Sunday, November 4, 2012

‘जनता पागल हो गई है’ – एक पुनर्पाठ

शिवराम का नुक्कड़ नाटक ‘जनता पागल हो गई है’ आपातकाल से पहले ही 1974 में लिखा गया था, जो कालांतर में काफ़ी प्रसिद्ध हुआ। इसका पहला प्रदर्शन झालावाड़ महाविद्यालय में हुआ, और सव्यसाची ने इसे ‘उत्तरार्ध ’ में छापा। ‘जनता पागल हो गई है’ आपातकाल की परिस्थितियों में ज़्यादा माकूल हो कर उभरा, और इसकी अंतर्वस्तु ने इसे आपातकाल के दौरान पूरे देश में काफ़ी लोकप्रिय बना दिया। इसके कई अन्य भारतीय भाषाओं में भी अनुवाद हुए और हिंदी का यह पहला नुक्कड़ नाटक धीरे-धीरे सर्वाधिक खेले जाने वाला नाटक बन गया। तभी से शुरु हुए इस नाटक के प्रदर्शन अभी तक जारी हैं। अक्सर इसके खेले जाने की सूचनाएं मिलती रहती हैं।

इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि इस नाटक की अंतर्वस्तु में उन तत्वों की पड़ताल की जाए जो इसे इसके लिखे जाने के वक्त से लेकर अब तक प्रासंगिक और लोकप्रिय बनाए हुए हैं। इसकी उन खासियतों को देखा जाए, जो अभी भी रंगकर्मियों को इस नाटक के प्रदर्शन करने के लिए प्रेरित करती रहती हैं। साथ ही, जो अधिक जरूरी है, उन सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों के विश्लेषण के साथ इस नाटक को समझने की जरूरत है, जिन्होंने इसमे अभिव्यक्ति पाई हैं, जो जस के तस बनी हुई हैं, और उन्हें बदलने की आंकाक्षा अब और भी ठोस-यथार्थ रूप में महसूस की जाने लगी है।

शिवराम का नुक्कड़ नाटक ‘जनता पागल हो गई है’ एक साधारण सी मांग पर तात्कालिक रूप से लिखा गया था, जो उनके सामने उनके छोटे भाई पुरुषोत्तम ( जिन्हें अब शायर पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’ के नाम से जाना जाता है ) ने अपने महाविद्यालय में हो रही नाटक प्रस्तुतियों के संदर्भ में रखी थी। इससे पहले शिवराम शुरुआती रूप से अपनी गतिविधियों के संदर्भ में ‘आगे बढ़ो’ नामक एक नाटक और फिर भगतसिंह पर एक नाटक लिख और खेल चुके थे। वे इन नाटकों के जरिए रामगंजमंड़ी इलाके की श्रमशील जनता के साथ अंतर्क्रियाओं से अपने अनुभवों को संपृक्त कर रहे थे, और साथ ही अध्ययन-मनन के जरिए अपने आपको सैद्धांतिक रूप से भी समृद्ध कर रहे थे। वे द्वंदात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद की दार्शनिकी को आत्मसात कर रहे थे और इनके जरिए अपने परिवेश, समाज, राजनीति और दुनिया को समझने और समझाने की कवायदों में थे। ठीक इन्हीं परिस्थितियों में यह नाटक ‘जनता पागल हो गई है’ लिखा गया।

बोधि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित नाटक संग्रह ‘जनता पागल हो गई है’ की भूमिका में शिवराम लिखते हैं, ” नुक्कड़ या चौपाल नाटक सिर्फ़ इसलिए अस्तित्व में नहीं आए कि ‘प्रेक्षागृह’ हमारी पहुंच में नहीं था बल्कि इसलिए आए कि प्रेक्षागृहों की पहुंच जनसाधारण तक नहीं थी और हम अपने विचार लेकर जनसाधारण के बीच पहुंचने को व्यग्र थे”। यह वाक्य जहां नुक्कड़ नाटक विधा की उत्पत्ति की आवश्यकता को रेखांकित करता है वहीं नाटको की अंतर्वस्तु और कथ्य की रूपरेखा को शिवराम के आगे के कथन, ” मेरे पास एक विचार था और गरीबी के अभिशाप तले जीने वाले लोगों के, मेरे गांव के किसानों और दलितों के मेरे इर्द गिर्द के जीवन के थोड़े बहुत अनुभव मेरे पास थे और सबसे ज़्यादा मेरे मनोजगत में व्याप्त हलचल, अपने जाने ‘सच’ को जनसाधारण तक पहुंचाने की व्यग्रता थी”, से समझा जा सकता है।

शिवराम द्वारा इस नई समझ के साथ तात्कालिक सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों के किये गए विश्लेषण, उपरोक्त परिस्थितियों में लिखे गये इस नाटक में बखूबी रूप से संश्लेषित हुए हैं। पारंपरिक लोक नाट्‍य शैली में, हास्य-व्यंग्यात्मक प्रस्तुति के साथ किया गया यह सांद्र और सर्वतोमुखी संश्लेषण ही, जो कि क्रांति के युटोपिया के साथ जनता की जीत पर समाप्त होता है, इसे वह धार और रवानगी देता है जो इसे रंगकर्मियों और दर्शकों, दोनों के बीच समान रूप से लोकप्रिय बनाती हैं।

इसी को और समझने के लिए आइये हम इस नाटक का पुनर्पाठ करते हैं, और उनको समझने और देखने की कोशिश करते हैं। मुझे इस नाटक को कई बार करने और कई बार निकट से दर्शकों के साथ देखने का अवसर प्राप्त हुआ है, और इसीलिए दर्शकों की हर चुटीले संवाद पर प्रतिक्रिया को पास से देखा है। नाटक में मुख्य पात्र सिर्फ़ छः हैं, यानि कम अभिनेताओं के साथ इसे बखूबी मंचित किया जा सकता हैं। चलिए अब इस नुक्कड़ नाटक की यात्रा शुरू करते हैं।

