Wednesday, February 27, 2013

सत्ताओं का अंत होता है, विचारधारा का नहीं

(बाएं से) विनीत तिवारी, हरिओम राजोरिया, सेवाराम त्रिपाठी, विजय कुमार,
नरेश सक्सेना, विजय बहादुर सिंह, शशांक, ओम भारती।
फोटो: राजीव शंकर 
गोहिल, भोपाल
- सचिन श्रीवास्तव

भोपाल। आज के दौर में विचारधारा के सवाल ज्यादा जटिल हो गये हैं। विचारधारा लेखक की प्रापर्टी है, रचना की नहीं। रचनात्मक व्यवहार में विचारधारा विन्यस्त रहती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सत्ताओं का अंत होता है, विचारधारा का नहीं। यह बात वरिष्ठ कवि आलोचक राजेश जोशी ने रविवार को एनटीटीटीआरआरई के मणि स्मृति सभागार में प्रो. कमलाप्रसाद की याद में आयोजित कार्यक्रम के पहले सत्र ''आलोचना का लोकतंत्र" को संबोधित करते हुए कही।

प्रगतिशील वसुधा तथा प्रो. कमलाप्रसाद स्मृति सांस्कृतिक संस्थान, भोपाल द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम के पहले सत्र को संबोधित करते हुए वसुधा के संपादक स्वयंप्रकाश ने कहा कि प्रो. कमलाप्रसाद की संगठनात्मक और आलोचकीय प्रतिबद्धताओं का नये सिरे से मूल्यांकन किये जाने की बहुत जरूरत है। साथ ही साहित्य व आलोचना के अंतर्संबंधों को नई स्थितियों के साथ सोचना होगा।

आलोचक वीरेंद्र यादव ने कहा कि कोई भी साहित्यिक रचना महज रचनात्मक निर्माण नहीं होती, बल्कि सामाजिक व वैचारिक निर्माण भी होती है। आज जरूरत है कि आलोचना व रचना के बीच उपस्थित स्पेस को पाटा जाये। युवा आलोचक वेदप्रकाश ने कहा कि सत्ताओं के लोकतंत्र के इतर साहित्य का लोकतंत्र ही ऐसा है, जो प्रत्येक व्यक्ति के दुख के साथ खड़ा होता है और शिदृदत से अपने भीतर समाहित करता है। उन्होंने कहा कि प्रो. कमलाप्रसाद निजता के विरोधी नहीं थे, बल्कि इस बात पर जोर देते थे कि आधुनिकता की मूल अवधारणा शोषितों को मुक्ति दिलाने की है। मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव विनीत तिवारी ने कहा कि कमलाप्रसाद जी अपनी जिद व अनुभवों के साथ अगली पीढ़ी से आत्मीय रिश्ते रखते थे। साथ ही इस बात पर चिंता प्रकट करते थे कि मौजूदा लोकतांत्रिक अवकाश का उपयोग किस तरह किया जाये। ईश्वर सिंह दोस्त ने भी सत्र को संबोधित किया। इस अवसर पर प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से प्रकाशित अशोक भौमिक की चित्तोप्रसाद के चित्रों पर एकाग्र किताब ''ताकत आधी दुनिया की के साथ ''आधुनिक हिंदी का उदय और कविता, ''व्यंग्य की व्याप्ति, ''गहराई और ''वसुधा के ताजा अंक का लोकार्पण भी हुआ। सत्र का संचालन आशीष त्रिपाठी ने किया। स्वागत उदबोधन वसुधा के संपादक राजेंद्र शर्मा ने दिया।

कार्यक्रम के अंतिम चरण में ''रचना और आलोचना के संबंध विषय पर वरिष्ठ आलोचक कवि विजय कुमार ने कहा कि दुर्भाग्यश आलोचना कर्मकांड बन चुकी है। आलोचना एक संस्थान बन चुकी है। इसलिए आलोचना की विश्वसनीयता कटघरे में खड़ी हुई है। उन्होंने कहा कि लेखन में क्षणिक सनसनी और वाहवाही के बजाय गंभीर विमर्श और विचार की दरकार होनी चाहिए। इस सत्र को नरेश सक्सेना, विजय बहादुर सिंह, सेवाराम त्रिपाठी तथा शशांक ने भी संबोधित किया। संचालन ओम भारती ने किया।

आगरा इप्टा द्वारा 'अरे, आप...!' का सफल मंचन

-अर्जुन गिरि

गरा। जीवन में बहुत असंगति है, अंतर्विरोध है, लेकिन फिर भी प्रेम और हास्य के लिये पर्याप्त स्थान है। मानव मन की उन उलझी गुत्थियों को प्रस्तुत किया गया, जिनमें अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों का टकराव होता है। इन विषयों को लेकर तैयार किये नाटक ‘अरे, आप’ का प्रदर्शन मंगलवार, 26 फरवरी को स्थानीय सूरसदन प्रेक्षागृह में किया गया। नाटक की प्रस्तुति देख प्रेक्षागृह तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।

ताज महोत्सव के कार्यक्रमों की श्रंखला में मंगलवार को रूसी लेखक अंतोन चेखव की दो एकांकियों ‘शादी का प्रस्ताव (प्रपोजल)’ और ‘गंवार (बियर)’ को जोड़कर रूसी भाषा से जितेंद्र रघुवंशी और पंकज मालवीय द्वारा अनुवाद करके तैयार नाटक ‘अरे, आप’ का निर्देशन दिलीप रघुवंशी ने किया।

नाट्य पितामह राजेंद्र रघुवंशी की दसवीं पुण्यतिथि पर प्रस्तुत हुए नाटक की शुरुआत एक विधवा महिला और उसके बूढ़े बाप से होती है। पड़ोस में रहने वाला एक युवक उसे विवाह का प्रस्ताव देता है, इससे खुश होकर बूढ़ा बाप विधवा बेटी को बातचीत करने के लिये भेजता है। तभी युवक बेटी से बातचीत में पुरानी जमीन और अपने कुत्ते और घोड़े जैसे पालतू जानवरों का विधवा महिला के जानवरों से तुलना करके लड़ता है। विवाद काफी बढ़ता है और रिश्ता शुरू होने से पहले ही टूटने की कगार पर पहुंच जाता है। इस पर पड़ोसी मरने का नाटक करता है तो बूढ़ा पिता शादी के लिये हां करते हुये बेटी का हाथ सौंप देता है। दूसरे दृश्य में पड़ोसी मर जाता है तो जमींदार पैसा मांगने आ जाता है। शोक संतृप्त महिला से जमींदार हद दर्जे की बदसलूकी करता है। बात मरने मारने तक पहुंच जाती है। दोनों एक दूसरे पर पिस्तौल तान देते हैं। विधवा महिला की हिम्मत देखकर जमींदार को उससे प्रेम हो जाता है। विधवा महिला भी कई बार न न करते हुए उसके प्रस्ताव को स्वीकार लेती है।

नाटक में नीतू दीक्षित, आशुतोष गौतम, अर्जुन कुमार गिरि, विक्रम सिंह, निर्मल सिंह ने बेहतरीन प्रस्तुति दी। नाटक के मध्य में खुशी के प्रतीक रूसी लोकनृत्य कलींका का प्रदर्शन किया गया। जिसमें मानस रघुवंशी, सिद्धार्थ रघुवंशी, आमिर खान, नवीन शिवहरे, अलका धाकड़, भुवनेश धाकड़, रक्षा गोयल, नव्या अग्निहोत्री तथा शुभम सिंह ने प्रस्तुति दी। इस दौरान सरोज गौरिहार, डा. आरसी शर्मा, डा. एसके दुबे, एमपी दीक्षित आदि उपस्थित रहे।


Saturday, February 23, 2013

आगरा व रायगढ़ इप्टा द्वारा नाटकों का मंचन

आगरा। ताज महोत्सव 2013 व राजेंद्र रघुवंशी की दसवीं पुण्य तिथि के अवसर पर आगरा इप्टा द्वारा दिनांक 26 फरवरी 13 को चेखव की कृतियों पर आधारित नाटक "अरे, आप...!" का मंचन किया जा रहा है। रूसी भाषा की मूल कृति का अनुवाद जितेन्द्र रघुवंशी व पंकज मालवीय ने किया है। नाटक का निर्देशन दिलीप रघुवंशी कर रहे हैं। नाट्य प्रर्दशन आगरा के सूर सदन में संध्या 7 बजे से किया जायेगा।

रायगढ़ इप्टा द्वारा  कथाकार उदयप्रकाश की कहानियों पर आधारित दो नाटकों का मंचन स्थानीय पालीटेकनीक सभागार में दिनांक 24 फरवरी 13 को संध्या 7 बजे से किया जायेगा। नाटक लेखक की दो कहानियों "छप्पन तोले का करघन" व "रामसजीवन की प्रेम कथा पर आधारित हैं जिनका निर्देशन क्रमश: अपर्णा व अजेश शुक्ला ने किया है।

Thursday, February 14, 2013

Theatre groups revive censored plays


CHENNAI: With the Madras high court recently declaring that staging of plays in Tamil Nadu no longer requires police permission, several theatre groups are getting set to revive productions in their "unabridged", original versions.

The order has given Coimbatore-based poet Puviarasu impetus to revive the Indian People'sTheatre Association, which faded into oblivion several decades ago. "During the freedom struggle, IPTA performed plays with nationalist themes, several of which were banned or censored by the British," says Puviarasu. "With the police censoring scripts even after Independence, I felt there was no freedom of expression. Over the years, I lost the desire to stage plays," he says. He plans to restart IPTA in March with the political satire 'Manidhan,' which was censored in the 1980s.

In Chennai, playwright and director N V Sankaran alias Gnani plans to revive the Tamil adaptation of Marathi playwright Vijay Tendulkar's 'Kamala' on the changing role of women in India. "When we first staged it, we were forced to edit the play for objectionable content," says Gnani who in 2012 petitioned the high court stating that whenever his theatre group Pareeksha wanted to stage a play, the script needed to be cleared by the Chennai police commissioner. It was based on Gnani's petition that on January 23, the HC termed some provisions of the Tamil Nadu Dramatic Performances Act, 1954, "unconstitutional", among them the requirement for theatre groups to get police permission to stage plays.

Late Tamil playwright Komal Swaminathan's daughter Dharini has revived her father's theatre group Stage Friends and is planning to re-visit several of his classics. The first is his controversial 'Thanneer Thanneer' (Water, Water), based on water shortage in rural areas caused by bureaucracy and the apathetic attitude of politicians. "The play was banned in 1980 on the afternoon of its opening day. Only after certain dialogues were deleted did the police let my father stage it," says Dharini, who will stage the play in Chennai in March. "I am calling this production the re-inauguration of 'Thanneer Thanneer'. It is the original version, no cuts."

Waiting in the wings is Mahabanoo Modi-Kotwal's theatre group with Eve Ensler's play 'The Vagina Monologues', which has been banned on more than three occasions in Chennai. "We have been invited to Chennai to perform since 2004 but every time it is the same story - we get to the city and we are told the play has been banned," says Mahabanoo's son Kaizaad, who is the co-producer and director of the show. "We are asked to change the title or certain lines and when we refuse, we are not given permission," says Kaizaad. "Maybe now, we can have our first public performance in Chennai."

