Tuesday, December 31, 2013

'ड्रॉप बाय ड्रॉप वाटर' की यूरोप में कई सफल प्रस्तुतियां

- धनंजय कुमार

पारम्परिक रंगमंच लगातार अपना जोश और लक्ष्य खोता जा रहा है. रंगमंच अब या तो शौकिया हो रहा है या सिनेमा-टेलीविजन में अभिनय करियर के लिए सीढ़ी के तौर पर या फिर एक खास किस्म की ज़िद की ख़ातिर. लेकिन यह तय है कि रंगमंच लगातार अर्थ प्रधान होते जा रहे युग के साथ उस धमक और चहक के साथ कदमताल नहीं कर पा रहा है, जिस दूरदृष्टि और शिद्दत के साथ के रंगमंच के 60-70 के पुरोधाओं ने इसे अपने जीने के अन्दाज़ में ढाला था. अब कहाँ चूक हुई इस पर नज़र फिर कभी,लेकिन इस बीच रंगमंच की दुनिया में "थिएटर ऑफ रेलेवेंस" नाट्यविचार के साथ मंजुल भारद्वाज का आना, रंगमंच के क्षेत्र में नए और अपार सम्भावनाओं से भरे उत्साह का संकेत देता है.मंजुल का थिएटर रंगमंच को पुनः जीवन के केन्द्र में स्थापित करता प्रतीत होता है और मंजुल रंगकर्म प्रेमियों के बीच मार्गदर्शक के तौर पर प्रकट होते हैं.

रंगमंच के क्षेत्र में हम प्रायः विदेशों से पागलपन की सीमा तक प्रभावित रहे और स्थिति इस हद तक पहुँच गई कि हमारे दर्शक रंगमंच से कट गए,ऎसे में मंजुल भारद्वाज के रंग विचार और रंगकर्म को लेकर विदेशों,खासकर यूरोप में स्वीकृति और सराहना मिलना भारतीय रंगमंच पर नई संभावनाओं को उभारती है.

मंजुल पारम्परिक थिएटर को विस्तार और नया आयाम देकर खास से आम आदमी के थिएटर में परिणत कर देते हैं. उनका थिएटर सिर्फ रंगकर्मियों की खोखली संतुष्टि भर नहीं है, बल्कि रंगकर्मियों और दर्शकों दोनों को कला और मनोरंजन के साथ-साथ जीवन की विशेषताओं और विसंगतियों से जोड़ता है. मसलन, अपने नए नाटक “ड्रॉप बाय ड्रॉप:वाटर” में भी वह एक ऎसे मुद्दे को उठाते हैं, जो देश और काल की सीमा लांघ पूरी दुनिया का सबसे ज्वलंत मुद्दा है. इस नाटक में वह पानी को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चल रही बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की साज़िश को न सिर्फ बेनकाब करते हैं,बल्कि सरकारों को पानी की निजीकरण -नीति को व्यापक जनहित में वापस लेने पर मजबूर भी करते हैं.

मंजुल भारद्वाज अभी पिछले ही महीने दो महीने के टूर को समाप्त कर यूरोप से लौटे हैं. उनके साथ उनका नाट्यदल भी था. 26 अगस्त से लेकर29 अक्टूबर 2013 के बीच उनकी टीम ने जर्मनी, सिल्वेनिया और ऑस्ट्रिया के विभिन्न शहरों में “ड्रॉप बाय ड्रॉप:वाटर” नामक नाटक की 26 प्रस्तुतियाँ कीं. साथ ही, मंजुल ने थिएटर के प्रति अवेयरनेस बढ़ाने के लक्ष्य को लेकर थिएटर ऑफ रेलेवेंस नाट्य दर्शन की अवधारणा और प्रक्रिया पर आधारित29 नाट्य कार्यशालाओं का संचालन भी किया, जिसमें 5,000 से ज्यादायूरोपवासी सहभागी हुए.

Taj city remembers Farooque Sheikh

Agra, Dec 30 (IANS) Theatre lovers, artists, activists and litterateurs Monday paid tributes to actor Farooque Sheikh, recalling that the actor's debut film and his last public performance were both in Agra.
Sheikh who essayed memorable roles in movies and on the television died Dec 27 in Dubai, following a cardiac arrest.
His first film "Garam Hawa" was shot in the lanes of Agra way back in 1972, recalled Indian People's Theatre Association national general secretary Jitendra Raghvanshi.
The memorial programme was held at the Taj Nature Walk, 500 metres from the Taj Mahal. The venue was the mound overlooking the Taj Mahal, at the vantage point where only a fortnight ago Sheikh with Shabana Azmi performed "Tumhari Amrita," a heart-rending love story told through letters.
"Who thought then that this would be his last performance. Whole of Agra laments his death. Sheikh had many plans for Agra and was particularly keen the city got a decent memorial for Mirza Ghalib who was born here. He had promised all help for the same," Taj Literature Festival chairman Harvijay Bahia told IANS.
After the programme, District Forest Officer N.K. Janu told IANS: "We have taken a decision to name the open ground and the high rise mound after Ghalib. It would be used for cultural programmes."
Courtesy : newstrackindia.com

Monday, December 30, 2013

तराने जी का तराना, थोड़ी हकीकत-थोड़ा फसाना

डोंगरगढ़ इप्टा के निर्देशक राधेश्याम तराने
राधेश्याम तराने अपने आप में एक सुरीले किस्म का नाम है पर उनका कार्यक्षेत्र संगीत नहीं बल्कि अभिनय व निर्देशन है। हबीब तनवीर साहब की सराहना से प्रेरित होकर रंगकर्म को उन्होंने अपनी जीवनचर्या में शामिल कर लिया और कभी इस रास्ते से विचलित नहीं हुए। अपने घर का नाम उन्होंने ‘रंगायन’ रख छोड़ा है। मुख्य द्वार के ठीक ऊपर चित्तप्रसाद की प्रसि़द्ध कृति और ‘इप्टा’ का लोगो नगाड़ावादक सुशोभित है। उनके मोबाइल का वॉलपेपर भी यही है और दीवाली में घर के आंगन में यही रंगोली सजती है। कोई फोन करे तो ‘इप्टा की पहचान नगाड़ा कहता है’ की धुन बजने लगती है। गरज यह कि उनकी प्रतिबद्धता से आपकी वाकिफियत न हो तो आप उन्हें सनकी करार दे सकते हैं, पर वे स्वयं कहते हैं कि ‘हां, मुझे नाटकों की सनक है।’ नौकरी के सिलसिले में रोज की भागदौड़ के बाद शाम को वे बिल्कुल ठीक समय में रिहर्सल रूम में पहुंच जाते हैं, देर से आने वाले कलाकारों को कोसते हैं, रिहर्सल के दौरान मोबाइल बज उठने पर कुढ़ते हैं, नये लड़कों में कमिटमेंट की कमी को लेकर गुस्से में आकर कल से रिहर्सल में न आने की कसमें खाते हैं और अगले रोज ठीक समय में फिर से रिहर्सल में पहुंच जाते हैं।

परिवारवाद की धज्जियां बिखेरकर एकाकी जीवन बिताने को आतुर इस दुनिया में उनका घराना नगर का सबसे बड़ा परिवार है। संख्या को लेकर हमेशा कन्फ्यूजन रहता है। ताजा आंकड़े ठीक से नहीं मालूम पर कुछ समय पहले तक 36 लोग रहते थे। बड़ी बहन घर की मुखिया हैं और बाकी भाइयों के परिवार हैं। नाटकों के पिटने का कोई खतरा नहीं हैं, क्योंकि 35 दर्शक तो घर से ही बनते हैं। ये बात और है कि खुद उनकी श्रीमती जी कभी भी उनके नाटक देखने नहीं आतीं। कभी-कभार परिवार का बच्चा समझकर पड़ोसी के बच्चे को पीट दें तो कोई हैरानी नहीं, पर ऐसा आज तक हुआ नहीं। खाने की पगंत लगती है तो भोज का दृश्य होता है। फरमाइश महंगी पड़ती है। इसे आप इस तरह से समझें कि किसी ने समोसे खाने की फरमाइश कर दी तो समूची अर्थ-व्यवस्था हिल उठती है। प्रति व्यक्ति दो नग के हिसाब से यदि 72 समोसे लाने पड़ें जेब का पूरी तरह से हल्का हो जाना लाजमी है। शायद इसीलिये थोड़ी से मितव्ययिता उनके स्वाभाव का हिस्सा है। बड़े परिवार को चलाना एक बड़ी जिम्मेदारी का काम है, इसलिये आदतन वे जिम्मेदार भी हैं और विगत तीन दशकों से स्थानीय इप्टा इकाई को तमाम मुश्किलों के बावजूद एक परिवार की तरह चला रहे हैं।

उन्हें सक्रिय रंगकर्म के क्षेत्र में खेंच लाने की जिम्मेदारी चुन्नीलाल डोंगरे जी की थी जो हबीब साहब के मित्र थे और 74 की रेल हड़ताल से पहले ट्रेड यूनियन के साथ नगर में इप्टा इकाई का संचालन करते थे। 74 की हड़ताल में प्रबंधन ने रेल मजदूरों और मजदूर नेताओं पर भयानक जुल्म ढाया। पुराने लोगों की बातों पर यकीन करें तो जैसा सलूक मजदूर नेताओं के साथ किया गया वैसा सलूक युद्धबंदियों के साथ भी नहीं किया जाता। इस बात पर यकीन न करने का कोई कारण भी नहीं है क्योंकि 74 के बाद रेलवे में कोई आम हड़ताल नहीं हुई। आज भी रेल प्रबंधन को हड़ताल तोड़ने में विशेषज्ञ माना जाता है और कहते हैं कि कहीं कोई हड़ताल तोड़नी हो तो रेल प्रबंधन की सेवायें ली जाती हैं, जिसे वे सहर्ष प्रदान करते हैं। बहरहाल, इस हड़ताल में बहुत सारे लोगों के तबादले हुए और डोंगरे जी की इप्टा भी बिखर कर रह गयी। इसके बाद से ही उनका हाजमा खराब हो चला था और स्थिति नियंत्रण के बाहर हो जाती अगर उन्हें राधेश्याम तराने नामक यह नवयुवक नजर नहीं आता।

राधेश्याम तराने उन दिनों कालेज में नाटक खेलते थे। तब टीवी का चलन नहीं था और मनोरंजन के लिये या तो सिनेमा देखा जाता था या गुलशन नंदा के साथ कर्नल रंजीत और ओमप्रकाश शर्मा के नावेल बहुतायत में पढ़े जाते थे। मेजर बलवंत उन दिनों आज के शाहरूख-सलमान की तरह पापुलर थे और कभी-कभी उनके होंठ गोल हो जाते थे पर सीटी नहीं बजती थी। स्कूल-कालेज में होने वाले नाटकों में भी उन दिनों काफी जमावाड़ा होता था और अमूमन पूरा कस्बा ही ऐसे मौकों पर इकट्ठा हो जाया करता था। अपने तराने जी इन कार्यक्रमों में थ्रिलर ड्रामा करते थे और कस्बे में मेजर बलवंत की तरह ही पापुलर थे। छोटी जगहों में मध्यमवर्गीय संस्कार लड़कियों को रंगमंच पर आने की इजाजत नहीं देते पर तराने जी की लोकप्रियता ने इस वर्जना को भी तोड़कर रख दिया और उनकी ख्याति डोंगरे जी के कानों तक पहुंची। उन्हें लगा कि हो न हो, यही नवयुवक इस नगर में इप्टा की मशाल को रोशन रख सकता है। यह 1982 -83 की बात है। रेलवे के एक फर्जी पास पर उन्होंने तराने जी को हरिराम खलासी बनाकर इप्टा के जबलपुर राज्य सम्मेलन में भेजा और तराने जी इप्टा के होकर रह गये।

उन्हीं दिनों महावीर अग्रवाल के ‘सापेक्ष’ में प्रेम साइमन का नाटक ‘मुर्गीवाला’ छपा था। इस नाटक ने खासतौर पर नुक्कड़ नाटकों के परिदृश्य में धूम मचा दी थी। अमोल पालेकर जैसे संजीदा फिल्मकार भी इससे प्रभावित थे। दुर्ग में क्षितिज रंग शिविर ने इसके सैकड़ों प्रदर्शन किये। अपनी नवगठित टीम के लिये तराने जी ने इसी नाटक को चुना। दिन 26 जनवरी 1983। तब ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ नामक मुहावरा इसलिये पापुलर था कि दाल और मुर्गी की कीमतों में जमीन आसमान का अंतर हुआ करता था। किसी तरह मोहल्ले वालों से मांग-मांगकर मुर्गिया इकट्ठी की गयीं और नवगठित इप्टा इकाई का पहला ड्रामा प्रस्तुति की ओर अग्रसर होने लगा। अभी नाटक शुरू भी न हुआ था कि अचानक बारिश शुरू हो गयी। दर्शकों ने पास के लोको शेड में शरण ले ली और नाटक के कलाकार मुर्गियों समेत भीगने लगे। तराने जी ने डोंगरे जी से नाटक बंद करने की गुजारिश की तो उन्होंने ललकार कर कहा कि पानी की चार बूंदों का सामना नहीं कर सकते, क्रांति क्या खाक करोगे? दर्शक देख रहे हैं, ‘शो मस्ट गो ऑन।’ नाटक पूरा हुआ। सफल भी रहा, पर मुर्गियां बुरी तरह से भीग गयी थीं। तराने जी को डर सताने लगा कि अगर वे बीमार होकर मर गयी तो पैसे उन्हें चुकाने होंगे। लिहाजा पास के होटल में, जहां सहृदय दर्शकों ने उनकी टीम को चाय के लिये आमंत्रित किया था, कोयले की भट्टी में एक-एक कर मुर्गियों को सेंका जाने लगा। भट्ठियों पर मुर्गियों को जिंदा सेंकने का यह उनके जीवन में पहला व अंतिम वाकया था।

 इस नाटक की सफलता से प्रेरित होकर सदाचार का ताबीज, महंगाई की मार, यमराज के भाठों आदि अन्य नाटक तैयार किये गये। इस बीच डोंगरे जी से मित्रता के कारण हबीब तनवीर साहब का अपनी पूरी टीम के साथ यहां आना बदस्तूर जारी था। शेक्सपियर के नाटक ‘मिड समर्स नाइट ड्रिम’ पर आधारित नाटक ‘कामदेव का अपना, बसंत ऋतु का सपना’ और एक अन्य नाटक ‘देख रहे हैं’ नैन की रिहर्सल इसी नगर में
 डोंगरगढ़ का रणचंडी मंदिर
हुआ करती थी। छत्तीसगढ़ की लोक-संस्कृति पर आधारित एक डाक्यूमेंट्री के लिये जब तनवीर साहब को बस्तर में शूटिंग की इजाजत नहीं मिली तब भी उन्होंने डोंगरगढ में ही डेरा जमाया। उनकी रिहर्सलों के व्यवस्थापक बिला शक तराने जी हुआ करते थे। हबीब साहव सिविल लाइंस में रेस्ट हाउस में अड्डा मारते थे और उनकी पूरी टीम पहाड़ी के पास रणचंडी मंदिर में। रणचंडी मंदिर की संस्थापिका व पुजारन, जिसे स्थानीय लोग बैगिन कहकर पुकारते थे, तनवीर साहब से काफी प्रभावित थीं और उनके बीच अच्छी मित्रता थी। पहाड़ियों के नीचे एक तालाब के किनारे, जहां रिहर्सल वगैरह के लिये ढेर सारी सपाट जमीन है सुरम्य होने के कारण किसी भी कलाप्रेमी को आकृष्ट करती है। पहले यहाँ पर छोटा-सा मंदिर था और उसे स्थानीय लोग उसे ‘‘टोनहिन बमलाई’’ कहते थे। यों बमलेश्वरी के यहां दो मंदिर हैं। एक पहाड़ी के ऊपर, जिसे ‘बड़ी बमलाई’ कहा जाता है और जो पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र होने के कारण रोप-वे की सुविधा से सज्जित है। नीचे वाले मंदिर को छोटी बमलाई कहा जाता है और यहीं पर इप्टा के नाट्योत्सवों का आयोजन होता है। ‘टोनहिन बमलाई’ वाला किस्सा मैंने पहली बार तराने जी के ही मुँह से ही सुना।

बकौल उनके, मंदिर की बैगिन, जिनसे तनवीर साहब की अच्छी मित्रता थी, पास के कवर्धा कस्बे की रहने वाली थीं। तब वह कस्बा जिला नहीं बना था पर भोरमदेव के ऐतिहासिक मंदिर के लिये प्रसिद्ध था। बैगिन यहीं पर अपने पति के साथ रहती थीं जो पुलिस महकमे में थे। कहते हैं कि मंदिर वाली जगह उन्हें अक्सर अपने सपने में दिखाई पड़ती थी। एक बार जब उनका आगमन डोंगरगढ़ हुआ तो उन्हें यही जगह दिखाई पड़ी। उन्होंने अपने पति से इसका जिक्र किया तो उन्होंने झिड़क दिया। बात आयी गयी हो गयी । कुछ दिनों बाद जब उनका तबादला डोंगरगढ़ ही हो गया तो उन्हें लगा कि हो न हो यहां आने के पीछे एक कारण सपने वाला किस्सा ही हो सकता है, लिहाजा उन्होंने मंदिर के निर्माण की इजाजत दे दी। इस किस्से में कोई सचाई हो या न हो, तनवीर साहब के नाटकों की रिहर्सल के लिये यह मुफीद जगह थी। कलाकार यहीं पर रहते थे, तालाब में नहाते थे, पेड़ के नीचे चूल्हा जलता था और रात-दिन रिहर्सल होती थी। एक कलाकार को एक नाटक के दौरान पीढ़ा रखना होता था। हबीब साहब ने यह काम उससे कम से कम सौ बार करवाया। एक-एक संवाद सैकड़ो बार दोहराये जाते थे और इस बीच हबीब साहब किसी और से से बातचीत में मशगूल होते थे। जब संवाद -अदायगी उनके मन माफिक हो जाये तो टोककर कहते थे, हां बिल्कुल ऐसे ही कहना है।