नाटक की शुरुआत सिपाही द्वारा श्रीमान भारत सरकार के पधारने की मुनादी के साथ होती है। वही सामंती राजशाही ठाठबाठ के साथ अशीर्वादी मुद्राओं में ‘सरकार’ का आगमन होता है। सरकार आते ही पुलिस को आवाज़ देती है और पुलिस अधिकारी हास्य भरे अंदाज़ के संवाद के साथ उपस्थित होता है, “जी हां मेहरबान, कद्रदान, क्या हुक्म है मेरे आका? किसका निकालूं कचूमर, किसका बिगाडूं खाका?”। यह संवाद पुलिस के चरित्र को बखूबी सामने रखता है, सत्ता के आदेशों के आगे दरबारी तरीके से नतमस्तक और आम आदमी का या सत्ता के विरोधी स्वरों का कचूमर निकालना और खाका बिगाड़ना जिसका कि मुख्य काम है। सरकार की हर पुकार को वह इसी हेतु समझता है। इस बार सरकार बेचैन है, चुनाव आने वाले हैं, अकाल, भुखमरी, मंहगाई, बेकारी से जनता त्रस्त है, वह ‘जनता’ से मिलने की आकांक्षा व्यक्त करती है। पुलिस अधिकारी को सरकार की यह बेचैनी खामख्वाह लगती है, वह सरकार के सामने जनता को पकड़ कर हाजिर करने की मुस्तैदी दिखाता है, परंतु सरकार उसे रोक लेती है और खुद ही जनता के सामने जाने की इच्छा व्यक्त करती है और माकूल सवारी और सुरक्षा इंतज़ामों की तैयारी के आदेश देती है।

इसके तुरंत बाद का दृश्य काफ़ी चुटीला और प्रतीतात्मक है, साधारणतयः इस तरह की नाटकीयता कम ही देखने को मिलती है। पुलिस अधिकारी एक सिपाही को कान पकड़ कर ले आता है, और उसे सवारी बनने का आदेश देता है, सिपाही हाथ-पैरों के बल घोड़ा बन जाता है। सरकार आशीर्वादी मुद्रा में उस पर बैठ जाती है, और घोड़ा सिपाही हिनहिनाते हुए सरकार को पीठ पर लादे चल देता है। राज्य पुलिस मशीनरी के जरिए विरोधों का दमन करता है और अपना स्थायित्व बनाए रखता है, एक तरह से यह कह सकते हैं कि राज्य की सत्ता उसकी पुलिस पर टिकी हुई होती है यानि पुलिस ही एक तरह से सत्ता का प्रत्यक्ष होती है और सरकारों को ढो रही होती है। शिवराम उपरोक्त व्यंग्यात्मक प्रतीकात्मकता रचते है, और अपनी इसी बात को एक हास्य दृश्य बुनकर दर्शकों तक बखूबी संप्रेषित कर जाते हैं।

तुकभरी काव्यात्मक संवादों की शैली लोक नाट्यों और रामलीलाओं में बहुत ही प्रचलित है और शिवराम ने इस नाटक में उसी तरह की संवाद शैली का बखूबी प्रयोग किया है। इस तरह के संवादों के साथ दर्शकों के साथ बेहतर तारतम्य बैठता है, और बात लंबे समय के लिए संप्रेषित होती है, दर्शकों की स्मृति में ये चुटीले संवाद बखूबी दर्ज़ हो जाते हैं। हमें इसके कई संवाद अभी भी जुबानी याद हैं, और दर्शकों को बाद में भी इसके कई संवादों को हूबहू प्रस्तुत करते हमने कई बार देखा है। बानगी देखिए, उपरोक्त दृश्य में पुलिस अधिकारी का संवाद :

“बेचैन होके आपने, जनता को पुकारा / कहते हैं अक्लमंद को काफ़ी है इशारा / जनता को हुक्म देता हूं दरबार में आए / सरकार याद करती है, आदाब बजाए / सरकार आपके कहने से, मैं बस्ती-बस्ती जाता हूं / नालायक जनता की बच्ची को, मैं अभी पकड़ कर लाता हूं”

और सरकार का प्रतिसंवाद : “हम सेवक हैं जनता के / जाएंगे ख़ुद उसके हुज़ूर में चलके / लाओ कोई माकूल सवारी करो सुरक्षा की तैयारी / पुलिस प्यारी . . . . हमारी।”

सरकार की सवारी के सामने अचानक जनता आ जाती है, और अपने दुखड़े रोती है. पुलिस अधिकारी जनता को घुड़क रहा है, और सरकार विस्मय से उसे देखती हुई कहती है :

“ये कौन है और क्या हमें समझाए है / इसके तो इक-इक रोम से अपने को बदबू आए है / उफ़ मेरे नाज़ुक बदन को देखता है घूरकर / थाम ले मीसा में इसको और नज़र से दूर कर.”

