिवत हो जाते थे।

इप्टा का एक और नाटक था ‘सैंया भये कोतवाल।’ ‘विच्छा माझी पूरी करऽ’ नाम से बसंत सवनीस का यह तमाशा लोकनाट्य शैली का नाटक है, जिसने मराठी मंच पर मिथकीय सफलता पायी है। इसके निर्देशक वामन केंद्रे का यह दूसरा नाटक था। उन्होंने हंगल साहब को मूर्ख राजा की भूमिका में कास्ट किया था। यह रोल हंगल साहब के फिल्मी और रंगमंचीय -दोनों की गंभीर छवियों के विरूद्ध था। पर हंगल साहब ने गंभीरता में ही मूर्खता का ऐसा कोण खोज निकाला कि दर्शक हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाता था।   हालांकि इस भूमिका को करने में हंगल साहब के गले पर बहुत स्ट्रेन पडता था, उनकी आवाज बैठ जाती थी, फिर भी वे इसे बहुत दिनों तक निबाहते रहे। इप्टा में उनके अन्य महत्वपूर्ण नाटक थे सूर्यास्त, होरी, आखिरी शमा, आखिरी सवाल आदि।

फिल्मों में उन्होंने लगभग 200 भूमिकाएँ कीं। लेकिन फिर भी फिल्म उद्योग का माहौल उनके लिए बेगाना ही रहा। वे उम्र के पचास पार कर चुके थे, जब फिल्म क्षेत्र में गये। अपने आत्म-स्वाभिमानी स्वाभाव के कारण वे अपने आप को बाजार में उस तरह पुश नहीं कर पाये, जिस तरह हीरो समेत सभी अभिनेताओं को करना पडता है। यह उनके अभिनय की उत्कृष्टता थी, जो उन्हें काम दिलाती रही। दुनिया उन्हें शोले में अंधे मुस्लिम मौलाना की भूमिका के लिये जानती है, लेकिन मैंने कोलकाता के एक बंगाली सरदार जी गुलबहार सिंह द्वारा बनायी गयी फिल्म ‘दत्तक’ देखी, जिसमें हंगल साहब ने एक ओल्डएज होम निवासी बूढ़े की भूमिका निबाही है।

फिल्म की कथा है कि एक नौजवान अपने माता-पिता को छोड़कर अमरिका अपने करियर की खोज में चला जाता है और तीस साल बाद लौटता है, अपने बच्चों के लिए दादा को लेने। ढढते हुए वह ओल्डएज होम पहुँचता है, जहां हंगल साहब, जो उसके मृत पिता के बगलवाले बिस्तर पर रहते थे, उसे मिलते हैं और बताते हैं कि उसका पिता उसे याद करते-करते किस तरह मर गया। नौजवान रो पड़ता है। उसे अपनी भूल का अहसास होता है। वह हंगल साहब से अनुरोध करता है कि वह उन्हें अपने पिता के रूप में गोद लेना चाहता है। यहाँ पर हंगल साहब की नफरत, अनिश्चितता और फिर स्वीकार में बदलते भावों की अभिव्यक्ति जो उनके चेहरे पर आती जाती है, वह सिर्फ हंगल साहब के ही वश की बात थी। अभिनय की उस उत्कृष्टता को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता, सिर्फ देखकर ही अनुभव किया जा सकता है।

हंगल साहब राष्ट्रीय इप्टा के अध्यक्ष थे। पिछली बार भिलाई राष्ट्रीय कांफ्रेस में वे फिर से अध्यक्ष चुने गये थे। उनके प्रति इप्टा के सदस्यों की जो श्रद्धा और आत्मीयता थी, वह विरले लोगों को ही प्राप्त होती है। आखिर उनकी इस लोकप्रियता का क्या राज था? हंगल साहब कहते थे-अच्छा कलाकार बनने का रास्ता अच्छा इंसान बनने के रास्ते से ही गुजरता है।




Condition of GPD is very critical.

Pune. G. P. Deshpande, Marathi playwright, also known as Gopu or GPD, who was hospitalised in Pune with a massive bleed in the brain on Monday 15th July, is still in the ICU in a deep coma. His condition is very critical. 

He has been under continuous treatment and close monitoring. The doctors have told to "wait and watch". The second and third, fourth opinions confirmed the treatment.

The doctors have also told  that there is no neurological activity in the brain.


G. P. Deshpande, Marathi playwright, was born in 1938 in Nasik, Maharashtra. He received the Maharashtra State Award for his collective work in 1977, and the Sangeet Natak Akademi Award for playwriting in 1996. Prof. Deshpande is known for advocating strong, progressive values not only through his academic writings but also through his creative work. His plays especially reflect upon the decline of progressive values in contemporary life. He is impressively persuasive. Having specialized in Chinese studies, he  headed the Centre of East Asian Studies, Jawaharlal Nehru University. The Library of Congress has acquired twelve of his books including a few on Chinese foreign policy. Some of his works have been translated into English.

Friday, July 19, 2013

Culture Ensures Unity and Stability of Society

Ranbir Singh, Working President, IPTA
-Ranbir Singh
Six hundred pages in 29 days, by Justice J.S.Verma and his colleagues is indeed laudable. But the report remains confined to the “ Amendments to Criminal Law”, as the titles suggests. One should consider the fact that the Code of Civil Procedure was enacted in 1859.The Penal Code was enacted in 1860 and came into operation on 1st January 1862. They were drafted and enacted by the colonial masters to rule over the slaves, whom they considered as dishonest. The inherent spirit of the colonial laws most unfortunately continues to rule the people of free India .The laws are most unsuitable and humiliating and they are the cause of the great suffering of the people at large. It would have been much better that when the constitution of free India was being drafted, at that time the laws and the Penal Code should have been drastically amended. Today these very laws are being exploited by the Courts, Panchayats, Police, the bureaucrats, and various other government departments, from top to bottom of the ladder. The benefit is being reaped by the rich who have who have given birth to various mafias, i.e land, buildings ,alcohol etc; and at the same time they have strengthened the custom of bribery and turned into an institution. 

The helpless poor are reeling under the pressure and are forced to become poorer.  J.S.Verma’s report has recommended various amendments in the criminal Laws, Police ,Elections ,and has also suggested some points for the empowerment of the women. They are most welcome. The recommendations have been made in keeping the law in mind. But the society and the way of life of each different communities are not governed by law, but by Culture. 

Law in fact should safeguard the cultural code of the society. How can it be hoped to have a strong, powerful , vibrant and living society, governed by the laws based on the evil and malicious intentions of the colonial masters whose main aim was to shred the closely knit fabric of the society, to sow the seeds of disunity and division among the different communities, to exploit the caste  and creed, to even use religion to disunite the people. It is unfortunate that even after having achieved independence we have not been able to get rid of the colonial hangover. The urgent need of the day is to decolonize our minds.

Culture is and has been the strong foundation of our society. But for the last 25/30 years we have systematically destroyed all cultural institutions .Our governments have relegated culture and degraded it and reduced it to the lowest priority. Probably because it does neither gives note, nor the vote. We have made a mockery of our folk traditions, and left the classical traditions uncared for. Our Films and theatre have become a piece of mere vulgar entertainment, and have lost the sense of social relevance, and the boldness to put the mirror in front of the people and force them to see themselves in their uncultured behavior. T.V. without knocking on doors has forced its entry to every home, rich or poor, and has in its most irresponsible manner, by its vulgar, unsocial serials have greatly damaged the cultured way of life of the families. The advertisements of various goods, and filming of the item songs which are almost blue films have completely destroyed the cultural values, human relations and rich old traditions.{ as I write this I have come to know  about the wise step of the government to ban the songs .Congratulations} T.V. itself is a product of the materialistic society and a participant in the rat race. The main aim being to make money. From the day one of the rape which took place in Delhi, almost all the T.V. channels are debating in many ways the several aspects of the rape. How was it committed? The responsibility of the driver, the callous behaviour of the public, the inaction of the passerby and the bystanders for not rending help, the various amendments suggested by the Verma Report, and whether the trial should take place in camera or in the open court. The debates never come to a legitimate conclusion. They are kept alive so that they continue on and on. The  politician ,social activists, and other intellectuals have never tried to suggest that how can a cultural environment may be created so that such wild, antisocial, criminal, heinous rapes to do take place at all. This is all done to raise their TRP. The law only comes in action after the rape or corruption has taken place. It is only culture which behaves as a speed breaker in one’s life. If the society at large is made aware of the cultural values , honesty, ethics, then there is some hope that these evils can be prevented. One should seriously debate as why rape, bribery, murder, theft is taking place today, and was not heard of in the olden times .Surely some thing drastically has happened which has given birth to all these uncultured behaviour.