 इप्टा के नागरिक सम्मान में तनवीर साहब
पास के एक गांव कल्याणपुर की चिरैया दीदी से तनवीर साहब की मुलाकात यहीं पर हुई थी। चिरैया दीदी बला की खूबसूरत हैं और तनवीर साहब उन्हें चरणदास चोर पर बनने वाली फिल्म में रानी की भूमिका में लेना चाहते थे। बाद में शायद चिरैया दीदी श्याम बेनेगल की अपेक्षाओं में खरी नहीं उतरीं और यह भूमिका स्मिता पाटिल को मिली थी। पर चिरैया दीदी का अब भी तराने जी के घर में आना-जाना लगा रहता है।

अपने तराने जी पूरे समय मुस्तैद सिपाही की तरह उनके किसी भी आदेश की प्रतीक्षा में तैनात रहते थे। तो एक बार तनवीर साहब को पूरन पोड़ी खाने की इच्छा हुई। उन्होंने बी.ए. नागपुर के मौरिस कालेज से किया था, लिहाजा मराठी खान-पान से वे वाकिफ थे। उन्होंने तराने जी से कढ़ी व पूरन पोड़ी खाने की इच्छा जाहिर की। पूरन पोड़ी भीगी हुई चने की दाल व चीनी को पीसकर भरवां पराठे की तरह बनायी जाती है और इसे घी की अच्छी-खासी मात्रा के साथ परोसा जाता है। तनवीर साहब सपरिवार तराने जी के संयुक्त परिवार में पहुंचे और जमकर खाया। इतना कि रेस्ट हाउस पहुंचकर तबीयत बिगड़ गयी। उसी मोहल्ले में जब उन्हें एक डॉक्टर के पास ले जाया गया तो डॉक्टर साहब इलाज करने के बदले उनके साथ फोटू खिंचवाने के काम में मसरूफ हो गये। उन्हें बाद में बड़ी मुश्किल से याद आया कि उनके क्लीनिक में आने वाला सेलिब्रिटी दरअसल मरीज भी है।

ऐसे ही एक बार तनवीर साहब ने आदेश दिया कि लंदन से आयी एक रिसर्च स्कालर को नगर भ्रमण कराया जाये। लंदन से आयी सुंदरी को तराने जी कार में जहाँ-जहाँ लेकर जाते, मजमा-सा लग जाता। उस विदुषी कन्या ने छत्तीसगढ़ी बालाओं के कुछ पारंपरिक जेवरात खरीदने की मंशा जाहिर की। तब स्थानीय गोल बाजार में एक व्यवसायी लाल कपड़ों में गिलट के जेवर बेचा करता था, जिसे यहाँ के लोग ‘डालडा चांदी’ कहते हैं। इस शब्द की उत्पत्ति पर भाषा विज्ञानी शोध कर सकते हैं पर मालूम पड़ता है कि यहां पर डालडा शब्द घी की तुलना में नकली होने के पर्याय स्वरूप ग्रहण किया गया है। जो भी हो, विदेशी सुंदरी को अपने सामने पाकर दुकानदार की दशा मिर्जा गालिब की तरह, ‘आप आये हमारे घर खुदा की कुदरत है’ वाली हो गयी। जैसे-तैसे उसने सामान दिखाया। बाद में विदुषी ने बड़े संकोच से बताया कि वे अपना पर्स मंदिर में ही भूल आयी हैं। इस पर दुकानदार ने जो जवाब दिया उससे सहज ही यह निष्कर्ष निकाला जा सकता कि अपने मुल्क की दो सौ साल की गुलामी के पीछे महज अपनी मेहमाननवाजी की मासूम आदत थी।

अच्छे और बुरे चरित्रों के बीच के विरोधाभास को उभारने के लिये कई बार निर्देशक को अति नाटकीय तत्वों का सहारा लेना पड़ता है पर जीवन में कभी-कभी यह सहज ही उपलब्ध हो जाता है। ऐसे ही एक वाकये में बारे में तराने जी बताते हैं कि महाराष्ट्र के लातूर में भयावह भूकंप की घटना के बाद पीड़ितों की मदद के लिये वे इप्टा की टोली लेकर चंदा करने निकले। लोग दान-पेटी में राशि एकत्र करते जा रहे थे। एक निम्न मध्यमवर्गीय सज्जन बाजार में मिले। सब्जियां लेकर आ रहे थे। सभी जेबों की तलाशी ली और जितने पैसे हाथ में आये दान पेटी के हवाले कर दी। पर उन्हें लगा की पीड़ितों की त्रासदी के मुकाबले यह राशि बेहद कम है, तो उन्होंने टोली से रूकने की गुजारिश की और जितनी सब्जियां वे लेकर आये थे, अनुनय-विनय कर उन्हें वापस कर दी और विनिमय की यह राशि भी पीड़ितों की मदद के लिये चली गयी। इसके ठीक उलट जब यह टोली नगर-सेठ के दरवाजे पर पहुँची तो चंदा तो नहीं मिला, उल्टे यह नसीहत मिली की सार्वजनिक कार्यों के लिये चंदा करते समय रसीद बुक छपवायी जानी चाहिये। पीछे से इप्टा के एक कलाकर ने कहा कि, ‘ भूकंप हमसे कहकर तो नहीं आया था कि पहले से चंदे की रसीद छपवा लो।’ एक दूसरे कलाकार ने धीरे से कहा, ‘‘हुजूर बहादुर जब इंतेकाल फर्मायें तो पहले से इत्तिला कर दें ताकि बाद के खर्चों के लिये किताबें छपावायी जा सकें!’’
 साथी कलाकार मतीन अहमद के साथ तराने जी

रंगकर्म से बावस्ता इस तरह की अनेक यादें तराने जी के जेहन में ताजा हैं। उनका रंगकर्म शुद्धतावादी कलाकर्म नहीं है। सामाजिक सरोकार उनके नाटकों की धुरी है। बदलाव के लिये नाटकों को औजार की तरह बरतने का हुनर है उनके पास। वे व्यक्तिगत जन-संपर्क में विश्वास नहीं करते और मोबाइल का कम से कम इस्तेमाल करते हैं। वे ‘प्रतिबद्धता’, ‘सरोकार’, ‘कन्सर्न’ जैसे शब्दों को जुमले की तरह इस्तेमाल नहीं करते, यह उनके काम में दिखाई पड़ता है। उनके निर्देशन में देश भर में कोई 500 से भी ज्यादा नाटकों के प्रदर्शन हो चुके हैं पर उनकी कोई बड़ी महत्वाकांक्षा नहीं है। वे सिर्फ नाटक खेलते हैं और नाटक खेलते रहना चाहते हैं। सम्मान बाँटने वाली अकादमियों-संस्थाओं को मेरी चुनौती है कि वे कभी ऐसे नाटककार के नाम पर भी विचार करके देखें जो आपके सम्मान को ठेंगे पर रखता हो!

-दिनेश चौधरी



Friday, December 27, 2013

सीमा बिस्वास को रंगकर्म का शरदचन्द्र वैरागकर सम्मान

रायगढ़. हर वर्ष की तरह पाँच दिवसीय राष्ट्रीय नाट्य समारोह का आरम्भ कल दिनाँक 26 दिसम्बर से हुआ. सुबह पांचवें शरदचन्द्र वैरागकर सम्मान समारोह का आयोजन संपन्न हुआ. इस बार यह पुरस्कार सुपरिचित रंगकर्मी सुश्री सीमा बिस्वास को दिया गया. इस बार इस पुरस्कार की चयन समिति में शामिल थे- विवेचना रंगमंडल के अरूण पांडे, मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय के डायरेक्टर संजय उपाध्याय, रंगकर्मी राजकमल नायक, रायगढ़ इप्टा के अध्यक्ष विनोद बोहिदार और इप्टा की राष्ट्रीय कार्यसमिति के सदस्य अजय आठले.

शरदचन्द्र वैरागकर मराठी रंगमंच से जुड़े थे. बिलासपुर में गणित के प्रोफेसर रहे व रिटायरमेंट के बाद रायगढ़ में रहे.  रंगकर्म से उनका गहरा जुड़ाव इस रंगकर्मी सम्मान की पूर्वपीठिका बना. उनके जाने के बाद उनकी याद में रंगकर्मी सम्मान दिये जाने की पहल उनके परिवार के सदस्यों ने की.सबसे पहला शरदचन्द्र वैरागकर सम्मान राजकमल नायक को, दूसरा संजय उपाध्याय को, तीसरा अरूण पांडे को, चौथा जुगल किशोर को और इस बार का पांचवां सम्मान सीमा बिस्वास को दिया गया.

हर वर्ष सम्मानित रंगकर्मी द्वारा नाट्य मंचन प्रथम दिवस में किया जाता है. परंपरा के इस क्रम में कल सुश्री सीमाजी की एकल प्रस्तुति रबिन्द्रनाथ टैगोर के ‘स्त्रीर पत्र’ शाम 7 बजे हुई. शाम को दीप प्रज्ज्वलन के लिये हमारे साथ जिलाधीश महोदय उपस्थ्ति थे. जिलाधीश महोदय और दिल्ली इप्टा के मनीष श्रीवास्तव द्वारा सालाना पत्रिका ‘रंगकर्म’ का विमोचन किया गया. ‘स्त्रीर पत्र’ की अविस्मरणीय प्रस्तुति में शामिल रहे शहर के तमाम सुधि दर्शक. यहाँ ज़िक्र करते चलें कि सीमाजी का रंगमंच का लम्बा सफर जारी है जिसमें उनके द्वारा अभिनीत अनगिनत प्रस्तुतियां शामिल हैं जिनमें एंटीगनी, कर्मानवाली, आषाढ़ का एक दिन, नटी विनोदिनी, रक्त कल्याण, जुलियस सीज़र, डेथ ऑफ ए सेल्समेन, अंधा युग, ख़ूबसूरत बहू, दिन के अंधेरे, ब्रोकन इमेजेस, रोशोमन, तुगलक, काठी की गाड़ी,गांधी वर्सेस गांधी, जीवित और मृत आदि उल्लेखनीय हैं.

सीमा जी रंगमंच के साथ-साथ फिल्मों में भी अनेक सार्थक भूमिकाओं के लिये सुपरिचित हैं. बैंडिट क्वीन से हिन्दी सिने जगत में अभिनय की ऊंचाईयों को नया मुहावरा देने वाली सीमा बिस्वास निरंतर चुनौतियों को स्वीकार करती अपने अभिनय सफर में लीन है. सहज-सरल व्यक्तित्व वाली यह अभिनेत्री लाइमलाइट में बनें रहने की लालसा से दूर अभिनय को जी रही है और नयी परिभाषाओं के अन्वेषण में लगी हैं.

रायगढ़ इप्टा के इस सम्मान समारोह का स्वरूप अपने आप में विशिष्ट है. यहाँ सभी जन संस्थाओं और अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं को भी आमंत्रित किया जाता है और उनकी तरफ से भी रंगकर्मी सम्मानकर्ता को सम्मान दिया जाता है. इस क्रम में इस बार 34 संस्थाएं शामिल हुई. 

Thursday, December 26, 2013

मेदिनीनगर : नेल्सन मंडेला को श्रद्धांजलि

मेदिनीनगर । रंगभेद नीति के खिलाफ लड़ने वाले  अंतराष्ट्रीय - ख्याति  के योद्धा नेल्सन मंडेला के निधन के बाद, उनकी स्मृति मे  रविवार को इप्टा‘ कार्यालय में श्रद्धाजंलि सभा का आयोजन किया गया। सभा की अध्यक्षता पंकज श्रीवास्तव ने  की, तथा संचालन राजकुमार उजाला ने किया । श्रद्धाजंलि सभा में  उपस्थित लोगों ने नेल्सन मंडेला के बारे में कहा कि दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला ने जिस आंदोलन की शुरूआत की उसकी आग विश्व भर में देखन को मिली । यह विडम्बना ही है कि देश की आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी लोग ऊंच-नीच, जाति-पाति, गोरे-कालों के बीच बंटे हुए हैं । आज मंडेला की श्रद्धाजंलि सभा में यह संकल्प लेने की जरूरत है कि समाज में फैली इन बुराइयों को दूर करें । यही नेल्सन मंडेला के  प्रति सच्ची श्रद्धाजंलि होगी । साथ ही दलित, उत्पीडि़त और शोषित जनता के  हितों मे संघर्ष व आंदोलन का  मजबूती के  साथ खड़ा करने के संकल्प को दुहराया ।

सभा के बाद दो मिनट का मौन रखकर संघर्षषील महान योद्धा की शहादत का सलाम किया गया । सभा में शैलेन्द्र सिंह, सतीष कुमार, उदय कुमार, आलोक श्रीवास्तव, आलोक वर्मा, शहबीर अहमद, सुरेश सिंह,  मृत्युंजय शर्मा , राजीव रंजन (सचिव इप्टा), प्रेम प्रकाश, अजित ठाकुर, संजीत, राजकमल तिवारी, अमन मिश्रा, संजीव कुमार, भूपेश, दिनेश, रवि, आयुष प्रकाश सहित अन्य लोग उपस्थित थे।

Wednesday, December 25, 2013

IPTA, Cuttack : Balraj Sahani Birth Centenary Celebration


The Presidium
(A Report by-Nikunj Bhutia, executive member, IPTA, Cuttack.)

The Indian People’s Theatre Association, Cuttack has successfully celebrated the Birth Centenary of veteran Bollywood actor Late Sri Balraj Sahani at the prestigious Kala Vikash Kendra, Cuttack; on 14thDecember 2013.The programme has been forced to postponed twice due to the grievous Cyclone and flood that rocked Odisha. The programme was scheduled to be held on 19th Oct. 2013 and then shifted to 23rdNov. 2013 and finally on 14th Dec. 2013.

The programme started by 6 pm in the evening and continued till 9.45 pm. The hall which was well attended by women, writers, journalists, students, artiest, intellectuals, trade union people, Bank employees, teachers remembered their beloved actor and shown their tribute.


IPTA Executive member Susant Mohapatra welcomed all the Participants, volunteers, and introduced all the honorable guests to the dais. Mr. Bibhu Prasad Tarai MP, Jagatsighpur, was the Chief Guest. IPTA state President and famous Odia Cine Music director, singer and columnist Mr. Prafulla Kar was the guest of honor. Eminent Educationist and former Principal Christ College, Cuttack Mr. Dayanidhi Samantray presided over the Meeting.

Famous actress of Odia cinema, former director of Door Darshan Mrs. JHARANA DAS, was felicitated by IPTA in this program. Along with the guests President Puranja Roy and Secretary Krishnapriya Mishra formed the dais.

Mr. Prafulla Kar lit the lamp and garlanded the photo of Late Balraj Sahani.

The meeting was followed with three revolutionary songs presented by the IPTA group and directed by Rita Mukherjee/ Susant Mohapatra. Sri Laxmidhar Mahalik, Siman Rao, Miss Sradha Priyadarsini Mishra,Bina Karmakar, Ankita Mahalik and Kumari Arpita were the other participants.


In the beginning General Secretary Mrs. Krishnapriya Mishra read out the life and works of Late Sri Balraj Sahani. Chief guest Mr.Bibhuprasad Trai honored Mrs. Jharana Das by presenting a MANAPATRA, trophy and shawl. The guests spoke on the relevance of Balraj Sahni today especially the youth should follow his revolutionary path. They emphasized on the simple sober and dedicated life of Late Balraj Sahni.



Cultural programs

Various Cultural programs followed after the meeting was over. Cultural program was conducted bySwarnaprabha Dash

The Odissi Nrutya Mandalunder the guidance of Guru Ashis Dash has presented the Odissi Balle “Bande Utkal Janani” and “Tunga Sikhar Chula”.

Kumari Kasturika Rout of Railway High school who stood fist in dance competition performed theSambalpuri folk dance.



The most attractive and fabulous performance was the Gitee Natya SRIMATI SAMARJANI a play by Gopal Chhotray based on the famous short story of Byasakabi Fakir Mohan Senapati. The artists Premananda Swain, Swarnaprabha Dash, Girija Panda and Sri Biswajeet were appreciated by the audience.

Srimati Samarjani is based on the story of Fakir mohan Senapati. It is about a strong woman. She sets right her wayward zamindar husband Chandramani Babu to the surprise of the entire town. There is an attempt to bring a wine and drug addict husband to the true tract of life and morality. Sulochana Devi, the heroine of the story, has gone to the extreme and using broomstick to a drunkard husband. But her repentance, penance and profuse tears have wiped out the evil she has done to her husband. Her intention to bring a way-ward husband to the path of morality and to normal social being is noble and righteous.

Prize giving ceremony-

The prize giving ceremony was conducted by Mr. Nikunj Bhutia.