यहां इस संवाद के जरिए शिवराम लोकतांत्रिक सरकारों के जनविरोधी चरित्र को पेश करना चाहते हैं। वे यह दर्शाते हैं कि सरकारों की आम जनता से इतनी दूरी है कि वे उसकी पहचान से भी परिचित नहीं रह जाती, उससे एक अलंघ्यनीय दूरी बना लेती हैं। यहीं मीसा जैसे कानूनों का जिक्र करके शिवराम उन सभी जनविरोधी कानूनों पर तंज कर रहे हैं जो कि असलियत में जनता के दमन और सरकारों की मनमर्जी, दादागिरी का ज़रिया बनकर उभरते हैं।

यहीं आगे एक संवाद में जनता सरकार से कहती है कि, ‘आप सर्वशक्तिमान हैं…आप तो ख़ुद भगवान हैं, माई बाप…आप भगवान के अवतार हैं सरकार…’। यह वही मानसिकता है जो राजा की दैवीय उत्पत्ति के मनु के सिद्धांत से होती हुई सामंती निरंकुशता के ज़रिए आम मानस में गहरी पैठा दी गई थी ताकि जनता राजाओं के विरुद्ध जाने की नैतिक शक्ति हासिल ना कर सकें और किसी भी तरह के प्रतिरोध की हिमाकत नहीं कर सकें। शिवराम इस संवाद के ज़रिए इस बात को सहज रूप से ही रख जाते हैं कि आम मानस में, तथाकथित लोकतंत्र की स्थापना के बावज़ूद जिसमें लोक ही वास्तविक शक्तिसंपन्न बताया जाता है, वही लौकिक और अलौकिक सामंती भय अभी भी बरकरार है क्योंकि यह तथाकथित लोकतंत्र भी उसी सामंती ठाठ-बाठ और जोर-जबर की तरह ही चलाया जा रहा है।

आगे जनता जब अपनी तकलीफ़ों का जिक्र करते हुए फूट पड़ती है, तब सरकार के संवादों में शिवराम आमतौर पर सत्ता के द्वारा अपनाए जाने वाले दार्शनिक और धार्मिक हथियारों की जरूरतों और प्रयोग के हालातों का बखूबी बयान करते हैं। जनता का संवाद है:

“ढोर डांगर मर गये सब, खेत पड़े वीरान / तिस पर बनियां और पटवारी मांगे ब्याज लगान
बालक भूखे मरें हमारे, हम कुछ कर न पाएं / ऐसी हालत है घर-घर में, जीते जी मर जाएं.”

अब सरकार का संवाद देखिए: ” धीरज ! धीरज रखो जनता / आखिर महल समाजवाद का धीरे-धीरे बनता / ज़िंदगी और मौत अपने बस की बात नहीं है। यह तो ( आसमान की ओर हाथ उठाकर ) भगवान के हाथ की बात है।”

यहां दो चीज़ों को एक साथ लाया गया है, पहला कांग्रेस का समाजवाद का नारा। पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत जहां सारी संपदा मुट्टीभर पूंजीपतियों के हाथों में केन्द्रित होती जाती है, अमीर और अमीर तथा गरीब और गरीब होते जाते हैं, वहां समाजवाद की बात करना जिसका कि मूल मतलब ही संपदा का समाज में समान वितरण है, एक अश्लील नारा बनकर उभरता है। यहां शिवराम यह दर्शाना चाहते हैं कि इस नाम को प्रयोग करने के पीछे की मजबूरियां क्या हैं। आखिरकार देश की बहुसंख्यक जनता को इस तरह के समाजवादी और गरीबी हटाओं जैसे नारों से भरमाए रखना, लोककल्याणकारी छवि को बनाए रखना जरूरी है। ये नारे और जनता की मांगों के सामने इन शब्दावलियों का प्रयोग दरअसल उनको तात्कालिक छलावा देना मात्र है।

दूसरी चीज़ है वह भाववादी और भाग्यवादी दर्शन, जिसे शिवराम जनता को भ्रमित और विरोध को दबाने के लिए प्रयोग किये जाने वाले सत्ता के हथियार के रूप में सामने लाते हैं। वे साफ़-साफ़ ये इंगित करते हैं कि सत्ता और धर्म की आपसी जुगलबंदी, नाभीनालबद्धता यथास्थिति को बनाए रखने के लिए किस तरह जरूरी हो उठती है। जनता की ऐसी हालत और मरने जैसी परिस्थितियों तथा भुखमरी-मौतों के लिए सरकार सफ़ाई से भगवान को जिम्मेदार बता देती है। जनता के मन में पैठाई गईं आस्थाएं और भाग्यवादी दर्शन उसे पहले से ही इसके अनुकूलित रखता है और सत्ता द्वारा उसे भ्रमित करना और अपनी जिम्मेदारियों से बचना आसान कर देता है।

आगे सरकार जनता से पूछती है कि भूखी हो, जनता जवाब में हांमी भरती है उसके बाद का एक संवाद इस तरह से है; सरकार सहज भाव से कहती है : “तो, भूखी रहो। मगर खुश-खुश। कल के सुख के लिए आज कुर्बानी करनी ही होती है।…तुम्हें याद नहीं जनता अंग्रेजों से आज़ादी हासिल करने के लिए गांधी जी अक्सर लंबी भूख हड़ताल करते थे।” जनता कह उठती है: “अब किससे आज़ादी हासिल करनी है सरकार? हमारे तो पुरखे भी भूख काटते मर गए और हम भी मर जाएंगे…हमें भूख से आज़ादी कब मिलेगी सरकार?”