Verma Report in its Preface has mentioned that , “Constitution of this Committee is in response to the country wide peaceful public outcry of civil society, led by the youth against the failure of governance to provide a safe and dignified environment for the women in India who are constantly exposed to sexual violence”. The report has recommended:

1. The equality of women being integral to the constitution its denial is a sacrilege and a constitutional violence.
2. Social activists involved in curbing this menace could assist the court in the performance of this task.
3. The apathy of civil society is evident from the inaction of passerby and bystanders who failed in the citizenship duty of rendering help to the victim of rape.

Apathy of the civil society, lack of knowledge of equality and respect of women as mentioned in the constitution, and the non assistance of the social activists are because of lack of culture, and can not be governed  by law. The majority of the people of India are absolutely ignorant about the content of the constitution as  it is not a part of the syllabus and is not taught in the schools. Few years back when a woman entered the train or the bus the men got up and respectfully and offered the seat to her. Today they rape her. Laws are the same they have not changed but the Culture has changed. It is also difficult to know whether the crowd  which gathers at Jantar Mantar and Ramlila ground is really genuine or it is managed by event managers. It is also important to know whether some of the self appointed representatives of the people are sponsored and financed by NGO’s and foreign foundations. Many of the times it is noticed that the crowd vanishes all of a sudden as if the problem has been solved. All kind of movements, whether they are cultural or political are sustained by the utmost dedication of the people. Never at any time the T.V.channels have discussed about culture and moral values. Most of the time they only sensationalize the issues to attract the public and thus make money.

Lack of or absence of culture creates vacuum in the society which is used by different mafias and the fundamentalist to their advantage. Rape, corruption, bad behavior, misuse of language, and other antisocial activities which are seen these days in fact are because of absence of culture in the daily life of people. If a person is cultured he will think twice before indulging in all these anti social or anti national activities which are harmful to the society. Culture in one’s life acts as the speed breaker. One always thinks before any action whether it will bring bad name to the family, community or to the society .But today in the materialistic society where every one is a participant in the rat race, has become so individual and selfish that he does not think about his family the society or the nation. He is running to reach the top of the ladder, but does not  realize that there are many who have reached there  and will push him down, as there the space is only for a few.

There is much talk about good governance and development. Development does not mean that rich become richer and poor become poorer. Good governance and development are inter- linked and both can not exist without taking culture into consideration. If there are tears in the eyes of the neighbor then one can not be happy. Development and good governance becomes meaning-less where the people at large live under constant threat to their lives. Where the people do not have the freedom to express their feelings in any form may be art or literature. Hitler did the same thing .At first he burnt thousands of books from the National Library in one night. The second step that he took was the mass massacre of the Jews, which was also the message to the rest to be careful and not to open their mouth and raise their head. He persecuted artists from film and theatre and intellectuals who fled from their country. It may be said that there was no solid proof that Hitler himself took part in the massacre. Nadir Shah sat on the Sunehari Masjid in Delhi and ordered massacre where thousands were killed. But there is no proof recorded that he himself committed the crime. The third step was the development in which mass manufacture of arms took place which resulted in the Second World War, which changed the face of the world .But Hitler had to commit suicide. 

According to Engels, the great cities are the most typical locations of capitalism. We can see this in all large cities of India today. Engels has explained it further that the unrestrained exploitation and completion appear in their most naked form. It is in large cities that there is a big gulf between the rich and the poor. He has expressed in  very strong words, that, “Every where barbarous indifference, hard selfishness on one side, unspeakable misery on the other, every social war, every man’s house a fortress, every where marauders who plunder under the protection of the law.” A very similar picture of the society of Kali Yug, which is the present age in which we are living, is mentioned in the Vayu Purana. It is said that, “Violence ,spite and untruth ,deceit or cheating ,murders of the ascetics, unrighteous, unmindful of the rules of conduct, fierce in anger and deficient in power and splendor. Living beings become rampart and passion and greed prevail all over.”(Vayu Purana Vol.1.p.385-6}.In the opinion of Engels, drunkenness, vice, crime and irrational spending is a social phenomenon is the creation of capitalism.” In the recent years we have sadly experienced this, where rape, murder and the various other evils and use of bad language and gross indiscipline is taking place all around us. It is because the present age is the age of mediocrity. Where reason. logic, knowledge, tolerance, ethics, respect of others, traditions, love and affections of one’s own and love of neighbours, and above all the national feeling does not exist any longer .The society has fallen into the trap of materialism, where greed ,selfishness ,individualism ,intolenrance, pushing others and going ahead in the rat race ,has left no time to the members to think about love and respect of others. They have no time to think and analyse, they are in a hurry to get rich and become famous .It is because of this that they become an easy victim and get exploited.

Happiness is the only object of society. But it can not be purchased by money. It can not be achieved by sitting at the feet of sadhus at a ashram .It can not be achieved by purchasing a diamond necklace at a jeweler shop. Happiness can not be had by possessing the “Large T.V. Screen Happiness” from India’s fastest growing electronic retail chain of reliance digital as advertised by them. Such advertisements of luxury cars, apartments ,villas, jewelry,  humiliates the poor and incite him to possess them for short lived happiness. As he does not have the purchasing power he acquires them by any means.  He behaves in this manner because he does not have the cultural ethos which may stop him for doing so. Eric Hobsbawn speaks about the market fundamentalism in these words, “Given the prominence of market fundamentalism it has also generated extreme economic inequality within countries and between regions and brought back the element of catastrophe to the basis cyclical rhythm of capitalist economy, including what became its most serious global crisis since the1930.” The danger of marketing fundamentalism has engulfed our society. While planning development we did not take into consideration of the needs and the aspirations of the society.

The article 22 of the Universal Declaration of Human Rights of 1948 clearly states, that ,”everyone as a member of society is entitled to realization through national effort and international cooperation and the accordance with the organization and resources of each State to the economic, social ,rights indispensible for his dignity and the free development of his personality.”

Let us ask ourselves, have we given these economic, social and cultural rights to the people of India. We have created economic inequality , social hierarchy, and have completely destroyed  the culture. Law can protect them but not provide them .One may ask, then  who is responsible for giving the people their economic, social and cultural rights; who can give them dignity ,identity ,and self determination to rebuild their culture, which has been disparaged in recent years. Whose responsibility it is to give the modern vision so that the people can stand shoulder to shoulder with head held high ,and see eye to eye with the people from other countries .Whose responsibility it is to prepare to give them the ability to analyse, to strengthen their culture roots, so that they are able to protect their culture from urbanization, industrialisation, vulgarization, and the onslaught of the neo-imperialists ,fascists and fundamentalists. Whose responsibility it is to eradicate the economic, social and cultural inequalities among the vast number of people, and instill  them the idea of religious and cultural tolerance, love and respect of each other, the unity in diversity and above all the feeling of nationalism. Some political leaders have succeeded in developing their own personality but have failed to give fundamental rights to the people.  At the same time there are others who are bent upon destroying the history in the name of culture and teach disparity.

Culture is woven into the fabric of society and its social system. The Ganga-Jamani culture or the composite culture withstood with us in all phases of change. It was the strong foundation of the society. In the last few years, the Ganga-Jamani culture as a political conspiracy, even today , is attacked by many fundamentalist forces from different directions. Culture has fallen into the hands who have commercialized it. As culture was not allowed to penetrate to the grass-root  the changes that were shaping were over looked, and today they have metamorphosised and have become a source of danger to the society and to the Nation. Chaos was allowed to grow and spread.

