Tuesday, November 27, 2012

ब्रह्म का स्वांग नाटक पर टिप्पणी

आइने में चेहरा दिखाता 'ब्रह्म का स्वांग'
प्रेमचंद की कहानी ब्रह्म का स्वांग पर आधारित नाटक रायगढ़ इप्टा के उन्नीसवें नाट्य समारोह की पहली प्रस्तुति रही.  रमेश उपाध्याय द्वारा नाट्य रूपांतरित इस नाटक का दर्शकों ने खुले दिल से स्वागत किया. कला जीवन की समस्त संवेदनाओं को स्पर्श करती ऐसी नदी है जो अविराम अपनी अजस्त्र धारा से हमें भिगोती रहती है. इस नदी में जब रंगकर्म की लहरों में हम गोते लगाते हैं तो नाटक के मनोरंजन पक्ष के साथ-साथ उसके वैचारिक पक्ष के संप्रेषण की गहराई का भी आभास होता है. रंगकर्म की ताकत का अनुभव देखकर ही किया जा सकता है इसे शब्दों में बांध न पाने की सामर्थ्य हमारी सीमा की तरफ इशारा करती है फिर भी अनुभूतियों को शब्द देने पर हम असल में एक बार फिर नाटक को अपनी स्मृति में जी रहे होते हैं, देख रहे होते हैं.

ब्राह्मणवादी विचारों और परंपराओं के पोषक समाज की जड़ों को खोद सच्चाई दिखलाता, ऊपर से दिखते सुंदर-सभ्य समाज की मन की कुरुपता की पोल खोलता, स्त्रियों की स्वतंत्रता को अपनी इच्छा अनुसार कसते-ढीलते तथाकथित बुद्धिजीवी पुरुष के चेहरे को उघाड़ता नाटक है ब्रह्म का स्वांग. एक तरफ जहां जाति-वर्गभेद को उभारता स्वर हमें अपना ही चेहरा आईने में दिखाता है वहीं यह नाटक स्पष्ट रूप से स्त्री-पुरुष के मध्य पसरी अराजकता की साम्राज्य की चीख-पुकार से विचलित करता दर्शकदीर्घा में अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज़ करता है.  संवेदना के महीन तागों में समाज की कुरीतियों को हम मनुष्य समाज ने ही प्रतिष्ठित किया. और उसके अंतहीन सिलसिले को शाश्वत सत्य मान सहज स्वीकार लेने की चालाकी को सदियों से छिपाने की कला को समृद्ध किया है. उन्हें कुरेद-कुरेद कर दरार पैदाकर सुराख़ बना स्पष्ट दिखाने की सफल कोशिश है नाटक ब्रह्म का स्वांग.

नाटक की पूरी कहानी पारंपरिक अनुशासन में पढी-लिखी वृंदा और वकील पति के इर्द-गिर्द घूमती है. पेशे की वजह से हर धर्म-जाति के लोगों के साथ खाने-पीने की सहजता को जीना वृंदा के पति की ओढी हुई समझदारी है जिसे वृंदा समझ नहीं पाती है सो अपने पिता को अपने मन की बात कहती है. पिता के आगमन पर अपने पति द्वारा दिया गया जीवन में समानता का वक्तव्य वृंदा को जीवन के ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा करता है जहां से कहानी को नया रोचक मोड़ मिलता है. वृंदा जैसी करनी वैसी भरनी पर विश्वास करने वाली स्त्री है सो वो समाज में समानता के उदबोधन से प्रेरित हो अपने जीवन के साथ-साथ परिवार में परिवर्तन आरंभ कर देती है जिसके प्रभाव से पति के असल चेहरे का पर्दाफाश होता है और उसके पुरुष अहं का फन उठ खड़ा होता है जिसके प्रतिकार में वृंदा साफ़ तौर पर मन की बात यूं कहती है जैसे वह समाज की हर स्त्री के मन के बर्फीले मौन को ऊष्मा दे रही हो.