On the eve of the centenary celebration of Late Sri Balraj Sahni, various competition programmes like Fancy dress, Drawing, Song, Dance and Debate was organized by IPTA Cuttack, among school children starting from Nursery to 12th standards on 29thSeptember 2013 at Mahamaya M E School, Cuttack. 40 girls and boys belonging to 21 different educational Institutions of Cuttack took part in the competition.

The winner students who secured positions were presented a trophy of Balraj Sahni and a Certificate of Merit by IPTA in this program. The trophies and certificates were presented by Mr. Bibhu Trai and Mr. Dayanidhi Samantray. The proud parents of the participants were fascinated to see their children receive the trophies and certificates from the guests.

President Dayanidhi Samantray presented the trophies to the Odissi Nrutya Mandal and to the musical play Srimati Samarjani Group and to the volunteers. State secretary Sri Ramesh Padhi joined and presented the Trophies to the Guests.

Program Coordination-

The program was coordinated by Sri Susant Mahapatra, Nikunj Bhutia, Swarnaprabha Dash, Laxmidhar Dash, Mr. Simon, Laxmidhar Mahalik, Binod Behera, Ashok Das, ,Niharika Das, Miss. Harsha Samantray, Miss Sradha Priyadarsini Mishra, Samhati Mahapatra, Premanada Swain, Badrinarayan Mohapatra, Indira Patel, Kajal Mukherjee and Krishnapriya Mishra.

At the end IPTA executive member Sri Laxmidhar Dash thanked all the guests, participants, volunteers, Jury Members and members present at Kala Vikash Kendra.

List of Winners participated in various Competitions

Fancy Dress- 1st Anwesh Archit

2nd Arpita Mahalik

3rd Suhana Alli

Drawing (Jr Group)- 1st Astha Patel

2nd Amlan Archit Das

3rd Arpita Mahalik

Special appreciation – Anwesh Archit

Drawing (Sr group) - 1st Mihir manohar Majhi

2nd Sudikshya Bhardwaj

3rd Bijay Kumar Sethi

Dance (Jr. Group)- 1st Swetashree Padhi

2nd Sudikshya Bhardwaj

3rd Ankita Mahalik

Dance Sr.Group)- 1st Kasturika Rout

2nd Hena Alli

3rd Tarana Alli

Music Vocal (Jr.Group)- 1st Ankita mahalik

2nd Manoranjan Behera

3rd Manisha Manasmita Malla

Music Vocal (Sr. Group)- 1st Sangeeta das

2nd Pragnya Paramita Das

Debate competition- 1st Mahima Tripathy

2nd Mamata sahu





'गधों का मेला' के मंचन के साथ 9 वें राष्ट्रीय नाट्य समारोह का समापन

कोर्ट मार्शल
-पुंजप्रकाश

डोंगरगढ़, 21 से 23 दिसंबर 2013। संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार और डोंगरगढ़ इप्टा के सहयोग से विकल्प, डोंगरगढ़ द्वारा 3 दिवसीय 9 वें राष्ट्रीय नाट्य समारोह के तीसरे और आखिरी दिन कुल तीन नाट्य प्रस्तुतियों का मंचन किया गया । पहली प्रस्तुति थी प्रसिद्ध नाटककार स्वदेश दीपक लिखित नाटक कोर्ट मार्शल, जिसे इप्टा, गुना के कलाकारों ने अनिल दुबे के निर्देशन में प्रस्तुत किया । सामंती मानसिकता को बड़ी ही खूबसूरती से  मानवीयता और सत्य के कटघड़े में खड़ा करती यह प्रस्तुति समारोह की सार्थक नाट्य प्रस्तुतियों में से एक थीं । प्रस्तुति के विभिन्न चरित्रों में अनिल दुवे, कल्याण सिंह लोधी, सुमित बुनकर, शुभम भार्गव, पंकज दीक्षित, शुभम पाठक आदि अभिनेताओं ने अभिनय किया । ज्ञात हो कि कोर्ट मार्शल हिंदी के चर्चित व बहुमंचित नाटकों में से एक है ।

इत्यादि
अंतिम दिवस दूसरी प्रस्तुति इत्यादि थी । वर्त्तमान समय में हिंदी के प्रतिष्ठित कवि राजेश जोशी की एक कविता ‘इत्यादि’ पर आधारित, आधुनिक रंगमंच की प्रयोगशीलता को अपने अंदर समेटे डोंगरगढ़ बाल इप्टा की इस प्रस्तुति का निर्देशन पुंज प्रकाश ने किया था । डोंगरगढ़ के दर्शकों के लिए यह प्रस्तुति एक नई नाट्यानुभूति थी । इत्यादि में प्रतिज्ञा, राशि पांडे, अनिता गुप्ता, सानिका जैन, अनुष्कस बक्शी, मुस्कान सिंग आदि बाल कलाकारों ने अभिनय किया था ।

समारोह की तीसरी और आखिरी प्रस्तुति थी गधों का मेला, जिसे नाट्य विभाग, खैरागढ़ विश्विद्यालय के अभिनेता डॉ योगेन्द्र चौबे के निर्देशन में प्रस्तुत कर रहे थे । वर्त्तमान सामाजिक परिदृश्य की विभीषिकाओं को हास्य-व्यंग्य के माध्यम से पेश करती तौकीर अल हाकिम लिखित इस नाटक का हिंदी अनुवाद प्रसिद्ध रंगकर्मी देवेन्द्र राज अंकुर ने किया था । हास्य-व्यंग से सरबोर लोक व पारम्परिक नाट्य रूपों व शैलियों को आधुनिक सन्दर्भ में प्रयोग करते इस शानदार नाट्य प्रस्तुति में घनश्याम साहू, सौरव बुराडे, भुवनेश्वर महिलाने, शुभम, राकेश कुमार, काजोल मुस्कान, गौरव चौहान आदि अभिनेताओं ने विभिन्न भूमिकाओं को बड़ी ही अदा से पेश किया।

गधों का मेला
इससे पूर्व आयोजन के दूसरे दिन प्रसिद्ध  नाटककार  बादल सरकार लिखित हास्य नाटक ‘बल्लभपुर की रूपकथा’ का सफल मंचन विवेचना रंगमंडल, जबलपुर के कलाकारों ने चर्चित रंग निर्देशक अरुण पाण्डेय के निर्देशन में किया ।

ज्ञात हो कि सन 1963 में लिखा बादल सरकार का यह परिस्थिति जनक हास्य नाटक अंग्रेजी फ़िल्म ‘यूं आर नो  एंजल्स’ पर आधारित है। प्रस्तुतिकरण में हास्य प्रचुरता एवं अभिनेताओं की ऊर्जा व हास्य-बोध ने उपस्थित नाट्य प्रेमियों का भरपूर मनोरंजन किया।

 नाटक के विभिन्न  चरित्रों को विवेक पांडे, मनीष तिवारी, रोहित सिंह, जतिन राठौड़, अमित निमझे, सरस नामदेव, रविन्द्र मुर्हार, आशुतोष द्विवेदी, अलंकृत, अपर्णा शर्मा एवं सूरज राय आदि अभिनेताओं ने जीवंत किया । इस प्रस्तुति की सफलता में कला निर्देशक विनय अम्बर व प्रकाश परिकल्पक दिलीप झाडे का योगदान भी उल्लेखनीय है ।

वल्लभपुर की रूपकथा
दूसरे दिन की दूसरी प्रस्तुति थी हीरा मानिकपुरी निर्देशित नाटक:व्याकरण’ जिसे प्रस्तुत किया , इप्टा रायगढ़ के कलाकारों ने। जल, जंगल, ज़मीन से जुड़े वर्त्तमान ज्वलंत सवालों को अपने दायरे में समेटने का एक गम्भीर प्रयास करता यह नाटक छद्म आंदोलन की भी पड़ताल है । प्रस्तुति की गम्भीरता एवं गम्भीर नाटकों के प्रति दर्शकों के नजरिया की भी पड़ताल इस प्रस्तुति के मार्फ़त की जा सकती है।

नाटक के विभिन्न चरित्रों में अपर्णा, ब्रिजेश तिवारी,  लोकेश्वर निषाद, भारत निषाद, सुरेन्द्र बरेठ, कुलदीप दास, प्रियंका बेरिया, श्याम देवकर, विनोद बोहिदार, आदि अभिनेताओं ने अभिनय किया । एक ही दिन में दो अलग-अलग  नाटकों से  रु-ब- रु होना का एक मज़ेदार अनुभव भी देखने को   मिला ।

व्याकरण
आयोजन का उद्घाटन विख्यात हिंदी कवि पवन करण ने किया। इस अवसर पर उनके जनगीतों की एक पोस्टर प्रदर्शनी भी लगायी गयी। मनोज गुप्ता के संगीत निर्देशन में जनगीतों के सामूहिक गायन के पश्चात भिलाई इप्टा द्वारा नाटक ‘प्लेटफार्म’ और डोंगरगढ़ इप्टा द्वारा नाटक ‘बापू मुझे बचा लो’ का मंचन किया गया।

नाट्य समारोह का उद्घाटन करते हुए  पवन करण ने महोत्सव के आयोजन की बधाई देते हुए कला और समाज के अंतरसंबधों पर प्रकाश डाला। नाटक प्लेटफार्म रेलवे प्लेटफार्म पर विभिन्न पात्रों एवं घटनाओं का रोचक कोलाज है जो कई सामाजिक सवालों से भी रू-ब-रूहोता है। प्रस्तुति में नाटकीय तत्वों व घटनाओं की प्रधनता एवं अभिेनेताओं का सादगीपूर्ण प्रदर्शन इस प्रस्तुति की सार्थकता को दर्शकों तक सफलतापूर्वक संप्रेषित करती है। इस नाटक क ेलेखन व निर्देशन शरीफ अहमद ने किया था एवं राजेश श्रीवास्तव, मणिमय मुखर्जी, शैलेश कोडापे, निशु, संदीप आदि ने उल्लेखनीय अभिनय किया।

बापू मुझे बचा लो
समारोह की दूसरी प्रस्तुति राधेश्याम तराने निर्देशित नाटक बापू मुझे बचा लो थी, जिसका आलेख दिनेश चौधरी ने लिखा है व संगीत निर्देशन मनोज गुप्ता है। नाटक भ्रष्टाचार रूपी त्रासदी  को  महात्मा गांधी के मेटाफर के साथ व्यंग्य और हास्य के मार्फत प्रस्तुत करते हुए सामाजिक -आर्थिक-राजनीतिक प्ररिस्थितियों को कठघरे में खड़ा करता है। नाटक का तीखा व्यंग्य एक तरफ जहाँ आलेख की खूबसूरती है, वहीं प्रेक्षकों और अभिनेताओं के ‘‘सेफ जोन’’ का अतिक्रमण भी। नाटक में मतीन अहमद, नुरूद्दीन जीवा, राजेश कश्यप, महेन्द्र रामटेके, निश्चय व्यास, दिनेश नामदेव, राधेकृष्ण कनौजिया, गुलाम नबी ने अभिनय किया। उद्घाटन समारोह में सुभाष मिश्रा, संजय अलंग, जयप्रकाश, आनंद हर्षुल, योगेन्द्र चौबे और पुंजप्रकाश भी मौजूद थे।

प्लेटफार्म


 

Sunday, December 22, 2013

डोंगरगढ़ में 9 वें राष्ट्रीय नाट्य समारोह का शुभारंभ

डोंगरगढ़। संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार और डोंगरगढ़ इप्टा के सहयोग से विकल्प, डोंगरगढ़ द्वारा 3 दिवसीय 9 वें राष्ट्रीय नाट्य समारोह का शुभारंभ स्थानीय बमलेश्वरी मंदिर प्रांगण में हुआ। आयोजन का उद्घाटन विख्यात हिंदी कवि पवन करण ने किया। इस अवसर पर उनके जनगीतों की एक पोस्टर प्रदर्शनी भी लगायी गयी। मनोज गुप्ता के संगीत निर्देशन में जनगीतों के सामूहिक गायन के पश्चात भिलाई इप्टा द्वारा नाटक ‘प्लेटफार्म’ और डोंगरगढ़ इप्टा द्वारा नाटक ‘बापू मुझे बचा लो’ का मंचन किया गया।

नाट्य समारोह का उद्घाटन करते हुए देश के चर्चित कवि पवन करण ने महोत्सव के आयोजन की बधाई देते हुए कला और समाज के अंतरसंबधों पर प्रकाश डाला। नाटक प्लेटफार्म रेलवे प्लेटफार्म पर विभिन्न पात्रों एवं घटनाओं का रोचक कोलाज है जो कई सामाजिक सवालों से भी रू-ब-रूहोता है। प्रस्तुति में नाटकीय तत्वों व घटनाओं की प्रधनता एवं अभिेनेताओं का सादगीपूर्ण प्रदर्शन इस प्रस्तुति की सार्थकता को दर्शकों तक सफलतापूर्वक संप्रेषित करती है। इस नाटक क ेलेखन व निर्देशन शरीफ अहमद ने किया था एवं राजेश श्रीवास्तव, मणिमय मुखर्जी, शैलेश कोडापे, निशु, संदीप आदि ने उल्लेखनीय अभिनय किया।

समारोह की दूसरी प्रस्तुति राधेश्याम तराने निर्देशित नाटक बापू मुझे बचा लो थी, जिसका आलेख दिनेश चौधरी ने लिखा है व संगीत निर्देशन मनोज गुप्ता है। नाटक भ्रष्टाचार रूपी त्रासदी  को  महात्मा गांधी के मेटाफर के साथ व्यंग्य और हास्य के मार्फत प्रस्तुत करते हुए सामाजिक -आर्थिक-राजनीतिक प्ररिस्थितियों को कठघरे में खड़ा करता है। नाटक का तीखा व्यंग्य एक तरफ जहाँ आलेख की खूबसूरती है, वहीं प्रेक्षकों और अभिनेताओं के ‘‘सेफ जोन’’ का अतिक्रमण भी। नाटक में मतीन अहमद, नुरूद्दीन जीवा, राजेश कश्यप, महेन्द्र रामटेके, निश्चय व्यास, दिनेश नामदेव, राधेकृष्ण कनौजिया, गुलाम नबी ने अभिनय किया।

उद्घाटन समारोह में सुभाष मिश्रा, संजय अलंग, जयप्रकाश, आनंद हर्षुल, योगेन्द्र चौबे और पुंजप्रकाश भी मौजूद थे।


Friday, December 13, 2013

Jurrat : Aurat maange azaadi, inkar karan ki azaadi...

Aurat maange azaadi, inkar karan ki azaadi... the call rang loud at the launch of 'Jurrat', the week-long campaign to mark one year of the Delhi gang-rape. Two groups, Swaang and Majma, with the help of other artistes and groups like IPTA from JNU, kick-started the initiative, saluting Nirbhaya's fight through protest songs, sketches and plays. 

Activist and lawyer Vrinda Grover's speech took guests to episodes where a woman was harassed or assaulted, but justice wasn't meted out. The Mathura rape case and the Bhanwari Devi rape case were also discussed. Protest songs by groups, "an alternative to Yo Yo Honey Singh", according to the host and member of Swaang, actress Swara Bhaskar, followed. "He'd faced a lot of backlash when it came to light last year that he'd sung songs like Balatkari, but Honey Singh's back, asking us to do Lungi Dance," she said. 

What froze the audience in the auditorium was the 10-minute sketch presented by former DU student Mallika Taneja. Her act began with Mallika in nothing but her underwear, with heaps of clothes around her. One by one, she wore each piece of clothing, one over the other, describing how the society thinks that it's important for a girl to dress 'properly' in order to save herself from sexual harassment. 

Rasika Agashe's Museum... Of Species In Danger, a play in Hindi with women impersonating Sita, Surpanakha, Kunti and a commoner, brought the curtains down. The campaign is on the streets now. "We're going into bastis and communities, trying to break the language barrier, so that it is not confined to just the English-speaking audience," said Swara. "It's very encouraging how people have come together. It's a massive movement that we're launching, and we hope to make Jurrat an annual feature. Our main event is the mobile concert on the 16th, when we'll have Sona Mohaptra, Rabbi Shergill and Swanand Kirkire with us," she added. Jurrat will end with a final concert at the JNU convention centre on December 16. 

-Bohni Bandyopadhyay and Alina Sayeed in mumbaimirror.com
(http://www.mumbaimirror.com/Entertainment/Art-Theatre/Marking-one-year-of-Delhi-gang-rape/articleshow/27239757.cms)

Monday, December 9, 2013

JURRAT : A Campaign on Violence Against Women

On 16th December 2013 one year would have passed since the shameful, horrific and brutally inhuman gang-rape of a 23 year old girl in Delhi on one of the most traffic and people infested roads of the national capital.

Swaang (a Mumbai based theatre and protest music group) and Majma (a Delhi based cultural group) are organizing on 16th December 2013 Jurrat: Aazaad Chalo, Bebaak Chalo - a show of strength by the citizens of Delhi, women and men, to claim back the streets of Delhi.

Jurrat is envisaged as a mobile music concert. It will be performed on a moving trailer through the streeets of Delhi on 16th Dec 2013. A moving kaaravaan or caravan, it will comprise of an open trailer, atop which artists will perform protest music and which will be trailed by volunteers and citizens on motorbikes and cycles. On 16th December 2013 this caravan will chart Jyoti's route of that night. It will make performance stops at Saket Select City Walk Mall, where Jyoti and her friend left to go home, Mehrauli Bus Depot, Munirka Flyover, and finally reach Mahipalpur Crossing close to where Jyoti's brutalised body was thrown out of the bus.