Source : http://timesofindia.indiatimes.com

Wednesday, February 13, 2013

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ : निर्वासन के दर्द का अहसास

- चंचल चौहान
शहूर उत्तरउपनिवेशवादी चिंतक एडवर्ड सईद ने कई अन्य पाश्चात्य चिंतकों की तरह निर्वासन के शिकार या विस्थापित लेखकों और अपने मुल्क से दूर कर दिये गये नागरिक समूहों के बारे में विस्तार से लिखा है। अपने इसी सैद्धान्तिक चिंतन के बीच उन्होंने महमूद दरवेश और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का भी ज़िक्र किया है। वे फ़ैज़ से बेरूत में उन दिनों मिले थे जब पाकिस्तान में ज़ियाउल हक़ की फ़ौजी तानाशाही फै़ज़ जैसे जम्हूरियतपसंद अदीबों और दानिशवरों पर किसी भी तरह का कहर बरपा कर सकती थी। फै़ज़ से अपनी मुलाक़ात का ज़िक्र करते हुए एडवर्ड सईद ने अपने एक लेख, `निर्वासन पर कुछ चिंतन´ में लिखा : कई बरस पहले मैंने अपने ज़माने के उर्दू के अज़ीमतर शायर फै़ज़ अहमद फै़ज़ के साथ कुछ वक्त बिताया था। वे अपने वतन पाकिस्तान में ज़िया के फ़ौजी शासन के चलते निर्वासित हो कर बेरुत आ गये थे जहां उनका एक तरह से स्वागत हुआ। फि़लिस्तीनी उनके स्वाभाविक तौर से जिगरी दोस्त थे। मैंने महसूस किया कि उन में आपस में बड़ी गहरी आत्मीयता थी जब कि उनकी न तो ज़बान या शेरी रवायत या ज़िंदगी की तारीख़ ही उनसे मिलती जुलती थी। सिर्फ़ एक बार मैंने फै़ज़ को अपने निर्वासन के दर्द से उबरते हुए देखा था जब उनके एक पाकिस्तानी दोस्त, इक़बाल अहमद बेरुत आये थे जो खु़द भी निर्वासित थे। हम तीनों एक गंदे से रेस्त्रां में देर रात तक जमे रहे, फै़ज़ अपनी नज्में सुनाते रहे। कुछ देर बाद इक़बाल और उन्होंने हमारे लिए नज्मों का तर्जुमा करना बंद कर दिया। जैसे रात गुज़रती गयी, इससे कोई दुश्वारी पेश नहीं हुई। जो मैं देख रहा था, उसके लिए किसी तर्जुमे की दरकार नहीं थी। यह नज़ारा एक तरह से प्रतिरोध के स्वर से भरी घरवापसी जैसा था, मानो वे कह रहे हों, `ऐ ज़िया, ले हम आ गये, लाज़िम है, हम भी देखेंगे।´ ज़िया तो असलियत में अपने मुल्क में ही था, वह उनके प्रतिरोध की आवाज़ नहीं सुन रहा था।

एडवर्ड सईद ने फै़ज़ के साथ अपना वक्त गुज़ारने की इतनी भर दास्तान लिखी लेकिन इतने से ही निर्वासन के उस दर्द का अहसास हमें ज़रूर करा दिया जिसे फै़ज़ साहब ने अपनी ज़िदगी के कई बरसों तक या तो जेलों में रह कर झेला था या फिर दूसरे मुल्कों में रह कर। उनके इस दर्द को उस हक़ीक़त में भी देखा जा सकता था जो फै़ज़ साहब के नज्म सुनाने के अंदाज़ में छिपी हुई रहती थी और जिससे सुनने वालों को शिकायत रहती थी। मुझे भी उन्हें सुनने का मौक़ा मिला था। नयी दिल्ली के फि़क्की आडीटोरियम में उनका जलसा था जिसमें उन्होंने नज्में और ग़ज़लें सुनायीं, उसी ग़ैरनाटकीय तरीक़े से जिसका ज़िक्र अक्सर लोग करते थे, उमा शर्मा ने उनकी ग़ज़लों पर एक नृत्यनाटिका तैयार की थी जिससे जलसे में एक नया ही रंग आ गया था, फिर भी वह गायकी सुनने को नहीं मिली जो इक़बाल बानो की `लाज़िम है कि हम भी देखेंगे´ की चुनौतीभरी आवाज़ में उन दिनों सुहैल हाशमी के पास के एक कैसेट में सुनी थी और उसकी प्रतिलिपि अपने पास भी मैंने रखी थी। अब तो इसे इंटरनेट पर आसानी से इक़बाल बानो की वीडियो रिकार्डिंग में सुना जा सकता है।

फै़ज़ की शायरी में `दर्द´ और `तनहाई´ शब्द बार बार आये हैं, लेकिन ये शब्द हमारे अदब के बहुत से आधुनिकतावादियों की तरह ओढ़े हुए `अकेलेपन´ या `दुख सबको मांजता है´(अज्ञेय) के सूत्रबद्ध `दुख´ का आख्यान नहीं हैं, ये तो एक अलग तरह की अनुभूति से उपजे शब्द हैं। सज्जाद ज़हीर ने आधुनिकतावादियों के अकेलेपन को फ़ैशन के तौर पर अपनाया हुआ अकेलापन बताया था। उन्होंने लिखा था:

तनहाई की भावनाओं का वर्णन करना हर कवि अपना पैदाइशी हक़ समझता है और आजकल कतिपय कवियों और चिंतकों ने तो इसको बाक़ायदा दर्शन का रूप दे दिया है और वे अपने तथाकथित एकाकीपन को इतनी अहमियत देते हैं जितना ज़ोर एक ईश्वर को माननेवाले मुसलमान अल्लाह-त´आला के एकाकी और अद्वितीय होने को देते हैं। लेकिन आप ज़रा फ़ैज़ की इस दर्दनाक लेकिन हसीन तनहाई की कल्पना कीजिए जिसमें दस्ते-सबा की नर्मी और ठण्डक प्रेयसी के हाथों की याद दिलाती है, और चांद की वक्रता को देखकर प्रिया की अनुपस्थिति में, उसके गले में बांहें डाल देने को जी चाहता है।  हिंदी में अज्ञेय ने इसी तरह के `अकेलापन´ का दर्शन ओढ़ा हुआ था। उन्होंने अपनी एक कविता, `सवेरे उठा तो´ में लिखा था :

उस अनदेखे अरूप ने कहा : हां,
क्योंकि ये ही सब चीज़ें तो प्यार हैं
यह अकेलापन, यह अकुलाहट, यह असमंजस, अचकचाहट,
आर्त, अननुभव, यह खोज, यह द्वैत, यह असहाय विरह व्यथा,
यह अन्धकार में जाग कर सहसा पहचानना कि
जो मेरा है वही ममेतर है

यहां जिस `अनदेखे अरूप´ का ज़िक्र है उसे `अल्लाह-त´आला´ ही समझना चाहिए जो हिंदी के आधुनिकतावादियों को वैराग्य का पाठ पढ़ा रहा था और `जो मेरा है´ वही `ममेतर´ लग रहा था, शुद्ध अकेलापन भोगता हुआ काव्यनायक पचास के दशक में हिंदी की आधुनिकतावादी कविता में खू़ब फल फूल रहा था, वह `नदी का द्वीप´ था या `एक बूंद´ या `कनु´। इस सबके विपरीत फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का काव्यनायक माडर्निज्म का लबादा ओढ़े शौक़िया तनहाई का शिकार नहीं था, उसे तो क़ैदे तनहाई में या मुल्क बदर हो कर निर्वासन का दर्द झेलना पड़ रहा था। 

यह तो एक आम कहावत है कि `जाके पैर न फटी बिवाई/सो का जाने पीर पराई´। एडवर्ड सईद ने निर्वासन के दर्द का फ़लसफ़ाई जायज़ा लेते हुए इस सत्य को रेखांकित किया है। उन्होंने लिखा है कि `बीसवीं सदी के पैमाने पर, निर्वासन की घटनाओं को न तो सौंदर्यशास्त्रीय तरीक़े से और न ही मानवतावादी नज़रिये से ठीक से समझा जा सकता है, निर्वासन के बारे में रचा गया साहित्य तो सिर्फ़ उस दर्द और नियति को एक वस्तु में बदल भर देता है जिस दर्द से हो कर ज्यादातर लोग खुद नहीं गुज़रे हैं।´ यह सच्चाई है कि निर्वासन खुद जिसने झेला है, वह जिस गहरी अनुभूति के साथ उसका बयान कर सकता है, वह दूसरा कोई नहीं कर सकता। फ़ैज़ पहले अपने ही वतन में ही 1951-1955 और फिर 1958 में जेल में बंद कर दिये गये, उसके बाद जब जब जम्हूरियत को रौंद कर फ़ौजी हकूमत क़ायम हुई, फ़ैज़ खुद ही बर्तोल्त ब्रेख्त की तरह मुल्कबदर हो गये, ऐहतियातन उनके लिए यह ज़रूरी था।

एडवर्ड सईद ने अपनी जिस मुलाक़ात का ज़िक्र किया है, उस वक्त वे बेरुत में आत्मनिर्वासित थे। उनके आत्मनिर्वासन के दर्द को उनकी अनेक रचनाओं में देखा जा सकता है। जेल के अंदर का निर्वासन किस तरह नज्म की शक्ल अख्तियार करता रहा, उस पर तो उनके हमदम, उनके दोस्त सज्जाद ज़हीर और मेजर मुहम्मद इस्हाक़ ने अपने लेखों में विस्तार से रोशनी डाली है। दस्ते सबा और ज़िंदांनामा की नज्में तो हैं ही उसी दौर की, लेकिन तनहाई और निर्वासन का दर्द उनकी बाद की रचनाओं में एक थीम की तरह उभरता है।
कहीं तो कारवाने दर्द की ठहर जाये
किनारे आ लगे उम्र-ए-रवां या दिल ठहर जाये
अमां कैसी कि मौज-ए-ख़ूं अभी सर से नहीं गुज़री
गुज़र जाये तो शायद बाजू़-ए-क़ातिल ठहर जाये

(नुस्ख़ा हाए वफ़ा, पृ. 465)

1971 में लिखी यह ग़ज़ल ज़िदगी भर सहे निर्वासन के दर्द का अहसास कराती है, `बाजू-ए-क़ातिल´ का साया उन पर मंडराता रहा, पाकिस्तान में जम्हूरियत फ़ौजी बूटों के तले रौंदी जाती रही, और कोई न कोई तानाशाही निज़ाम क़ायम होता रहा, और इसीलिए यह समाजी दर्द उनकी आखि़री शायरी तक रचना की शक्ल में हमारे सामने आता रहा।