The need of the hour is to take culture seriously. Culture must be given higher priority in the planning by Government. I wonder if there is any expert on culture in the planning commission. Culture should not be taken as mere entertainment. Culture is the integral part of society and it should be fully realized that culture has no existence whatsoever if it has no social context. It is through culture that social and fundamental rights are given to the members of the society. It is the cultural awareness which imparts the social responsibility to the individual members of the society. Any society without cultural values can not make any progress, it will create social imbalances ,chaos and irresponsible behaviour in daily life .Mathew Arnold has  said, that, “Cultural is the most resolute enemy of anarchy” therefore it must be used as a protection as ‘surakhsha kawach’, of society, so that any kind of evil effects ,thoughts, actions are unable to penetrate into it. Above all culture must be used as a weapon for social changes and for the betterment of society which then is strong enough to strengthen the roots of Nationhood. 

Amendments in colonial laws is most welcome , but it is culture which will give balance, good behaviour, love and affection to all, respect of womanhood, tolerance ,stability and unity in diversity. In the words of Socrates “I can not teach anybody anything, I can only make them think.”


                                                                                                

Wednesday, July 17, 2013

कोई ताजा हवा चली है अभी

पूर्वाभ्यास देखते प्रतिभागी
जिस तरह वास्को डिगामा के आने से बहुत पहले भी भारत था और अपनी जगह पर ही था, उसी तरह रंगमंच के ठीक नीचे वह कुँआ अपनी संपूर्ण गहराई व डरावने कालेपन के साथ मौजूद था। फर्क इतना है कि फारुख भाई के इस बाड़े में, जहाँ शादी-ब्याह की बुकिंग न होने पर इप्टा के नाटकों की रिहर्सल हम उनकी मेहरबानी से कर लेते हैं, कुँए के ऊपर हमेशा एक सीढ़ी रखी होती थी, जिससे मंचारूढ़ हुआ जा सके। इस विचित्र संयोग का नोटिस पहली बार पुंज ने लिया जब कुँए के ऊपर की सीढ़ी गायब थी और अचानक एक यक्ष-प्रश्न आ खड़ा हुआ कि मंच के ऐन नीचे कुँए के होने के अभिप्राय क्या है? इस एक प्रश्न के कई उत्तर हो सकते थे, मसलन - नाटक बुरी तरह से पिट जाये और निर्देशक को जनाजे के उठने व मजार के होने की रुसवाई से बचने के लिये गर्के-दरिया होने का ख्याल आए तो कहीं और जाने की जेहमत न उठानी पड़े। या फिर बहुत खराब अभिनय करता हुआ अभिनेता टमाटर वगैरह की बौछार से बचने के लिये इस कुँए में छलांग लगाने की सुविधा का लाभ उठा सके। या फिर शादी-ब्याह के मौके पर अपनी उर्दू शायरी का पारंपरिक नाकाम आशिक लकदक मंच पर अपनी माशूका को गैर के पहलू में जलवा-अफरोज देखकर जालिम जमाने के समक्ष उसे अपना आखिरी सलाम बजा सके। मंच तले कुँए की इस अद्वितीयता, ऐतिहासिकता व प्रांसगिकता पर और भी कई कयास लगाये जा सकते थे, पर सच्चे अर्थो में यह संयोग हमारी अपनी रंगमंडली की आत्मा में कहीं गहरे तक उग आये अवसाद को अभिव्यक्त करता मालूम होता था, जिसकी झोली में सक्रिय रंगकर्म के कुछ बहुत अच्छे दिन देखने के बाद अब कलाकारों के अभाव में खाली व सूनी रिहर्सलों के अलावा कुछ बाकी नहीं रह गया था। यह अवसाद भी उतना ही गहरा, काला व सूना था, जिसे दूर करने के लिहाज से पुंज को एक थियेटर वर्कशाप के लिये आमंत्रित किया गया था।

देश के दूसरे कस्बों की तरह डोंगरगढ़ भी छत्तीसगढ़ एक वैसा ही कस्बा है जहाँ बच्चे पढ़ने के लिये पब्लिक स्कूल जाते हैं (आखिरी प्रतिष्ठित हिंदी विद्यालय को हाल ही में बंद कर दिया गया है), नवयुवक केवल क्रिकेट में रुचि रखते हैं और मैच देखने के अलावा ‘शहीद भगत सिंह स्मृति पेप्सी कप क्रिकेट प्रतियोगिता’’ का आयोजन करते हैं, महिलायें टीवी में सास-बहू के पारंपरिक प्यार भरे षड़यंत्र देखती हैं और पुरुष बगैर काम-धाम के या इससे निपट जाने के बाद चौराहों पर अड्डा मारकर यहाँ-वहाँ की गप भिड़ाते हैं। मोटे तौर पर कस्बे की दिनचर्या यही है। नगर की अर्थव्यवस्था मुख्यतः एक मंदिर पर आश्रित है, जिसने इस उत्तर आधुनिक युग में -जिसमें भोगवाद और बाबावाद का विस्तार एक साथ हो रहा है - उद्योग का दर्जा हासिल कर लिया है। बहुत सारे लोगों की आजीविका इस उद्योग व इसी उद्योग पर आश्रित अन्य लघु उद्योगों के सहारे फल-फूल रही है और नगर का सीना धार्मिक नगरी होने के छद्म गौरव के साथ जबरन फूला रहता है। इस तरह के कस्बे में रामलीला जैसे आयोजनों की प्रासंगिकता तो समझ में आती है, सामाजिक- सरोकारों वाले रंगकर्म की भला क्या पृष्ठभूमि हो सकती है?

रंगकर्म हेतु खाद-पानी तैयार करने के लिये थोड़ी बहुत उर्वर पृष्ठभूमि तो यहाँ की रही ही है। एक जमाने में यहाँ कोयले से चलने वाले इंजिनों का एक बड़ा-सा शेड था और रात-दिन रेल मजदूर रेल की छुक-छुक के साथ लय-ताल मिलाते हुए अपने जीवन को भी गतिमान बनाये रखते थे। ढोलक बनाने वालों का एक मोहल्ला आज भी है और इसमें काम करने वालों परिवारों की अच्छी खासी तादाद भी थी, जो नये दौर में सिमट कर रह गयी। तब दूर -दूर से लोक-कलाकार यहाँ के बने ढोलक खरीदने के लिये आते थे और पुराने लोग बताते हैं कि रात के समय रेल के इंजिन की सीटी के सुरों के साथ ढोलक की ताल से मस्त समाँ बँधता था। बाँस से बनने वाले हस्तशिल्प व विविध सामान बनाने वालों का मोहल्ला आज भी है, जिसमें कोई 200 परिवार काम करते हैं। 80 के दशक के पूर्वार्द्ध तक रेल मजदूरों का बोलबाला था और जाहिर है कि मजदूर थे तो मजदूर आंदोलन भी रहा होगा। कहते हैं कि 74 की रेल हड़ताल में यहाँ का जिक्र बीबीसी लंदन से प्रमुखता के साथ होता था। हड़ताल के कारण व हड़ताल के बाद आपातकाल में बहुत सारे मजदूर नेताओं को जेल की हवा खानी पड़ी। इसके बाद 1981 की एकमात्र रेल हड़ताल में यहाँ के मजदूर नेता कामरेड आनंद राव को रेलवे ने नौकरी से बर्खास्त कर दिया और वे राम के वनवास की तरह 14 साल तक नौकरी से बाहर रहे। ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे लेकिन गजब का भाषण देते थे,पर उनकी चर्चा फिर कभी। एक और नेता थे चुन्नीलाल डोंगरे, जिन्हें संयोग से रंगकर्म की ‘बुरी’ आदत थी। कोढ़ में खाज यह कि मशहूर रंगकर्मी हबीब तनवीर उनके परममित्र थे और तनवीर साहब किसी न किसी बहाने पहाड़ियों व जंगलों से घिरे इस कस्बे में आ धमकते थे। उन दिनों नर्म व लजीज गोश्त वाली बटेरें - जिनके बारे में कहा जाता कि वे अंधों के हाथ लगती हैं- इस नगरी में आँख वाले अँधों की बहुतायत की वजह से आसानी से मिल जाया करती थी। डोंगरे जी हबीब साहब की खिदमत में तंदूरी चिकन या बटेर के साथ बाँसुरी व सितार की बेहद मीठी व रसीली धुनें पेश किया करते थे, जो हबीब साहब के बार-बार यहाँ खिंचे चले आने का सबब होता था। अब न हबीब साहब हैं, न डोंगरे जी है न डोंगरे जी का सितार है। नगर में विकास की आंधी चली तो बुलडोजर ने डोंगरे जी के उस सितार को भी अपने चपेट में ले लिया, जिसकी धुन बेहद मीठी व रसीली हुआ करती थी और अब जब उस मकान के मलबे के पास से गुजरना होता है तो कभी-कभी मेरे कानों में बहुत दूर बजते हुए एक सितार की दर्द भरी धुन सुनाई पड़ती है, जिसमें चीख भरी कराह के तीव्र स्वर बेहद सलीके के साथ पिरोये हुए लगते हैं। 