यहां सरकार आज़ादी की लड़ाई के दौरान काम में लाई गई दार्शनिकी को, आज़ादी के इतने साल बाद भी बेहयाई से काम में लेती हैं और यह सामने आता है कि गांधी को किस तरह बचाव के हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाता है। शिवराम जनता के जवाब के ज़रिए यह तथ्य सामने लाते हैं कि आज़ादी के पश्चात भी आम परिस्थितियां वैसी ही बनी हुई हैं और असली आज़ादी, भूख से आज़ादी का सवाल अब भी एक घिनौनी वास्तविकता की तरह हमारे सामने मुंह बाए खड़ा है।

जैसा कि कहा जा चु्का है, सरकार चुनाव की मजबूरियों के तहत जनता से मुखातिब होने के लिए उसके बीच में अवतरित हुई है, तो जल्दी ही वह चुनावों के जिक्र और वोट देने का आग्रह करती है। वोट के बदले रोटी की बात कहती है, जनता को विश्वास नहीं होता तो फिर यहां शिवराम सरकारों, अन्य दलों द्वारा सामान्यतः चुनाव के समय किए जाने वाले इस तरह के कई आश्वासनों का जिक्र करते हैं। इसी समय नाटक में एक पात्र का अनायास प्रवेश होता है। वह ‘पागल’ है।

शिवराम द्वारा गढ़ा गया पागल का यह चरित्र कई जटिल भी और सहज सी भी अभिव्यक्तियों को समेटे हुए है। वह सर्वहारा के बीच से निकला है, आंदोलनों के सरकारी दमन का मारा हुआ है, उसकी चेतना संघर्ष की प्रक्रिया में तपी हुई है, वह पूंजी और सत्ता के इस खेल, गठजोड़ को समझता है, वह इसी को सामने लाने और जनता के सामने खोलने के लिए प्रवृत्त रहता है। ऐसा भी लग सकता है कि सरकारी दमन और अत्याचारों के चलते वह अपना मानसिल संतुलन खो बैठा है और पागल हो गया है। वहीं शिवराम इस ओर भी इशारा करते हैं कि आम मान्यताओं, भ्रमों तथा परंपराओं के ख़िलाफ़ जब भी कोई व्यक्ति अपनी बात कहता है, परिवर्तन और संघर्षों के ज़रिए दुनिया को बदलने की बात करता है तो आम मानसिकता उसे सहज रूप से ही पागल कह उठती है, कि यह तो पागल हो गया है, कि भला कुछ ऐसा भी होता है, कि ऐसा भी हो सकता है, कि दुनिया तो ऐसे ही बनी और चलती आ रही है, इसे बदलने की बात करना पागलपन के सिवाय क्या है।

इस समय के संवादों के ज़रिए शिवराम बताते हैं कि इस तरह की ‘पागल’ शक्तियां सच को सामने लाने की कोशिश करती रही हैं, जनता अपने अनुकूलन के कारण उनपर विश्वास के लिए असमंजस में होती है और वहीं सत्ता तथा सरकारें इनके ख़िलाफ़ मोर्चा खोल देती हैं, इनके विरुद्ध सरकारी प्रचार-तंत्र खड़ा करती है, इस बात को सुनिश्चित करती हैं कि इनकी बात जनता तक पहुंचने ही नहीं पाए और यदि छुट-पुट रूप में पहुंच भी जाएं तो जनता इन्हें गंभीरता से लेने की मानसिकता में ना हो, वह भ्रम में ही मुब्तिला रहे।

सरकार ऐसे ही पागलों से, और इसी बहाने अपने विरोधियों से भी जनता को चेताते हुए सावधान करते हुए कहती है कि, ‘देख जनता, तुझे तरह-तरह के लोग तरह-तरह से आकर बहकाएंगे। तू किसी के बहकावे में मत आना…।’ इस संवाद का अंत इस वाक्य से होता है, ‘मैंने जो कुछ भी किया जनता, तेरे भले के लिए किया। तेरे भले के लिए।’ पागल फिर बीच में कूद उठता है, उसका संवाद देखिए:
“हां जनता, सब कुछ तेरे भले के लिए। ये अपने लिए कार, कोठी, ऐशोआराम की चीज़ें जुटाई तो तेरे भले के लिए। देश पूंजीपतियों और जागीरदारों के हवाले कर दिया तो तेरे भले के लिए। मंहगाई, बेरोजगारी बढ़ाई तेरे भले के लिए। कच्ची बस्तियां उजाड़ी तो तेरे भले के लिए। टैक्स बढ़ाए तो तेरे भले के लिए। तुझ पर डंडे चलाए तो तेरे भले के लिए। अब तुझे जेल भेजेगी तो तेरे भले के लिए। मीसा, डी.आई.आर., आसुका-रासुका, टाडा-आडा सब तेरे भले के लिए। ये विदेशी कर्ज, तेरे भले के लिए। यह तानाशाही तर्ज, तेरे भले के लिए।”

सरकार पुलिस को बुलाकर कहती है: “इस पागल पर रखी जाए नज़र कड़ी / इसके पीछे हमको साजिश लगती कई बड़ी / कमबख़्त हमारी जनता को भड़काता है / कोई विदेशी एजेन्ट नज़र आता है…”

यहां शिवराम, सरकारों द्वारा भ्रमों के बावज़ूद जस्टीफाई नहीं किए जा सकने वाली बातों और विरोध की आवाजों के लिए आम-तौर पर विदेशी हाथ करार दिए जाने की मानसिकता पर सहज सा व्यंग्य करते हैं। वे यह स्पष्ट करते हैं कि चूंकि सारा प्रचार-तंत्र उनके हाथ में होता है, सत्ताएं अपके ख़िलाफ़ जाती सारी बातों, कार्यवाहियों को आसानी से अपने विरुद्ध किए जा रहे साजिशों, षड़यंत्रों का रूप दे देती हैं, और इस सामान्य तर्क के ज़रिए इस बात को सिद्ध करने की कोशिश करती हैं कि किसी भी तरह के प्रभुत्व के ख़िलाफ़ इस तरह के षड़यंत्र किया जाना आम बात है और यह सब वही सत्ता, प्रभुत्व प्राप्त करने की आकांक्षाओं के अंतर्गत किए जाने वाला दुष्प्रचार मात्र है।