फै़ज़ की शायरी के वाचक मुक्ति का इंतज़ार करते हैं, यह मुक्तिकामना उनकी अपनी किसी जेल से रिहाई या अपने वतन से दूर रहने के दर्द से निजी मुक्ति से जुड़ी हुई नहीं है, इसीलिए वह निजी या लिरिकल लगती हुई भी एक नाटकीय या वस्तुपरक आख्यान बन जाती है, क्योंकि उसमें तो उस सामाजिक व्यवस्था से मुक्ति का इंतज़ार है जो अभी हासिल नहीं हुई, मुक्ति की उस सुबह का इंतज़ार है जिसमें आदमी द्वारा आदमी का शोषण नहीं होगा, जिसमें कोई सरमायादारों का ज़रखरीद गुलाम तानाशाह अवाम के जम्हूरी हक़ नहीं छीन रहा होगा या सामराजी मुल्क तीसरी दुनिया के मुल्कों पर अपना कब्ज़ा बनाये रखने में कामयाब न हो पायेंगे और सामराजी ताक़तें पूरी दुनिया को किसी आलमी जंग में न झोंक पायेंगी। समाजवाद का सपना देखने वाले तमाम राजनीतिक और विचारधारात्मक संगठनों और रचनाकारों, कलाकारों को उसी मुक्ति की सुबह का इंतज़ार आज भी है। भारत जब आज़ाद हुआ तो उस आज़ादी की सुबह ने कवियों और कलाकारों के जागरूक हिस्सों को उस तरह की खुशी नहीं दी जो आज़ादी उनके सपनों में बसी मुक्ति हासिल होने पर होती। उन्हें इसका गहरा अहसास था कि राजनीतिक सत्ता विदेशी शोषकों के हाथ से देशी शोषक तबक़ों के हाथ आयी है, इसलिए नयी व्यवस्था में भी शोषण की तेग़ ग़रीबों पर चलती रहेगी। हिंदी-उर्दू के कई शायरों ने अपने इस अहसास को वाणी दी, फ़ैज़ ने भी बेख़ौफ़ तरीक़े से अपनी मशहूर नज्म, `सुबहे आज़ादी´ में इस अहसास को कहा : `ये दाग़ दाग़ उजाला, ये शबगज़ीदा सहर / वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं।´ 

पाकिस्तान के शासकवर्गों ने बार बार वहां के अवाम को सैनिक तानाशाहों के माध्यम से जुल्म और शोषण का शिकार बनाया तो वहां के वामपंथी और जम्हूरियतपसंद शायरों और अदीबों ने बहुत तकलीफ़ें झेलीं, फै़ज़ और हबीब जालिब जैसे शायरों को जेलों में बंद रहना पड़ा, फ़हमीदा रियाज़ को भागकर भारत में शरण लेनी पड़ी। इन हालात पर नज़र डालने पर यह समझ में आता है कि फै़ज़ की कविता में `दर्द´, `दुख´, `ग़म´,`तनहाई´ जैसे बार बार आने वाले शब्दों का क्या सामाजिक सन्दर्भ है। इसी तरह के एक संदर्भ का हवाला एडवर्ड सईद ने थ्योडोर एडोर्नो की निर्वासन के दौरान लिखी उनकी आत्मकथा, क्षत-विक्षत ज़िदगी पर विचार, (Reflections from a Mutilated Life) के बारे में दिये हैं। `निर्वासन में रह रहा बुद्धिजीवी खुद को एक वस्तु में तब्दील होने से इनकार करता है।´ फ़ैज़ के साथ भी यही होता है कि वे खुद को एक कमोडिटी में तब्दील नहीं होने देते, तानाशाहों को उनसे यही तो शिकायत थी, ऐसी ही स्थिति तो हमारे यहां एमर्जैंसी के दौर में थी जब बहुत से बुद्धिजीवियों ने खुद को वस्तु या मिट्टी का माधो बनने से इनकार कर दिया था और निर्वासन की यातना झेली थी।

फ़ैज़ ने अपने निर्वासन का दर्द जिस तरह सहा, वह भी एक मिसाल ही है, क्योंकि उसे उन्होंने दुनियाभर के दुखी, ग़रीब, मज़लूमों के ग़म के साथ घुलामिला दिया, ऐसा ही मशविरा उन्हें रशीद जहां से उन दिनों ही मिला था जब वे अमृतसर में कालेज में लेक्चरर थे जिसका हवाला फ़ैज़ ने अपनी आपबीती में और बी बी सी को दिये अपने एक इंटरव्यू में भी दिया था कि अपने ग़मों के बजाय दुनिया भर के ग़रीबों और वंचितों के ग़मों को महसूस करो और उन दुखों को वाणी दो। फ़ैज़ ने फिर वही किया। अपनी महबूबा से भी कह डाला कि पहले जैसी मुहब्बत की मांग पूरी करना मुमकिन नहीं, यहां फ़ैज़ ने अपने `स्व´ के विस्तार की बात कही है जिसे मुक्तिबोध ने अपनी कई कविताओं में बयान किया था। अपने निज के दर्द से ऊपर उठने की प्रक्रिया आसान नहीं होती, मगर महान कविता के लिए वह ज़रूरी तो होती ही है। यह प्रक्रिया नक्शे फ़रियादी के दूसरे हिस्से से ही शुरू हो गयी थी, और फिर बाद के संग्रहों में तो दर्द के इस समाजीकरण को बहुत ही कलात्मक तरीक़े से फ़ैज़ ने अपनी शायरी का मौजू बनाया। ग़म की इस बदलती रंगत ने उनकी शायरी में एक नया ही रंग ला दिया। फ़ैज़ ने दुनिया के शोषितों को वे गीत और तराने दिये जो उनकी ज़बान पर नारे बन कर सभी जगह गूंजने लगे। उन्हें अपनी संगठित शक्ति का अहसास कराया, ज़ालिमों के अंत की आशा दी, अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी बनाये रखने का हौसला दिया, उन्होंने ही हमें सिखाया, `बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे´। उन्होंने अपने निर्वासन में अभिव्यक्ति की जो शैली ईजाद की वही सारी जनवादी कविता की शैली बन गयी, `हमने जो तर्ज़े फुगां की है क़फ़स में ईजाद / फ़ैज़ गुलशन में वही तर्जे़ बयां ठहरी है´।

निर्वासन के दर्द को सहने और उसे रचनात्मकता का रूप देने की प्रक्रिया ने फ़ैज़ में क्रांतिकारी आशावाद ज़िंदा रखा। अगर निर्वासन से टूट जाते तो सर्वहारावर्ग के दुश्मनों की ही जीत होती। मेरे दिल मेरे मुसाफि़र में संकलित `शायर लोग´ नज्म बताती है कि शायर को अपने दर्द को विस्तार देने के लिए क्या करना होता है :

जिन पे आंसू बहाने को कोई न था
अपनी आंख उनके ग़म में बरसती रही
सबसे ओझल हुए हुक्मे हाकिम पे हम
कै़दख़ाने सहे ताज़याने सहे
लोग सुनते रहे साज़े-दिल की सदा
अपने नग्में सलाख़ों से छनते रहे

(नुस्ख़ा हाए वफ़ा, पृ. 628) 

फ़ैज़ की कविताओं में निर्वासन या क़ैद के जो बिम्ब और प्रतीक आये हैं, या जो नग्में सलाख़ों से छनते रहे, उन्हें हम ख़ासतौर से उनके उन संकलनों में पूरी कलात्मकता के साथ देख सकते हैं जो दस्ते सबा, ज़िंदांनामा, दस्ते तहे संग, सर-ए-वादी-ए-सीना से शुरू हो कर शाम-ए-शहरे यारां, मेरे दिल मेरे मुसाफि़र, ग़ुबारे अय्याम आदि शीर्षकों से पाठकों के सामने आये। रचनात्मकता की एक लंबी यात्रा उन्होंने तय की, पूरी दुनिया के साहित्य और विचारों की जानकारी उन्हें मिली हुई थी। सारी दुनिया में उन दिनों चल रहे मुक्ति आंदोलनों में जूझ रहे अवाम के साथ उन्होंने ख़ुद को जोड़ा, उन से प्रेरणा ली और अपना हौसला बुलंद रखा। निर्वासन के दर्द का अहसास मेरे दिल मेरे मुसाफि़र जो यासर अरफ़ात को समर्पित संकलन था की पहली नज्म में एक कलात्मक श्रेष्ठता के साथ देखा जा सकता है:

मेरे दिल मेरे मुसाफि़र
हुआ फिर से हुक्म सादिर
कि वतन बदर हों हम तुम
दें गली गली सदाएं
करें रुख़ नगर नगर का
कि सुराग़ कोई पायें
किसी यार-ए-नामाबर का
हर इक अजनबी से पूछें
जो पता था अपने घर का

(नुस्ख़ा हाए वफ़ा, पृ. 613) 

इसी संकलन की `तीन आवाज़ें´ कविता में तीन नज्में आवाज़ की शक्ल में हैं, एक आवाज़, `ज़ालिम´ की है जिसमें व्यंग्य और विडम्बना का अद्भुत प्रयोग है, दूसरी आवाज़ `मज़लूम´ की है जिसमें दुनिया भर के मज़लूमों का दर्द छलकता है, तीसरी आवाज़ आसमान से आने वाली आवाज़, `निदा-ए-ग़ैब´ है जो धार्मिक रूपक की तरह दिखने पर भी एक क्रांतिकारी की आवाज़ बन कर दुनिया भर के शोषितों और वंचितों को हौसला देती है : `उठेगा जब जम्म-ए-सरफ़रोशां/पड़ेंगे दार-ओ-रसन के लाले/कोई न होगा कि जो बचा ले/जज़ा सज़ा सब यहीं पे होगी/यहीं अजाब-ओ-सवाब होगा/यहीं से उट्ठेगा शोर-ए-महशर/यहीं पे रोज़-ए-हिसाब होगा´(नुस्ख़ा-हाए-वफ़ा, पृ.639, समरकंद :1979)।

बेरुत प्रवास के दौरान उन्होंने फि़लिस्तीनी मुक्ति-संग्राम के साथ अपनी एकजुटता क़ायम की और उसे अपनी शायरी का मौजू भी बनाया। बेरुत में 1980 में लिखी `फि़लिस्तीनी शुहदा जो परदेस में काम आये´ और `फि़लिस्तीनी बच्चे के लिए लोरी´ उनकी दो मशहूर नज्में हैं जिनमें उनके निर्वासन के दर्द का अहसास पूरी भावभीनी करुणा के साथ उभरता है। मुक्तिबोध की एक पंक्ति याद आती है, `भोले भाव की करुणा क्रांतिकारी सिद्ध होती है।` फ़ैज़ उक्त दो नज्मों में से पहली नज्म में कहते हैं :

दूर परदेस की बे-महर गुज़रगाहों में
अजनबी शहर की बेनामोनिशां राहों में
जिस ज़मीं पर भी खुला मेरे लहू का परचम
लहलहाता है वहां अर्ज़-ए-फि़लिस्तीं का अलम

(नुस्ख़ा हाए वफ़ा, पृ. 657)

और दूसरी नज्म जो लोरी की विधा में लिखी गयी है निर्वासन का दर्द झेलते बच्चे को सुलाने के लिए नहीं, उसे मुस्कराते रहने के लिए कहती है, बच्चे के सारे अपने परिवारजन उससे दूर कहीं चले गये हैं, यदि वह रोयेगा तो उसे ज़ालिम और रुलायेंगे और मुस्करायेगा तो उसके अपने लोग भेस बदल कर वापस आयेंगे, यहां शायर ने ईसा मसीह की वापसी या `रिज़रैक्शन´ जैसा रूपक बहुत ही सरल शब्दों में बांधा है:

तू गर रोयेगा तो ये सब
और भी तुझको रुलवायेंगे
तू मुस्कायेगा तो शायद
सारे एक दिन भेस बदल कर
तुझ से खेलने लौट आयेंगे

(नुस्ख़ा हाए वफ़ा, पृ. 660)