At each spot renowned artists namely Rabbi, Sona Mahapatra, and Swanand Kirkire, and Swaang will sing songs of protest.

Jurrat, is a ‘show of strength’, it is the cry of our conscience against our own complacency. It is an effort to prevent ourselves from slipping into a comfortable inertia, now that the perpetrators have been convicted and a sentence pronounced. It is a reminder to the citizenry that the battle against gender violence is arduous and long but is our responsibility as well. And that it must be fought. Jurrat is the decision that from now on there shall be no more victims, only survivors. Jurrat is a promise by “We the Citizens”, unto ourselves and our world, that “We shall fight”. Jurrat is the collective cry of “No more!”

This is an independent event with no political leaning nor any kind of political sponsorship. This is an effort of artists and students and citizens of India. It is an effort to remember Jyoti's fight and not allow it to fade into the oblivion of a statistical record or a number in a list of crimes that were committed in a particular year in a particular city.

WE INVITE YOU AND YOUR FRIENDS TO BE PART OF JURRAT. To get out on the streets of Delhi on 16th December 2013, to fight, to resist, to protest and to pledge against gender based and sexual violence.

To discuss details, know how you can be part of this endeavour and plan the procession; pls join Swaang and Majma on Sunday, 8th December 2013 at 3pm at the AMPHITHEATRE in the INDIA HABITAT CENTRE, Lodi Road, New Delhi.



Bring friends and do pass the word and share this email with everyone and on all the mailer lists you know.

Hope to see you this Sunday and then on 16th Dec on the streets of Delhi!


Contact:
Swara Bhaskar: 0091-9987-307-361
Pritpal Randhawa: 9868304626

In Solidarity
Manish Shrivastava
Gen. Secy. IPTA Delhi State

Saturday, December 7, 2013

मंडेला : अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय आवाज

-लाल्टू

अमांडला अंवेतू!’ - सत्ता किसकी, जनता की! यह नारा अस्सी और नब्बे के दशकों में दुनिया के सभी देशों में उठाया जाता था। हमारे अपने ‘इंकलाब जिंदाबाद’ जैसा ही यह नारा अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय आवाज थी।

जब नेलसन मंडेला 1 मई 1990 को जेल से छूटे, बाद के सालों में जब वे कई देशों के दौरे पर आए, हर जगह यह नारा गूंजता। कोलकाता में आए तो सिर्फ ईडेन गार्डेन में भूपेन हजारिका के साथ ही नहीं, सड़कों पर आकर लोगों ने ‘मंडेला, मंडेला’ की गूंज के साथ यह नारा उठाया। और यह शख्स जिसने सारी दुनिया को अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ उठ खड़े होने को प्रेरित किया, 27 साल तक अमानवीय परिस्थितियों में दुनिया की सबसे खतरनाक जेलों में से एक रॉबेन आइलैंड में सड़ रहा था। उसी जेल में रहे दक्षिण अफ्रीकी कवि डीनस ब्रूटस ने कमीज उतार कर दिखलाया था कि कैसे सामान्य नियमों के उल्लंघन मात्र से उनको गोली मारी गई थी, जो सीने के आर-पार हो गई थी।

नेलसन रोलीलाला मंडेला बीसवीं सदी का अकेला ऐसा व्यक्ति था, जिसने अपने जीवन काल में समूची धरती पर अन्याय के खिलाफ लोगों को, खास कर युवाओं को सड़कों पर उतर आने को प्रेरित किया था। गांधी जी ने 1894 में दक्षिण अफ्रीका के भारतीय व्यापारियों को संगठित कर नेटाल इंडियन कांग्रेस बनाई। इसी से प्रेरित होकर सभी अश्वेतों के अधिकारों की रक्षा के लिए अफ्रीकन नेटिव नेशनल कांग्रेस 1912 में बनी, जो बाद में अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस (एएनसी) बन गई। सदी के आखिरी दशकों तक मंडेला और एएनसी एक दूसरे के पर्याय बन गए। इसके पीछे 1962 में आजीवन कारावास में जाने से पहले दो दशकों तक उनका जमीनी काम था।

1944 में एएनसी में शामिल होने के बाद वकालती करते हुए अपने साथी वकील आॅलिवर तांबो के साथ मिलकर वे बरतानवी उपनिवेशवाद से ताजा आजाद हुए अपने मुल्क में नस्लवादी व्यवस्थाओं के खिलाफ जनांदोलनों में पार्टी के झंडे तले जी-जान से काम करते रहे। वे युवाओं के लिए पार्टी की शाखा उमखोंतो वे सिजवे (राष्ट्र की बरछी) के प्रमुख संस्थापकों में थे। 1948 में जब नस्लभेदी व्यवस्था ‘अपार्थीड’ औपचारिक रूप से देश की शासन-व्यवस्था बन गई और अलग-अलग नस्ल के लोगों के लिए भिन्न कानून बना दिए गए , एएनसी और दक्षिण अफ्रीका की कम्युनिस्ट पार्टी ने मिलकर जोरों से विरोध शुरू किया। जल्द ही मंडेला और साथी पकड़े गए और उन पर देशद्रोह का मामला चला। चार सालों के बाद निकले, पर तभी कुछ समय बाद ही शार्पविले में शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी की गई और 69 लोग मारे गए। इसके बाद मंडेला के नेतृत्व में एएनसी ने ‘अपार्थीड’ के खिलाफ युद्ध की घोषणा की। मंडेला जल्द ही पकड़े गए और पहले मौत की सजा की संभावना होने के बावजूद आखिरकार उन्हें आजीवन कारावास की सजा मिली। एएनसी को विश्व स्तर पर सभी लोकतांत्रिक ताकतों से समर्थन मिलता था। गुट निरपेक्ष आंदोलन की सदस्यता उन्हें मिली थी। भारत जैसे कई देशों ने अपने नागरिकों को उस जघन्य देश दक्षिण अफ्रीका में जाने से रोक लगा दी थी जहां वे अपनी पहचान के साथ नहीं, बल्कि ‘आॅनररी वाइट’ बनकर ही जा सकते थे। वहां 11 नस्लें परिभाषित थीं।

सत्तर के दशक में एएनसी ने दक्षिण अफ्रीका की सरकार को कमजोर बनाने के लिए सभी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से आग्रह किया कि वे उस देश पर आर्थिक प्रतिबंध (एंबार्गो) लगाएं। हर साल भारत और अन्य देश संयुक्त राष्ट्र संघ में आर्थिक नाकेबंदी का प्रस्ताव लाते और सोवियत रूस के समर्थन के बावजूद सुरक्षा परिषद में अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देश वीटो का इस्तेमाल कर इसे रद्द कर देते। इन मुल्कों की सरकारों पर उन बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दबाव था, जो दक्षिण अफ्रीका के साथ व्यापार कर करोड़ों कमा रहे थे। पर धीरे-धीरे अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ता गया और खास कर अमेरिका के अफ्रीकी मूल के नागरिकों और दूसरे प्रगतिशील लोगों के पुरजोर विरोध के सामने उनकी न चली। विश्वविद्यालयों में छात्रों ने, शहरों की पौर-सभाओं में कर्मचारियों ने लगातार विरोध करना शुरू किया और अंतत: पश्चिमी सरकारों ने दक्षिण अफ्रीका में व्यवस्था परिवर्तन के लिए दबाव डालना शुरू किया। एक मई 1990 में मंडेला जेल से छूटे। 1994 में दक्षिण अफ्रीका में पहली सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करती लोकतांत्रिकसरकार बनी। 1999 तक सरकार में राष्ट्रपति के पद पर रहकर मंडेला ने राजनीति से संन्यास ले लिया। इसके बाद से उन्होंने अपना पूरा वक्त विश्व-शांति के लिए लगा दिया। साल भर वे गुट निरपेक्ष आंदोलन के मुख्य सचिव भी रहे।

आखिरी वर्षों में मंडेला का दुनिया को सबसे अनोखा उपहार नोबेल शांति विजेता रेवरेंड डेसमंड टूटू के साथ मिलकर सोचा गया ‘ट्रुथ ऐंड रीकंसीलिएशन कमीशन (सत्य और समझौता समति)’ है। पुरानी बीमार मानसिकता वाली नस्लवादी व्यवस्था के अधिकारियों को सजा न देकर उनको अपना अपराध मान लेने को कहा गया। पुलिस की गोली खाकर मरे बच्चों की मांओं के साथ उन पुलिस अधिकारियों को बैठाया गया जिन्होंने गोलीबारी के आदेश दिए थे। दोषियों ने सच्चे दिल से अपना अपराध कबूल किया और पीड़ितों को राहत दी गई। मानवता का ऐसा आदर्श संसार के इतिहास में पहली बार देखा गया। मानव अधिकारों के हनन से जूझने का यह तरीका दूसरे विश्व युद्ध के बाद हुए न्यूरेंबर्ग पेशियों की तुलना में अधिक सफल माना गया और कई देशों में ऐसे ही प्रयास होने लगे। इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गरीबी दूर करने और एड्स के बारे में जागरूकता फैलाने और उसके उपचार के लिए व्यापक कोशिशों को बढ़ावा देने के लिए मंडेला ने काफी काम किया।

उन्हें कम्युनिस्ट कहकर खारिज करने वालों की कमी नहीं रही, पर अपनी ईमानदारी और निष्ठा के बल पर उन्हें एक के बाद एक कोई 250 अंतरराष्ट्रीय सम्मान मिले, जिनमें 1993 का नोबेल शांति पुरस्कार भी शामिल है। निजी तौर पर वे बड़े विनोदी स्वभाव के व्यक्ति थे। ब्रिटेन की महारानी को न केवल उनके नाम ‘एलिजाबेथ’ से पुकारने वाले वे अकेली शख्सियत थे, उन्होंने मजाक में यहां तक कहा कि ‘एलिजाबेथ, लगता है आप कमजोर हो गई हैं’ - आखिर इसी रानी के साथ काम करने वाली ‘लोकतांत्रिक’ सरकार ने कभी कई दशकों तक नस्लवादी अपार्थीड सरकार को बचाए करने में भूमिका निभाई थी। कहीं और उन्होंने कहा कि मौत के बाद भी वे जहां भी जाएं , एएनसी का दफ्तर ढूंढ़ेंगे।

ऐसे महान शख्सियत को अलविदा कहते हुए हम कभी न भूलें कि अभी हमें ‘अमांडला अंवेतू!’ कहते रहना है। अपनी जमीन पर खड़े जहां भी धरती पर बराबरी के संघर्षों में हम शामिल हैं, उनकी याद हमारे साथ होगी।

साभार : जनसत्ता

Tuesday, December 3, 2013

इप्टा जामिया ने नाटक से किया वोटर्स को जागरूक

02 दिसंबर 2013।  “भारतीय जन नाट्य संघ, इप्टा जामिया ने मतदाताओं को जागरूक करने के लिए एक नुक्कड़ नाटक जागो वोटर जागो के नाम से किया | बटला हाउस, ओखला गाँव, मदनपुर खादर और जैतपुर जो ओखला विधानसभा क्षेत्र में आते हैं, वहां नाटक के द्वारा लोगों को शरीफ़ और ईमानदार प्रत्याशी को वोट देने की अपील की गई |

नुक्कड़ नाटक में दिखाया गया की किस तरह एक व्यक्ति के वोट न देने से गलत और भ्रष्ट नेता जीत जाते हैं और इसके साथ नाटक में दिखाया गया की इस बार वोट डालने की मशीन यानि EVM पर प्रत्याशी के नामों की फ़हरिस्त के आखिर में एक मुताबादिल इनमे सो कोई नहींऔर दूसरी तरफ़ इनतेखाबी निशान की फ़हरिस्त में सबसे नीचे अंग्रेजी में “NOTA” लिखा होगा | अगर आप
चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी में से किसी भी प्रत्याशी को अपने वोट के लायक नहीं समझते हैं तो EVM पर “NOTA” के सामने वाले बटन को दबाकर अपनी राय का इज़हार कर सकते हैं |
 विधानसभा क्षेत्र के लोगों ने भी आगे बढ़कर नुक्कड़ नाटक में अपना सहयोग किया नाटक में मुकेश मकवाना (इप्टा जामिया के सचिव), मोहम्मद वसीम (इप्टा दिल्ली के सचिव), मोहम्मद फैज़ानतौसीफ-उल-हक़, सालिम रज़ा, वारिस अहमद, फुरकान अली, ज़ीशान अहमद, सादान अली खान, ताशा जैसवाल, कमल बत्रा आदी मोजूद रहे |

Thursday, November 28, 2013

‘इप्टा’ लखनऊ का 'सिनेमा के 100वर्ष एवं बलराज साहनी जन्म शताब्दी समारोह'

खनऊ 15 नवम्बर, 2013.  भारत में सिनेमा के आगमन के तीन दशकों के भीतर ही 1943 में इप्टा की स्थापना के साथ ही यथार्थवादी एवं हस्तक्षेपकारी सिनेमा का बीज पड़ गया था, जो 1946 में ‘‘धरती के लाल’’ के रूप में सामने आया।

     उक्त वक्तव्य प्रख्यात सिने एवं नाट्य निर्देशक, इप्टा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एम.एस. सथ्यु  ने 15 नवम्बर, 2013 को ‘इप्टा’ लखनऊ द्वारा आयोजित ‘‘सिनेमा के सौ वर्ष’’ तथा बलराज साहनी जन्म शताब्दी समारोह के अवसर पर दिया। उन्होंने कहा कि यह स्वाभाविक ही था कि ख्वाजा अहमद अब्बास ने ‘इप्टा’ की पहली फिल्म ‘धरती के लाल’ के लिए बंगाल के अकाल पीडि़त किसानों के त्रासद यथार्थ को विषयवस्तु के रूप में चुना। इस फिल्म से ही बलराज साहनी ने अपने बेजोड़ यथार्थवादी अभिनय से अपनी पहचान बनायी। उसी समय चेतन आनन्द ने ‘नीचा नगर’ के माध्यम से इस धारा को और भी पुष्ट किया। उन्होंने कहा कि उन्हें इस बात पर संतोष है कि उन्होंने इसी धारा से जुड़कर अपने फिल्म एवं रंगजीवन की शुरूआत की। उन्होंने कहा कि उनकी फिल्म ‘गर्म हवा’ को इस्मत चुगताई द्वारा दी गयी विषयवस्तु के अलावा बलराज साहनी के अभिनय ने एक सार्थक फिल्म बनाया। उन्होंने कहा कि ‘इप्टा’ एक मात्र ऐसा सांस्कृतिक संगठन है ,जो पिछले सात दशकों से लगातार सक्रिय है, लेकिन उसे अपनी सृजनात्मक क्षमता को और भी बढाने की जरूरत है।इस सार्थक संवाद का संचालन नाटककार तथा उ.प्र.इप्टा के महामंत्री व राष्ट्रीय सचिव राकेश ने किया।   

     एम.एस. सथ्यु  से सम्वाद के फौरन बाद जानी मानी अर्थशास्त्री संस्कृतिकर्मी एवं एक्टिविस्ट जया मेहता तथा लेखक, संस्कृतिकर्मी विनीत तिवारी द्वारा बलराज साहनी पर बनाए गए वृत्त चित्र का प्रदर्शन किया गया। धरती के लाल, दो बीघा जमीन तथा गर्म हवा के विविध दृश्यों में बलराज साहनी के अभिनय उनके स्वयं के अनुभवों को प्रभावशाली कर्मेन्द्री से जोड़कर बनाए गए इस वृत्तचित्र का दिलचस्प पहलू यह भी है कि कुछ भी फिल्माएं बिना यह वृत्तचित्र बलराज साहनी के जीवन एवं उनकी जीवन दृष्टि को बेहद सफलता से दर्शाता है। सामूहिकता से अकेलेपन की ओर जाने की त्रासदी को जया और विनीत ने धरती के लाल तथा दो बीघा जमीन के दृश्यों के माध्यम से दर्शाया है। जहां आजादी के पहले धरती के लाल में अकालग्रस्त गांव से किसान सामूहिक रूप से पलायन करते हैं और वापसी भी सामूहिक रूप से करते हैं वहीं आजादी के बाद बनी दो बीघा जमीन में जमीन से बेदखल किसान अकेले ही शहर पलायन करता है जहां वह रिक्शा चलाने के लिए अभिशप्त होता है। दो बीघा जमीन में घोड़ा-गाड़ी और बलराज साहनी द्वारा हाथ से खींचने वाले रिक्शे के बीच की दौड़, तेज दौड़ाने के लिए तांगेवाले द्वारा घोड़े पर बार-बार चाबुक की मार और बलराज साहनी के रिक्शे पर बैठी सवारी द्वारा दो आने और कहते हुए पैसे की मार को जितने प्रभावशाली ढंग से विमल राय ने फिल्माया है उतनी ही कुशलता से जया और विनीत ने कमेन्ट्री के साथ इसे अपने वृत्त चित्र में जोड़ा है। विभाजन के बाद देश में अल्पसंख्यकों को लगातार अपनी देशभक्ति को प्रमाणित करते रहने की त्रासदी को उकेरते हुए एम.एस. सथ्यु  ने गरीबी, बेरोजगारी ने तथा सभी समस्याओं के जवाब में सामूहिक आन्दोलन के जिस संदेश पर गर्म हवा को समाप्त किया, वह अभी भी कला प्रेमियों के लिए एक ताजे झोंके की तरह लगता है, जिसे बार-बार देखना और महसूस करना ताजगी देता है। गर्म हवा के इन दृश्यों को भी जया और विनीत ने रेखांकित किया है। कुल मिलाकर लखनऊ के कला प्रेमियों के लिए यह एक सार्थक शाम थी।