पुलिस द्वारा सरकार को घोड़ा बनकर ढोए जाने वाले दृश्य का जिक्र पहले किया जा चुका है, उसी संदर्भ में नाटक में शिवराम अब एक और नाटकीयता रचते हैं। वे यह प्रदर्शित करते हैं कि सरकारों को ढोने वाली पुलिस के सामान्य सिपाही भी सर्वहारा वर्ग से आते हैं, उनके साझे दुख-दर्द हैं, इसलिए उन्हें भी इस व्यवस्था के ख़िलाफ़ संघर्षों में साथ आना चाहिए, साथ लाना होगा। वे इसके लिए अधिकारी द्वारा पुनः सवारी बनने के लिए कहे जाने पर सिपाही का विद्रोह दिखाते हैं। सिपाही का संवाद देखिए:

“नहीं बनेंगे अब हम सवारी। दिन-रात जानवरों की तरह खटें। तुम्हारे बीवी-बच्चों की गुलामी बजाएं। तुम्हारे हुक्म पर आदमी पर डंडे चलाएं और बदले में मुट्ठी भर वेतन और ये ज़लालत, अब नहीं होगा ये सब। आखिर हम भी इन्सान हैं। कब तक जियेंगे ये जानवरों सी ज़िंदगी। जिल्लत की ज़िंदगी, ज़लालत की रोटियां।…हुं ! हम भी अपनी यूनियन बनाएंगे। नहीं बनेंगे अब हम सवारी-अवारी। पुलिस यूनियन ज़िंदाबाद ! इन्कलाब ज़िंदाबाद !”

इस पुलिस विद्रोह का दमन किया जाता है और अंततः सिपाही को फिर से सवारी बनने को मजबूर कर दिया जाता है। एक बार शिवराम ने बताया था कि इस दृश्य के पीछे दरअसल एक वास्तविक खबर का आधार था, जिसमें एक पुलिस यूनियन बनाने के प्रयासों का बेदर्दी से दमन कर दिया गया था, स्थान अब स्मृति में नहीं रहा है।

सरकार वोट मांगते हुए पुलिस की सवारी पर निकल जाती है, जनता रोजी, रोटी, भूख, बेकारी पर बुदबुदाते हुए भौंचक्की खड़ी रह जाती है। जनता की तकलीफ़ो पर सरकारों की संवेदनहीनता बयान करता जनता का यह मार्मिक संवाद देखिए: “मैंने अपना हाथ पसारा / उसने दिया चमकता नारा
देखी नहीं जिगर की चोट / देखा केवल मेरा वोट”

पागल का प्रवेश होता है, पहले वह वोट की राजनीति पर व्यंग्य करता हुआ गीत गाता है: “वोट माने कुर्सी, वोट माने राज / वोट माने सत्ता, वोट माने ताज / वोट माने लूट का पट्टा, पांच बरस को और / वोट माने ठगा गया फिर, पांच बरस को और”

फिर वह जनता से भूख के बारे में पूछता है, और जब कुछ नहीं सूझता तो वह गाने के लिए कहता है। ‘भूखे भजन ना होए गोपाला’ की लोकसमझ के सापेक्ष ‘भूख से बचने के लिए भजन’ वाली मानसिकता पर तंज करवाते हुए शिवराम यहां पागल से गाना गवाते हैं, भजन के बरअक्स हालांकि यह गाना एक अलग ही वितान रचता है। यह गीत काफ़ी लोकप्रिय हो उठता है और दर्शकों की स्मृति में ठहर सा जाता है जिसे वे बाद में भी गुनगुनाते रहते हैं:

“भूख लगे तो गाना गा / भूख लगे तो गाना गा, जनता तू गाना गा
ये सरकार बनी है बहरी / गूंगी इसकी सभी कचहरी / पर्दे फट जाएं कान के इसके / ऐसा गाना गा
जनता तू गाना गा, भूख लगे तो गाना गा
इस सरकार की चमड़ी मोटी / सेठों से फिट इसकी गोटी / सर्द पसीने छूटें इसको / ऐसा गाना गा
जनता तू गाना गा, भूख लगे तो गाना गा”

जनता साथ-साथ गुनगुनाने-गाने लगती है, फिर लाठी पटकते हुए बोल उठती है, ‘अरे पागल ! गाने से भी कहीं पेट भरता है।’ शिवराम इस तरह पागल और उसके तात्कालिक समाधानविहीन वितंड़ा पर भी करारा व्यंग्य कर जाते हैं। वे इस तरह बताना चाहते हैं कि कोरी लफ्फ़ाजियों से आमजन की पीड़ाओं के समाधान नहीं निकला करते, तात्कालिक समस्याओं की तकलीफ़ कम नहीं हुआ करती। मुक्तिकामी दूरगामी संघर्षों की श्रृंखलाएं, तात्कालिक जीवनीय जरूरतों के संघर्षों के साथ नाभीनालबद्ध होकर ही परवान चढ़ सकती हैं। आमजन के फौरी संघर्षों से अपने को जोड़कर ही प्रगतिशील शक्तियां जनता के साथ वह आपसदारी, वह विश्वास पैदा कर सकती हैं जिसके ज़रिए लंबी लड़ाइयों की पृष्ठभूमियां तैयार की जा सकती हैं। इसके बिना ये शक्तियां आमजन के बीच तारतम्य हासिल नहीं कर सकती और जनता से दूरियों को बढ़ा ही सकती है, सिर्फ़ एक ऐसी जनपक्षधरता के आयाम रच सकती हैं जिसका जन से कोई वास्तविक जुड़ाव नहीं रह जाता, और यह विलगाव अंततः उनकी जनपक्षधरता के सिद्धांतो में भी कई तरह के भटकावों के लिए भी ज़मीन तैयार करता है।