मुस्कराते हुए दर्द को झेलना उनकी शायरी की टेकनीक ही नहीं, अवाम के दुश्मनों को चुनौती भी रही, अपने एक गीत में उन्होंने कहा था, `अपने दर्दों का मुकुट पहन कर/बेदर्दों के सामने जायें/जब रोना आवे मुस्कायें/जब दिल टूटे दीप जलायें।´ (नुस्ख़ा हाए वफ़ा, पृ. 676-77)

यह विडम्बना ही कही जायेगी कि जिस शायर ने अपने वतन से बेइंतिहा मुहब्बत की हो, उसे ग़द्दार कह कर लांछित किया जाये, उसके लिए वतन का मतलब सिर्फ़ नक़्शे पर खिंची हुई लकीरें नहीं था, वे सारे अवाम थे जिनसे मिल कर कोई वतन बनता है। अगर उन अवाम के जम्हूरी हकूक़ छीन लिये जायें, ज़ुल्मोसितम के ख़िलाफ़ लब खोलने की आज़ादी छीन ली जाये, और साम्राज्यवाद की शह पर तानाशाही थोप दी जाये तो कोई भी सच्चा संवेदनशील कवि और अदीब बेचैन हुए बग़ैर कैसे रह सकता है। फ़ैज़ ने अपने वतन से मुहब्बत का इज़हार अपनी शायरी में बार बार किया है, 1980 में बेरुत में निर्वासन में रहते हुए भी `ख़याल सू-ए-वतन रवां है/समंदरों की अयाल थामे/हज़ार वहम-ओ-गुमां संभाले/कई तरह के सवाल थामे।´ (नुस्ख़ा हाए वफ़ा, पृ. 664) वे फि़लिस्तीनी शूरवीरों को अपने वतन पर जान न्योछावर करते देख रहे थे और उन से प्रेरणा लेते हुए अपने निर्वासन के दर्द को भूल जाते थे, `शोपेन का नग़मा बजता है´ नज्म में वे कहते हैं :

कुछ आज़ादी के मतवाले जां कफ़ पे लिये मैदां में गये
हर सू दुश्मन का नर्ग़ा था, कुछ बच निकले, कुछ खेत रहे
आलम में उनका शोहरा है
शोपेन का नग़मा बजता है

(नुस्ख़ा-हाए-वफ़ा, पृ. 630) 

कुछ आलोचकों ने फ़ैज़ की शायरी को रूपवादी संरचनावादी नज़रिये से देखने की कोशिश करते हुए उनके अर्थों और उनके अंतर्निहित रुझान को विकृत भी किया है। ऐसी ही एक कोशिश जनाब गोपीचंद नारंग की भी मुझे दिखायी पड़ी जिन्होंने फ़ैज़ की एक मशहूर नज़्म, `दस्ते तहे संग आम्दा´ (जिस पर फ़ैज़ ने अपने एक संकलन का नाम भी रखा) की संरचनावादी व्याख्या करके यह बताया कि यह कै़दख़ाना विचारधारा का भी हो सकता है जिससे मुक्ति की कोशिश शायर कर रहा था, ऐसा अर्थ निकालते हुए उन्होंने प्रगतिशील आंदोलन पर भी लगे हाथ चोट कर दी, और फ़ैज़ को अली सरदार जाफ़री के मुक़ाबले विचारधारा की जकड़बंदी से मुक्त तथा इंडोपर्शियन सौंदर्यशास्त्र का पालन करने वाला शायर बताया और यह भी कहा कि मार्क्सवादी इस सौंदर्यशास्त्र को `बूर्जुआ´ कहते हैं। वे मानते हैं कि फ़ैज़ की कविता में `मौन´ और `अंतराल´ ही उन्हें विचारधारा को अतिक्रमित करने में मदद पहुंचाते हैं। गोपीचंद नारंग को यह नहीं मालूम कि विचारधारा को परोक्ष रखने की सलाह रचनाकारों को सबसे पहले एंगेल्स ने ही दी थी जो मार्क्सवाद के प्रणेता थे। अपनी काव्य परंपरा ही नहीं, पूरे अतीत की संस्कृति का वाहक सर्वहारावर्ग को ही होना है और यह संदेश लेनिन ने और माओ ने भी प्रगतिशील रचनाकारों और संस्कृतिकर्मियों को अपने अपने समय में दिया था जो आज भी प्रासंगिक है। इसलिए अगर फ़ैज़ अपनी कविताओं के लिए इंडोपर्शियन सौंदर्यशास्त्र से काम ले रहे थे या समूचे विश्व के बेहतरीन अदब और कला की रवायत को आगे बढ़ा रहे थे, तो यह उनकी विचारधारा का कोई विचलन नहीं था और न किसी मार्क्सवादी ने इस सौंदर्यशास्त्र को `बूर्जुआ´ या `सामंती´ कहा। यह तो नारंग साहब की अपनी ही ख़ामख़याली है, बक़ौल फ़ैज़, `वो बात, सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था / वो बात उन को बहुत नागवार गुज़री है।´ फ़ैज़ के ज़िंदानामा में कविताओं से पहले सज्जाद ज़हीर की एक छोटी टिप्पणी उस संकलन में शामिल है, जिसमें इस शायर और अपने हमदम, अपने दोस्त और क़ैद के संगी साथी की कविताओं में पंरपरा से लिये गये सौंदर्यबोध की तारीफ़ की है, उन्होंने तो इस बोध को `बूर्जुआ´ या `सामंती´ नहीं कहा जबकि वे तो प्रगतिशील लेखक संघ की बुनियाद रखने वाले अदीब थे। उन्होंने लिखा: जहां तक उन इक़दार (मूल्यों) का तआलुक़ है जिनको शायर ने उन में पेश किया है वो तो वही हैं जो उस ज़माने में तमाम तरक्क़ीपसंद इंसानियत की इक़दार हैं, लेकिन फ़ैज़ ने उन को इतनी ख़ूबी से अपनाया है कि वो न तो हमारी तहज़ीबो तमद्दन की बेहतरीन रवायत से अलग नज़र आती हैं और न शायर की इनफ़रादियत, उसका नर्म, शीरीं और मतरन्नुम अंदाज़-ए-कलाम कहीं भी उनसे जुदा हुआ है।
(नुस्ख़ा हाए वफ़ा, पृ. 198) 

नारंग जैसे बहुत से आलोचक पश्चिम से उधार ली गयी या चोरी की हुई आलोचना पद्धतियों का इस्तेमाल अक्सर प्रगतिशील जनवादी विचार परंपरा पर हमला बोलने के लिए करते हैं और ज्यादा मग़ज़पच्ची संरचनावाद पर करते हुए वे पाठकों को यह सीख देते हैं कि `फ़ैज़ को किस तरह नहीं पढ़ना चाहिए´ (उनके लेख का यही शीर्षक है) और कैसे पढ़ना चाहिए इसके लिए उन्होंने उनकी एक नज्म `दस्ते तहे संग आम्दा´(चट्टान के नीचे दबा हाथ) की संरचनावादी व्याख्या की है। यह बिम्ब कवि ने ग़ालिब से लिया है। ग़ालिब के वक्त उपनिवेशवादी ईस्ट इंडिया कंपनी की चट्टान के नीचे कलाकार का हाथ दबा था, 1857 के उस वक्त के वहशी दमन और उत्पीड़न को ग़ालिब ने अपनी आंखों देखा था, फ़ैज़ ने मार्शल लॉ की चट्टान के नीचे दबे हुए तख्लीक़ी हाथ को देखा था, उन्होंने रचनाकारों की अभिव्यक्ति की आज़ादी पर लगी पाबंदी ही नहीं, दुनिया के कई देशों पर सामराजी दमन के वहशीपन को भी देखा और तमाम वंचितों, वतन बदर किये अवाम और निर्वासन में जी रहे इंसानों का दर्द भी तल्ख़ी से महसूस किया था। लुडमिला वासीलेवा की फ़ैज़ पर लिखी किताब का रिव्यू करते हुए अदीब ख़ालिद ने इस बात को रेखांकित किया है। उन्होंने लिखा है कि फ़ैज़ साहब ने 1982 के एक वक्तव्य में ख़ुद यह कहा था: एक मुसिन्नफ़ की हैसियत से हालांकि मैं किसी मुल्क का कामकाज नहीं संभालता हूं और न ही मेंरे पास कोई प्रशासनिक ताक़त है, मुझे यह अहसास करने का हक़ ज़रूरहै कि मैं अपने भाई बंधुओं का अभिभावक हूं और मेरे भाई बंधु पूरी दुनिया के अवाम हैं। मेरे तईं अमन, आज़ादी, युद्धबंदी, और एटमी होड़ की मुख़ालिफ़त ही प्रासंगिक हैं। इस विशाल भाईचारे में से मेरे और मेरे दिल के सबसे नज़दीक वे अवाम हैं जो अपमानित, निष्कासित और वंचित हैं, जो ग़रीब, भूखे और परेशान हैं। इसी वजह से मेरा लगाव फि़लिस्तीन, दक्षिण अफ्रीका, नामीबिया, चिले के अवाम और अपने मुल्क के अवाम और मुझ जैसे लोगों से है। 

जिस तरह वे खुद निर्वासन का दर्द झेल रहे थे उसी तरह वतन बदर हुए अनेक फि़लिस्तीनी अवाम और दुनिया के कई मुल्कों में दमन और उत्पीड़न के शिकार भोले भाले लोग उनके स्वाभाविक तौर पर हमराही थे, उनका दर्द भी वे अपनी शायरी में व्यक्त कर रहे थे, कहीं वह दर्द सीधे सीधे कहा गया है तो कहीं वह प्रतीकों और बिम्बों के माध्यम से आया है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि वे पस्तहिम्मती नहीं दिखाते, एक उम्मीद हर जगह जताते हैं, ज़ुल्मोसितम के अंधेरे छंटेगे और बेहतर भविष्य की सुबह आयेगी। दस्ते तहे संग की नज़्में वतन बदर होने से पहले की हैं मगर उनमें भी उनकी कै़द की जिंदगी में मिले दर्द की कलात्मक अभिव्यक्ति देखी जा सकती है। भाषायी पैराडाक्स का बेहतरीन इस्तेमाल भी जनाब नारंग को नज़र नहीं आया, विचारधारा का बंधन दिखायी दे गया। नज्म की पहली दो पंक्तियां उस दर्द का इज़हार करती हैं मगर, उनके बाद दो पंक्तियां उस मायूसी को पैराडाक्स की शक्ल दे देती हैं :

बेज़ार फ़ज़ा, दरपये आज़ार सबा है
यूं है कि हर इक हमदम-ए-देरीना ख़फ़ा है
हां बादाकशो, आया है अब रंग पे मौसम
अब सैर के क़ाबिल रविशे आबोहवा है

(नुस्ख़ा हाए वफ़ा, पृ. 316 ) 

