Wednesday, February 27, 2013

सत्ताओं का अंत होता है, विचारधारा का नहीं

(बाएं से) विनीत तिवारी, हरिओम राजोरिया, सेवाराम त्रिपाठी, विजय कुमार,
नरेश सक्सेना, विजय बहादुर सिंह, शशांक, ओम भारती।
फोटो: राजीव शंकर 
गोहिल, भोपाल
- सचिन श्रीवास्तव

भोपाल। आज के दौर में विचारधारा के सवाल ज्यादा जटिल हो गये हैं। विचारधारा लेखक की प्रापर्टी है, रचना की नहीं। रचनात्मक व्यवहार में विचारधारा विन्यस्त रहती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सत्ताओं का अंत होता है, विचारधारा का नहीं। यह बात वरिष्ठ कवि आलोचक राजेश जोशी ने रविवार को एनटीटीटीआरआरई के मणि स्मृति सभागार में प्रो. कमलाप्रसाद की याद में आयोजित कार्यक्रम के पहले सत्र ''आलोचना का लोकतंत्र" को संबोधित करते हुए कही।

प्रगतिशील वसुधा तथा प्रो. कमलाप्रसाद स्मृति सांस्कृतिक संस्थान, भोपाल द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम के पहले सत्र को संबोधित करते हुए वसुधा के संपादक स्वयंप्रकाश ने कहा कि प्रो. कमलाप्रसाद की संगठनात्मक और आलोचकीय प्रतिबद्धताओं का नये सिरे से मूल्यांकन किये जाने की बहुत जरूरत है। साथ ही साहित्य व आलोचना के अंतर्संबंधों को नई स्थितियों के साथ सोचना होगा।

आलोचक वीरेंद्र यादव ने कहा कि कोई भी साहित्यिक रचना महज रचनात्मक निर्माण नहीं होती, बल्कि सामाजिक व वैचारिक निर्माण भी होती है। आज जरूरत है कि आलोचना व रचना के बीच उपस्थित स्पेस को पाटा जाये। युवा आलोचक वेदप्रकाश ने कहा कि सत्ताओं के लोकतंत्र के इतर साहित्य का लोकतंत्र ही ऐसा है, जो प्रत्येक व्यक्ति के दुख के साथ खड़ा होता है और शिदृदत से अपने भीतर समाहित करता है। उन्होंने कहा कि प्रो. कमलाप्रसाद निजता के विरोधी नहीं थे, बल्कि इस बात पर जोर देते थे कि आधुनिकता की मूल अवधारणा शोषितों को मुक्ति दिलाने की है। मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव विनीत तिवारी ने कहा कि कमलाप्रसाद जी अपनी जिद व अनुभवों के साथ अगली पीढ़ी से आत्मीय रिश्ते रखते थे। साथ ही इस बात पर चिंता प्रकट करते थे कि मौजूदा लोकतांत्रिक अवकाश का उपयोग किस तरह किया जाये। ईश्वर सिंह दोस्त ने भी सत्र को संबोधित किया। इस अवसर पर प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से प्रकाशित अशोक भौमिक की चित्तोप्रसाद के चित्रों पर एकाग्र किताब ''ताकत आधी दुनिया की के साथ ''आधुनिक हिंदी का उदय और कविता, ''व्यंग्य की व्याप्ति, ''गहराई और ''वसुधा के ताजा अंक का लोकार्पण भी हुआ। सत्र का संचालन आशीष त्रिपाठी ने किया। स्वागत उदबोधन वसुधा के संपादक राजेंद्र शर्मा ने दिया।

कार्यक्रम के अंतिम चरण में ''रचना और आलोचना के संबंध विषय पर वरिष्ठ आलोचक कवि विजय कुमार ने कहा कि दुर्भाग्यश आलोचना कर्मकांड बन चुकी है। आलोचना एक संस्थान बन चुकी है। इसलिए आलोचना की विश्वसनीयता कटघरे में खड़ी हुई है। उन्होंने कहा कि लेखन में क्षणिक सनसनी और वाहवाही के बजाय गंभीर विमर्श और विचार की दरकार होनी चाहिए। इस सत्र को नरेश सक्सेना, विजय बहादुर सिंह, सेवाराम त्रिपाठी तथा शशांक ने भी संबोधित किया। संचालन ओम भारती ने किया।

1 comment:


  1. दिनांक 06/03/2013 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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