क्या इतनी संगीतमय पृष्ठभूमि जनता के रंगकर्म के लिये पर्याप्त नहीं है? लब्बो-लुआब यह की इन्हीं डोंगरे जी ने इस कस्बे में इप्टा की नींव रखी, जो कभी तेज व कभी मंद गति से -लेकिन नियमित रूप से -अपनी रंगयात्रा जारी रखे हुए है। दीगर नाटक मंडलियों की तरह यह मंडली भी कलाकारों के अभाव की चुनौती झेल रही है। कस्बाई रंगकर्म के अपने फायदे व नुकसान होते हैं। फायदा यह कि छोटे कस्बे की बुनावट में आपसी संबंध बेहद प्रगाढ़ व जीवंत होते हैं और ये संबंध रंगकर्म के लिये आवश्यक संसाधन - यहाँ तक कि दर्शक जुटाने में भी -बेहद मददगार साबित होते हैं। सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि अभिनय के लिये महिला पात्रों का स्थायी रूप से अभाव बना रहता है और कभी-कभी प्रस्तुति के लिये जबरन चरित्र का या पात्र का ही लिंग परिवर्तन करना पड़ता है। एक और नुक्सान यह कि पढ़े-लिखे, थोड़ी अच्छी आर्थिक पृष्ठभूमि वाले और बहुत थोड़ी-सी प्रतिबद्वता वाले कलाकर बमुश्किल मिल पाते हैं। जो कलाकार मंडली से जुड़ते हैं उन्हें साफ तौर पर यह पता नहीं होता कि वे यहाँ किसलिये आये हैं। दो -चार प्रदर्शनों के बाद ही उनका मोहभंग शुरू हो जाता है, क्योंकि कोई माली लाभ यहाँ पर होता नहीं है और वे रिहर्सल से कन्नी काटने लगते हैं। मजे की बात यह कि प्रदर्शन में मिली वाहवाही कहीं न कहीं, मस्तिष्क के किसी कोने में मौजूद रहती है और वे साफतौर पर यह भी नहीं कहते कि वे नाटकों से किनारा कर रहे हैं। इस तरह न तो वे स्वयं आ पाते है और न ही किसी और के आने के लिये रास्ता तैयार करते हैं। कुछ इसी तरह की चुनौतियों से निपटने के लिये स्थानीय मंडली ने नये कलाकारों की तलाश में प्रतिवर्ष बाल नाट्य कार्यशाला के संचालन का निर्णय लिया, जिसके लिये इस बार की गर्मियों में दस्तक नाट्य समूह, रांची के निर्देशक, अभिनेता और लेखक पुंजप्रकाश को आमंत्रित किया गया।

कार्यशाला के प्रतिभागी
‘‘चंदन का लगाना है मुफीद दर्दे-सर के वास्ते/मगर इसका घिसना और लगाना भी दर्दे-सर है’’ की तर्ज पर बाल नाट्य कार्यशाला के संचालन में आनंद भी है और पीड़ा भी। सबसे ज्यादा पीड़ा तब होती है जब चार से चौदह साल के बच्चे चौवन की मात्रा में एकत्र हो जायें और नाटक में अपने लिये प्रमुख भूमिका की मांग करें। फिर कुछ कहने और कई डेसिबल शोर को शांत करने के लिसे अपने फेफड़ों के साथ जबरदस्ती करना और इस बीच उन बच्चों को पुनः ढूंढकर लाना जो अचानक क्लास से गोल मारकर जामुन तोड़ने पहुँच गये हों। उमस भरी गर्मी में बच्चों के साथ थियेटर गेम्स में भाग लेना और भारी बारिश में भी उनका नागा किये बगैर सुबह-सुबह ही कार्यशाला में आ धमकना; वर्कशाप के बाद चौराहे पर क्रिकेट खेलते हुए कुछ छँटे हुए शरारती बच्चों का ‘गुरूजी कमीना’ कहना और फिर यह कैफियत देना कि ‘सर आपको नहीं कहा, ऐसा एक जगह स्क्रिप्ट में लिखा हुआ है’; जवाब में पुंज का मुस्कुराते हुए यह कहना कि ‘‘थोड़े बदमाश बच्चे ही आगे चलकर थियेटर के लिये उपयोगी साबित होते हैं; ये सारी गतिविधियां इस बार की कार्यशाला के ‘हासिले-गजल’ शेर की तरह हैं, जिन्हें भुलाना बहुत मुश्किल है।

बाल नाट्य कार्यशाला के प्रारूप का निर्धारण करते समय ही यह तय किया गया था कि कार्यशाला प्रस्तुति परक होगी और समापन समारोह में नाटकों का प्रदर्शन किया जायेगा। अल्पावधि की प्रस्तुति-परक कार्यशाला प्रशिक्षण के लिहाज से बहुत उपयोगी नहीं होती हैं क्योंकि जल्द ही प्रदर्शन का दबाव सामने आ जाता है और इससे प्रशिक्षण की सहज-स्वाभाविक प्रक्रिया बाधित होती है। लेकिन यह दौर उपभोक्तावाद का है, जहाँ हरेक की रुचि प्रोडक्ट में होती है। माता-पिता भले ही 15 दिनों के लिये बच्चे को कार्यशाला में भेजें, अपेक्षा यह करते हैं कि कुछ परिणाम सामने आये और परिणाम भी बारीक नहीं बल्कि इतना मूर्त व स्थूल हो कि साफतौर पर दिखाई पड़े। कुछ माहौल तो बच्चों का बचपना छीनने वाले टीवी सीरियलों ने भी बनाया हुआ है और अभिभावकों की एक ढँकी-छुपी आंकाक्षा यह भी होती है कि उनका बच्चा चंद दिनों के प्रशिक्षण से टीवी के रुपहले पर्दे पर पहुँच जाये। कुछ अभिभावकों ने बातचीत के दौरान इस तथ्य को स्वीकार भी किया। कभी -कभी अभिभावकों की इस सोच के साथ बाहर से बुलाये गये प्रशिक्षक की प्रशिक्षण पद्धति में तालमेल बिठाने में कार्यशाला आयोजकों के पसीने छूट जाते हैं, लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ तो इसका थोड़ा-बहुत श्रेय पुंजप्रकाश को दिया जा सकता है, जो बहुत ‘को-ऑपरेटिव’ थे और पहले ही दिन लंबी यात्रा की थकान के बाद भी महज आधी प्याली चाय के एवज में सीधे बच्चों के बीच जाकर कूद-फांद के काम में लग गये।

