Tuesday, December 4, 2012

साझी संस्कृति और साझी विरासत को बचाने की जरूरत

फैज़ाबाद, 2 दिसम्बर 2012। ‘‘उपद्रवियों का कोई मजहब नहीं होता और साम्प्रदायिकता का कोई धर्म नहीं। सभी प्रबुद्ध नागरिकों को सद्भाव का प्रचार-प्रसार करना चाहिए। फैज़ाबाद की साम्प्रदायिक घटनाओं के बाद बुद्धिजीवियों में एक तरह की इख़लाकी पस्ती दिखायी पड़ती है। हमें इस निराशा से निकलकर धर्मनिरपेक्षता और सद्भाव के लिए संघर्ष करना चाहिए।’’ ये विचार स्थानीय तरंग सभागार में भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी द्वारा आयोजित भारतीय परिवेश में सद्भावना और धर्मनिरपेक्षता की प्रासंगिकता और हमारे दायित्व विषयक संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए लेखक एवं संपादक आफताब रजा रिजवी ने व्यक्त किये। यह संगोष्ठी फैज़ाबाद में पिछले दिनों हुई साम्प्रदायिक घटनाओं के बरक्स सद्भाव और धर्मनिरपेक्षता के प्रचार’प्रसार के लिए आयोजित की गयी थी।

इससे पहले गोष्ठी का प्रारम्भ करते हुए सम्पूर्णानन्द बागी ने कहा कि हमारा देश अपनी प्रकृति में धर्मनिरपेक्ष है, मगर थोड़े से उपद्रवियों को चलते धर्मसमभाव का ताना-बाना अव्यवस्थित हो जाता है। शहर के जाने-माने शायर साहिल भारती ने कहा कि सद्भावना पैदा करना प्रशासन की भी जिम्मेदारी है जबकि प्रशासन ने ही फैजाबाद में लापरवाही दर्शायी है। युवा कवि विशाल श्रीवास्तव ने यह बताया कि साम्प्रदायिकता के तत्व भारतीय समाज में पहले से सक्रिय रहे हैं। वैश्वीकरण के प्रारम्भ होने के बाद फासीवाद का उदय बिल्कुल नये तरीके से हुआ है। मशहूर शायर इस्लाम सालिक ने कहा कि इन साम्प्रदायिक घटनाओं में प्रशासन भी शामिल हो जाता है जिससे साम्प्रदायिकता की योजनाबद्ध घटनाएं और अफवाहें खतरनाक रूप ले लेती हैं। समाजवादी पार्टी के नेता और एडवोकेट मंसूर इलाही ने कहा कि साम्प्रदायिकता फैलाने वाले लोग कम हैं मगर उनके विरुद्ध कठोर कार्यवाही नहीं होती जिसके कारण साम्प्रदायिक तत्वों का मन बढ़ जाता है। उन्हें सख्त सजा दिलायी जानी चाहिए। बस्ती से आये राजनारायण तिवारी ने फैज़ाबाद की घटनाओं को शर्मनाक बताते हुए कहा कि वैश्वीकरण के आने के साथ ही साथ साम्प्रदायिकता बढ़ी है। एटक के नेता जमुना सिंह ने बाजारवाद और उसकी संस्कृति को साम्प्रदायिकता के उभार के लिए जिम्मेदार माना।

भारतीय प्रेस कौंसिल के सदस्य और वरिष्ठ पत्रकार सम्पादक शीतला सिंह ने कहा कि 2012 की स्थितियां 1992 की स्थितियों से अधिक खतरनाक और निराशा पैदा करने वाली हैं। आज राजनीति साम्प्रदायिक विभाजन को बढ़ा रही है । दुख की बात यह है कि पढ़ा-लिखा समाज भी कम्युनल होता जा रहा है। शहर के जाने माने बुद्धिजीवी गुलाम मोहम्मद ने कहा कि हमारे दौर में अवांक्षित तत्व सबल होते जा रहे है। लोगों को तोड़ने वाले नहीं, जोड़ने वाले तत्वों का साथ देना चाहिए। शिक्षक नेता अशोक कुमार तिवारी ने फैजाबाद की घटनाओं को एक राजनीतिक साजिश बताते हुए सद्भावना और भाईचारे कायम रखने में सहयोग करने के लिए बुद्धिजीवियों को आगे आने के लिए कहा। राजनायण तिवारी ने कहा कि फैज़ाबाद की सारी घटनाओं के पीछे स्पष्टतः चुनावी राजनीति थी। युगलकिशोर शरण शास्त्री ने साझी संस्कृति और साझी विरासत को बचाने की बात कही।