Wednesday, November 27, 2013

बलराज साहनी : जो बात तुझमें है तेरी तस्वीर में नहीं

भिनय महान कहलाएगा बशर्ते अभिनेता किरदार को ऐसे निभाये कि उसका अपना व्यक्तित्व तिरोहित हो जाय, वह ना रहे, निभाया गया किरदार ही रहे। इस पंक्ति को पढ़कर किसी को कबीर याद आ जायें तो क्या अचरज- ‘जब मैं था तब हरि नहीं- अब हरि हैं हम नाहीं ’! अचरज कीजिए कि बलराज साहनी के अभिनय की ऊंचाई को ठीक-ठीक इसी कसौटी पर महान ठहराया जाता है, यह भूलते हुए कि कबीर का समय बलराज साहनी के समय से अलग है, और ठीक इसीलिए 15 वीं सदी के भक्त का अपनी भाव-वस्तु से जो तादात्म्य संभव रहा होगा वह शायद बीसवीं सदी के किसी अभिनेता का अपने किरदार के साथ संभव ना भी हो । आख़िर चेतना का वस्तूकरण, व्यक्तित्व का विघटन, संवेदना का विच्छेद जैसे पद बीसवीं सदी के मनुष्य को समझने-समझाने की गरज से आये थे। अचरज कीजिए कि खुद बलराज साहनी ने भी अपनी तरफ़ से अभिनय की महानता की कसौटी प्रस्तुत करने की कोशिश की तो किरदार के साथ अभिनेता के एकात्म को ज़रुरी शर्त माना, भले ही अभिनय के दौरान उन्हें इससे तनिक अलग भी अनुभव हुआ हो। इस आलेख का विषय बलराज साहनी के इस ‘अलग अनुभव ’ की तरफ़ संकेत मात्र करना है, ताकि इस आम सहमति को तनिक प्रश्नाकुल होकर कुरेदा जा सके कि किरदार से अभिनेता का एकात्म ही अभिनय की महानता की एकमात्र कसौटी है।

आम सहमति यही है कि ‘ बलराज साहनी कई चेहरों वाला अभिनेता ’ थे। ‘ कई चेहरों वाला अभिनेता ’ कहने के पीछे मंशा यह बताने की होती है कि “अधिकतर अभिनेता विभिन्न पात्रों के रोल करने पर भी अपने ख़ुद के चेहरे को छिपा नहीं पाते हैं और सही अर्थों में उन पात्रों को साकार करने में असमर्थ रहते हैं..” जबकि बलराज साहनी ने विभिन्न पात्रों की भूमिका इस तरह निभायी कि “ ख़ुद की शख़्सियत को उन पात्रों में उजागर नहीं होने दिया, इसीलिए वे पात्र इतने सजीव होकर होकर साकार हुए। ”(1) । बलराज साहनी के अभिनय के संदर्भ में ‘ कई चेहरों वाला अभिनेता ’ का रुपक इतना प्रभावशाली है कि थोड़े हेर-फेर के साथ हर समीक्षक इस बात को दोहराना जरुरी समझता है। मिसाल के लिए जन्मशती के इस साल में बलराज साहनी के अभिनय की विशेषता को याद करते हुए एक सुधी समीक्षक ने उनकी तुलना यूनान के पौराणिक पात्र प्रोतेउस से की क्योंकि एक तो वह किसी के पकड़ में नहीं आता और आ भी जाय तो “ऐसी रफ़्तार से इतने वास्तविक-से चोले बदलने लगता है कि पकड़नेवाला घबरा कर उसे छोड़ देता है और वह फिर फ़रार हो जाता है। ”(2)कमोबेश ऐसी ही बात अपने इस सहोदर भाई के बारे में भीष्म साहनी भी कहते हैं- “ बलराज की सफलता का राज था कि वे किसी किरदार को निभाते वक्त उसमें अपना दिल ही नहीं, आत्मा भी झोंक देते थे। काबुलीवाला फ़िल्म करते वक्त उन्होंने पठान काबुलीवाला के जीवन को नजदीक से जानने के लिए उसका गहन अध्ययन किया। यही कारण है कि जब आप बलराज की किसी फ़िल्म को याद करते हैं, तो बलराज याद नहीं आते वह किरदार याद आता है। हर किरदार अपने आप में अलग नजर आता है। अभिनेता बलराज गायब हो जाता है। वह अपनी पहचान को किरदार में घुला देते थे। यह इस कारण होता था क्योंकि वे किरदार से गहरे स्तर पर जुड़ जाते थे. बलराज कहते थे कि एक्टिंग सिर्फ कला नहीं है, यह एक विज्ञान भी है.”(3)

भीष्म साहनी ने जिस बात को संक्षेप में लिखा है, उसका विस्तार बलराज साहनी पर केंद्रित ख्वाजा अहमद अब्बास के एक संस्मरण में मिलता है। इस संस्मरण में अभिनेता बलराज साहनी से जुड़ी कई कहानियां हैं, ऐसी कहानियां जो अभिनय के प्रति बलराज साहनी की निष्ठा का साक्ष्य तो हैं ही, पाठक के मन में अभिनेता बलराज के प्रति श्रद्धा-भाव जगाती हैं। अब्बास साहब लिखते हैं- “ 1945 में इप्टा ने जब फ़िल्म धरती के लाल बनायी, जिसमें सारे के सारे गैर-पेशेवर अभिनेता-अभिनेत्री थे, उसके लिए लंबे-तड़ंगे तथा नफीस बलराज साहनी ने, जो बीबीसी में दो बरस काम करने के बाद कुछ ही अर्सा हुए लंदन से वापस लौटे थे,खुद को ऐसे आधे-पेट खाकर गुजर करते बंगाली किसान में बदला,जैसे वह अकाल के मारे लाखों किसानों में से ही एक हों। वह महीनों तक सिर्फ एक वक्त खाकर गुजारा करते रहे थे ताकि कैमरे के सामने उनकी अधनंगी देह,अपने भूख के मारे होने की गवाही दे। और हर रोज कैमरे के सामने जाने से पहले वह अपनी धोती,समूचे शरीर और चेहरे पर भी,कीचड़ मिले पानी का छिडक़ाव कराते थे ताकि हर तरह से अकिंचनता प्रकट हो। ”(4)

‘दो बीघा ज़मीन’ के बारे में तो ख़ैर, यह बात प्रसिद्ध है ही कि इस फ़िल्म के किरदार को निभाने के लिए बलराज साहनी कई हफ्ते तक कलकत्ता में रिक्शा खींचने वालों की बस्ती में रहे थे। यहां उन्होंने रिक्शा खींचने के लिए खुद को प्रशिक्षित ही नहीं किया था बल्कि रिक्शा खींचने वालों के तौर-तरीके भी सीखे थे। ‘दो बीघा ज़मीन ’ के किरदार को निभाने के लिए बलराज साहनी ने क्या-क्या किया इसका एक ब्यौरा खुद बलराज साहनी की जबानी सुनिए- “बम्बई शहर से बाहर जोगेश्वरी के इलाके में उत्तर प्रदेश और बिहार के भैंसे पालने वाले भैया लोगों की बहुत बड़ी बस्ती है। मैं अगले दिन से वहां के चक्कर लगाने लगा। मैं भैया लोगों के साथ बैठता, उनकी बातें सुनता, उन्हें काम करते हुए देखता। वे कैसे चलते हैं, क्या पहनते हैं, क्या खाते हैं, कैसे उठते-बैठते हैं- यह सब मैं बड़े गौर से देखता और अपने मन में बैठाता। भैया लोगों को सिर पर गमछा लपेटने का बहुत शौक होता है और हर कोई उसे अपने ही ढंग से लपेटता है। मैंने भी एक गमछा खरीद लिया और घर में उसे सिर पर लपेटने का अभ्यास करने लगा। लेकिन वह खूबसूरती पैदा न होती। मेरे सामने यह एक बहुत बड़ी समस्या थी, जिसे हल करने की मैंने पूरी कोशिश की। ‘दो बीघा जमीन’ में मेरी सफलता ज्यादातर इसी अध्ययन का नतीजा है।”(5)

एक बार फिर से प्रसंग पर लौटते हुए बात ख्वाजा अहमद अब्बास के संस्मरण की करें। अब्बास साहब ने तफ्सील से बताया है कि बलराज साहनी द्वारा अभिनीत किरदार अगर प्रसिद्ध हुए तो इसलिए कि उनका अभिनय कौशल “मानव व्यवहार के सहानुभूतिपूर्ण प्रेक्षण और यथार्थवाद के लिए गहरे लगाव,ब्यौरों के प्रति तथा चरित्र व व्यक्तित्व एक एक-एक रग-रेशे के प्रति आश्यचर्यजनक ईमानदारी ” से भरा था। अब्बास साहब लिखते हैं- “काबुलीवाला में,रवींद्रनाथ टैगोर के रचे बहुत ही भोले पठान के प्यारे से पात्र को साकार करने के लिए,उन्होंने रावलपिंडी में गुजरे अपने बचपन की स्मृतियों को फिर से जगाया था,जहां सीमांत क्षेत्र से आने वाले पठान सहज ही और रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा होते थे। इसके अलावा उन्होंने स्थानीय पठानों से संपर्क कर उनसे उनकी बोल-चाल सीखी थी,उनका प्रिय साज़ रबाब बजाना सीखा था और पश्तो के गीत गाना सीखा था। उन्होंने पठानों की हिंदुस्तानी की बोल-चाल की ध्वनि और उसके लालित्य को सीखा था। ..वर्षों तक वह जहां भी जाते थे, उनके चाहने वाले उनका स्वागत काबुलीबाला के बोलने के तरीके की उनकी प्रस्तुति की नकल कर के किया करते थे। ” (6) । इसी तरह इप्टा के नाटक आखिरी शमा में बलराज साहनी द्वारा अभिनीत मिर्जा गालिब के चरित्र के की तैयारी के बारे में अब्बास साहब ने लिखा है कि “इस पात्र की प्रस्तुति को पूर्णतम बनाने में.. उन्होंने अपने दोस्तों से देहली की उर्दू इस तरह सीखी थी, वह इस जुबान में वैसे ही बोल सकते थे, जैसे गालिब बोलते रहे होंगे। उन्होंने मुशाइरा शैली में शाइरी पढ़ने की नफीस कला भी घोंटकर पी ली थी। गालिब के पात्र की उनकी प्रस्तुति इतनी विश्वसनीय तथा जीवंत थी कि गालिब के एक महान पारखी तथा गालिब साहित्य के विद्वान ने कहा था: ‘‘जाहिर है कि महान शायर को मैंने कभी देखा तो नहीं था, पर मैं इतना जरूर जानता हूं कि गालिब ऐसे ही नजर आते,ऐसे ही शायरी पढ़ते और नाटक में चित्रित विभिन्न हालात में उनकी ऐसी ही प्रतिक्रिया रही होती।’’(7)

बलराज साहनी के अभिनय के बारे में प्रचलित ये सत्यकथाएं क्या एक अभिनेता के कौशल का साक्ष्य मात्र हैं, या इन कथाओं की एक अंदरुनी राजनीति है? क्या इन कथाओं के भीतर एक प्रेरणा यह सिद्ध करने की है कि अभिनय तभी श्रेष्ठ हो सकता है जब अभिनेता निभाये जा रहे किरदार की वास्तविक ज़िंदगी में उतरकर उसके सुख-दुःख को भोगे? दूसरे शब्दों में, क्या बलराज साहनी के अभिनय-कौशल को सिद्ध करने के लिए बहुधा उद्धृत की जाने वाली इन कथाओं के भीतर एक मंशा यह साबित करने की होती है कि यह कलाकार समाजवादी समाज-रचना के सिद्धांतों के प्रति निष्ठावान था और उसकी अभिनय कौशल एक तो इस निष्ठा का ही सबूत है और दूसरे उसका अभिनय-कौशल समाजवादी समाज-रचना की दिशा में किया गया कृत्य होने के नाते महान है ? लग सकता है कि यहां महानता की बड़ी और जटिल कथा का एक छोटे-से वाक्य में लाघवीकरण हो रहा है, मगर ऊपर की कथाओं में इस प्रश्न का उत्तर हां में देने के पर्याप्त साक्ष्य मौजूद हैं। मिसाल के लिए, जिस सुधी समीक्षक ने बलराज साहनी के अभिनय कौशल को सराहते हुए उसकी तुलना रुप बदलने वाले पौराणिक पक्षी प्रोतेऊस से की है, उसने लिखा है कि नैचुरल एक्टिंग की यह सिफअत वैसे तो अशोक कुमार और मोतीलाल में भी मौजूद थी, लेकिन “अशोक कुमार और मोतीलाल की सीमा यह थी वे ऊँचे या दरमियानी समाजी दरजे से अलग दिख नहीं पाते थे – उनमें आप उन्हें जो चाहे बना डालिए. उनके चेहरे सिर्फ़ ख़वास के रहे, अवाम के न बन पाए. हिंदी सिनेमा की इस ख़ला को भरा बलराज साहनी ने.” (8)

भीष्म साहनी अपने सहोदर भाई के अभिनय-कौशल को जब याद करते हैं तो यह जोड़ना जरुरी समझते हैं कि “ इससे ( किरदार के साथ एकात्म) बढ़कर भी शायद एक चीज थी, वह था बलराज का सामाजिक सरोकार। वे किसी किरदार को उसके सामाजिक संदर्भो से जोड़ कर देखते थे. उन्होंने मार्क्सवाद के महत्व को स्वीकार किया ”। और अपनी बात की पुष्टि में एक वाक़ये का ज़िक्र करते हैं कि कैसे ‘दो बीघा ज़मीन” की शूटिंग के दौरान बलराज साहनी मुलाकात कलकत्ते में बिहार से आये एक रिक्शेवाले से हुई और उन्होंने उसे फ़िल्म की कहानी सुनाई तो वह यह कहकर रोने लगा कि- “यह तो बिल्कुल मेरी कहानी है. उसके पास भी दो बीघा ज़मीन थी, जो उसने एक जमींदार के पास गिरवी रखी थी और वह उसे छुड़ाने के लिए पिछले पंद्रह साल से कलकत्ता में रिक्शा चला रहा था. हालांकि उसे उम्मीद नहीं थी कि वह उस ज़मीन को कभी हासिल कर पायेगा. इस अनुभव ने उन्हें बदल कर रख दिया। उन्होंने ख़ुद से कहा कि ‘मुझ पर दुनिया को एक गरीब, बेबस आदमी की कहानी बताने की जिम्मेदारी डाली गयी है, और मैं इस जिम्मेदारी को उठाने के योग्य होऊं या न होऊं, मुझे अपनी ऊर्जा का एक-एक कतरा इस जिम्मेदारी को निभाने में खर्च करना चाहिए ’।(9)

और ख्वाजा अहमद अब्बास के जिस संस्मरण का जिक्र आलेख में ऊपर आया है वह तो लिखा ही गया है इस पैरोकारी के साथ कि- “अगर भारत में कोई ऐसा कलाकार हुआ है जो ‘‘जन कलाकार’’ के ख़िताब का हकदार है, तो वह बलराज साहनी ही हैं। उन्होंने अपनी ज़िंदगी के बेहतरीन साल, भारतीय रंगमंच तथा सिनेमा को घनघोर व्यापारिकता के दमघोंटू शिकंजे से बचाने के लिए और आम जन के जीवन के साथ उनके मूल, जीवनदायी रिश्ते फिर से कायम करने के लिए समर्पित किए थे। ” फ़िल्म के पर्दे पर बलराज साहनी का चेहरा ‘ख्वास का नहीं अवाम का चेहरा ’ बन सका तो इसलिए कि ‘उन्होंने मार्क्सवाद के महत्व को स्वीकार किया था ’- ख्वाजा अहमद अब्बास का उपरोक्त संस्मरण शायद इस बात को सबसे दमदार ढंग से प्रस्तुत करता है। उनका तर्क है- “ बलराज साहनी कोई यथार्थ से कटे हुए बुद्धिजीवी तथा कलाकार नहीं थे। आम आदमी से उनका गहरा परिचय (जिसका पता उनके द्वारा अभिनीत पात्रों से चलता है), स्वतंत्रता के लिए तथा सामाजिक न्याय के लिए जनता के संघर्षों में उनकी हिस्सेदारी से निकला था। उन्होंने जुलूसों में, जनसभाओं में तथा ट्रेड यूनियन गतिविधियों में शामिल होकर और पुलिस की नृशंस लाठियों और गोलियां उगलती बंदूकों को सामना करते हुए यह भागीदारी की थी। गोर्की की तरह अगर जिंदगी उनके लिए एक विशाल विश्वविद्यालय थी, तो जेलों ने जीवन व जनता के इस चिरंतन अध्येता, बलराज साहनी के लिए स्नातकोत्तर प्रशिक्षण का काम किया था। ”(10)