नाटक में यहां पूंजीपति का प्रवेश होता है और वह जनता को रोटी के लिए अपने कारखानों में काम करने के लिए तैयार करता है। इसी दौरान पागल की नौंक-झौंक से परेशान होकर पूंजीपति, पुलिस के ज़रिए उसे वहां से भगा देता है। यहां एक संवाद शिवराम दोनों के बीच कहलवाते हैं, वह दृष्टव्य है। पागल कहता है, ‘क्यों ये देश तेरे बाप का है क्या?’, जवाब में पूंजीपति जब पुलिस को बुलाकर उसे भगा देता है और पुलिस भी बख्शीश लेकर चली जाती है तब वह जनता से मुखातिब होकर हंसते हुए कहता है, ‘पता चला, देश किसका है?’ पुलिस किसकी है? बड़ी ही सहजता के साथ शिवराम इस तरह देश के पूंजीवादी लोकतंत्र की वास्तविक चालक शक्तियों का सच दर्शकों के सामने रख देते हैं।

पूंजीपति जनता को अपने कारखाने में ले जाता है और उसे एक मशीन पर काम में लगा देता है। यहां मशीन पर काम सिखाने का दृश्य है और साथ ही जनता के पुराने ढीले-ढाले कपड़े उतरवा कर कारखाने की पेंट-शर्ट वाली यूनीफार्म पहनवाने के भी। पूंजीपति द्वारा जनता का साफा भी उतारकर फैंक दिया जाता है। ये प्रतीकात्मक दृश्य साधारण सा लगता है तथा थोड़े ही समय में निकल जाता है पर अपने प्रभाव में शिवराम यहां कई गहरी ऐतिहासिक प्रक्रियाओं की तरफ़ मूक इशारे कर जाते है। किसान जनता के सामने निजी श्रम की खेती में बढ़ती समस्याएं, कर्ज और ब्याज का बढ़ता बोझ, फसलों के ज़रिए दो जून की रोटी प्राप्त करने की भी असमर्थता, उसे मजदूरी के लिए मजबूर करती है और अंततः ज़मीनों से बेदखली उसकी सर्वाहाराकरण की प्रक्रिया को पूरा करती है। उसके पास जीवनयापन के लिए श्रम को एक माल की तरह बेचने के अलावा कोई विकल्प नहीं छोडती, वह कारखाना मज़दूर हो जाता है। कारखानों के लिए, श्रम को बेचने के दूसरे अवसरों के लिए, वह शहरों की तरफ़ रुख करता है। कारखाने की वर्दी पहनने और साफा फैंकने के दृश्यों के ज़रिए शिवराम मज़दूरीकरण, शहरीकरण तथा इस प्रक्रिया में परंपराओं और मूल्यों में हो रहे मूक बदलावों की गज़ब की प्रतीकात्मकता रचते हैं।

जनता मज़दूर बनकर कारखाने में मशीन पर काम कर रही है। कठोर नियमित श्रम के कारण थकान और पीड़ा मे है। जनता इसके बावज़ूद भी बिना कुछ कहे काम करती रहे, विरोध ना करे इसके लिए व्यवस्था किस तरह धर्म-दर्शन, भाग्यवाद और पुनर्जन्म के सिद्धांत का सहारा लेती है, या यूं भी कहे यह धर्म-दर्शन किस तरह यथास्थिति और शोषण के अभ्यारण्यों को बनाए रखने के लिए व्यवस्था के लिए आधार प्रस्तुत करता है, किस तरह प्रचलित कर दिए गए इन विचारों के जुमले इन स्थितियों में व्यवस्था की मदद करते हैं, यह दिखाने के लिए शिवराम यहां पूंजीपति से यह संवाद कहलाते हैं:

“पीड़ा होती है जनता? तो पीड़ा सहने का अभ्यास करो। इसी में सद्‍गति है। सारे धर्मों का यही सार है जनता – सहनशील बनों ! संतोष करो ! परिश्रमी बनों ! भगवान से डरो ! भाग्य पर भरोसा रखो ! तुम्हारे इस जन्म के दुःख-सुख पूर्वजन्मों के फल हैं। इस जन्म में अच्छे कर्म करो, अपने कर्तव्यों का पालन करो। अगले जन्म में इसके सुफल तुम्हें प्राप्त होंगे। धर्मप्राण बनो जनता। इसी में कल्याण है।”

जनता की थकान और पीड़ाओं को देखते हुए पूंजीपति बात आगे बढ़ाता है और मायावाद तथा गीता के कर्मदर्शन का उपदेश करने लगता है: “यह जो तुम दुखी हो दरिद्र हो तो पूर्वजन्म के पापों के कारण। मैं जो सुखी और समृद्ध हूं तो पूर्वजन्म के पुण्यों के कारण। ईश्वर का विधान ही ऐसा है। जो भी हो रहा है, जो भी हुआ है उसी की मर्जी से हुआ, आगे जो भी होगा उसी की मर्जी से होगा। ईश्वर ही सत्य है, बाकी सब मिथ्या है। यह सब स्वप्न की तरह है। अतः निष्काम कर्म ही मुक्ति का मार्ग है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है – कर्मण्यवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचनः। काम किए जा…फल की इच्छा मत कर…काम किए जा…फल की इच्छा मत कर…”