सुपरिचित पत्रकार सुमन गुप्ता ने कहा कि 1992 की घटनाओं के बाद लोग निश्चिन्त हो गये कि भविष्य में फैज़ाबाद में साम्प्रदायिक घटनाएं नहीं होंगी। मगर साम्प्रदायिकता नये तरीके से सामने आयी है। धर्म को अपने साथ लपेटने वाली राजनीति के तहत उपद्रवियों को सजा नहीं मिलती और उनका हौसला बुलन्द हो जाता है। कामरेड रामतीर्थ पाठक ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि वामपंथी हमेशा से साम्प्रदायिकता का विरोध करते रहे हैं। हर धर्म के प्रगतिशील बुद्धिजीवियों को धार्मिक विकृतियों और साम्प्रदायिकता का विरोध करना चाहिए। गोष्ठी का संचालन कर रहे डा. रघुवंशमणि ने कहा कि इस तरह के कार्यक्रमों को लेकर जनता के बीच जाने की आवश्यकता है।

गोष्ठी मे यह संकल्प लिया गया कि साम्प्रदायिक सद्भाव के ये कार्यक्रम दूर-दराज के गांवों तक ले जाये जायेंगे। गोष्ठी के अन्त में भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी के महासचिव रामजीराम यादव ने गोष्ठी में आये अतिथियों को धन्यवाद देते हुए आभार व्यक्त किया। गोष्ठी में कामरेड अतुल कुमार सिंह, कामरेड रामप्रकाश तिवारी, हृदयराम निषाद, इर्तिजा हुसैन, सईद खां, अयोध्या प्रसाद तिवारी, रामकुमार सुमन, बद्रीनाथ यादव, महंथ दिनेश दूबे, मुन्नालाल सहित सैकड़ों लोग उपस्थित थे।

-रघुवंशमणि

Sunday, December 2, 2012

जीवन के अनेक रंगों से सराबोर रहा उन्नीसवाँ नाट्योत्सव

- उषा आठले 

इप्टा रायगढ़ का उन्नीसवाँ राष्ट्रीय नाट्य समारोह पाँच विभिन्न रसास्वादों और विचारों-अनुभूतियों के नाटकों तथा चार लघु फिल्मों के प्रदर्शन के साथ दि. 26 से 30 नवम्बर तक सम्पन्न हुआ। नाट्योत्सव के पहले दिन सुबह सम्पन्न हुए एक समारोह में प्रसिद्ध अभिनेता एवं निर्देशक श्री जुगल किशोर, लखनऊ को चतुर्थ शरदचन्द्र वैरागकर स्मृति रंगकर्मी सम्मान से नवाज़ा गया। इप्टा की राष्ट्रीय समिति के सचिव श्री राकेश एवं वेदा, वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रभात त्रिपाठी, इप्टा रायगढ़ के संरक्षक श्री मुमताज भारती की उपस्थिति में श्री जुगलकिशोर को रू. 21000 की राशि, सम्मान पत्र तथा शाल-श्रीफल प्रदान किया गया। इस अवसर श्री जुगल किशोर के नाटकों, फिल्मों एवं उपलब्धियों के छायाचित्रों एवं अखबारी कतरनों की प्रदर्शनी आयोजित की गई थी तथा अनादि आठले द्वारा दृश्य-श्रव्य प्रस्तुतीकरण भी किया गया था। इप्टा के अलावा लगभग पंद्रह सांस्कृतिक-सामाजिक संगठनों ने जुगल किशोर का शाल-श्रीफल से स्वागत-अभिनंदन किया। सम्मान कार्यक्रम का संचालन अजय आठले ने किया। श्री जुगल किशोर ने अपने उद्बोधन में अपने रंग-यात्रा के पड़ावों पर प्रकाश डाला।