शुरुआती दो-तीन दिनों को छोड़कर, मोटे तौर पर कार्यशाला को तीन कालखण्डों में विभाजित किया गया था। पहले कालखण्ड में स्थानीय मंडली के संगीत निर्देशक मनोज गुप्ता बच्चों को स्वराभ्यास के साथ जनगीत के गायन का प्रशिक्षण देते थे। एकाध गीत की तैयारी के दौरान ही यह मालूम हो गया कि चीजों को पकड़ने की क्षमता बच्चों में अद्भुत है और वे जल्द ही प्रस्तुति के लिये तैयार हो जायेंगे। कुछ बेसुरों की शिनाख्त भी हुई, जिन्हें आहत किये बगैर अंतिम प्रस्तुति में कौशल के साथ बाहर रखा गया। शांत व सौम्य हृदयेश यादव इस काम में ढोलक में मनोज गुप्ता का साथ दे रहे थे, जिनकी अपनी तीन बच्चियां इस कार्यशाला की प्रतिभागी थीं। दूसरे कालखण्ड में पुंजप्रकाश बच्चों को विविध थियेटर गेम्स का अभ्यास कराते थे। अंतिम कालखण्ड में प्रतिभागियों को तीन हिस्सों में बॉट दिया गया था और इन तीन समूहों की जिम्मेदारी अलग-अलग सौंप दी गयी थी।

"इत्यादि" के मंचन का एक दृश्य
पहला समूह बहुत कम उम्र के बच्चों का था, जिन्हें प्रशिक्षित करने का सबसे कठिन दायित्व रायगढ़ इप्टा की अपर्णा को सौंपा गया, जो बच्चों के साथ काम करने के लिये थियेटर के प्रति अपने जुनून के कारण स्वतःस्फूर्त यहाँ आई थीं। एक मकसद एनएसडी की पृष्ठभूमि वाले निर्देशक के साथ कुछ सीखना भी था, पर पुंजप्रकाश इस मामले में बहुत गंभीर दिखाई नहीं दिये। दूसरा समूह बालिकाओं का था, जिन्हें लेकर एक प्रायोगिक प्रस्तुति की जानी थी। प्रस्तुति के लिये राजेश जोशी की कविता ‘इत्यादि’ का चयन किया गया और निर्देशन की जिम्मेदारी पुंजप्रकाश की थी। तीसरे व सबसे बड़े समूह के साथ ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ तैयार करने का निर्णय लिया गया, क्योंकि इस नाटक में ज्यादा से ज्यादा पात्रों को खपाया जा सकता था। स्थानीय निर्देशक राधेश्याम तराने व पुंजप्रकाश ने मिल -जुलकर यह कठिन काम किया जहाँ निर्देशन से ज्यादा मेहनत अतिरिक्त ऊर्जावान बच्चों को शांत व संयत रखने की थी। एक ऐसी मंडली के संचालक के रूप में, जो बहुत समय से कलाकारों के अभाव का दंश झेल रही हो, मेरे लिये यह देखना अत्यंत सुखद था कि कुछ बड़ी उम्र के बच्चे बेहद लगन व उत्साह के साथ नाट्याभ्यास में लगे हुए हैं- इस आश्वासन के साथ कि वे प्रमुख मंडली में भी लगातार काम करते रहेंगे। 

अब यह बताने में मेरी कोई खास दिलचस्पी नहीं है कि भारी बारिश और भारत-पाकिस्तान के क्रिकेट मैच के बावजूद समापन समारोह ठीक-ठाक रहा। अतिथि के रूप में भिलाई इप्टा के राजेश श्रीवास्तव व मणिमय मुखर्जी तथा इंदिरा कला व संगीत विश्वविद्यालय में नाट्य विभाग के प्राध्यापक योगेन्द्र चौबे को बुलाया गया था। योगेन्द्र एनएसडी में पुंजप्रकाश के सीनियर थे और लगता है कि काफी दिनों बाद मिले थे, इसलिये चाय-काफी का एक दौर हो जाने के बाद भी देर तक बतियाते हुए नींद में खलल डालते रहे। हालांकि एक सफल आयोजन की खुशी में बतौर आयोजक नींद वैसे भी कहाँ आने वाली थी, पर पता नहीं क्यों कभी उचटती और कभी लगती नींदों के बीच एक गहरे-काले कुँए के पानी में लहर-सी उठती थी!

- दिनेश चौधरी 

Tuesday, July 16, 2013

वह शाम आज भी साथ है

कैलाश वाजपेयी
-कैलाश वाजपेयी

पंडित नरेंद्र शर्मा का घर बांद्रा स्थित हमारे आवास वाटर फील्ड रोड से ज्यादा दूर नहीं था।चाहिए तो यह था कि हम 594 परितोष प्लाजा, खार में बने उनके घर सबसे पहले पहुंचते।मगर हमें लगा कि उनके विषय में अधूरी जानकारी के साथ जाना अशोभन होगा। इसलिएटाइम्स के दफ्तर में ही हम अपने मित्रों से नरेंद्रजी के विषय में प्रश्न किया करते थे। नरेंद्र जीउन्नीसवीं सदी के चौथे दशक में ही मुंबई आ गए थे। बॉम्बे टॉकीज की अधिष्ठार्थी देविकारानी ने युसुफ खान नाम वाले किसी पठान युवा को अपनी फिल्म ‘ज्वार-भाटा’ का नायकबनाने की बात जब सोची तो उन्होंने पंडित नरेश शर्मा से पूछा, ′इस युवक को किस फिल्मीनाम के साथ परदे पर उतारा जाए।′ पंडित नरेंद्र शर्मा ने उन्हें शायद ‘वासुदेव’ के साथ‘दिलीप कुमार’ नाम सुझाया।

देविका रानी को दिलीप कुमार नाम जंच गया और इस तरह युसुफ मियां दिलीप कुमार केनाम से ‘ज्वार-भाटा’ फिल्म के नायक बनकर रुपहले परदे पर आए। चालीस के दशक मेंउनका गीत ‘नैया को खेवैया के किया हमने हवाले’ ′ज्वारा भाटा′ के साथ खासा लोकप्रियहुआ था। अस्तु नरेंद्रजी के यहां जाने के पहले हम यह बता दें कि शोध के दिनों में हम नरेंद्रशर्मा के ‘प्रवासी के गीत’, ‘पलाशवन’, ‘हंसमाला’ आदि रचना संग्रह पढ़ चुके थे। उस युग केअन्य कवियों ‘बच्चन’, ‘अंचल’ और भगवती चरण वर्मा आदि उत्तर छायावादी कवियों कीतुलना में हमें नरेंद्र शर्मा पहले भी अधिक नयशील लगे थे। उनके द्वारा सन 1957 में शुरूकिए गए विविध भारती रेडियो कार्यक्रम की छाप भी हमारे मन में थी। चलने से पहले यहसोचकर कि प्रश्नोत्तर की नौबत अगर आई तो कुछ कोरे कागज साथ लिए जाना बेहतर होगा,तो बाकायदा एक नोटबुक भी साथ ले ली। नरेंद्रजी ने मुस्कुराते हुए पास बैठने को कहा, फिरआई चाय और गुजराती ढोकला, जिसे शायद उनकी धर्मपत्नी ने घर पर ही बनाया था। बातेंशुरू हुईं। हमने सकुचाते हुए पूछा, ′आपने जब लिखना शुरू किया, तब तक प्रगतिशील आंदोलन शुरू हो चुका था। सभी रचनाकार मार्क्स की विचारधारा से प्रभावित होकर नए ढंगकी रचनाएं लिखना शुरू कर चुके थे। स्वयं पंत जी ने अपने नए संग्रह को ‘ग्राम्या′ नाम दियाथा। तब फिर आप गीत की नितांत व्यक्तिनिष्ठ सीमारेखा पारकर, प्रगतिशीलता की ओरउन्मुख क्यों नहीं हुए?′
पं. नरेन्द्र शर्मा