इस दृश्य में पूंजीपति इस वाक्यांश को ताल में उच्चारित करने लगता है, जनता उसी ताल में मशीन पर काम करती है। पूंजीपति के उच्चारण की गति तीव्र और धीमी होने के अनुसार ही जनता के काम की गति भी तीव्र और धीमी होती है। जनता के हाथ से सिक्के झरने लगते हैं। पूंजीपति सिक्के बटोरने लगता है। श्रम और उसके शोषण के ज़रिए पूंजी के उत्पादन और पूंजीपति द्वारा उसे हथियाने का यह प्रतीकात्मक दृश्य बहुत ही नाटकीय प्रभाव छोड़ता है। इस प्रभाव के संप्रेषण को बढ़ाने के लिए शिवराम यहां पागल का प्रवेश करवाते हैं और उसके संवाद के ज़रिए बात को साफ़ करते हैं, साथ ही श्रम से विलगाव के अन्य शारीरिक प्रभावों को भी रेखांकित करते हैं:

“धन, सिक्के ! जनता की मेहनत से दौलत पैदा हुई और ये तोंदूमल लगा है इसे बटोरने। मेहनत जनता की दौलत तोंदूमल की…ह…ह…ह…ह…( पूजीपति से ) ऐ तोंदूमल उठ। चल इधर चल। तू भी काम कर। जनता की कमाई पर हाथ मत मार। अपनी मेहनत की खा। मेहनत के और भी कई फायदे हैं। मेहनत करेगा तो तेरी तोंद भी छंट जाएगी। डायबिटिज नहीं होगी। ब्लड़प्रेशर भी सही हो जाएगा और तेरा भेजा भी ठीक काम करेगा।…चल काम कर…”

पूंजीपति पुलिस को बुलाकर पागल को खदेड़ता है और पुलिस अधिकारी को बटोरी गई दौलत में से कुछ हिस्सा रिश्वत में देता है। इस तरह पूंजीपति और पुलिस के बीच की सांठगांठ को उजागर किया जाता है। जनता काम बंद कर देती है, और रोटी की मांग करती है। वह आठ रोटी मांगती है, पूंजीपति उसके सामने दो रोटी उछाल देता है और संतोषवादी दर्शन का उपदेश देता है, ‘झूठी बात…!…ले…रूखी-सूखी खायके ठंड़ा पानी पीव। देख पराई चूपड़ी मत ललचावे जीव…हह…हह…” इसके बाद जनता और रोटी मांगती है तो पूंजीपति उसे झिडकते हुए और काम करने, ओवरटाइम करने को कहता है। जनता और काम करती है, और पूंजी पैदा होती है, पूंजीपति उसे भी बटोर लेता है। पूंजीपति का संवाद देखिए, ‘आराम हराम है जनता। और रोटी के लिए और काम करो।’

जनता थक कर काम करने से मना कर देती है, और मांग रखती है कि भरपेट रोटी दो तभी काम करेंगे। यहां शिवराम काम बंद करने और मांग रखने के लिए जो दृश्य रचते हैं, वह हड़ताल की प्रतीकात्मकता के लिए है और उसे वह पागल के चरित्र के ज़रिए स्पष्ट भी करते चलते हैं। पूंजीपति पुलिस को बुलवाता है और जनता को संभालने के लिए कहता है। इस व्यवस्था में प्रचलित कई जुमलों के निहितार्थ पूंजीपति के पुलिस अधिकारी को कहे इस संवाद में खुलकर सामने आते हैं: “जनता हड़ताल कर रही है। जनता काम करने से इंकार कर रही है। पागल लोग जनता को भड़का रहे हैं। कानून व्यवस्था भंग हो रही है। उत्पादन में अव्यवस्था फैल रही है। राष्ट्र, देश, समाज, व्यवस्था, कौम सब ख़तरे में है। ऐसे में मत करो ऐसी-वैसी बात। कर्तव्य का पालन करो और याद रखो अपनी औकात। जनता को संभालो, संभालो जनता को।”

पुलिस मार-मार कर जनता और पागल दोनों को अधमरा कर देती है। जनता फिर से काम के लिए तैयार कर ली जाती है। प्रशासन का ऐलान होता है, स्थिति पूरी तरह नियंत्रण में है है। इस तरह शिवराम जनता के विरोधों और आंदोलनों तथा व्यवस्था द्वारा उनके बर्बर दमन की प्रतीकात्मकता रचते हैं।

इसके पश्चात शिवराम लोकतांत्रिक मूल्यों और सीमाओं के अंतर्गत प्रतिरोध और उनकी परिणतियों को दर्शाने के लिए अगले दृश्य रचते हैं, जनता अपनी शिकायत सरकार के दरबार में करती है। यहां सरकार और पूंजीपति के बीच के संवाद उनके बीच की सांठगांठ, चुनावी लोकतंत्र के सच, तथा अपनी सत्ता के हितार्थ जनता की एकता को तोडने और उसे दिग्भ्रमित बनाए रखने की आवश्यकता को उजागर करने के लिए महत्त्वपूर्ण हो उठते हैं, बानगी देखिए:

पूंजीपति: जनता काम करने से इन्कार करती है। उत्पादन ठप्प हो गया है। उत्पादन नहीं होगा तो मुनाफ़े का क्या होगा? मुनाफ़ा नहीं होगा तो चुनाव फंड का क्या होगा? आपकी कुर्सी का क्या होगा? देश का क्या होगा?
सरकार: लेकिन चुनाव के समय का तो ध्यान रखना चाहिए। हम चुनाव हार गए यो हमारा क्या होगा? और हम नहीं होंगे तो तुम्हारा क्या होगा? आप क्या सोचते हैं ये विरोधी दल आपकी वैतरणी पार करा देंगे और फिर कम्युनिस्ट भी तो आ सकते हैं।….तुम्हारी खातिर हमने विदेशी कंपनियों के लिए देश के सभी दरवाज़े खोल दिए। देश की स्वतंत्रता और संप्रभुता तक को दाव पर लगा दिया। देश को विदेशी कर्ज में डुबो दिया, और अब आप चुनाव के समय जनता को तंग कर रहे हैं।
पूंजीपति: अब ये जनता ऐसे काबू में नहीं रह सकेगी। सख्ती से पेश आना होगा। इसकी एकता को छिन्न-भिन्न करना होगा। इसे दिग्भ्रमित करना होगा। जनता को विद्रोह के लिए उकसाने वाले पागलों को ठिकाने लगाना होगा…संभालिए…अब जैसे भी हो जनता को संभालिए।