गोपीचंद नारंग इस पूरी नज्म का एक संरचनावादी पाठ पेश करने का दम भरते हैं और यह घोषणा करते हैं कि यह कविता `न तो प्रेम कविता है और न राजनीतिक कविता´। मगर जब इस नज्म के मेटाफ़र व्याख्यायित करने लगते हैं तो उनके सामाजिक-राजनीतिक पक्ष ही उजागर करने पर मजबूर होते हैं। इस पूरी कविता में `इल्ज़ाम की बरसात´, `ज़हर हलाहल´, `ज़ुल्म´, `जेल´, `ज़ंजीर´, `सज़ा´, `हथकड़ियां´ और अंत में ग़ालिब से लिये हुए बिम्ब, `गिरफ़्तारी´,`चट्टान के नीचे दबा हाथ´ क्या उस राजनीतिक चेतना के बग़ैर व्याख्यायित किये जा सकते हैं जिसकी वजह से शायर आख़िरी दिनों तक अपने निर्वासन में भी `अर्ज़े-ए-वतन´ से कहता रहा कि

हम तो मजबूर-ए-वफ़ा हैं, मगर ऐ जान-ए-जहां
अपने उश्शाक़ से ऐसे भी कोई करता है
तेरी महफि़ल को ख़ुदा रक्खे अबद तक क़ायम
हम तो मेहमां हैं घड़ी भर के हमारा क्या है

(नुस्ख़ा हाए वफ़ा, पृ. 645) 

एक ऐसे शायर की शायरी की संरचनावादी व्याख्या करके उसके अर्थ को विकृत करना उसकी विचारधारा के विरोधियों का एक शगल रहा है जो अपने वतन और दुनिया की उस जनशक्ति को अपनी महबूबा की तरह देखता है जिसकी मुक्ति के लिए वह तड़पता है, और जीवन के अंत तक अपनी विचारधारा से विचलित नहीं होता। संरचनावाद का जप करने से या अल्थ्यूसर और रोलां बार्थ का नाम स्मरण कर लेने से संरचनावादी व्याख्या भी नहीं होती और की जायेगी तो निहायत विकृत और फूहड़ क़िस्म की ही होगी।

कुछ लोगों ने फ़ैज़ के बारे में यह भी कहा कि वे अपनी मार्क्सवादी विचारधारा के प्रति शंकालु हो रहे थे और उनका कमिटमेंट कमज़ोर पड़ रहा था, सोवियत व्यवस्था से उनका मोहभंग हो रहा था। उनका देहांत 1984 में हुआ था, सोवियत संघ का विघटन बाद में हुआ था। ये आरोप मनगढ़ंत ही हैं, इस तरह के आरोप हिंदी में मुक्तिबोध पर भी लगाये गये थे, रचनाओं में इस तरह की दूर की कौड़ी लाना और शायर को लांछित करना प्रतिक्रियावाद की शरारत ही कही जायेगी। ऐसे लोगों से ही वे अपने अंतिम दिनों की एक सुंदर प्रेरणादायक नज्म, `इधर न देखो´ में कहते हैं :

उधर भी देखो
जो हर्फ़-ए-हक़ की सलीब पर अपना तन सजा कर
जहां से रुख्सत हुए
और अहले जहां में इस वक्त तक नबी हैं

(नुस्ख़ा हाए वफ़ा, पृ. 717) 

फ़ैज़ साहब की शायरी की यही तो ख़ूबी है कि वे इश्क़, वतन से मुहब्बत, अपनी इन्क़लाबी विचारधारा, और दुनिया के मेहनतकशों और वंचितों व मज़लूमों के साथ हमदर्दी और अपने निर्वासन के दर्द को इस तरह अपनी शायरी में घुलामिला देते हैं कि उसमें यथार्थ की बहुत सारी परतें कलात्मकता की नयी झलक देती हैं। उनकी एक ग़ज़ल के इस शेर को देखें:

ऐसे नादां भी न थे जां से गुज़रने वाले
नासेहो, पंदगरो राहगुज़र तो देखो

(नुस्ख़ा हाए वफ़ा, पृ. 280 , मंटगोमरी जेल, 4 मार्च 1956) 

उनकी विचारधारा के विरोधी भी उनकी कलात्मक संश्लिष्टता पर मोहित हैं और उन्हें अपनी घटिया आलोचना का शिकार नहीं बना पाते। हम लोगों का प्यारा यह शायर उर्दू में ही नहीं, पूरी दुनिया के अदब में हमेशा हमेशा एक चमकता सितारा रहेगा।
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साभार : chanchalchauhan.blogspot.in

Thursday, February 7, 2013

Some important IPTA events in February 2013


8 Feb - Assam:Beginning of District Conferences at ten places





9-16 Feb - Raebareli (U.P.)
Theatre Workshop






10 Feb - Dindigal (Tamil Nadu):
Cultural Festival






19-23 Feb -Jaipur (Rajasthan): 
5th Theatre Festival




23 Feb- Thiruvannamalai (Tamil Nadu):
Cultural Night dedicated to the First Anniversary  of State IPTA





26 Feb - Agra(U.P.):
Play "Arre Aap!" 
(Comedy based on Chekhov's plays)



शांति कायम करने में कला के आदान-प्रदान की अहम भूमिका है


भारतीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के सालाना जलसे भारतीय रंग महोत्सव (भारंगम) में इस बार मशहूर अफसानानिगार सआदत हसन मंटो पर विशेष प्रस्तुतियां दी जानी थीं. इसके लिए पाकिस्तान से दो नाट्य समूह अपनी प्रस्तुतियां लेकर आए थे. लेकिन शो से ऐन पहले एनएसडी ने सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए उनको नाटक नहीं करने दिया. अजोका की निर्देशक मदीहा गौहर से पूजा सिंह की बातचीत, तहलका से साभार :  

एनएसडी ने आपका नाटक क्यों नहीं होने दिया? आपको इस बारे में किसने और क्या बताया?
दिल्ली से पहले जयपुर में हमारा शो होना था. 16 जनवरी को शो से ठीक दो घंटे पहले हमारे पास एनएसडी प्रशासन का फोन आया. कहा गया कि सुरक्षा कारणों से शो रद्द कर दिया गया है और हम दिल्ली पहुंच जाएं, अब वहां यह शो होगा. हम दिल्ली आ गए. लेकिन यहां भी प्रस्तुति से ठीक पहले बताया गया कि सीमा पर चल रहे तनाव की वजह से सुरक्षा संबंधी दिक्कतें पैदा हो सकती हैं. इसलिए बेहतर यही है कि इस नाटक का मंचन न किया जाए. मुझे समझ में नहीं आया कि एक ग्रुप जो कला प्रेमियों के बीच अपनी प्रस्तुति देने आया है, उसे किसी से क्या खतरा हो सकता है.



अचानक यह जानकर झटका लगा होगा?
जाहिर है हमें बहुत अफसोस और हैरानी हुई कि बिना किसी ठोस वजह के शो को इस तरह अचानक क्यों कैंसिल कर दिया गया. और फिर यह मंटो पर आधारित नाटक था. वही मंटों जिनके दोनों मुल्कों में अनगिनत चाहने वाले हैं. उनका नाटक कैंसिल करना आपसी भाईचारे और मुहब्बत की भावना का मजाक उड़ाना और उस रवायत को बढ़ावा देना था जिसके खिलाफ वह ताउम्र कलम चलाते रहे. हम पिछले 25 साल से भारत के अलग-अलग हिस्सों में परफार्म कर रहे हैं. हमने 26/11 के हमले के बाद मुंबई में नाटक किया था, हम श्रीनगर जैसे संवेदनशील शहर में नाटक कर चुके हैं. हम यह तसव्वुर भी नहीं कर सकते थे कि अचानक इसे कैंसिल कर दिया जाएगा. और एक ऐसी वजह पर जिसके बारे में किसी को ठोस मालुमात नहीं हैं. आखिर एलओसी पर हुआ क्या है, उसकी जांच तो अभी चल ही रही थी. बहरहाल जो भी हुआ अच्छा नहीं हुआ. मैं इसकी भर्त्सना करती हूं.

दोनों देशों में जो मौजूदा तनाव है उसे लेकर एक कलाकार के रूप में आपका क्या नजरिया है?
मुझे तो कहीं कोई तनाव नहीं नजर आया. मैं दिल्ली की सड़कों पर पैदल घूमती हूं, ठीक अपने मुल्क की तरह और आपको बताऊं कि मैं यहां लाहौर से अधिक सुरक्षित महसूस करती हूं क्योंकि हमारे यहां हालात वाकई खराब हैं. यह तनाव वाली बात पूरी तरह मीडिया की गढ़ी हुई है. रही बात नाटक रद्द होने की व तीखी बयानबाजी की तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी व शिवसेना जैसे दलों ने सरकार पर दबाव डाला और वह झुक गई. अगर सरकार वाकई खुद को सेक्युलर मानती है तो उसे गलत दबाव के आगे झुकना नहीं चाहिए था.

आपके मन में ठीक इस वक्त क्या चल रहा है? दुख है? गुस्सा है? या और कुछ.
गुस्से से ज्यादा दुख है क्योंकि मैं अरसे से मैं हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच अमन-चैन कायम करने के प्रयासों में भी लगी हुई हूं. लेकिन बीच-बीच में ऐसी घटनाएं घट जाती हैं जो हमारी सारी मेहनत, सारे किए-कराए पर पानी फेर देती हैं. हम एक कदम आगे बढ़ने के बजाय दस कदम पीछे हो जाते हैं. अभी इंडियन हॉकी लीग से भी पाकिस्तानी हॉकी प्लेयर्स को बिना खेले वापस लौटना पड़ा. तो यह भेदभाव की, अलगाव की भावना हमें कहीं नहीं ले जाएगी. हमें इस बात को गांठ बांध लेना होगा कि शांति कायम करने में आपसी बातचीत और कला के आदान-प्रदान की अहम भूमिका है. हम लोग समय-समय पर भारतीय कला समूहों को बुलाते रहते हैं जिससे दोनों मुल्कों में अमन का पैगाम दे सकें. थियेटर के जरिये यह काम बहुत अच्छी तरह किया जा सकता है. यह दोनों देशों के संबंधों में सुधार का अहम जरिया है क्योंकि हमारी कला की विरासत साझा है.

यह जो कला को राजनीति से जोड़ने की कोशिश हो रही है, इसका विरोध किस तरह होना चाहिए?
ऐसे हालात में जब कोई गड़बड़ी होने की आशंका नजर आए तो यकीनन देश की सिविल सोसाइटी को आगे आना चाहिए. यह उनकी जिम्मेदारी है. मुझे लगता है कि यह यहां की सिविल सोसाइटी की जिम्मेदारी है. उनको आगे आना चाहिए. देखिए कि उनकी मदद से ही बाद में दो जगह इस नाटक का आयोजन संभव हो पाया. हम तो मेहमान हैं हम यहां भला क्या कर सकते हैं? बल्कि पाकिस्तान जाने पर हमें मुश्किलों का सामना करना होगा. वहां हमारा विरोध होगा. कहा जाएगा कि और जाइए भारत, बेइज्जत होने. वहां हमारी आलोचना होगी. दोनों जगह ऐसे लोग सक्रिय हैं जो चाहते हैं कि शांति स्थापित न हो सके. लेकिन मैं स्पष्ट कर दूं कि अगर दोबारा यहां आने का न्योता मिला तो मैं बिना कोई गिला या शिकवा किए तुरंत चली आऊंगी. आखिर यहां हमें प्यार करने वाले इतने सारे लोग हैं.