इसी दिन शाम को जुगल किशोर द्वारा निर्देशित नाटक ‘ब्रह्म का स्वांग’ मंचित किया गया। इस अवसर पर इप्टा छत्तीसगढ़ के अध्यक्ष श्री मधुकर गोरख विशेष रूप से उपस्थित रहे, उन्होंने श्री जुगल किशोर को इप्टा रायगढ़ की ओर से स्मृति चिन्ह प्रदान किया। इस नाटक में वर्णाधारित समाज-व्यवस्था के पाखंड और विसंगतियों पर व्यंग्य किया गया है। साथ ही तथाकथित उच्चवर्णीय लोगों की कथनी और करनी में अंतर को भी उजागर किया गया।

नाट्योत्सव के दूसरे दिन चेन्नई निवासी ओजस सु.वि. ने मणिपुर से सशस्त्र सेना विशेषाधिकार अधिनियम को हटाने की मांग को लेकर पिछले बारह वर्षों से अनशन कर रही इरोम शर्मिला चानू के संघर्ष को अपने सशक्त अभिनय और कथ्य से प्रस्तुत किया। ओजस की पैंतालिस मिनट की एकल प्रस्तुति ने दर्शकों को भीतर तक हिला दिया। नाट्य-प्रस्तुति से पहले फिल्म संस्थान पुणे के लक्ष्मण उतेकर निर्देशित लघु फिल्म ‘खोया’ का प्रदर्शन किया गया। यह फिल्म मुंबई के पाँच पृथक-पृथक किरदारों के इर्दगिर्द घूमती है तथा जिंदगी के संजीदा फलसफे को सीधे और सधे तरीके से पेश करती है। इंदौर की सूत्रधार संस्था से आए श्री सत्यनारायण व्यास ने ओजस को स्मृतिचिन्ह प्रदान किया।

तीसरे दिन फ्लेम पुणे के स्कूल आफ परफार्मिंग आर्ट्स द्वारा स्व. हरिशंकर परसाई की लघुकथा ‘दस दिन का अनशन’ पर आधारित नाटक ‘लड़ी नजरिया’ का मंचन हुआ। श्री प्रसाद वनारसे निर्देशित एवं श्री समीर डुबले के संगीत निर्देशन में खेले गए इस नाटक में एक सीधेसादे व्यक्ति का धूर्त धार्मिक और राजनीतिक शक्तियों के हाथों का खिलौना बन जाने की त्रासदी को तीखे कटाक्षों के माध्यम से व्यक्त किया गया। नाट्य विभाग के रंग-विद्यार्थियों की इस उर्जस्वित प्रस्तुति ने दर्शकों को सोचने पर मजबूर कर दिया। नाट्य-मंचन से पहले फिल्म संस्थान पुणे की स्नातक दीप्ति खुराना निर्देशित लघु फिल्म ‘रिज़वान’ प्रदर्शित की गई। यह फिल्म कश्मीर के लोगों पर होने वाली फौजी ज़्यादतियों से उभरने वाली मार्मिक पीड़ा को व्यक्त करती है। दैनिक भास्कर के यूनिट एडिटर श्री अजय तिवारी एवं जेएसपीएल के वाइस प्रेसिडेंट श्री आर.एस.डबास द्वारा संयुक्त रूप से इप्टा के स्मृति चिन्ह से ‘लड़ी नजरिया’ के निर्देशक श्री प्रसाद वनारसे को सम्मानित किया गया।

चौथे दिन हम थियेटर ग्रुप भोपाल द्वारा श्री बालेन्द्र सिंह निर्देशित नाटक ‘लाला हरदौल’ की प्रस्तुति हुई। बुंदेलखंड के लोकनायक के जीवन पर आधारित इस नाटक में पारम्परिक बंुदेली लोकगीतों एवं लोकनृत्यों के प्रयोग ने दर्शकों को बुंदेलखंड की लोकसंस्कृति से रूबरू कराया। इस दिन लघु फिल्म ‘तत्पश्चात’ दिखाई गई। फिल्म संस्थान पुणे के तृतीय वर्ष के छात्र आदीश केलुस्कर निर्देशित इस फिल्म में बाल सुधार गृह में रखे किशोरों के प्रति वहाँ के कर्मचारियों-अधिकारियों के दोहरे रवैये को दिखाया गया है। रायगढ़ के बाल चिकित्सक एवं नाट्यप्रेमी डाॅ. रघुवर पटवा ने श्री बालेन्द्र सिंह को इप्टा का स्मृति चिन्ह प्रदान किया।