सरकार जनता को समझाने की कोशिश करती है, जनता फिर से काम करने लगती है फिर पूंजीपति और सरकार के बीच की सांठगांठ और सरकार के पाखण्डपूर्ण व्यवहार को देख-समझकर काम करने से मना कर देती है। सरकार के यह कहने पर कि ‘तुम पागल हो गई हो जनता’ जनता हुंकार कर कहती है: “हां, हम पागल हो गए हैं। ( दर्शकों से ) इनकी मर्जी मुताबिक पिसते रहो तो ठीक। दिन-रात भूखे-प्यासे खटते रहो तो ठीक। चुपचाप जुल्म सहते रहो तो ठीक। और जो कुछ बोलो, न्याय की गुहार करो, हक मांगो तो तुम पागल हो गई हो जनता, अरे, पागल हो गए हो तुम। ( लाठी खटकाती है )”

सरकार पुलिस को बुलाती है, जनता लाठी तानकर खड़ी हो जाती है। पुलिस जनता पर वार करने को उद्धत होती है, जनता रौद्र रूप धारण कर लेती है और ताबड़तोड़ लाठी चलाने लगती है, पागल भी डंडा लेकर जनता के साथ आ मिलता है। पुलिस भाग खड़ी होती है। सरकार और पूंजीपाति मिलिट्री को बुलाते है। जनता और पागल सरकार और पूंजीपति की ओर लपकते हैं, सेना आती है और गोलियां बरसाने लगती है। जनता धावा बोल देती है और दृश्यपटल से सभी को खदेड देती है। इस तरह विद्रोह के इस वितान के साथ नाटक समाप्त होता है। शिवराम इस शोषण की व्यवस्था से मुक्ति के स्वप्न, सचेतन रूप से जनता के विद्रोह के रूप में देखते हैं और जनवादी क्रांति के ज़रिए मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को खत्म किए जाने की वकालत करते हैं। अभी-अभी मरहूम हुए मशहूर जनकवि अदम गोंडवी के शब्दों में कहें तो: “जनता के पास एक ही चारा है बगावत, यह बात कह रहा हूं मैं होशोहवास में“।

इस तरह हम देखते हैं कि शिवराम का यह नाटक ‘जनता पागल हो गई है’ एक साथ कई सारी चीज़ों को समेटे हुए है। यह सामंती व्यवस्था से पूंजीवादी व्यवस्था में संक्रमण, सर्वहा्राकरण, शहरीकरण, आदि जैसी ऐतिहासिक प्रक्रियाओं की भौतिकवादी दृष्टिकोण से रखता है। सामाजिक परिस्थितियों तथा प्रवृत्तियों और सामाजिक शक्तियों के बीच संबंधों के द्वंदात्मक विश्लेषण को प्रकट करता है। यह जनता की पीड़ाओं तथा उसके शोषण को, पूंजीवादी-लोकतांत्रिक सरकारों के जनविरोधी चरित्र को, पूंजीपतियों द्वारा श्रम के दोहन, शोषण और सत्ता के साथ मिलकर पूंजी की लूट को, राज्य और पुलिसिया तंत्र की सांठगांठों और बर्बरता को, व्यवस्था विरोधों के दमन को सामने लाता है और साथ ही जनता तथा जनपक्षकारी शक्तियों के प्रतिरोधों, संघर्षों, उनकी मुक्तिकामी इच्छाओं को भी सकारात्मक रूप में अभिव्यक्ति देता है। इसमें धार्मिक-भाववादी दर्शन, उसके जनविरोधी चरित्र और सत्ता के साथ नाभिनालबद्धता को भी चुटीले ढ़ंग से प्रस्तुत किया गया है। यह नाटक लोक परंपरा से जुड़ते हुए नौटंकी शैली तथा कवितामयी संवादों, हास्य और नाटकीयता से भरपूर छोटे-छोटे प्रतीकात्मक दृश्यों, पैने और सटीक व्यंग्यों के ज़रिए सीधे दर्शकों से संवाद करता, उनके सामने व्यवस्था का पूरा वितान खोलता चलता है।

छोटे कलेवर में विस्तृत और व्यापक फलक पर गागर में सागर भरने वाली यही सशक्त अंतर्वस्तु और सटीक अभिव्यक्ति, इस नुक्कड़ नाटक को जनता के संघर्षों से, उसकी मुक्तिकामी आकांक्षाओं से जोडती है। इसको करने वाले नाट्यकर्मियों, जनसंघर्षकारी जत्थों के लिए हौसले का काम करती है, उनके लक्ष्यों को स्पष्ट रूप से जनता के सामने रखने में उनकी मदद करती है। यही बात इसे इसके लिखे जाने से लेकर अभी तक लोकप्रिय बनाए हुए है, कालजयी रचना बनाए हुए है।

-रवि कुमार 

(साभार : http://ravikumarswarnkar.wordpress.com इस नाटक की पीडीएफ़ फाइल इस लिंक से डाउनलोड की जा सकती है – ‘जनता पागल हो गई है’ लेखक-शिवराम janta pagal ho gayi hai.pdf 1.4 MB )

1 comment:

  1. भाव पूर्ण रचना... कभी आना... http://www.kuldeepkikavita.blogspot.com आप का स्वागत है।

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