पाकिस्तानी कलाकारों को लेकर हिंदुस्तान में बहुत दीवानगी है, बहुत प्यार है. पाकिस्तान में भारतीय कलाकारों को लेकर कैसी सोच है?
इतनी दीवानगी है कि आप सोच भी नहीं सकतीं. सिनेमा घरों में हिंदी फिल्में लगती हैं और हाउसफुल चलती हैं. उनकी बदौलत हमारे यहां की यंग जनरेशन हिंदुस्तानी रवायतें सीख रही है, यहां के तौर-तरीकों से परिचित हो रही है. सलमान खान, शाहरुख खान और लता जी तो इतने पॉपुलर हैं कि उसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता. और भी तमाम कलाकारों के फैन बड़ी संख्या में मौजूद हैं.

पाकिस्तान में थियेटर की क्या हालत है? अवाम के स्तर पर उसकी पॉपुलैरिटी और गवर्नमेंट सपोर्ट कैसा है?
यहां और वहां में फर्क तो है. पाकिस्तान में थियेटर के हालात उतने अच्छे नहीं हैं जितने अच्छे हिंदुस्तान में हैं. मैं देखती हूं यहां अलग-अलग तरह के आर्ट को सरकार का भरपूर समर्थन हासिल है, जबकि हमारे यहां सरकारी सपोर्ट एकदम न के बराबर है. अजोका पाकिस्तान में बेहद पॉपलुर है. अब तो वहां के अंदरूनी हालात ऐसे हो गए हैं कि हम लाहौर के बाहर उतना परफार्म नहीं कर पा रहे हैं. लेकिन फिर भी जहां-जहां हमारी प्रस्तुतियां होती है वहां-वहां लोग बहुत सराहना करते हैं. फिर भी संक्षेप में कहूं तो हमारे यहां थियेटर के हालात बहुत अच्छे नहीं हैं.

आप अजोका ग्रुप की सब कुछ हैं. पाक में थियेटर में दूसरी औरतें कितनी सक्रिय हैं? वहां उनको लोग किस नजर से देखते हैं?
पाकिस्तान हो या हिंदुस्तान, थियेटर में लड़कियों की मौजूदगी कम ही है. मेरे ख्याल से तो दोनों ही जगह थियेटर में बड़ी हिम्मती लड़कियां ही काम करती हैं. मुझे लगता है कि यह पूरे दक्षिण एशिया की स्थिति है. हां, थियेटर के आगे जहां और भी है. सामाजिक स्थिति की बात की जाए तो हमारे यहां हालात थोड़ा ज्यादा खराब हैं. वहां कानूनी तौर पर भी औरतों के साथ कुछ ज्यादा ही भेदभाव होता है.

दोनों देशों में कला के स्तर पर और अधिक सहयोग कैसे बढ़ाया जा सकता है?
दो मुल्कों की रिलेशनशिप को नार्मल बनाने का सबसे अच्छा जरिया है रचनात्मक आदान-प्रदान में इजाफा करना. इसमें खेल, संगीत, थियेटर समेत सभी तरह के कला माध्यम शामिल हैं. इसके लिए सबसे पहले जरूरत इस बात की है कि वीजा नियमों को अधिक आसान बना दिया जाए ताकि सीमा के इस पार से उस पार आना-जाना आसान हो सके. इससे यह होगा कि लोग जितना एक-दूसरे को जानेंगे गलतफहमियां अपने आप दूर होंगी.


Tuesday, February 5, 2013

एकल और ग्लोबल कूड़े का रंगमंच

-पुंज प्रकाश

"घटनाओं को लेकर बढ़ाती अनभिज्ञता अन्याय को मुख्य रूप से आश्रय देती है |" - सालाविनी ( इतालवी लोकतंत्रवादी )
कल नाट्य प्रस्तुति का अर्थ अमूमन ये लगाया जाता है कि अकेला किया जाने वाला नाटक | पर यह समझ एक प्रकार का सरलीकरण है | किसी काल में हो सकता है कि रंगमंच अकेला किया जाने वाला भी कार्य हो पर वर्तमान में रंगमंच एक सामूहिक कर्म है इस वजह से यह कभी एकल हो ही नहीं सकता | कुछ नहीं तो कम से कम एक अभिनेता और कम से कम एक दर्शक के बिना किसी भी प्रकार के नाटक की परिकल्पना संभव ही नहीं |

अमूमन, आज तक मैंने जितने एकल नाट्य प्रस्तुतियाँ देखीं हैं उनमें भले ही एक अभिनेता दर्शकों से रु-ब-रु हो रहा होता है पर उसके पीछे कई लोगों की टीम काम कर रही होतीं हैं जैसा कि किसी अन्य नाट्य प्रदर्शन में होता है | मसलन – लेखक या नाटककार, निर्देशक, विभिन्न प्रकार के परिकल्पक आदि | इन सबका योगदान कम करके नहीं आंकना चाहिए | जो सामने दिखता है सच केवल उतना ही नहीं होता, अगर हम केवल उसे ही सत्य मान लेते हैं तो ये हमारी अज्ञानता का ही परिचायक है और फिर यहाँ तो पाठ ( Text ) के पीछे वैसे भी उप-पाठ ( Sub-Text ) होता है |

"केवल अभिनेता की संख्या एक हो जाने से ये नाटक से कोई अलग प्रकार की विधा हो गई ऐसा नहीं समझना चाहिए | नहीं तो दो पात्रवाले नाटक दोकल और तीन पात्र वाले त्रिकल और बहुत सारे अभिनेताओं वाले नाटक भीड़कल नाटक कहे जाने चाहिए....."

केवल अभिनेता की संख्या एक हो जाने से ये नाटक से कोई अलग प्रकार की विधा हो गई ऐसा नहीं समझना चाहिए | नहीं तो दो पात्रवाले नाटक दोकल और तीन पात्र वाले त्रिकल और बहुत सारे अभिनेताओं वाले नाटक भीड़कल नाटक कहे जाने चाहिए | एक बात साफ़ तौर पर समझ लेना चाहिए कि सब नाटक ही हैं जिन्हें हम पहचानने के लिए अपनी सुविधा के अनुसार नामांकन कर देतें हैं |

हाँ, नामांकन से याद आया कई बार अक्सर हम बिना जाने-पहचाने, चीजों को उनके प्रचलित नाम से बुलाने लगतें हैं | जैसे कि हम कितनी आसानी से कह देतें हैं “फोक थियेटर या लोक नाट्य” | अब देखिये इस विषय पर जगदीश चंद माथुर क्या लिखतें हैं – “ ऑक्सफोर्ड कम्पेनियान ऑफ ड्रामा के अनुसार “फोक प्ले” यानि “लोकनाटक” ऐसा नाट्य मनोरंजन है जो ग्रामीण उत्सवों पर ग्रामवासियों द्वारा स्वं प्रस्तुत किया जाता है और प्रायः अशिष्ट और देहाती होता है |” ( पारंपरिक नाट्य, पन्ना संख्या १७ ) अब ये है परिभाषा | तो क्या आप अब भी भारत के क्षेत्रीय नाट्यशैलियों को “फोक थियेटर या लोक नाट्य” कहेंगें ? शायद कह भी सकतें हैं क्योंकि कुछ ज़्यादा “पढ़े-लिखे टाईप" रंगकर्मी महानगरों में पाए जातें हैं जो बात-बात पर ग्रीक, रोम, जापान आदि की सैर करने लगतें हैं और जिन्हें भारत, भारतीयता, परम्परा, पारंपरिक आदि शब्दों के अर्थ खोखले लागतें हैं वो बड़े शान से Folk Theatre जैसे शब्दों का उच्चारण करतें हैं |

लोकप्रिय मान्यता है कि एकल अभिनय वही अभिनेता कर सकता है जो अभिनय में पारंगत हो | ये बात सच भी है पर अभिनय में पारंगत तो हर अभिनेता को होना चाहिए, कम से कम कोशिश तो करनी ही चाहिए, चाहे वो एकल अभिनय करे या सामूहिक | पर ऐसी एक मान्यता बन गई है कि सामूहिक अभिनय में अभिनेता की कमियों को छुपाया जा सकता है, एकल में नहीं | हो सकता है इस बात में कुछ सच्चाई हो परन्तु यह बात अभिनेता की व्यक्तिगत खामी के सन्दर्भ में कही जानी चाहिए एकल और सामूहिक अभिनय अथवा रंगमंच के सन्दर्भ में नहीं | इस बात से एकल व सामूहिक अभिनय का कोई लेना-देना नहीं | आजकल ऐसा भी देखा जा रहा है कि औसत से औसत अभिनेता-अभिनेत्री एकल नाटक कर रहें हैं और बड़े - बड़े दाबे के साथ लगातार कर रहें हैं | तो क्या उन्हें ये नाटक करने से रोका जाय ? कौन रोकेगा ? क्या दर्शक ? ऐसी एकल प्रस्तुतियों भी देखने में आयीं हैं कि शुरुआत के कुछ मिनटों के बाद ही खचाखच भरे सभागार में आयोजकों के सिवा केवल दो चार लोग ही बचे हों पर अभिनेता-अभिनेत्री अपनी अभिनय की “जलेबी” परोसे जा रहें हैं |

जहाँ तक सवाल अभिनेता और उसकी कमियों का है तो एक बुरा अभिनेता सामूहिक अभिनय वाले नाटकों के रसास्वादन में ठीक वैसा ही काम करेगा जैसे कि कोई मनपसंद व्यंजन खाते वक्त मुंह में पड़ने वाला कंकड करता है | और सवाल तो ये भी बनता है कि अभिनेता की कमी को छुपाया ही क्यों जाय ? इससे किसका भला होगा ? किसी का नहीं | हम नाटकवाले जो कुछ भी दर्शकों या समीक्षकों से छुपाये रखना चाहतें हैं क्या वो सचमुच छिपा रहता है या यहाँ हमारी हालत उस शुतुरमुर्ग की तरह होती है जो अपना सर ज़मीन में छुपकर सोचता है कि मैं किसी को नहीं दिख रहा ?

हमारा मुल्क एक आज़ाद मुल्क है | हमारे देश में खासकर आधुनिक रंगमंच में कोई भी व्यक्ति अपनी पसंद से कोई भी नाटक करने के लिए स्वतंत्र है चाहे उसे नाटक करना आए या न आए | यहाँ रंगकर्मी कहलाने के लिए किसी प्रमाण-पत्र की ज़रूरत नहीं है | कई ऐसे बड़े नाम हैं जिनके खाते में वर्षों से सक्रिय रंगमंच में योगदान के नाम पर रंगकर्मियों के साथ सिगरेट-चाय पीना ही दर्ज़ है, पर वो रंगकर्मी माने जातें हैं और शान से माने जातें हैं !