समाजवादी सिद्धांतों के प्रति निष्ठा ने बलराज साहनी को श्रेष्ठ अभिनेता बनने की ज़मीन मुहैया करायी, ऐसा सिर्फ उनके अभिनय को सराहने वाले सुधी समीक्षक ही नहीं बल्कि ख़ुद बलराज साहनी भी मानते हैं, लेकिन किसी घोषणा के अंदाज में नहीं बल्कि उस संयम के साथ जो उनके अभिनय की एक खास पहचान है। वे लिखते हैं- “यह कहना कि कलाकार को हर समय अपनी कला का ही ध्यान रहता है, और देश या समाज की समस्याओं से वे बिल्कुल अलग रहते हैं, बड़ी भारी भूल है। अभिनेता जनता के सामने जीवन नहीं पेश करता,दूसरों के जीवन की तस्वीर पेश करता है। हमलोग फ़िल्म में मैंने एक पढ़े-लिखे बेरोजगार नौजवान का पार्ट अदा किया, दो बीघा जमीन में एक दुःखी किसान का, औलाद में एक घरेलू नौकर का, सीमा में एक विद्वान समाज सेवक का, टकसाल में करोड़पति का और काबुली वाला में एक मुफलिस पठान का। सब रोल एक दूसरे से जुदा थे। अगर मैं किसानों, मजदूरों, पठानों वग़ैरह का जीवन क़रीब से जाकर नहीं देखता तो कभी यह संभव नहीं हो सकता था कि मैं यह पार्ट अदा कर सकता। अगर उन्हें क़रीब से देखना उचित था तो उनके जीवन की आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं को जानना और समझना भी मेरा फ़र्ज़ था, तभी मैं उनके दिलों की धड़कनों को अपनी आंखों और अपने शब्दों में अभिव्यक्त कर सकता था, वरना बात अधूरी रह जाती। ” (11)

“जीवन की आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं को” जाने-समझे बगैर किसी अभिनेता के लिए किरदार को निभा पाना संभव नहीं- इस निष्कर्ष पर बलराज साहनी कैसे पहुंचे ? क्या इस वजह से कि अभिनेता बनने के बावजूद उनका खुद के बारे में ख्याल यही रहा कि वे प्राथमिक रुप से एक साहित्यकार हैं ? शायद हां, क्य़ोंकि वे अपने साहित्यकार होने और अभिनेता होने को अनिवार्य-संबंध की एक कड़ी के रुप में देखते थे। इस बात को अलग-अलग रुपों में उन्होंने स्वीकार किया है कि “अगर मैं साहित्यकार ना होता तो इतना अच्छा अभिनेता नहीं बन पाता..”। (12) । फ़िल्म-अभिनेता बनने के पीछे जो कारण उन्होंने गिनाये हैं उसमें एक है पैसों की तंगी तो दूसरा है, साहित्य की दुनिया से बेवजह ठुकरा दिए जाने का मलाल। अपने बारे में वे किंचित गर्व से बताते हैं कि विलायत(बीबीसी लंदन में एनाऊंसर की नौकरी के लिए) जाने से “पहले मेरी कहानियां ’हंस’ में बाकायदा प्रकाशित होती रहती थी. मैं उन भाग्यशाली लेखकों में से था, जिनकी भेजी हुई कोई भी रचना अस्वीकृत नहीं हुई थी। ” बीबीसी में नौकरी के दौरान उन्होंने एक भी कहानी नहीं लिखी और जब भारत लौटने पर इस “टूटे अभ्यास” को जारी रखने के लिए उन्होंने एक कहानी हंस पत्रिका में भेजी तो वह लौटा दी गई। ख़ुद उन्हीं के शब्दों में- “मेरे स्वाभिमान को गहरी चोट लगी. इस चोट का घाव कितना गहरा था, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उसके बाद मैंने कोई कहानी नहीं लिखी .चेतन के फ़िल्मों में काम करने के निमन्त्रण ने जैसे इस चोट पर मरहम का काम किया. फ़िल्मों का मार्ग अपनाने का कारण यह अस्वीकृत कहानी भी रही। (13)

फ़िल्मों में अभिनय करते हुए पच्चीस से ज़्यादा बरसों के गुजर जाने के बावजूद अपने बारे में उनकी मान्यता यही रही कि वे प्राथमिक रुप से एक लेखक हैं। अपने “फिल्मी जीवन की पचासवीं वर्षगांठ” पर उन्होंने लिखा कि देश के बंटवारे के काऱण मुझे पिता के धन-दौलत के आश्रय से वंचित रहना पडा और पांवों पर खड़ा होने की मजबूरी ने मुझसे जो कई काम करवाये( मिसाल के लिए फ़िल्म डिवीजन की डाक्यूमेंटरी फ़िल्मों में कमेंटरी बोलना, विदेशी फ़िल्मों की हिन्दी डबिंग में भाग लेना, गुरुदत्त द्वारा निर्देशित फ़िल्म बाजी की पटकथा और संवाद लिखना) और फ़िल्मों में काम करना भी इसी मजबूरी का हिस्सा था। फ़िल्म बाज़ी के सफल होने के बाद इस फ़िल्म के निर्माता चेतन आनंद ने उन्हें एक फ़िल्म की कथा लिखने और उसे निर्देशित करने का न्योता दिया था और उन्होंने लिखा है कि-“आज मुझे अफसोस होता है कि चेतन आनंद की इतनी अच्छी पेशकश मैंने क्यों ना शुक्रगुज़ारी के साथ क़बूल की ” क्योंकि बलराज साहनी के ही शब्दों में- “लेखक और निर्देशक बनना मेरे जैसे आलसी स्वभाव के व्यक्ति को ज़्यादा रास आता। ”(14)

खुद को प्राथमिक तौर पर लेखक मानने वाले बलराज साहनी के लिए साहित्य का उद्देश्य है- “असलियत के सामने आईना रख देना ” यानी जीवन की हू-ब-हू तस्वीर पेश करना। इस सोच के अनुकूल वे नाटको-फ़िल्मों और उनमें किए जाने वाले अभिनय के बारे में भी यही मानते थे कि उसमें कुछ भी ऐसा नहीं किया जाना चाहिए जो “कहीं भी वास्तविकता और असलियत पर अत्याचार ” सरीखा हो। कविताई में जिसे अतिशयोक्ति कहा जाता है, वही फ़िल्मों में मेलोड्रामा कहलाता है- अगर इस पंक्ति को ठीक मानें तो कहा जा सकता है कि बलराज साहनी ने अपने लिए अभिनय की जो निजी कसौटी तय की थी वह हिन्दी फ़िल्मों की इतिहास-प्रदत्त या कह लें स्वभावगत विशेषता यानी मेलोड्रामेटिक बनावट के प्रतिपक्ष में तैयार की हुई कसौटी है। यह अकारण नहीं है कि एक तरफ वे कंपनियों के पेश किए हुए नाटकों को कलात्मकता से शून्य रचना मानते हैं क्योंकि सामूहिक जीवन के मामले में “अंदर से खोखली” और बाहर के सामाजिक जीवन से बहुत गहरे ना जुड़े होने के कारण ऐसी रचना पेश नहीं कर पायीं जिनका “ असलियत से संबंध” हो और अपने दौर की फ़िल्मों को अलिफ़-लैला नुमा “उन्हीं पुराने दकियानूसी नाटकों के रुपांतरण ” मानकर उनके “दीर्घजीवी होने पर” वह शुबहा करते हैं। अलिफ़-लैला यानी फैंटेसी की दुनिया अगर अपने को अतिशयोक्ति(मेलोड्रामा) में साकार करती हो, तो इसके लिए बलराज साहनी के व्याकरण में कोई जगह नहीं जान पड़ती। कम से कम अपनी तरफ से उन्होंने अभिनय की जो कसौटी प्रस्तुत की है, उसको पढ़कर तो यही लगता है।

गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर से अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. और फिर शांतिनिकेतन में थोड़े दिन तक अंग्रेज़ी-साहित्य का अध्यापन करने वाले बलराज साहनी अभिनय का प्रतिमान प्रस्तुत करना हो तो शेक्सपीयर के नाटक हैमलेट के तीसरे अंक को याद करते हैं जिसमें नायक हैमलेट बादशाह के दरबार में नाटक पेश करने वाले अभिनेताओं को उपदेश देते हुए कहता है- “देखो स्टेज पर खड़े होकर इस तरह बोलो कि सुनने वालों को रस आये, यह नहीं कि उनके कान फट जायें। तुम अभिनेता हो, ढिंढोरची नहीं। और देखो, हाथ को कुल्हाड़े की तरह मार-मारकर हवा को मत चीरना। अभिनेता को चाहिए कि वह अपने मन को हमेशा काबू में रखे,चाहे उसके अन्दर भावनाओं के तूफान क्यों ना उठ खड़े हों। जो अभिनेता अपनी भावनाओं को क़ाबू में रखकर उन्हें संयम से व्यक्त नहीं कर सकता, उसे चौराहे पर खड़ा करके चाबुक मारना चाहिए।..”

“..और देखो फीके भी मत पड़ जाना। अंडर ऐक्टिंग करना भी अच्छा नहीं होता। ख़ुद अपनी समझ-बूझ को अपना उस्ताद बनाओ और उसी के अनुकूल चलो। अपने चाल-ढाल को, अपने संकतो के शब्दों के अनुकूल बनाओ और शब्दों को संकेतों के अनुकूल और बराबर ख्याल रखो कि कहीं भी वास्तविकता और असलियत पर अत्याचार ना हो। अगर कहीं भी अतिशयोक्ति से काम लिया तो नाटक का सारा मनोरथ ही खत्म हो जाएगा।। याद रखो, सैकड़ों वर्षों से नाटक का मनोरथ एक ही रहा है और भविष्य में भी वही रहेगा- असलियत के सामने आईना रख देना ताकि अच्छाई अपना रुप देख सके, उतार-चढ़ाव भी उस आईने में साफ दिखाई दें..”

उनकी पेशकश में चुनौती है कि – “जरा इन पंक्तियों की कसौटी पर आप अपने देखे हुए नाटकों और फ़िल्मों को परखिए और देखिए कि वे किस हद तक पूरी उतरती हैं..” (15)

आलेख के इस आख़िरी भाग में आइए, देखने की कोशिश करें कि क्या बलराज साहनी के सिनेमाई अनुभव के भीतर कोई फांक है, दूसरे शब्दों में क्या उनके सिनेमाई अनुभव का कोई हिस्सा अभिनय के बारे में तय किए गए अपने ही प्रतिमान को नकारता हुआ-सा प्रतीत होता है ? इस सिलसिले में पहली बात “स्वाभाविक अभिनय” से जुड़ती है। भले ही बलराज साहनी की मान्यता यह रही हो कि ‘अभिनय अगर स्वाभाविक हो तो उसे हर कोई पसंद करता है ’(और यह मान्यता बहसतलब है) लेकिन ऐसा कहने के साथ-साथ यह जोड़ना भी ज़रूरी समझते हैं कि “स्वाभाविक अभिनय एक तरह से भ्रांति पैदा करने वाली चीज है, क्योंकि दर्शकों को स्वाभाविक लगने वाला अभिनय करते समय हो सकता है, अभिनेता को कई अस्वाभाविक बातें करनी पड़ें। उसका दृष्टिकोण दर्शक के दृष्टिकोण से भिन्न होता है…”।(16) प्रश्न पूछा जा सकता है कि क्या दृष्टिकोण का यह अलगाव निभाये गए किरदार से दर्शक का एकात्म स्थापित करने में कहीं से बाधक नहीं होता ? और दूसरी बात, कलाकार अगर अपने अभिनय को स्वाभाविक बनाने के लिए कुछ अस्वाभाविक चीजें करता है तो फिर इस अस्वाभाविकता का उस भोगे हुए यथार्थ से क्या रिश्ता है जिसे खुद बलराज साहनी ने अभिनय की प्रामाणिकता के लिए जरुरी माना है ?

इस प्रश्न का सही उत्तर तो खैर हमेशा अनिर्णय की स्थिति में रहेगा कि लोकप्रियता किसी कला की महानता की एकमात्र कसौटी है या नहीं , परंतु यह बात मान ली जानी चाहिए कि कला अगर स्वान्तः सुखाय नहीं है तो फिर उसे लोक-स्वीकृति की तलब हमेशा लगी रहेगी। यह बात कम से कम फ़िल्म सरीखे जन-माध्यम के लिए तो कही ही जा सकती है क्योंकि इसका विराट दर्शक-वर्ग ‘अज्ञातकुलशील’ होता है और फ़िल्म बनाने वाले के सामने हमेशा इस बात की चुनौती होती है कि वह इस ‘ अज्ञातकुलशील ’ दर्शक की रुचि का कोई औसत मान निकालकर उस पर खड़ा उतरने की कोशिश करे। अभिनेता के दृष्टिकोण और दर्शक के दृष्टिकोण में अंतर स्वीकार करने वाले बलराज साहनी जब फ़िल्म की लोकप्रियता के बारे सोचते हैं, तो आश्चर्यजनक तौर पर अभिनय के बारे में तय किए गए अपने ही प्रतिमान से बिल्कुल अलग बात कहते हैं, कुछ ऐसी बात जो असलियत के सामने आईने रखने वाले उनके यथार्थवाद की जगह अतिरंजना और अतिशयोक्ति को प्रतिष्ठित करता प्रतीत होता है। मिसाल के लिए, अभिनय-कला शीर्षक निबंध में एक जगह उनका कहना है-“हम पढ़े-लिखे अभिनेता पुराने अभिनेताओं पर नाक-मुंह चढ़ाते हैं। हम कहते हैं कि उनका अभिनय स्वाभाविक नहीं था, उनमें बनावट होती थी, और वे बात को बहुत ज्यादा बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते थे। लेकिन उनके अभिनय का सही मूल्यांकन करने के लिए हमें यह देखना चाहिए कि उनका दर्शकों पर कैसा प्रभाव पडता था। वे जो भाव अभिव्यक्त करते थे, वे प्रायः सच्चे होते थे, और उनकी अभिनय शैली बहुत प्रभावशाली होती थी। बाल-गंधर्व जैसे अभिनेता अपनी शैली के बहुत बड़े उस्ताद थे। आगा हश्र के नाटक दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देते थे। ” (17)

बात बढ़ा-चढ़ाकर पेश की जाय, सच्चाई तो भी रह सकती है, ऐसी प्रभावशील सच्चाई जो मंत्रमुग्ध कर दे- ऐसा अनुभव बलराज साहनी को कई बार हुआ। इसका एक साक्ष्य उनकी आत्मकथा के शुरुआती कुछ पन्नों पर ही मौजूद हैं। अपने स्कूली दिनों को याद करते हुए वे लिखते हैं उन दिनों मैंने ‘हीर-रांझा’ और ‘अनारकली’ नाम की फिल्में देखी थीं और अनारकली के रुप में अभिनेत्री सुलोचना के सौन्दर्य से अभिभूत हो उठा था। अनारकली को जिन्दा दफ्न करने के दृश्य को याद करके मैं रो उठा था। अनारकली की दर्दनाक मौत की पीड़ा में छटपटाते बलराज की हालत यह थी -“ यदि मुझसे कोई कहता कि यह सब तो सिनेमा के ट्रिक का मामला है और कोई भी ईंट सुलोचना के चेहरे को ढंकने के लिए नहीं रखी गई तो मैं उसे थप्पड़ मार देता, जहां तक मेरा सवाल है, सुलोचना मर चुकी थी और मेरे लिए जीवन में कोई आनंद शेष नहीं रह गया था..लेकिन सुलोचना तो जिन्दा थी और कई फिल्मों में उसने मेरे साथ काम भी किया। जब भी मैं उसके प्रति अपने इस किशोरवय के प्रेम का जिक्र करता तो वह इसे हंसी में उड़ा देती। आज जबकि मैं खुद एक फ़िल्म स्टार हूं तो उसकी इस हंसी का मतलब समझ सकता हूं लेकिन तो भी यह ख्याल मैं अपने दिल से नहीं निकाल पाता कि किसी दिन उससे कहूंगा कि वह सिर्फ मूर्खतापूर्ण आसक्ति भर नहीं था बल्कि प्रेम का मेरा पहला सच्चा अनुभव था..। ” (18)

और दूसरा साक्ष्य है फ़िल्म ‘दो बीघा जमीन” की लोकप्रियता के संबंध में की गई उनकी टिप्पणी। इस फ़िल्म से जुड़ी यादों को बलराज साहनी अपनी “आखिरी सांसों तक सहेजकर” रखना चाहते थे। बावजूद इसके इस फ़िल्म का यथार्थवाद उन्हें खटकता था। उन्हें मलाल रहा कि दो बीघा जमीन को जैसी सराहना बुद्धिजीवियों में मिली वैसी आम जनता के बीच नहीं। और इसकी व्याख्या करते हुए उन्होंने इस फ़िल्म में दो दोष गिनाये हैं। एक तो यह कि इस फ़िल्म का नायक कभी भी “उस अन्याय और अत्याचार के खिलाफ आवाज बुलंद नहीं करता, जिसका उसे सामना करना होता है , ” और दूसरे यह कि “ वह अपने दोस्तों और सहकर्मियों को खुद से दूर कर देता है ” जबकि एक औसत दर्शक जो खुद को हीरो के जूते में रख कर देखना चाहता है। वह कभी भी “ खुद को इस तरह के आत्मपीड़क और अंतर्मुखी हीरो के साथ जोड़ कर देखना ” नहीं चाहेगा। इस दोष का जिम्मेदार वे सारी प्रगतिशील कला और साहित्य की उस आदत को मानते हैं जो “विदेशी मूल्य और वाद पर खड़ा उतरना चाहते हैं ना कि उन मूल्यों पर, जो हमारी अपनी धरती की उपज हैं। दो बीघा जमीन की तकनीक भी विश्व प्रसिद्ध इतालवी निर्देशक की फ़िल्म बाइसिकिल थीफ और उसमें प्रदर्शित किये गये यथार्थवाद से प्रभावित थी। यही वह कारण था कि रूसियों ने भले ही दो बीघा जमीन के बारे में अच्छी बातें कहीं, लेकिन उन्होंने अपनी सारी प्रशंसा और सम्मान राजकपूर की फ़िल्म आवारा के लिए सुरक्षित रख लिया, बल्कि वे आवारा के प्रति दीवाने से हो गये।.. हालांकि हमने उम्मीद की थी समाजवाद के इस मक्का में लोग कहीं ज्यादा सुसंस्कृत और उन्नत कला को सम्मान देंगे , लेकिन रूसियों को आवारा के प्रति उनकी दीवानगी के लिए कसूरवार नहीं माना जा सकता। खास तौर से यह देखते हुए कि आवारा में कितने बेजोड़ तरीके से भारतीय जीवन की धड़कन को पकड़ा गया है।” (19)