नरेंद्र जी ने संयत शब्दों में स्पष्टीकरण कुछ यों दिया। ′मार्क्स का दर्शन सचमुच नया औरअकाट्य है। मार्क्स स्वयं महापुरुष योग में पैदा हुआ था। इसलिए वह तमाम खंडन-मंडन केबावजूद इतिहास में अमर रहेगा। मैं स्वयं उस कवि को प्रगतिशीलता के उतना ही निकटमानता हूं, जो वस्तु स्थिति और उसकी छाया में अकुलाने वाली इकाई की सक्रिय सामर्थ्यऔर सीमाओं तथा वस्तुस्थिति और इकाई के घात प्रतिघातपूर्ण पारस्परिक संबंध औरतदजनित गतिशीलता के नियम को जितना अधिक समझता है और व्यावहारिक जीवन मेंउतारता है। उसकी तथ्य ग्राहकता, प्रगतिशीलता की पहली सीढ़ी है। रही मेरी बात, मैं तोइलाहाबाद विश्वविद्यालय के दिनों से ही मानता आया हूं कि कविता और संवेदना के बीचनाभिनाल का संबंध है। अगर कोई सिद्धांत विशेष के खांचे में मनोवेगों का द्रव्य डालेगा तोउसका फलागम क्वाथ होगा, कविता नहीं।′ हमारे इसरार करने पर नरेंद्र जी ने उदाहरण देतेहुए खुलासा किया जब तक आदमी को आग का पता नहीं था वह कच्चा मांस खाता था। जबउसे आग पैदा करने की युक्ति आ गई तब वह पाक कला की ओर बढ़ा। गुफाओं की जगह ईंटोंके घर में रहने लगा। यह सब प्रगति उसने विचारधारा का फलसफा पढ़कर नहीं की। हमनेडरते-डरते कहा, नरेंद्रजी हमें तो मार्क्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद सर्वाधिक अकाट्य औरभरोसेमंद लगता है, नरेंद्र जी तपक कर बोले- ‘अकाट्य तो कणाद का दर्शन भी नहीं है, बौद्धोंका अपोहवाद भी नहीं है। विचारों के इतिहास में जिस तरह कपिल, उदयन, नागार्जुन औरअसंग रह गए, मार्क्स भी रहेगा।′ इसके बाद नरेंद्र जी ने पूछा, ′तुमने वैदिक साहित्य पढ़ा? ′अगर नहीं तो जाओ जाकर पढ़ो- ऋग्वेद-जिसमें दो उपनिषद अनुस्यूत हैं पढ़ो,अथर्ववेद-जिसमें उनतालीस उपनिषद अनुस्यूत हैं पढ़ो, सामवेद-जिसमें छांदोग्य और केनउपनिषद अनुस्यूत हैं पढ़ो, शुक्ल यजुर्वेद-जिसमें वृहदाराण्यक और ईशोपनिषद अनुस्यूत हैंपढ़ो।, उस शाम पंडित नरेंद्र शर्मा से अपना जो संबंध बना, वह दिल्ली आकर भी तब तकबना रहा जब तक हमें विजिटिंग प्रोफेसर बना कर सरकार न मैक्सिको नहीं भेज दिया।उनके जन्मशती वर्ष पर हमारा उन्हें नमन।

मुंबई में एक शाम पंडित नरेंद्र शर्मा से जो संबंध बना, वह दिल्ली आकर भी बना रहा। पंडितनरेंद्र शर्मा मृदुभाषी मनीषी थे। गृहस्थ किस्म से संन्यासी। उन्होंने हमें सही मोड़ पर सहीजीवन की शैली दी। उनके जन्मशती वर्ष पर हमारा उन्हें नमन!

अमर उजाला से साभार

Monday, July 15, 2013

BEWARE OF THE AVALANCHE OF FASCISM

-Ranbir Singh
The writing on the wall is very clear .One has to read it carefully, analyse it , understand it absolutely and act promptly and bravely. It has become very clear that RSS is the supreme master, the big boss. The ministers and other leaders are but the pawn of the political chess board. A definite shift is seen in the relation between RSS and BJP, for which they have been waiting for nearly an era. Those who wore the mask of mild soft spoken so called gentleness have been brutally side lined. Those hard liners who have been  systematically trained to spill blood have emerged. They have been taught the idealogy of “ to die for the Father land, for the  idea. No, that is a cop out. Even at the front killing is the thing. Dying is nothing. It is non existence. Nobody can imagine his own death. Killing is the thing.”{Eric Hobsbawn: The Age of Extremes: ch;4; p.109} These hard core RSS workers have been told in clear words “that the frontiers have to be crossed. That is the concrete act of your will.
For nearly a century they have been trying to bring the world under the umbrella of Hindu Vishwa Rashtra. Now RSS feels that it has the right man who can deliver the goods .Hindutav is nothing else but a step towards Hindu Rashtra. Where the Muslims and other minorities will be treated in the same manner as the Jews were treated by Hitler. These  people abhor the word secular. Although one spokesman of BJP in the national channel of T.V. said that Hindutav is secular ,and blamed congress of communalizing  politics .One would like to ask whether Hindutav as it sound is only meant for the Hindus or all the other communities, Muslims, Jains, Budhists, Christians,Parsis,Sikhs etc who reside in India. I do not want to use the word secular as it has changed meaning. Some have even called it as sickular. I am asking whether BJP/RSS are for the Ganga –Jamani culture, in which every different communities are free to practice their religion, their rituals, their way of life, without any interference, or the society which under Ganga Jamani or composite culture is today closely knit will be  shred into fragments and only the saffaron thread will remain and all other green, red, blue, white will be thrown away.
It is very alarming and disturbing statement made by Modi that he is a Hindu National. First he must understand and realize that Patriotism and Nationalism has nothing to do with religion. Any one who is a national of a particular country his patriotism and nationalism belong to that country. Does Modi means that in India we will have different nationals ,Muslim national, Christian national, Parsi national and so on. The danger is that very soon it will be enlarged and will mean, Modi/ Hindu/Ghanchi/Gujrati/National. Can any polarization be bigger than this. How unfortunate and dangerous that such a man is being projected as the prime Minister of our nation. It is hilarious and sad when sycophants defend him with great gusto little realizing that they are making a fool of themselves. It reminds me of Omar Khyyam when he said “Fools your reward is neither here nor there.”
I am very surprised and pained that from 2002 to 2013 the media, the national T.V. channels ,have not realized the difference between genocide and riot. The dictionary meaning of genocide is. ”deliberate mass murder of a race, people or minority group.” It was exactly the same as Hitler did in Germany with Jews. Modi did the same in Gujrat. It was nothing else but genocide. Riot is “to participate in a public disorder, to act in an unrestrained or wanton manner”. May I ask who behaved in an unrestrained or wanton manner; the people or the Government? And yet he is known as a honorable  man.
An arrogant, proud man like Ravana and Hitler never apologise. Ravana for his arrogance and pride was killed. Hitler knew the ultimate end that if caught alive he will be hanged, so he killed himself. Our epics Ramayan and Mahabharat teaches us the evil is always punished.
There are small dark clouds of avalanche in the sky of India, which may soon grow bigger and be a grave danger and cause terrible destruction, to the ancient culture, the unity and brotherhood among all, peace ,love, and tranquility. In the words of Eric Hobsbawm,”The danger came exclusively from the right. And that Right represented not merely a threat to constitutional and representative government but an idealogical threat to liberal civilization as such, and potentially world wide movement, for which the label “fasicism” is both insufficient and not wholly irrelevant”
Today it is important and prudent for all forces, political, social, economical, cultural, to come together and finish the evil of fundamentalism and fascism.


Saturday, July 13, 2013

आज के मनुष्य का स्वप्न और वैश्विक यथार्थ

- उषा वैरागकर आठले

वानर से नर बनने की प्रक्रिया में न केवल मानव का हाथ स्वतंत्र हुआ बल्कि उसके मस्तिष्क में स्वप्नदर्शन की प्रवृत्ति भी विकसित हुई। मनुष्येतर विकसित प्राणियों में अपने आसपास के यथार्थ का संज्ञान लेकर, उसके प्रति निश्चित प्रतिक्रिया व्यक्त करने की प्रवृत्ति तो दिखाई देने लगी थी परंतु यथार्थ में जो अस्तित्वमान नहीं है, उसकी कल्पना करना और जागते या सोते हुए मन की आँखों के सामने दृश्यों की श्रृंखला साकार करने का गुण सिर्फ मनुष्य में ही विकसित हो पाया। मनुष्य यहीं से अन्य जीव-जगत से पृथक् हुआ।

