Friday, March 29, 2013

नाटक का प्रतिरोधी होना जरूरी है

-हिमांशु राय 
जो समस्या इटली में सदियों से रही है, जिसके कारण दारियो फो चिन्तित हैं और जिसे उन्होंने अपने संदेश में व्यक्त किया है वो ये है कि पढ़ने से ज्यादा देखने से फर्क पढ़ता है। नाटक लिखा हुआ रहा आए तो चलेगा पर यदि उसे मंचित किया जाए तो बहुत कष्टकारी हो जाता है। क्योंकि पढ़ा हुआ कुछ दिन बाद धुधला हो जाता है पर देखा हुआ बहुत असरकारी होता है। याद रह जाता है। यही नाटक की ताकत है। वो जीवंत होता है। दर्शक के सामने घटित होता है। वो कहानी पाठ नहीं होता। वो लेख नहीं होता। वो सामने कलाकारों द्वारा महीनों की गई रिहर्सल के बाद एक एक शब्द पर की गई मेहनत का नतीजा होता है। इसीलिए वो असरकारक होता है और नाटक का जवाब बेहतर और तार्किक नाटक ही हो सकता है। नाटक करना बहुत मेहनत का काम है। और नाटक के जवाब में नाटक करना तो दोगुनी मेहनत की मांग करता है। इसीलिए इटली में सदियों पहले धर्माचार्यों ने नाटकघर बंद करवा दिए, कलाकारों को देश निकाला दे दिया। जो वो कर सकते थे उनने किया।

सत्ता चाहती है कि कोई विरोध में न बोले। सब भजन गाएं और चुप रहें। नाटक करने वाले की मुश्किल है कि यदि वो बिलकुल शाकाहारी नाटक करे तो उसका नाटक कोई क्यों देखे? नाटक का राजनैतिक होना जरूरी नहीं है, पर नाटक का प्रतिरोधी होना जरूरी है। नाटक हमारे जीवन में, समाज में, देश में राजनीति में हर क्षे़त्र में विरोधाभासों को सामने लाता है। ऐसे बहुत से नाटक हैं जो बहुत अच्छे हैं पर सीधे किसी पर चोट नहीं करते। वो अवचेतन पर मार करते हैं। उन्हें निर्देशित करने और मंचित करने में अनेक नाटक वालों को बहुत सुविधा होती है। दोनों काम पूरे हो जाते हैं प्रतिरोध का प्रतिरोध, कला की कला। हर नाटक करने वाले को हर तरह के नाटक करना चाहिए। यदि हम यह अपेक्षा करेंगे कि लोग हमारे पसंद के नाटक ही करें तो हम इटली के धर्माचार्यों के समान ही व्यवहार कर रहे होंगे।

नाटक को सतही तौर पर देखने वालों को यह ग़लतफ़हमी रहती है कि दर्शक को जो दिखाओ वही मान लेता है। ऐसा नहीं है। दर्शक नाटक देखकर मनन करता है और निर्णय करता है कि नाटक में क्या सही कहा गया है और क्या गलत कहा गया है। यदि किसी नाटक को पांच सौ दर्शक देख रहे हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि ये पांच सौ लोग नाटक में कही बात से सहमत हैं। इसीलिए प्राचीनकाल से ही नाटक के दर्शक को देव या भगवान कहा गया है। नाटक उसी के लिए किया जाता है। वो वास्तविक नियंता होता है। और एक बार फिर कहा जाना चाहिए कि यदि आप नाटक की भावना या विवेचना या लब्बो लुआब से असहमत हैं तो नाटक का जवाब नाटक है। नाटक पर प्रतिबंध और कलाकारों की पिटाई या निर्देशक पर हमला या लेखक की हत्या आदि हरकतें नाटक का जवाब नहीं हैं।

नाटक की एक ही दिक्कत है। ये चुभता है। जिसे चुभता है वो भले ही सामने बैठा हंस रहा हो या गंभीर हो कर नाटक के गुणों की प्रशंसा कर रहा हो पर दरअसल उसके अंदर ’देख लूंगा’ वाला भाव आ ही जाता है। जिसके पास ताकत होती है वो परम विद्वान होता है। उससे बहस नहीं की जा सकती। हमने बार बार देखा है कि कोई व्यक्ति जब पैसा कमा लेता है तो ज्ञानी हो जाता है। वो हर विषय का विशेषज्ञ हो जाता है। उसे हक है कि वो सबको ज्ञान बांटे। उसे हक है कि वो आपको बोलने न दे क्योंकि वो पैसे वाला है। किसी टुटपुंजिए की औकात ही क्या है जो वो एक ताकतवर पैसे वाले से बहस करे या उसकी हंसी उड़ाए या उस पर व्यंग्य करे। इसीलिए कलाकार पिटते हैं। गांव शहर देश से निकाले जाते हैं।

दारियो फो द्वारा इस वर्ष अंतर्राष्ट्रीय नाट्य दिवस पर दिये गए संदेश में जो संदेश दिया गया है उसे इसी रोशनी में देखा जाना चाहिए। हमारे देश में अब कोई एक आदमी भी कह सकता है कि उसकी भावनाएं किसी नाटक से आहत हो सकती हैं और नाटक पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। अब कुछ भी हो सकता है। और नाटक करने वालों के साथ कोई नहीं आएगा यह भी तय हो चुका है। अब नाटक करने वालों को ही वैकल्पिक व्यवस्था करना होगी। प्रतिबंध लगवाने वालों से खुद ही निपटना होगा।


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