क्या किसी कलाकार को दर्शकों का सांस्कृतिक दोहन का अधिकार है ? यह बात मैं तकनीक के सम्बन्ध में कह रहा हूँ विचार के सन्दर्भ में नहीं | अगर किसी को हथियार पकड़ना नहीं आता तो वो युद्ध में उतरके किसका भला करेगा ? माना कि रंगमंच युद्ध नहीं है पर जो खुद ही परिपक्व नहीं वो कला का प्रदर्शन क्या खाक करेगा | वहीं क्या दर्शकों से ये निवदन नहीं कारण चाहिए कि ऐसी कोई भी नाट्य प्रस्तुति जो रंगमंच की किसी भी कसौटी पर खरी न उतार रही हो वहाँ से उठ कर चले जाने में क्या बुराई है ? सहृदयता अच्छी बात है पर केवल रंगमंच के नाम पर अपना दोहन बर्दाश्त करते रहने को सहृदयता कहीं से भी नहीं कही जा सकती | हाँ, किसी की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ध्यान रखते हुए यहाँ किसी प्रकार का बलप्रयोग अनुचित है | पर शांतिपूर्वक विरोध दर्ज़ करने में कोई खास बुराई भी नहीं है | आखिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्र का अधिकार सबको है, सहृदय दर्शकों को भी | समय बदला है, अब केवल सहृदय होने भर से काम नहीं चलेगा, सजग और जागृत भी होना पड़ेगा | एक सजग दर्शक होने के नाते आपका कार्य केवल टिकट कटाकर या पास लेकर नाटक देखना और चुपचाप घर चले जाना नहीं है | नाटक एक जीवंत कला है तो इसके दर्शकों को भी जीवंत होना चाहिए | लोकतान्त्रिक तरीके से विरोध लोकतंत्र की परम्परा है, लोकतंत्र का विरोध नहीं | ऐसी बातें से शायद रंगमंच में दर्शकों की भूमिका और प्रखर हो और नाटक करनेवाले नाटक को पटक देने और ठोक देने के बजाय, उसकी उपयोगिता के सामाजिक सरोकार की ओर सजग होगें |

इसी देश मे ऐसी रंग-परम्परा रही है जिसमें तालीम मुकम्मल होने के पश्चात् ही अभिनेता को मंच पर कदम रखने के लायक माना जाता था अथवा कदम रखने दिया जाता था | यह परम्परा आज भी है | जिन्हें इस बात पर संदेह है वे किसी भी भारतीय पारंपरिक नाट्य शैली की शिक्षण पद्धति का अध्यन करके देख लें | यहाँ मैं किसी प्रकार के आकादमिक प्रशिक्षण की भी बात नहीं कर रहा मैं व्यावहारिक प्रशिक्षण की बात कर रहा हूँ | जैसा कि किसी ज़माने में पारसी रंगमंच, जात्रा या नौटंकी आदि में हुआ करता था | समूह के साथ रहना, उस्ताद से प्रशिक्षण लेना और नित्य अभ्यास करना, अपने सीनियर अभिनेताओं के काम को देखना और उसका आकलन करना आदि, आदि | बकौल डेविड ममेट ( अमेरिकन नाटककार व रंग-चिन्तक ) - “ज्यादातर अभिनय प्रशिक्षण संस्थाएं अभिनेता की अभिनय प्रतिभा को सीमित ही करती है विकसित नहीं | कक्षाएं अभिनेता को सिखाएंगी कैसे आज्ञा पालन करना है ये आज्ञा पालन थियेटर के अभिनेता को कहीं नहीं ले जायेगा | यह झूठी सांत्वना है |”

एकल नाटक अभिनेता केंद्रित होतें हैं | माना | पर एकल या किसी भी प्रकार के सार्थक रंगकर्म के लिए तकनीकी कूद-फांद से ज़्यादा विचार ( Plot ) की महत्ता को सर्वप्रथम स्वीकार करना चाहिए | रंगमंच व्यक्तिगत अहम् से परे एक उद्देश्य के लिए किया जानेवाला कला माध्यम है | दर्शकों का मनोरंजन करना भी एक उद्देश्य ही तो है | पर मनोरंजन मात्र के लिए भी एक सार्थक विचार का होना अनिवार्य है, निरर्थक बातों और विचारों से किसी भी समाज का मनोरंजन नहीं होता | ऐसा सोचना कि एकल नाटक अभिनेता केंद्रित होतें हैं बाकि नहीं, सही नहीं है | नाटक चाहे कितना भी तकनीक से लैश हो जाए अगर वो नाटक जैसा कुछ है तो उसमें अभिनेता का कोई विकल्प नहीं हो सकता | नाट्य की शैली के हिसाब से अभिनेता की भूमिका बदल सकती है पर ऐसा कतई संभव नहीं कि अभिनेता विहीन रंगमंच हो |

एक विचार या मान्यता है की नाटक में अभिनेता दिखने चाहिए और एकल नाटक में अभिनेता अपने पुरे शबाब पर होता है | ये अभिनेता दिखने का क्या मतलब होता है ? क्या ज़्यादा से ज़्यादा समय मंच पर रहने और लंबे लंबे संवाद दर्शकों पर फेंक देने भर से अभिनेता दिख जाता है ? हम ये कब समझ पायेंगें कि नाटक में अभिनेता नहीं चरित्र दिखने चाहिए जो नाटक में दी गई परिस्थितिओं के अनुसार सच्चाई ( Truth ) के साथ आचरण कर रहा हो | अगर कोई अभिनेता अपनी तकनीकों का प्रदर्शन कर लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है ये उसकी धूर्तता है, अभिनय की कलाकारी नहीं |

हम भारतियों की मूल समस्या पता है क्या है ? हमारी समस्या ये है कि हम हर चीज़ के लिए यूरोप की ओर ताकतें हैं और अपनी परम्पराओं के प्रति वही भाव रखतें हैं जो यूरोप हमसे रखवाता है | यूरोप हमें बताएगा कि तुम्हारा योगा तो कमाल है और हम बेवकूफों की तरह योग की टांग तोड़ने में लग जायेंगें | कह सकतें कि सालों पहले हमें ओपनिवेशिक मानसिकता से उबर जाना चाहिए था पर यहाँ बात पूरी उल्टी चल निकली | अपनी परम्पराओं के प्रति यह हेय भाव जान बूझकर पैदा किया जाता है ताकि आप उन पर शक न करें जो बड़े-बड़े विदेशी नामों के आड़ में दरअसल अपनी दुकान चला रहें हैं और आपकी ही चीज़, आपको ही विदेशी तड़के का साथ बेच रहें हैं | अब कोई ईस्ट इण्डिया कंपनी यहाँ आकर अपना साम्राज्य नहीं फ़ैलाने वाली बल्कि अब उसका काम पहले से ज़्यादा आसान हो गया है | वो माल बनाएगा, उस माल की महानता को प्रामाणिक बनाने के लिए हमारे नायकों-महानायकों का मुखौटा इस्तेमाल करेगा और हम उसका उपभोगकर अपने आपको सभ्य और धन्य समझेंगें | आज नीम का दातून हममें वो जादू नहीं जगा पता जो क्लोज़-अप का एक रंगीन टुकड़ा कर देता है | ये उपभोक्तावादी प्रचार तंत्र हैं जो हमारी सांसों में कुछ इस तरह रच-बस गया है कि हमें कुछ गलत जैसा अनुभव भी नहीं होता | हम जिन नायकों की नक़ल कर रहे होगें ये नायक भी इनके ही गढे होंगे, जो हमारे मन में हमारे सच्चे नायको के प्रति एक तरह का हेय भाव भी पैदा करतें रहेंगें |

यहाँ मैं अपनी बात किसी पुनरुथानवादी अंधभक्त की तरह नहीं कह रहा बल्कि ये जानते हुए कि गलत-सही हर परंपरा में होता है, फिर भी ये सवाल कर रहा हूँ कि हमें अपनी परम्परा पर गर्व के बजाय ग्लानी क्यों है, आज भी ? अगर हम खुली आँखों और स्वास्थ्य दिमाग से आंकलन करें तो पायेंगें कि भारतवर्ष में भी नाट्य-प्रशिक्षण की अपनी एक समृद्ध परंपरा रही है जिसे एक साजिश के तहत नज़रंदाज़ किया गया है, बार-बार-लगातार | खासकर आज़ादी के बाद | यहाँ उस व्यक्ति को महानतम का दर्ज़ा दिया गया जो विदेशों में देखे नाटकों को थोड़ा फेर बदल करके भारत में जनता के पैसों से मंचित कर रहा था और तमाम पारंपरिक लोक कलाकार और भारतीयता का ध्यान रखकर कार्य कर रहे लोग को तुच्छ, अनपढ़, गंवार, गवाई समझा गया और ऐसा ही प्रचारित किया गया | यह बात ठीक वैसी ही है कि अगर कोई व्यक्ति भोजपुरी बोल रहा है तो अपने-आप ही अनपढ़-गंवार का तमगा उसपर लग जाता है और कोई अगर अंग्रेज़ी में बकवास भी कर रहा है तो वो सभ्य और सुसंस्कृत मान लिया जाता है | जैसे हमारी आँखें फट जाती है ये सोचकर कि भाई कमाल देश है इंग्लैंड बच्चा –बच्चा वहाँ अंग्रेज़ी बोलता है | ये कौन सी मानसिकता है ?

ये ओपनिवेशिक सोच है जो प्रचार-प्रसार के आज के युग में और भी प्रखर हो गई है | हम ग्लोबल होने के नाम पर एक तरह की मानसिक गुलामी को अपने ऊपर आरोपित होने दे रहें हैं | इस साजिश में वो हर व्यक्ति शामिल है जिनके ऊपर हमारे और इस देश का भविष्य सवारने की ज़िम्मेदारी थी या है | जगदीश चन्द्र माथुर ने सन 1950 ई. में “उदय की बेला में हिंदी रंगमंच और नाटक” नामक आलेख में लिखा था कि “यदि हिंदी में राष्ट्रीय रंगमंच के उदय से तात्पर्य है अभिनय के नियम, रंगशाला की बनावट, प्रदर्शन की विधि, इन सभी के लिए एक सर्वस्वीकृत परम्परा और शैली की अवतारणा होना, तो ऐसे रंगमंच का अस्त भी शीघ्र ही होगा |”

हम आज तक ये तय नहीं कर पाए कि एक ऐसे देश में जहाँ पग-पग पर पानी और बानी बदल जाती है वहाँ एक भारतीय रंगमंच का स्वरुप क्या होगा ? इसकी वजह शायद ये है कि हमने कभी भारतीय आधार पर ये सोचा ही नहीं बल्कि हमारी सोच “युरोपवाले या वाली गुरूजी या गुरुआनीजी” संचालित करते/करतीं रहीं | हमारी चोटी वहीं गडी है नहीं तो हम ये कब का समझ लेते कि हबीब तनवीर, रतन थियम, एच. कन्हाईलाल ग्लोबल है और भारतीय भी | रोबिन दास कहतें हैं – “कलाकार अगर सिर्फ किताबों के आधार पर पाई गई जानकारियों और अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, पोलैंड या रूस जैसे देशों में छापी किताबों या सिधान्तों पर ध्यान दे तो उसके सामने यह समस्या रहेगी कि ये सब उस देश के खास एतिहासिक वजहों से अस्तित्व में आयीं | इस तथ्य को नज़र-अंदाज़ कर अगर इसे अपनाना शुरू कर दें तो क्या भारतीय रंगकर्मी अपनी रचनात्मकता और दर्शकों के साथ उसके रचनात्मक सम्बन्ध का गला नहीं घुट जायेगा ? फिर तो ये सिर्फ खांचों में फिट करने की बात हो होगी | ये एक वंध्य तरीका होगा | नई पीढ़ी को चाहिए कि वो अपने जीवनानुभवों के आधार पर रंगमंच के सिधान्तों का मूल्यांकन या पुनर्मूल्यांकन करे |...एक खास बात जो मुझे चिंताजनक लगती है, आज के युवा पीढ़ी के कुछ रंगकर्मी ऐसे नाटक करने लगें हैं या ऐसी रंगभाषा का प्रयोग करने लगें हैं जो उनको पश्चिम देशों के नाट्य महोत्सवों में निमंत्रित होने के योग्य बना सके | इसे वैश्विक रंगमंच की तरफ़ एक कदम कहकर व्याख्यायित किया जाता है | लेकिन जब भारतीय लोकतंत्र पश्चिम लोकतंत्र से अलग है, भारतीय नारी विमर्श पश्चिमी नारी विमर्श से अलग है, भारतीय दलितों और उनकी महिलाओं की स्थिति पश्चिम से अलग है तो फिर भारतीय रंगमंच पूरी तरह के पश्चिम के खांचे में कैसे ढाल सकता है |” ( रंग प्रसंग, अंक ४०, २०१२ ) |