इस विन्दु पर संस्कृति-मनोविज्ञानी सुधीर कक्कड़ की याद आना लाजिमी है जो लिखते हैं कि सिनेमा भारतीय उपमहाद्वीप में रहने वाले लोगों के साझा स्वप्नों(फैंटेसी) का वाहक है और एक ऐसा वैकल्पिक जगत मुहैया कराता है, जहां हम यथार्थ से अपने पुराने संघर्ष को जारी रख सकते हैं। हमारे फ़िल्म-जगत में फ़िल्म दर फ़िल्म स्वप्नों की ऐसी भारी मात्रा में नियमितता आश्चर्य में डालती है। एक तरह से जिंदगी की वास्तविक समस्याओं के ऐसे जादुई हल, भारतीय जनमानस में गहरी जमी ऐसे समाधानों की इच्छा की ओर इशारा करते हैं।.. कोई भी समझदार भारतीय यह नहीं मानता कि सिनेमा में वास्तविक जिंदगी का अंकन होता है। ” (20)

संदर्भ :

1. बलराज-संतोष साहनी समग्र, संपादक डा. बलदेवराज गुप्त, प्रचारक ग्रंथावली परियोजना, हिन्दी प्रचारक संस्थान, वाराणसी में संकलित सुखवीर का बलराज साहनी एक चेहरा, कई चेहरे शीर्षक आलेख।
2. नवभारत टाईम्स में प्रकाशित विष्णु खरे का लेख जो चवन्नी चैप नामक ब्लॉग पर ‘बलराज साहनी पर विष्णु खरे ’ शीर्षक से उपलब्ध है
3 अखरावट ब्लॉगस्पॉट पर भीष्म साहनी की नजर से बलराज साहनी- शीर्षक पोस्ट
4 देखें पुंजप्रकाश ब्लॉग स्पॉट पर जनकलाकार बलराज साहनी- ख्वाजा अहमद अब्बास शीर्षक पोस्ट
5. लाईवहिन्दुस्तान डॉट कॉम पर 5 मई 2012 को प्रकाशित दो ‘ बीघा जमीन की एक तलाश ’ शीर्षक पोस्ट
6. देखें पुंजप्रकाश ब्लॉग स्पॉट पर जन-कलाकार बलराज साहनी- ख्वाजा अहमद अब्बास शीर्षक पोस्ट
7 उपरोक्त, वही
8 चवन्नी चैप नामक ब्लॉग पर विष्णु खरे का आलेख, उपरोक्त
9. अखरावट ब्लॉग सपॉट पर- भीष्म साहनी की नजर से बलराज साहनी शीर्षक पोस्ट
10.( देखें- लाईवहिन्दुस्तान डॉट कॉम पर, उपरोक्त)
11. देखें- बलराज-संतोष साहनी समग्र, संपादक डा. बलदेवराज गुप्त, प्रचारक ग्रंथावली परियोजना, हिन्दी प्रचारक संस्थान, वाराणसी में संकलित ‘फिल्मी-दुनिया ’ नामक निबंध
12 देखें- बलराज-संतोष साहनी समग्र में- सुखबीर का आलेख, उपरोक्त)
13. देखें चवन्नीचैप ब्लागस्पाट पर क्यों अभिनेता बने बलराज साहनी शीर्षक पोस्ट
14. देखें- बलराज-संतोष साहनी समग्र में “अपने फिल्मी जीवन की पचासवीं वर्षगांठ पर ” शीर्षक आलेख
15. देखें बलराज-संतोष साहनी समग्र में सिनेमा और स्टेज नामक निबंध
16. देखें बलराज-संतोष साहनी समग्र में अभिनय कला नामक निबंध
17. बलराज-संतोष साहनी समग्र में अभिनय-कला नामक निबंध
18. देखें बलराज साहनी- ऐन ऑटोबॉयग्राफी, हिन्द पॉकेट बुक्स, 1979, दिल्ली
19. अखरावट ब्लागस्पॉट पर मेरी निगाह में सिनेमा : बलराज साहनी, सत्यजीत रे, अडूर गोपालकृष्णन नामक पोस्ट
20. अखरावट बलॉगस्पॉट पर सिनेमा पर सुधीर कक्कड़: भारतीय सिनेमा दिवास्वप्नों पर पलता है.. शीर्षक पोस्ट

(चन्दन श्रीवास्तव, मूलतया छपरा(बिहार) के निवासी, पिछले पंद्रह सालों से दिल्ली में। पहले आईआईएमसी और फिर जेएनयू में पढ़ाई। “उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हिन्दी लोकवृत्त का निर्माण” शीर्षक से पीएचडी के बाद दिल्ली के कॉलेजों में छिटपुट अध्यापन, फिर टीवी चैनल की नौकरी और अब विकासशील समाज अध्ययन पीठ(सीएसडीएस) की एक परियोजना इंक्लूसिव मीडिया फॉर चेंज से जुड़े हैं। इनसे chandan@csds.in पर संपर्क किया जा सकता है। )

साभार- नया पथ  व tirchhispelling.wordpress.com

Tuesday, November 26, 2013

हिंदी साहित्य ने नाटक को अछूत विधा मान लिया है


वरिष्ठ कवि राजेश जोशी का रंगकर्म से गहरा संबंध रहा है। उन्होंने कई नाटक भी लिखे हैं। मध्यप्रदेश में इप्टा के पुनर्गठन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। वह मध्यप्रदेश इप्टा के पहले अध्यक्ष थे। उन्होंने रंग आंदोलन, 80 के दशक के नाटक, इप्टा एवं अन्य वाम संगठनों की भूमिका आदि विषयों पर ‘इप्टानामा’ के लिए मध्यप्रदेश इप्टा के वर्तमान अध्यक्ष हरिओम राजोरिया से लंबी बातचीत की। इस बातचीत के दौरान बसंत सकरगाय और सचिन श्रीवास्तव भी मौजूद थे। प्रस्तुत हैं बातचीत के अंशः

हरिओम राजोरियाः राजेश जी इप्टा के पुनर्गठन और प्रगतिशील आंदोलन में इप्टा की भूमिका के बारे में कुछ बताएं?

राजेश जोशी: मध्यप्रदेश में प्रगतिशील लेखक संघ 1974 में बन गया था। लगभग 80 तक आते आते अच्छी स्थिति बन गई थी। तब हरिशंकर परसाई अध्यक्ष और ज्ञानरंजन महासचिव थे। इसी दौरान यह महसूस हुआ कि सिर्फ लेखक संगठन से काम नहीं चलेगा। कोई सांस्कृतिक आंदोलन बनाना है, तो परफॉर्मिंग आर्ट से जुड़ना पड़ेगा। लंबा अरसा हो गया था, जो इप्टा बनी थी, वह खत्म हो चुकी थी। कुछ जगहों पर, जैसे आगरा में राजेंद्र रघुवंशी और मुंबई में कुछ लोग थे। ऐसे माहौल में सोचा गया कि मध्यप्रदेश में इप्टा का पुनर्गठन किया जाये। मध्यप्रदेश में इप्टा का पुनर्गठन हुआ। इसी क्रम में आगे चलकर दिल्ली के अजय भवन में इप्टा के पुराने साथी एके हंगल, राजेंद्र रघुवंशी, कैफी आजमी और भी बहुत से लोग इकट्ठे हुए। वहां इप्टा की नेशनल बॉडी गठित की गई। चूंकि नया गठन हो रहा था, तो बहुत से नए लोग जुड़ रहे थे। शुरूआत में कुछ युवा निर्देशकों को जोड़ा गया। अलखनंदन जुड़े, उन्होंने शरद बिल्लौरे का ‘‘अमरू का कुर्ता’’ किया था। मुकेश शर्मा जुड़े। विवेचना जबलपुर जुड़ी। यही समय था जब नुक्कड़ नाटकों का दौर शुरू हुआ। जनम दिल्ली में नुक्कड़ नाटक कर रही थी। भारत भवन में भी नुक्कड़ नाटक पर एक बड़ा सेमिनार हुआ था। नेमी जी भी आये थे। 2-3 दिन प्रदर्शन और विमर्श हुआ। इप्टा के साथ कई छोटे-छोटे ग्रुप इस दौरान नुक्कड़ नाटक कर रहे थे। विवेचना ने ‘‘इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर’’ और परसाई की अन्य रचनाओं पर नुक्कड़ किये। एक किस्म से नुक्कड़ नाटकों का मूवमेंट था यह। प्रिसीनियम थियेटर उस वक्त कम हो रहा था, लेकिन नुक्कड़ नाटक खूब खेले जा रहे थे। इसका हिन्दी के नाटक लेखन पर एक प्रभाव पड़ा। उस दौर में जो कवि-कहानीकार थे, उन्हें लगा कि नाटक लेखन में भी कुछ किया जाना चाहिए। मैंने भी उसी दौर में नाटक लिखे। काफी नये लोग आ रहे थे नाटक लेखन में। सुरेश स्वप्निल, सनत कुमार, असगर वजाहत आदि कई लेखकों ने छोटे-छोटे नाटक लिखे।
इसी बीच एक दूसरी घटना हुई। सरकार ने शिक्षा अभियान के लिए बड़े पैमाने पर कलाकारों को जोड़ा। इससे एक नुकसान हुआ कि आंदोलनधर्मी कलाकार और नाटककार शिक्षा के आंदोलन की तरफ मुड़ गये। जो एक राजनीतिक नाट्य आंदोलन तैयार हो रहा था, वह सुधारवादी शासकीय अभियान की भेंट चढ़ गया।

हरिओम राजोरिया: उस वक्त इप्टा के काम के बारे में बतायें, और भारत भवन की क्या भूमिका थी तब के भोपाल के थियेटर में?

राजेश जोशी: उस वक्त भोपाल में शरद जोशी थे। वे ओम शिवपुरी के गु्रप का ‘‘आधे अधूरे’’ और हबीब साहब के ग्रुप ‘‘नया थियेटर’’ के नाटक करववा चुके थे। तब तक भारत भवन नहीं बना था। एमैच्योर थियेटर था, छोटे-छोटे ग्रुप थे, जो सीमित संसाधनों में काम कर रहे थे। फिर भारत भवन बना। रंगमंडल बना। रंगमंडल के बहुत से कलाकार एमैच्योर थियेटर से लिये गये थे। जयंत देशमुख, अलखनंदन आदि भी इन्हीं में से थे। इस तरह एमैच्योर थियेटर के अच्छे कलाकार भारत भवन चले गये। तो जो एमैच्योर थियेटर बन रहा था, उसे झटका लगा। लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है। एक अंतराल के बाद एमैच्योर थियेटर पुनः नई ऊर्जा के साथ शुरू हुआ।

हरिओम राजोरिया: तो यह दो-तरफा प्रक्रिया थी। कुछ चीजें बन रही थीं, और कुछ टूट रही थीं। और फिर नये सिरे से बन रही थीं?
राजेश जोशी: बिल्कुल। जैसे रंगमंडल टूटा, तो वहां से जो लोग निकले, उन्होंने अपने ग्रुप बनाये। संगीत नाटक अकादमी ने नये डायरेक्टर के लिए नए नाटक करने के लिए ग्रांट देना शुरू किया। उसका भी प्रभाव पड़ा। लेकिन हां, उसका असर कस्बों तक नहीं हुआ। शहर तक ही सीमित रहा। इस ग्रांट के तहत नये नाटक लिखे गये, क्योंकि यह फैलोशिप की शर्त थी। इससे एक दिलचस्प बात यह हुई कि नाटक लेखक और नाटक ग्रुप के बीच रिश्ता बना।

हरिओम राजोरियाः यह तो बहुत महत्वपूर्ण काम था?
राजेश जोशी: हां, नाटक मंडलियों के साथ मिलकर परफॉर्मिंग स्क्रिप्ट बनती थीं। जो लेखक ग्रुप के साथ जुड़े थे, उनका नाट्य लेख प्रदर्शन के लिहाज से बेहतर रहा। वैसे इसके नकारात्मक और सकारात्मक दोनों तरह के प्रभाव हुए।

हरिओम राजोरियाः आपने अशोकनगर में कहा था कि संस्कृत में जब तक कोई कवि नाटक नहीं लिखता था, तो उसे कवि नहीं माना जाता था। आज संभवतः नाटक की स्थिति सबसे दयनीय है। कहानी के नाट्य रूपांतरण और उपन्यास के नाट्य आलेखों के कारण कमी तो नहीं है, लेकिन निर्देशक का रोल अहम हो गया है, लेखक की स्थिति में बदलाव कैसे होगा?

राजेश जोशी: यह तो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय बनने के साथ ही हो गया था। नाटक में निर्देशक का महत्व बढ़ गया था। हिंदी में तो नाटक लेखक को लगभग साइड लाइन कर दिया गया। इससे जो कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, नाटक लेखन की तरफ आ सकते थे, वे धीरे-धीरे नाटक से दूर हो गए और नये नाटककार नहीं आये। मुझे याद है नेमी जी ने श्री राम सेंटर में प्ले राइट वर्कशॉप करवाई थी। 80 के दशक के शुरूआत की बात है। उसमें नाटक लिखे जाते थे। आपको पहले एक नाटक लिखके देना होता था। पहली वर्कशाप में रामेश्वर प्रेम, नाग बोडस, विनोद शाही, शानी जी के बेटे और मैं थे। वहां एक्सपर्ट्स का एक पैनल बैठता था। तब एक्सपर्ट तीन लोग- श्यामानंद जालान, सतीश आलेकर और नेमी जी थे। नाटक की स्क्रिप्ट श्री राम सेंटर की रैपेटरी के कलाकार पढ़ते थे। कलाकारों, एक्सपर्ट्स और नाटक लेखक के बीच बहस होती थी स्क्रिप्ट पर। लेखक नोट्स लेकर स्क्रिप्ट में सुधार करता था। उसमें एक नाटक चुना जाता था, जिसका मंचन होता था। ऐसी तीन वर्कशॉप हुईं। बाद में असगर वजाहत, रमेश उपाध्याय आदि भी आये। इस दौरान वहां कई नाटक लिखे गये। असगर तो पहले से ही नाटक लिख रहे थे। बाद में भी उन्होंने नाटक लिखे। रमेश उपाध्याय ने शुरू में नाटक लिखे थे, लेकिन बाद में दूर होते गये। शायद जो लोग आ सकते थे, वो इसीलिए दूर होते गये कि लेखक का महत्व ही कम हो गया और फिर तो नाटक की जरूरत ही नहीं रही। कहानी की जाने लगी, उपन्यास होने लगे, बल्कि कहानी की नाट्य स्क्रिप्ट भी नहीं, सीधे कहानी का ही मंचन होने लगा। देवेंद्र राज अंकुर जी ने इसकी पूरी अवधारणा विकसित की। इन सबके बीच नाटक लिखने का आकर्षण कम हुआ है। वहीं नाटक लिखना एक मुश्किल काम भी हुआ है।

बसंत सकरगाय: लेकिन इसी दौर में मराठी और बांग्ला में कई नाटककार हुए?
राजेश जोशी: वहां बाकायदा नाटककार हैं। मराठी में उन्हें महत्व मिला। हिंदी में यह सिलसिला नहीं रहा। मोहन राकेश ‘‘आधे-अधूरे’’ लिख चुके थे, उसके बाद हिंदी में एक ही लेखक पूरी तरह नाटक को समर्पित था, वे थे सुरेंद्र वर्मा, जो उपन्यासकार भी थे। मैंने एक गोष्ठी में कहा भी था कि कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि हिंदी में मोहन राकेश के बाद सबसे बड़े नाटककार को नाटक के लिए साहित्य अकादमी नहीं दिया गया, बल्कि उनके एक कमतर उपन्यास ‘‘मुझे चांद चाहिए’’ के लिए साहित्य अकादमी दिया गया। इस तरह नाटक लेखन को ही कहीं न कहीं पीछे धकेला गया।

सचिन श्रीवास्तव: थियेटर में इसका क्या असर पड़ा, खासकर आज के दौर में?