अब आज की प्रस्तुति के बारे में बात की जाये तो इस नाटक में एक ओर जहां सूत्रधार समय के सूत्र को पिरोता वर्तमान को कहता है वहीं कहानी आगे बढाते वृंदा और उसके पति जीवन की दबी-छिपी सच्चाईयों की ऐसी छवियां दिखाते हैं जिन्हें देख हम स्वयं से प्रश्न न करें, स्वयं को न टटोलें, ऐसा असंभव है. हर दृश्य हमारे स्व को ललकारता जीवन के अखाड़े में उतरने को लालायित करता है. हमें अपने जीवन मूल्यों, दृष्टि, परंपराओं, शिक्षा, लिंग और वर्गभेद को स्वस्थ दृष्टि से देखने का जज़्बा देती है प्रेमचंद की यह कहानी.

आज की प्रस्तुति कुछ कारणों से विशेष रही जिसका उल्लेख अपेक्षित है. आज इस नाटक के निर्देशक जुगल किशोरजी को रायगढ़ इप्टा ने चतुर्थ शरदचंद्र वैरागकर सम्मान प्रदान किया. वहीं आज इसका ५२१ वां मंचन था जो आज के संस्कृति विरोधी समय में एक बड़ी उपलब्धि है. दर्शकों से बात करता....सोचने-विचारने के लिये सरल-सहज रूप में संप्रेषण, संवादों की बुनावट और सादगी पूर्ण प्रस्तुति इस नाटक की ख़ासियत रही. सामन्यतः संगीत किसी नाटक से ऐसे जुड़ा होता है जिसके बगैर हम किसी प्रस्तुति की सार्थकता पर प्रश्नचिन्ह लगा सकते हैं पर आज की प्रस्तुति संगीत और मेकअप के बिना भी अपने उद्देश्य में सफल रही जबकि अभिनय की दृष्टि से यह औसत ही रहा. सूत्रधार की ऊर्जा ने बांधा वहीं वृंदा के रोल में उतरी वैदा जी के इस नाटक के पहले प्रदर्शन से जुड़े होने की जानकारी ने सुखद अनुभूति दी. आज के समय में किसी नाटक के लगातार प्रदर्शन होने पर भी अच्छे से अच्छे अभिनेता अक्सर समय की नब्ज़ को नाप अपनी उपस्थिति अथवा अनुपस्थिति तय करते हैं ऐसे में वैदा जी की ऐसी प्रतिबद्धता अभिनय जगत के लिये मिसाल है उनकी प्रतिबद्धता को हमारा सलाम!!

यह कचोटने वाला पहलू है कि प्रेमचंद ने समाज में व्याप्त सच्चाई को कहानी में उतारा. तब और आज के समाज में कोई ख़ास अंतर नहीं आया है तब भी समाज ऐसा ही था और आज भी कमोबेश ऐसा ही है यह ब्रह्म के स्वांग नाटक को देख सहज ही महसूस किया जा सकता. कहा जाता है और यह सच भी है कि वही बातें, विचार और कला ज़िंदा रहती हैं जिनमें अपने समय और समाज को देखने का माद्दा हो.  दैनंदिन जीवन में देखना हमारे विस्मय और औत्सुक्य से जुड़ा है न जाने हम कितनी चीज़ें न जाने कितनी सैकड़ों-हज़ारों बार देखते हैं पर किसी क्षण विशेष में उन्हें देखने पर हमारी संवेदना के सभी तार स्वर में बजते है. संवेदना की धरातल पर यह नाटक हमें हमारे भीतर ले जाकर अतीत से वर्तमान तक का सफ़र तय कराता है और यही बिंदु इस कहानी के मंचन की सार्वकालिकता और प्रासंगिकता को सिद्ध करती है इस नाटक के सन १९८० से चले आ रहे प्रदर्शन और उसकी सफलता के लिये लखनऊ इप्टा और निर्देशक को साधुवाद.

अर्पिता श्रीवास्तव
स्रोत : iptaraigarh.org

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