ऐसे नाटकों की प्रस्तुति जब विदेशों के रंग-महोत्सवों में होतें है तो आलम कुछ ऐसा ही होता है जैसे साऊथ की फिल्मों का हिंदी वर्जन देखा जा रहा हो | आज हमें ये समझना पड़ेगा कि हम यूरोपियों को यूरोप, जापानियों को जापान दिखाकर प्रभावित नहीं कर सकते | अगर हमें दुनियां को कुछ दिखाना और प्रभावित करना ही है तो उसका रास्ता भारतीय मिट्टी की खुशबू से होकर गुज़रती है, जैसा कि कुरुसावा ने किया | समझ लेना चाहिए कि दुनियां से संस्कृत आदान-प्रदान करना और विदेशियों को आम खिलके फोटो खिचवाने में फर्क है | कुछ लोग भारत के होते हुए भी भारत में ऐसे रहतें हैं जैसे टूरिस्ट हों | यही हैं इन वैश्विक रंगमंच के सिपाही | जिन्हें खुद अपनी संस्कृति नहीं पता वो बेचारे क्या खाक वैश्विक होगें | दोष इनका नहीं है दोष झूलन कुर्सियों पर बैठे उन महागुरुओं का है जिन्हें अपनी सत्ता चलाये रखने और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के नाम पर साल में एकाध विदेश यात्रा करने के लिए ऐसे पुतले चाहिए | ये रंगमंच में अमरता हासिल करने की व्यक्ति केंद्रित राजनीति है, जो भारतीय रंगमंच के सबसे बड़े संस्थान में भी है और बहुत ही प्रखर रूप से है | जिन्हें भी ये बात नहीं दिखाई पड़ती वो दरअसल इसी तंत्र के हिस्से हैं | वैसे भी आँख के बहुत करीब होने पर किसी भी चीज़ की स्पष्ट छवि नहीं दिखाई पड़ती |

गौर करिये हबीब साहेब क्या कहतें हैं – “थिएटर में अगर किसी और कल्चर की नकल की झलक है, तो वह असली थिएटर नहीं है । थिएटर को अपने मुल्क, अपने समाज की जिंदगी, अपने मुल्क की शैली में कुछ इस तरह पेश करना चाहिए कि बाहर के लोग देखकर यह कह सकें कि ये भी एक थिएटर हैं, थिएटर के सारे लवाजमात तत्व उसमें मौजूद हैं, हमें उसमें वही मजा आता है जो थिएटर में आना चाहिए लेकिन अगर हम ऐसा थिएटर खुद करना चाहें तो नहीं कर सकेंगे । यानी थिएटर में इलाकाइयत (आंचलिकता) का दामन न छोड़ते हुए विश्व स्तर पर पहुंचना कामयाब थिएटर की कुंजी है। आज ऐसे थिएटर हमारे मुल्क में कम सही मगर है जरूर ।“ ( हबीब तनवीर लिखित “चरणदास चोर के पीछे बहुतेरे कहानियां” आलेख से )

"रंगमंच एक गतिशील कला माध्यम है जो देश, समाज, काल आदि से अपना ताल-मेल मिलाता–बिठाता रहता है | उपभोक्तावाद के इस अंधे दौर में आज समाज में हर तरह समूह का विघटन हुआ है | परिवार भी इससे अछूता नहीं है | आज सामूहिक चूल्हा एतिहासिक धरोहर का रूप ले चुका है | एक ( शासक ) वर्ग यह जान चुका है कि सामूहिकता इंसान की सबसे बड़ी ताकत है | आज गुलाम बनाने के लिए देश के बजाय विचार को गुलाम बनाने की कला हुक्मरानों ने सीख ली है और विचार की गुलामी की सत्ता चलती रहे इसके लिए व्यक्ति को समूह से अलग करना एक अहम् मुद्दा बन चुका है | लोगों को समूह के बजाय छोटे-छोटे कमरों में कैद कर देना और समूह के नाम पर किसी उन्माद में डुबो देना, एक अहम् बात और कारोबार में तबदील हो चुका है |"

रंगमंच एक गतिशील कला माध्यम है जो देश, समाज, काल आदि से अपना ताल-मेल मिलाता–बिठाता रहता है | उपभोक्तावादिता के इस अंधी दौर में आज समाज में हर तरह समूह का विघटन हुआ है | परिवार भी इससे अछूता नहीं है | आज सामूहिक चूल्हा एतिहासिक धरोहर का रूप ले चुका है | एक ( शासक ) वर्ग यह जान चुका है कि सामूहिकता इंसान की सबसे बड़ी ताकत है | आज गुलाम बनाने के लिए देश के बजाय विचार को गुलाम बनाने की कला हुक्मरानों ने सीख ली है और विचार की गुलामी की सत्ता चलती रहे इसके लिए व्यक्ति को समूह से अलग करना एक अहम् मुद्दा बन चुका है | लोगों को समूह के बजाय छोटे-छोटे कमरों में कैद कर देना और समूह के नाम पर किसी उन्माद में डुबो देना, एक अहम् बात और कारोबार में तबदील हो चुका है | शहरों में सिंगल रूम सेट का कांसेप्ट चरम पर है | किसी ज़माने में समूह में बैठना और बात करना भी जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करता था, कुछ स्थानों पर आज भी है, पर आज समूह में निवास करना व्यक्तिगत स्वतंत्र का हनन के रूप में भी देखा जाने लगा है | क्या इन बातों से रंगमंच का कोई सरोकार नहीं है ?

आज रंगमच के लिए समूह का गठन और उसे सुचारू रूप से संचालन क्या पहले जैसी ही बात रह गई है ? सामाजिक उथल पुथल और बदलाव से क्या रंगमंच का कोई सरोकार नहीं ? कई और भी पहलू है जिन पर बात होना चाहिए | पर सामाजिक समूह ( रंगमंचीय सामूहिकता नहीं ) का यह अभाव आज रंगमंच में भी साफ़ साफ़ देखने को मिलता है | कभी पचास-पचास सदस्यों की सदस्यता वाले नाट्यदल आज दहाई के अंक भी बड़ी मुश्किल से पार कर पा रहें हैं | क्या इस प्रक्रिया से एकल नाटकों का कोई लेना देना नहीं ? मैं व्यक्तिगत तौर पर कुछ प्रतिष्ठित नाट्य निर्देशकों व अभिनेताओं को जानता हूँ जो आज से एक दशक पहले एकल नाटकों को सामूहिकता का विरोधी मानते थे, क्योंकि उस वक्त उनके पास एक अच्छा-खासा नाट्य समूह था पर आज जब वो समूह नहीं रहा तो वो भी एकल नाटक अभिनीत कर रहें हैं या करने को अभिशप्त हैं , निर्देशित कर रहें हैं, यहाँ तक कि उनके महोत्सव भी करा रहें हैं | क्या इन बातों से एकल नाटकों का कोई लेना देना नहीं ?

एकल अभिनय को प्रस्तुत करने का कोई अलग शास्त्र है ऐसी बात नहीं, सिवाय इसके कि इसे किसी एक अभिनेता या अभिनेत्री द्वारा प्रस्तुत किया जाता है | यह बात शास्त्रीय नहीं बल्कि तकनीकी है | इसके भी मूलभूत सिद्धांत वही हैं जो बाकि नाटकों में अभिनय या प्रस्तुतिकरण के होतें हैं | जिस प्रकार नाटकों की शैली के अनुसार अभिनेता अपने अभिनय का तरीका तलाशता है ठीक वही बात एकल नाटकों पर भी लागू होती है | इस नाटक की तैयारी ( पूर्वाभ्यास ) का तरीका भी कोई अलग नहीं होता | अगर हम ये कहें कि हम सिर्फ पहचान करने के लिए इसे एकल नाम दे रहें हैं, ठीक वैसे ही जैसे पहचान के लिए इंसान को अलग-अलग नाम देतें हैं , तो क्या कुछ गलत होगा ?

रंगमंच को भ्रमों से दूर रहना और रखना चाहिए | इससे किसी का कोई तात्कालिक लाभ हो भी जाय पर लंबी अवधि में किसी का भी कोई खास भला नहीं होने वाला | आज़ादी के बाद के दशकों में बहुत ऐसे नाट्य निर्देशक, अभिनेता और रंगकर्मी हुए जिन्होंने रंगमंच की एक नई धारा खोजने का दावा पेश किया पर आज हम भली भांति जानतें हैं कि उनमें से अधिकतर में कोई दम नहीं था | वो या तो हमारे पारंपरिक नाटकों का थोड़ा फेर बदलकर की गई प्रस्तुतिकरण थी, या किसी लोक कलाकार के महत्वपूर्ण कार्य का शहरी रंगकर्मियों द्वारा प्रस्तुतिकरण या फिर विदेशों में चल रहे नाट्य प्रयोगों का रूपांतरित संस्करण |

एक बात साफ़ समझ लेनी चाहिए कि एकल नाटकों की एक बहुत ही पुरानी परंपरा रही है | क्या पता नाट्य विधा की शुरुआत ही एक अकेले अभिनेता ने की हो | एतिहासिक तत्वों की बात करें तो ग्रीक रंगमंच की शुरुआत थेसिपस नामक एक अभिनेता द्वारा ही मानी जाती है | यहाँ भारतीय सन्दर्भ में बात इसलिए नहीं की जा सकती क्योंकि हमारे यहाँ इतिहास अंकन का क्षेत्र ज़रा संकरा सा है | हम लिखने में कम बोलने में ज़्यादा विश्वास करने वाले लोग हैं | इसलिए किसी रंगकर्मी को अगर ये दुह-स्वप्न बार-बार सताता रहता है कि वो रंगमंच में किसी नई धरा का प्रवाह कर रहा है या करने वाला है या कर ही देगा तो इस दुह-स्वप्न से छुटकार पाने का एक ही तरीका है और वो है ज्ञान | रंगमंच के प्रति ज्ञान | इतिहास के प्रति ज्ञान | उनसे निवेदन है कि ज़रा रंगमंच के बारे में जाने तब पता चलेगा कि जिसपर वो मेरा का दावा कर रहें हैं वो दरअसल सदियों पहले ही अस्तित्व में आ चुका था | करो, जानो, समझो या समझो, करो , जानो यही दो रस्ते हैं, हाँ,तीसरा रास्ता भी है – आत्म-मुग्धता का | चयन हमारा होगा | बाकी, तमाशा देखनेवालों की कोई कमी नहीं |

लेखक के ब्लाग से साभार, स्रोत :
http://daayari.blogspot.in/2012/08/blog-post_6503.html?spref=tw