पाँचवें एवं अंतिम दिन निर्माण कला मंच पटना का श्री संजय उपाध्याय निर्देशित नाटक ‘कम्पनी उस्ताद’ मंचित किया गया। बिहार के क्रांतिकारी कवि महेन्द्र मिश्र के व्यक्तित्व एवं रचनाओं पर केन्द्रित इस नाटक में भोजपुरी गीत-संगीत एवं संवादों की बेहतरीन लयकारी थी। सधे हुए अभिनय और सटीक प्रकाश-व्यवस्था ने नाटक को प्रभावशाली बना दिया। इप्टा रायगढ़ के संरक्षक श्री जी.एन.श्रीवास्तव ने श्री संजय उपाध्याय की अनुपस्थिति में प्रकाश परिकल्पक श्री कमल जैन को स्मृति चिन्ह प्रदान किया। इस दिन फिल्म संस्थान पुणे के छात्र अभिलाष विजयन निर्देशित लघु फिल्म ‘द्वंद्व’ का प्रदर्शन किया गया, जिसमें नक्सली आंदोलन को कुचलने वाले सेना के अधिकारी और एक नाई के द्वंद्व को दिखाया गया है।

इस पूरे समारोह में नटवर स्कूल के प्राचार्य श्री पी.आर.साय, पुलिस अधीक्षक, जिला कलेक्टर, जेएसपीएल, संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार, जनमित्रम, सहयोग समिति, नवा विहान, बिहारीलाल कंस्ट्रक्शन एवं रायगढ़ नगर के समस्त दानदाताओं तथा दर्शकों का भरपूर सहयोग मिला। उन्नीसवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह में सर्वाधिक उल्लेखनीय सहयोग प्रेस जगत का रहा। विभिन्न अखबारों में प्रतिदिन प्रकाशित होने वाली रपटों और फोटो ने प्रतिभागी नाट्य दलों और इप्टा के सभी सदस्यों को उत्साहित किया। इप्टा के युवा एवं किशोर सदस्यों भरत निषाद, टोनी चावड़ा, संदीप स्वर्णकार, श्याम देवकर, अनादि आठले, लोकेश्वर निषाद, आलोक बेरिया, अजेश शुक्ला, ब्रिजेश तिवारी, अमित सोनी, सुरेन्द्र बरेठ, अमित दीक्षित, दीपक यादव, वासुदेव निषाद, बाबू खान, विष्णु हिमधर के अलावा वरिष्ठ सदस्यों मुमताज भारती, विनोद बोहिदार, अपर्णा, अर्पिता श्रीवास्तव, अजय आठले, उषा आठले, अभिषेक श्रीवास्तव का योगदान रहा।             

Saturday, December 1, 2012

Company Ustaad is a musical about music and principles

The fifth and the last day of the 19th National Theatre Festival was really unique. The play – Company Ustad – was staged in front of an almost full house. This play marked Nirman Kala Manch’s five perfomances over the last two decades in the festival. For the first time, the director Sanjay Upadhyay, was absent during a performance at Raigarh.

Company Ustaad is based on the life of Mahendra Mishra, who was a poet full of patriotism. This was during the English rule of India. He was a singer, a poet and was often misunderstood and made fun of in his own society – of bramhins. They used to call him Company Ustaad. He left his town to settle down at Calcutta, and that too in Sonagachi – the red light area. There begins the story of ‘Company Ustaad’. He teaches Sonabai – a courtesan and dancer by profession – his music and songs. She falls in love with those permanently. But Company is arrested by the British Police for treachery and tried at the court. By the time he comes out of the prison, he finds out that Sonabai is dead.

The play is a musical, it uses music to narrate its story. The evergreen music by Sanjay Upadhyay
leaves no scope for a viewer to not tap their feet to the rhythm he creates. Suman Kumar in his unparalleled acting for the character of Company Ustaad leaves you with a heavy throat. The amazing choreography of the play lifts this old tale and gives it a new look and feel, making sure its essence remains the same.

This play reveals a very important chapter of history. It is like going back to an era, and staying there for two hours and almost living it.