स्वप्न का अर्थ ही है, जो अस्तित्वमान नहीं है, उसकी जाने-अनजाने कल्पना करते हुए अव्यवस्थित तथा विश्रृंखलित मनस-चित्रों की कड़ियाँ बुनना। स्वप्न भी दो तरह के होते हैं - पहला स्वप्न नींद में देखा गया स्वप्न है, जिसमें मनुष्य का चेतन मन प्रायः सुप्तावस्था में होता है। वह अपने मन की चेतन-अवचेतन पर्तों में छिपी अनेक स्मृतियों को, उनके मूल संदर्भों से काटकर, बिना किसी इच्छित लक्ष्य के दृश्य-चित्रों के रूप में देखता चला जाता है। इसपर उसके चेतन सामाजिक मन का कोई नियंत्रण नहीं होता। दूसरे प्रकार का स्वप्न दिवास्वप्न कहलाता है, जो एकांत के क्षणों में अपने मनस-चित्रों को इच्छित दिशा में मोड़ते हुए, खुली आँखों से देखा जाता है। प्रत्येक प्रकार की सर्जनात्मकता में इसी दूसरे प्रकार के स्वप्न का योगदान माना जाता है।

आज जब हम ‘आज के मनुष्य के स्वप्न’ की बात कर रहे हैं, मुझे शिद्दत से याद आ रहा है राहुल सांकृत्यायन का छोटा-सा उपन्यास - बाईसवीं सदी, जिसे उन्होंने भ्रमण-वृत्तांत कहा है। 1924 में लिखा गया यह उपन्यास राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक संघर्षों के बाद हासिल की गई साम्यवादी कम्यून-व्यवस्था का विस्तृत काल्पनिक विवरण प्रस्तुत करता है। इसके समानांतर ये सवाल और तीव्रता के साथ पाठक के मन में उठते हैं कि आखिर इस वर्ग-विभाजित समाज में मनुष्य क्यों निरंतर संघर्ष कर रहा है, किसके लिए कर रहा है और आखिर वह क्या पाना चाहता है? इस ‘क्या पाना चाहता है’ की ही अद्भुत काल्पनिक तस्वीर राहुलजी ने इस छोटे-से उपन्यास में उकेरी है। मनुष्य अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति के अलावा अपने इच्छित एवं रूचि के कामों को करने के लिए मनचाहा समय चाहता है। अपने जीवन में प्रेम, सुख, शांति, समृद्धि और परस्पर सम्मान चाहता है। परंतु मानव-सभ्यता के इतिहास के आरंभिक चरण को छोड़ दिया जाए तो यही देखा जाता है कि व्यक्तिगत सम्पत्ति के उदय के बाद से ही लाभ-लोभ और स्वार्थ-पूर्ति का संघर्ष मानव-समाज का जीवन-पर्याय बन गया है। दूसरों के लाभ और सुविधाओं की कीमत पर एक वर्ग अपने लिए अकूत सुख-सुविधाएँ जुटा रहा है। आखिर यह सिलसिला कब तक चलता रहेगा? क्या कोई ऐसा समय नहीं आएगा कि सारे मनुष्य समान हो जाएँ, मनुष्यों के बीच लिंग, वर्ण, उम्र, वर्ग का कोई भेद न रह जाए, सबको समान अवसर मिले? औद्योगिक क्रांति के दौरान प्रचलित ‘स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे’ के नारे को औपनिवेशिक भारत की आज़ादी के सपने के साथ जोड़ते हुए ‘बाइसवीं सदी’ में राहुल जी ने समानता के अपने स्वप्न को विश्व-एकता के साथ जोड़कर प्रस्तुत किया है। ‘बाइसवीं सदी’ में पूरी पृथ्वी एक निर्वाचित सरकार के अंतर्गत काम कर रही है। देशों-प्रदेशों की अपनी संज्ञागत पहचान तो अभी भी है, परंतु खान-पान, रहन-सहन, उत्सव-त्यौहार आदि में कोई विभिन्नता नहीं हैं। सामाजिक और व्यक्तिगत कर्तव्यों के बीच शानदार संतुलन बना हुआ है। सबको आवास-भोजन-शिक्षा-स्वास्थ्य- यात्रा-मनोरंजन की एक समान सुविधा और अवसर उपलब्ध हैं। राहुल सांकृत्यायन ने बीसवीं और बाइसवीं सदी की क्रमशः पूँजीवादी और साम्यवादी व्यवस्थाओं का एक तुलनात्मक अध्ययन इस उपन्यास के माध्यम से प्रस्तुत किया है।

आज हम इन दोनों सदियों के बीच इक्कीसवीं सदी में रह रहे हैं। आज इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल क्रांति ने मनुष्य के जीवन को बिलकुल नए मोड़ पर लाकर छोड़ दिया है। इस क्रांति ने इंटरनेट के माध्यम से पुरानी वर्ग, वर्ण, धर्म, जाति, उम्र, लिंग की दीवारें लाँघनी शुरु कर दी है। यह एक ऐसा जनवादी माध्यम है, जिसकी मिल्कियत किसी व्यक्ति के हाथों में नहीं है। तकनीक और तकनीकी भाषा की वर्णमाला से मुँहदेखी पहचान होने वाला व्यक्ति भी इसका उपयोग कर सकता है। परंतु यह एक त्रासदी है कि इस सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में प्रायः तकनीक से मित्रता हासिल करने वाला समूह सामाजिक विवेक का वस्तुगत उपयोग नहीं कर पाता। उसका पूरा ध्यान व्यक्तिगत मनोरंजन, बौद्धिकता का प्रदर्शन, अपने मतवादों को दूसरों के गले उतारने का दुराग्रह और जानकारियाँ एकत्रित करने के स्रोत तक सीमित रहता है। इस जनवादी माध्यम के उपयोगकर्ताओं पर व्यवस्थागत व्यक्तिकेन्द्रिकता का गहरा असर है। यह आज के वैश्विक यथार्थ की एक तस्वीर है। परंतु इस माध्यम का उपयोग करते हुए, इसके आभासी जगत को ज़मीन से जोड़ने का संघर्ष भी इसके समानान्तर चल रहा है, इस बात का नोटिस लेकर इस माध्यम को न केवल सूचना-प्राप्ति, बल्कि ज्ञान-प्राप्ति और मानव मात्र की बेहतरी के आंदोलन से जोड़ने का हथियार बनाने की आवश्यकता है।

बीसवीं सदी के अंत में वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के आकर्षक नारे के साथ एक नए युग का सूत्रपात हुआ। वैश्विक खुलेपन के अंतर्गत देशों की सीमाएँ टूटकर पूरी पृथ्वी एक देश की तरह हो जाने का सपना दिखाया जाने लगा। मगर जल्दी ही इस सपने का आरक्षण सिर्फ अमेरिका या कुछ विकसित देशों तक सीमित है, यह बात सामने आ गई। आज आम आदमी को सपनों की उड़ान भरने के लिए आसमान तो दिखा दिया जा रहा है परंतु उसके पर कतरे हुए हैं। इस उत्तरऔपनिवेशिक व्यवस्था में मुट्ठीभर लोगों के पास तमाम संसाधन हैं और दूसरी ओर बहुसंख्य व्यक्तियों के पास बाज़ार को सिर्फ ललचाई नज़रों से देखने के अलावा कोई वैधानिक विकल्प नहीं है। उपनिवेशवाद में शासकों का प्रत्यक्ष नियंत्रण होने के कारण अपनी जनता के प्रति उनकी एकप्रकार की जिम्मेदारी दिखाई देती थी परंतु उत्तरउपनिवेशवाद में प्रत्यक्ष नियंत्रण के अभाव में यह जिम्मेदारी स्वयमेव समाप्त हो गई है। वित्तीय पूँजी और बाज़ार के केन्द्र में आने से अनेक अविकसित या विकासशील देशों की निम्नतर क्रयशक्ति वाली जनता, राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय विकास-योजनाओं में हाशिये पर धकेल दी जा रही है। प्रजातांत्रिक चुनावी प्रणाली वाले देशों में इनके हाथ में लालीपॉप थमाया जा रहा है।