राजेश जोशी: नाट्यशास्त्र को पांचवा वेद इसीलिए कहा गया है कि उसमें सब कुछ है- नृत्य, आख्यान, संगीत, कविता, प्रदर्शन। नाटक ही एक ऐसी विधा है, जिसे पूर्ण विधा कहा जा सकता है। इसमें सब संभव है। दूसरे एक अच्छी बात है कि, सिनेमा में कलाकार लार्जर देन लाइफ दिखाई देता है, अपने कद से बड़ा और मीडिया में अपने कद से काफी छोटा। नाटक ही एक ऐसी जगह है जहां कलाकार अपने असल कद में दिखता है। नाटक में रीटेक की गुंजाइश नहीं है। उसे टुकड़ों में नहीं किया जा सकता। मंच पर सब कुछ दिखाई देता है, गलती भी। तो यह कठिन विधा है, और दिलचस्प भी। मीडिया में काम करने के कारण नये कलाकारों पर खराब असर हुआ है। नये बच्चे जो नाटक में आ रहे हैं, वे चलना भूल गये हैं, क्योंकि मीडिया में तो कमर तक ही दिखाया जाता है। वे बोलने को ही नाटक समझने लगे हैं। ज्यादा से ज्यादा भाव मुद्राएं कर ली जाती हैं। बॉडी लैंग्वेज के लिए वहां जगह नहीं है। फिल्म में तो फिर भी अभिनेता की बॉडी लैंग्वेज दिख जाती है, मीडिया में इसकी गुंजाइश नहीं। कई बार बड़े-बड़े अभिनेताओं को हाथ का इस्तेमाल पता नहीं होता। पहले ऐसे मौके आने पर हाथ में कोई प्रॉपर्टी पकड़ा दी जाती थी। पहले माइक नहीं था, तो आवाज थ्रो करनी पड़ती थी। अच्छे ऑडिटोरियम में तो काम चल जाता है, लेकिन आवाज की कमी आज खलती है।

1973 में ब.व. कारंत के निर्देशन में एक रंगशिविर, भोपाल में आयोजित किया गया था। मणि मधुकर का पहला नाटक ‘‘रसगंधर्व’’ इसमें खेला गया था। वह उसका पहला शो था। उस शिविर में आये अभिनेताओं को पहली बार आवाज और तरह-तरह की एक्सरसाइज करवाई गयीं थीं। नाटक में इस तरह की एक्सरसाइज का क्या महत्व है, यह पहली बार यहां के कलाकारों ने जाना था।

हरिओम राजोरियाः जहां नाटक थे, वहां यह बंद हो गई हैं, लेकिन एनएसडी वगैरह में बढ़ी भी हैं?

राजेश जोशी: जब आपके पास कथ्य नहीं होगा, तो गिमिक्स होगा, चमत्कार होगा। अच्छी स्क्रिप्ट के अभाव में संगीत, गाने, कपड़े और एक्सरसाइज के गिमिक्स होंगे। नाटक के साथ यह दिक्कत है। यदि स्क्रिप्ट ताकतवर होगी तो कम साधनों में भी एक बेहतर नाटक संभव होगा, तब साधन नाटक को और अधिक ताकतवर बनायेंगे।

हरिओम राजोरिया: लोक के इस्तेमाल को नाटक में आप किस तरह देखते हैं?

राजेश जोशी: हमारे यहां लोक भी एक रूढ़ि बन गया है। लोक की शैलियों का इस्तेमाल तो हुआ, लेकिन धीरे- धीरे नाटक लोक का प्रदर्शन बन गये। इतना अधिक कि गाने बजाने को ही थियेटर मान लिया गया। लोक का संतुलित इस्तेमाल जरूरी है, उपयोग तक यह ठीक है, लेकिन लोक का इस्तेमाल करने वाले उसी को नाटक मान बैठे।एक नेशनल फेस्टिवल में राजस्थान के एक ग्रुप ने शुद्ध गणगौर के त्यौहार का जस का तस नाटक कर दिया। मैं अंतरंग से बाहर निकला और नेमी जी भी निकले। मैंने उनसे कहा कि, ‘‘ठीक है, तो अगली बार से लोग सत्यनारायण की कथा करेंगे। जब गणगौर का नाटक हो सकता है, तो सत्यनारायण की कथा भी हो सकती है। यह क्या हो रहा है, और आप कुछ बोलते क्यों नहीं? आप आलोचक हैं, तो इस पर भी कुछ कहिये।’’
लोक के नाम पर इतना पतन हुआ कि कर्मकांड के परफॉर्मेंस को नाटक मान लिया गया।

हरिओम राजोरिया: छोटी जगहों में के थियेटर का जो आंदोलनात्क स्वरूप है, लेकिन वहां संसाधनों की समस्या है। कारपोरेट-सरकार की सहायता और आंदोलनकारी संगठनों की भूमिका पर आप क्या कहेंगे?

राजेश जोशी: संगीत नाटक अकादमी ने नाटक तैयार करने के लिए जो किया था, उसका यहां आते-आते स्वरूप बदल गया है। अब कारपोरेट हाउस या सरकार यह बता रही हैं कि ऐसा नाटक करें, वैसा नाटक करें। पहले नाटक के माध्यम से होने वाले विरोध से संस्थाएं व सरकारें डरती थीं, क्योंकि यह राजनीतिक विधा भी है। जनता पर इसका सीधा प्रभाव होता है। अब सरकारें खुद नाटक करा रही हैं। अब थियेटर सजावटी सा हो गया है। इस सजावटी नाटक का नुकसान यह हुआ है कि इसमें न कोई सोशल मैसेज है, न पॉलिटिकल। ऐसे नाटक होने लगे हैं, जो किसी के लिए असुविधा पैदा नहीं करते। सबके लिए सुविधाजनक हैं। मध्यप्रदेश में एक फेस्टिवल होता है हर साल। आदि विद्रोही के नाम से। उसमें कोई भी स्वतंत्रता संग्राम की घटना उठा ली जाती है, और छोटी सी स्क्रिप्ट के साथ कोई भी ग्रुप नाटक कर देता है, तो यह आसान हो गया है। उसे न तो कोई बड़े प्रोस्पेक्टिव में करता है, और न ही उसका कोई राजनीतिक मैसेज होता है। एक राष्ट्रवादी किस्म का मैसेज दे दिया जाता है।

असल में, नाटक थोड़ा महंगा पड़ता है, तो उसे हर जगह कुछ न कुछ सहायता मिलती है। हमारे यहां सरकारें और कारपोरेट हाउस हावी हो गये हैं। एक अवार्ड है, उसकी शर्तों में स्पष्ट रूप से लिखा है कि इसमें राजनीति, हिंसा और सेक्स नहीं हो। इस तरह अब यह बताया जाने लगा है कि आप इस तरह का नाटक लिखिये। इससे भयानक कुछ भी नहीं हो सकता नाटक के लिए। गनीमत है कि इसका बहुत असर अभी नाटक वालों पर नहीं होता है, होता तो हमारे पास विजय तेंदुलकर, बादल सरकार नहीं होते, भारतेंदू भी नहीं होते। नाटक ऐसी विधा नहीं है कि इसे सरकारें कंट्रोल कर सकें।

हरिओम राजोरिया: नाटक के राजनीतिक उपयोग में इप्टा, जलेस, जसम आदि संगठनों की भूमिका क्या होनी चाहिए?

राजेश जोशी: इप्टा और जनम तो जब बने तो उनका यह मूल उद्देश्य ही था कि हमें नाटक का इस्तेमाल सामाजिक-राजनीतिक चेतना के प्रसार के लिए करना है। यदि आप एक-डेढ़ घंटे का नाटक करते हैं, तो सीधे 200-400 लोगों को संबोधित करते हैं। थियेटर में आज सबसे ज्यादा जरूरत प्रतिबद्ध राजनीतिक नाटक की ही है। इप्टा और जनम जैसे संगठन ही थियेटर को बचा सकते हैं। ग्रांट लेकर थियेटर करने वाले समूहों से तो उम्मीद करना मुश्किल है।

हरिओम राजोरिया: मध्यप्रदेश में इप्टा की कई ईकाइयां बाल और किशोर शिविर लगा रही हैं, जिसमें नाटक के साथ कविता, संगीत आदि की समझ के साथ एक संपूर्ण कलाकार जिसमें कमिटमेंट भी हो, तैयार करने की कोशिश की जा रही है, इस बारे में आपकी क्या राय है?
राजेश जोशीः जरूरी काम तो यही है। मुझे लगता है इसके साथ नाटक-लेखक वर्कशॉप भी होनी चाहिए। पहले जो नुक्कड़ नाटक होते थे, उनमें पूरा ग्रुप साथ बैठकर उस पर बात करके उसके सारे आयाम पर बहस करता था और फिर कोई एक आदमी उसकी स्क्रिप्ट बनाता था। फिर उस पर बात होती थी कि इसके क्या असर समाज पर होंगे। अभी एफडीआई का मुद्दा है, परमाणु समझौता, महंगाई आदि कई मुद्दे हैं, इन पर नाटक लिखा जा सकता है। यह एक तरीका है। दूसरे जो हमारे लेखक हैं, उनसे कहें कि वे एक नाटक हमारे लिये लिखें। इस तरह जो तीन-चार स्क्रिप्ट सामने आएं, उन पर बात हो। परफॉर्मेंस से जुड़े लोगों के बीच भी विचार-विमर्श हो तो भी एक स्क्रिप्ट निकल सकती है।

सचिन श्रीवास्तव: कलाकार नाटक के बाद फिल्मों-सीरियल्स की तरफ चले जाते हैं, क्या यह खतरा है?
राजेश जोशी: हम कलाकार तो बना सकते हैं, लेकिन आजकल मीडिया या फिल्म की तरफ भी खिंचाव है। होगा यह कि वे तैयार होकर फिल्म या मीडिया की तरफ चले जायेंगे। कोई फिल्म वाला जरा सी देर में भीड़ लगा लेता है और कलाकार का भीड़ के दृश्य के बीच एक छोटा सा शॉट होता है, हद से हद दो-एक संवाद। कई बार तो यह कुछ सेकेंड का होता है। यह शूटिंग कई दिन चलती हैं, और नाटक के लोग इसमें इस्तेमाल हो रहे हैं। हम सिर्फ अभिनेता तैयार करेंगे, तो यह दिक्कत आएगी।

कलाकारों को लगता है कि छोटे-छोटे सीन करके बड़े स्तर पर पहुंच जायेंगे और कुछ कर लेंगे। कुछ थियेटर के लोग फिल्म या मीडिया में गये, और उन्हें बड़े चांस भी मिले। इसलिए नये कलाकार थियेटर को जंपिंग पैड की तरह लेते हैं। थोड़ा-बहुत नाटक सीखने के बाद उनका ध्येय सिनेमा होता है, या सीरियल।

महाराष्ट्र और बंगाल में थियेटर की स्थिति अच्छी है, वहां फिल्म से नाटक में भी लोग आते हैं। इसलिए हमें पहले अपनी स्थिति मजबूत करनी होगी। यह प्रक्रिया है। हालांकि थियेटर का कलाकार फिल्म में जाकर लौटेगा नाटक की ही ओर। तो हम अपना काम क्यों बंद करें। असल में तो मीडिया में काम बहुत कम है। वहां वे थोड़ा थककर भी आते हैं, और वापस आकर थियेटर को ही बढ़ाते हैं। वहां चांस नहीं है, एक सीरियल में अगर अच्छी भूमिका मिल भी गई और 10-20 एपीसोड कर भी लो, तो आगे काम की गारंटी नहीं होती। ऐसे कई उदाहरण हैं। रंगमंडल के कलाकार वहां गये और लौटे। इसलिए आतंकित होने की जरूरत नहीं है।

हरिओम राजोरिया: हिंदी नाटक का भविष्य क्या है? पत्रिकाओं में भी नाटक की जगह सिमट गई है। क्या आप और अन्य लेखकों को नाट्य लेखन की तरफ आना चाहिए?

राजेश जोशी: हिंदी साहित्य ने तो नाटक को साहित्य की विधा मानने से ही इनकार कर दिया है। आप देखेंगे कि आलोचना में भी नाटक कहीं नहीं है। ‘‘समकालीन भारतीय साहित्य’’ में भी नाटक छपना बंद हो गया है। नाटक की कोई किताब आती है, तो उसकी समीक्षा दिखाई नहीं देती। नाटक पर कोई लेख कभी-कभार छप जाता है। नाटक पर एक दो पत्रिकाएं हैं, लेकिन उनमें भी नाटक नहीं छप रहे हैं। समीक्षाएं भी नहीं हैं, न तो नाटक की किताब पर, और न ही खेले गये नाटक की। इसलिए हमें नाट्य समीक्षक और आलोचक तैयार करने पड़ेंगे। हिंदी में नाटक की किताब भी नहीं आ रही है, जबकि नाटक अधिक बिकते हैं। क्योंकि अब कोई ग्रुप किसी नाटक को लेता है, तो उसकी 10-20 प्रतियां एक साथ लेता है, उसकी फोटीकॉपी नहीं कराता है। वह सीधे जितने कलाकार हैं, उतनी प्रतियां ही खरीदता है।

इसके लिए जरूरी है कि कुछ तरीके निकाले जायें। नाटकों की साधारण कागज पर सस्ती छपाई हो। आज हमारे पास कई पत्रिकाएं हैं। हिंदी में लघु पत्रिका संगठन भी है, तो क्यों नहीं हम इन्हें क्लासीफाइड करते। करीब 100 पत्रिकाएं हैं हिंदी में, लेकिन नाटक की एक भी नहीं है। एक खाका बना लिया है कि 10 पेज कहानी के, 10 पेज कविता के, कुछ आलोचना के, तो नाटक के क्यों नहीं? संगठनों को इसके लिए लड़ना चाहिए कि संगठन की जो पत्रिकाएं हैं, उनका कम से कम साल में एक अंक नाटक का निकले। कविता, फिल्म, दूसरी भाषाओं पर केंद्रित अंक निकाले जाते हैं, लेकिन नाटक पर केंद्रित अंक के बारे में आज तक नहीं सोचा गया। सिर्फ ‘‘उत्तरार्ध’’ ने एक पूरा अंक नुक्कड़ नाटक पर निकाला था, जिसमें नाटक छापे थे। वह आधार बन गया था। उसे दो-तीन बार री-प्रिंट किया गया था। हमारे साहित्यिक संगठनों ने मान लिया है कि नाटक अछूत विधा है।

बसंत सकरगाय: अखबारों में भी नाटक की जगह कम हो गई है?

राजेश जोशी: अब अखबार में समीक्षा की जगह ही नहीं है। ब्रोशर से निर्देशक और कलाकार के नाम ले लिये जाते हैं। चार लाइनों के साथ एक बड़ा सा फोटो लगाकर समीक्षा से निजात पा ली जाती है।

हरिओम राजोरिया: एक कवि और कहानीकार के नाटक में क्या अंतर होता है?क्या एक कवि ज्यादा बेहतर नाटककार हो सकता है?

राजेश जोशी: नहीं, मोहन राकेश, सुरेंद्र वर्मा और असगर वजाहत उदाहरण हैं। यह सभी गद्यकार हैं। हालांकि गद्यकार और कवि के बीच फर्क तो है। नाटक कविता के ज्यादा नजदीक है। शुरूआत में तो काव्य नाटक ही लिखे गये। हिंदी में हालांकि स्थिति अलग है। ‘‘अंधायुग’’ को छोड़ दें, तो कोई स्तरीय काव्य नाटक नहीं लिखा गया। कई और लिखे गये, लेकिन उस टक्कर का कोई नहीं है। 20वीं सदी के बड़े नाटककार कवि थे। लोर्का और ब्रेख्त जैसे कई नाम हो सकते हैं।

एक कवि अलग तरह का नाटक लिखता है। हमें अपने कवियों और कहानीकारों को थोड़ा एप्रोच करना होगा, तो चीजों को बदला जा सकता है। शुरू में थोड़ा बिचकेंगे, लेकिन आखिरकार अच्छे नाटक सामने आएंगे। नाटक लिखने में थोड़ा वक्त भी लगता है। मैं खुद भी ‘‘जादू जंगल’’ की कहानी को दो साल तक सुनाता रहा। एक दिन शरद जी ने डांटा कि तुम कभी नाटक नहीं लिख सकते, क्योंकि जो सुना देता है वह नाटक नहीं लिख पाता। मुझे ग्लानि हुई, सोचा कि मैं क्या कर रहा हूं। असल में हिम्मत नहीं होती थी, क्योंकि नाटक एक तकनीकी विधा भी है। कविता कहानी भी मुश्किल विधा होंगी, लेकिन नाटक थोड़ा ज्यादा मुश्किल है। मैंने खुद इसे भुगता है। नाटक लिखने में मेहनत ज्यादा लगती है। एक नाटक लिखने के बाद चार साल तक मैंने नहीं लिखा। बंशी कौल से मित्रता हुई, तो लिखने का सिलसिला फिर से शुरू हो गया।

हरिओम राजोरिया: फिर इसे खेला जाए यह भी जरूरी है, कई नाटक लिखे गये लेकिन मंचित नहीं हुए?

राजेश जोशी: हां, यह होता है। आपने बहुत मेहनत की और नाटक लिख लिया और फिर ग्रुप नहीं मिल रहा है। भारत भवन में प्ले राइट एट रेसीडेंस फैलोशिप दी गई थी। उसमें साल भर रहकर लेखक लिखता था। जरूरी नहीं कि वह वहीं रहे, लेकिन साल भर में नाटक देना होता था। इसमें सबसे पहले रामेश्वर प्रेम आये। उन्होंने वहां ‘‘शस्त्र संतान’’ लिखा। दूसरी बार नाग बोडस आये। उन्होंने ‘‘बीहड़’’ लिखा। लेकिन ये नाटक दो साल तक मंचित नहीं हुए। जबकि रंगमंडल की जिम्मेदारी थी कि उन्हें करे। नाटक खेला नहीं जायेगा, तो उसकी कमियां भी पकड़ में नहीं आयेंगी। नाटक पढ़ने की नहीं किये जाने और देखे जाने की विधा है।