कुछ विद्वानों का मानना है कि वैश्वीकरण पूँजीवाद का उत्तरपक्ष है। पूँजीवाद ने आर्थिक लाभ को केन्द्र में रखकर अपने उत्पादों को हरेक देश के कोने-कोने में बसे प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँचाने की कोशिश की थी, परंतु वैश्विक पूँजीवाद या उत्तरपूँजीवाद अपने बाज़ार का दायरा संकुचित कर रहा है। बाज़ार को अपरिमित वस्तुओं से पाटकर उसे उच्च क्रयशक्ति वाले मुट्ठीभर लोगों तक सीमित कर रहा है। हरेक शहर में खुलने वाले मॉल, ऑनलाइन शॉपिंग की विस्तृत श्रृंखला, बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खुले बाज़ार में आमंत्रण देकर छोटे उत्पादकों, वितरकों, विक्रेताओं को बाज़ार से खदेड़ा जा रहा है।

इस वैश्विक यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में हम पुनः लौटते हैं मनुष्य के स्वप्न की ओर। साथ ही फिर से लौटते हैं राहुल सांकृत्यायन की ‘बाइसवीं सदी’ की ओर। राहुलजी ने समूची पृथ्वी के लोगों को अनेक व्यवस्थित और सुनियोजित कम्यूनों में बाँटकर उन्हें अतिरिक्त श्रम से, अतिरिक्त उत्तरदायित्वों से, आजीविका की चिंता से मुक्त दिखाया है। अनिवार्य शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात अलग-अलग विशेष उत्पादन-ग्रामों में अपनी-अपनी रूचि के अनुसार काम करते हुए लालच, स्वार्थ, हिंसा, अपराध, वर्चस्व की भावनाओं को अनावश्यक बना देने वाली व्यवस्था स्थापित हो गई है। सिर्फ तीन घंटे किसी न किसी उत्पादक काम को करने के बाद शेष समय अपनी रूचि के अनुसार बिताने की स्वतंत्रता हरेक मनुष्य को मिल गई है। इसके कारण बाईसवीं सदी में कोई मज़दूर, अपना पेट भरने के लिए ही जीवन का अधिकांश समय नहीं गँवा रहा है। वहाँ सब शारीरिक श्रम भी करते हैं और सबको अपनी जिज्ञासा, रूचि को समृद्ध करने का अवसर भी है। बाईसवीं सदी में कोई औरत अपनी घर-गृहस्थी और बच्चों के पालन-पोषण में अपनी प्रतिभा, अपनी कार्य-क्षमता को खो नहीं बैठती क्योंकि वहाँ न तो हरेक स्त्री को रसोई में अपनी ऊर्जा खपाने की आवश्यकता है और न ही चौबीस घंटे बच्चों की देखभाल करनी पड़ती है। बच्चे तो राष्ट्र की सम्पत्ति हैं। वे तीन वर्ष तक शिशु-उद्यान में एकसाथ पलते हैं, बाद में विभिन्न विद्यालयों में चले जाते हैं। सब कुछ राष्ट्रीय सम्पत्ति में बदल जाने से हरेक प्रकार के स्वार्थगत झगड़े समाप्त हो गए हैं। किसी भी चीज़ की अनावश्यक देखभाल समाप्त हो गई है। क्या यह यूटोपिया आज के मनुष्य का स्वप्न नहीं बन सकता? इक्कीसवीं सदी का मनुष्य भी शांति, प्रेम, परस्पर सद्भाव चाहता है। वह अपने आसपास का वातावरण साफसुथरा और आरामदायक चाहता है। उसे अपनी आजीविका के लिए किए जाने वाले श्रम के बाद चिंतन एवं स्व-विकास के लिए भरपूर समय की आवश्यकता है। मगर इक्कीसवीं सदी का यथार्थ इसके विपरीत है। वर्गों का ध्रुवीकरण और स्पष्ट हो गया है। मजबूत क्रयशक्ति वाले अल्पसंख्यक वर्ग और कमज़ोर क्रयशक्ति वाले बहुसंख्यक वर्ग में समाज बँटा हुआ है। समूचा बाज़ार-तंत्र अल्पसंख्यक वर्ग के लिए पलक-पाँवडे बिछाए बैठा है। यही तंत्र विकास के आँकडों के लिए इस उच्च क्रयशक्ति वाले वर्ग पर निर्भर होता है। निम्न क्रयशक्ति वर्ग की आवश्यकता, सुविधा, उन्नति, विकास के अवसर, सुरक्षा आदि मुद्दे महज़ राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की उठापटक के लिए प्रयुक्त होते हैं। व्यक्तिगत धन-सम्पत्ति की हवस जिसतरह व्यक्तियों में बढ़ती जा रही है, उसीतरह राष्ट्रों में भी। इसके लिए हर तरह के अवैधानिक और अनैतिक कदम उठाने की बेशर्मी स्वीकृत हो चुकी है। गली-मुहल्ले से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक भ्रष्टाचार और अपराध फैल चुके हैं। इस वैश्विक यथार्थ के बरअक्स ‘बाईसवीं सदी’ का स्वप्न-जगत कितना ‘कूल’ लग रहा है! स्त्री-पुरुष एक-से कपड़े पहने हुए अपना-अपना काम कर रहे हैं, अधिकांश काम यंत्रों से हो जाता है। काम के बाद वे मन बहलाने के लिए या अपनी ममता को तृप्त करने के लिए शिशु-उद्यान जाकर बच्चों से खेलते हैं, पढ़ते हैं, अनेक खेल खेलते हैं, मनोरंजन करते हैं, भ्रमण करते हैं। सब कुछ आदर्श स्थिति में बदल गया है क्योंकि दीर्घ समय तक लोगों को मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, राजनैतिक प्रशिक्षण देकर; बच्चों का पृथक् पालन-पोषण कर बचपन से ही अनुशासन और समानता के बीज उनके हृदयों में प्रविष्ट कर दिये गये हैं। राहुल सांकृत्यायन का यह उपन्यास क्या सिर्फ एक यूटोपिया मात्र है? मैं ऐसा नहीं मानती। साम्यवादी समाज के स्वरूप की इस रूपरेखा का बहुत महत्व है। नकारात्मक का विध्वंस आवश्यक है परंतु उससे भी आवश्यक है, विध्वंस के बाद रचे जाने वाले प्रतिसंसार की स्पष्ट परिकल्पना का उपलब्ध होना।  

सवाल यह है कि आज के वैश्विक यथार्थ की अतिविषम परिस्थितियों में इसतरह का समतामूलक स्वप्न साकार होने की एकाध प्रतिशत भी संभावना क्या दिखाई दे रही है? वैश्विक पूँजीवाद ने मनुष्य को एक उपभोक्ता व्यक्ति बनाकर स्व-केन्द्रित कर दिया है। क्या वह सबके साथ सब चीज़ें साझा करने के लिए तैयार होगा? साम्यवाद की अवधारणा में इस बात पर ज़ोर दिया गया था कि जब वस्तुओं का विपुल उत्पादन होगा, हरेक व्यक्ति के अनुपात में वस्तुएँ उपलब्ध होगी, तभी सब लोगों में समान रूप में बाँटने की संभावना पैदा होगी। उत्पादन के स्तर पर तो यह कहा जा सकता है कि उच्च उत्पादकता की स्थिति लगभग पैदा हो चुकी है परंतु वितरण को नियंत्रित करने वाली शक्तियाँ और भी अनुदार हो गई हैं। इसीलिए आज मनुष्य के समतावादी स्वप्न साकार होने की संभावना नज़र नहीं आ रही है। पूँजीवाद के आरम्भिक चरणों में जो मध्यम वर्ग प्रगतिशील भूमिका में नज़र आता था, वही आज सबसे ज़्यादा स्व-केन्द्रित, असंवेदनशील, विचार-शून्य और शातिर बनता जा रहा है। नई तकनालॉजी और कारपोरेट संस्कृति उसे असामाजिक और व्यक्तिवादी बनने के लिए पोषक वातावरण प्रदान कर रही है। इस वातावरण में अब अनेक नए राहुल सांकृत्यायनों की आवश्यकता है, जो समूची मनुष्य जाति की बेहतरी के लिए सामूहिक स्वप्न रचे और उस स्वप्न को साकार करने के लिए अनेक व्यावहारिक वैकल्पिक कार्य-योजनाएँ अपनी रचना में प्रस्तुत कर सकें।