Monday, November 26, 2012

प्रलेस, म.प्र. के 11 वें राज्य सम्मेलन की रिपोर्ट-1

मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के
11वें राज्य सम्मेलन की विस्तृत रिपोर्ट
17-18 नवंबर, 2012, सागर (मध्यप्रदेश)

माज में जाति और वर्ण व्यवस्था जितनी पुरानी है, उसका विरोध भी उतना ही पुराना है। पूंजीवाद का विकास भ्रम, भूत के पांव की तरह है। विकास के भ्रम में हम विनाश को बढ़ावा दे रहे हैं। भारत में शोषण का मूल ढांचा सामंतवाद है, इस पर प्रहार करने से, वायवीय ढांचा, यानी पूंजीवाद अपने आप टूट जाएगा। यह बात बनारस से आए प्रो चौथीराम यादव ने मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के 11वें राज्य सम्मेलन में कही।
17-18 नवंबर को सागर में हुए इस दो दिवसीय सम्मेलन के दूसरे दिन प्रदेश की नई कार्यकारिणी गठित हुई। कार्यकारिणी में सर्वसम्मति से वसुधा के संपादक और वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेन्द्र शर्मा को अध्यक्ष एवं सामाजिक कार्यकर्ता एवं कवि श्री विनीत तिवारी को महासचिव चुना गया। दो दिवसीय सम्मेलन के दौरान तीन सत्रों में देश-प्रदेश के करीब 200 कवि, कथाकार, पत्रकार, रंगकर्मी शरीक हुए। सम्मेलन में मप्र प्रलेस की 21 ईकाइयों ने शिरकत की। इस दौरान उद्घाटन सत्र से पूर्व सभी रचनाकारों ने शहर में एक लंबी रैली निकाली, जिसमें जनगीत और नारे लगाए गए। स्थानीय लोगों ने भी लेखकों के साथ उत्साह के साथ हिस्सेदारी की। विभिन्न सत्रों की शुरुआत में अशोकनगर इप्टा, दमोह इप्टा एवं अन्य साथियों ने जनगीत गाए। सम्मेलन के दौरान दो लघु फिल्म ‘‘गांव छोड़ब नाही’’ और ‘‘अमेरिका-अमेरिका’’ का प्रदर्शन और प्रलेसं की विभिन्न इकाइयों से संबंद्ध 12 पुस्तकों एवं दो पत्रिकाओं का विमोचन भी किया गया। समापन अवसर पर हुए काव्यपाठ का संयोजन प्रख्यात कवि कुमार अंबुज ने किया। सम्मेलन के दौरान प्रख्यात चित्रकार पंकज दीक्षित, मुकेश बिजौले और अशोक दुबे की ओर से चित्र प्रदर्शनी लगाई गई थी।

सम्मेलन के दौरान तीन सत्रों में विभिन्न विषयों पर विमर्श किया गया। विमर्श के दौरान मप्र प्रलेस के महासचिव श्री विनीत तिवारी ने कहा कि एक समय में ट्रेड यूनियन, किसान संगठन आदि ने लेखक संगठनों को आगे बढ़ाया था, आज वे खतरे में हैं, तो लेखक संगठनों की जिम्मेदारी बनती है कि वे उन्हें मजबूत करें, उनके बीच जाएं।

प्रख्यात कथाकार सुश्री नूर जहीर ने कहा कि आदिवासी साहित्य लिखा जाए, पढ़ा जाए इस बात का सभी समर्थन करते हैं, लेकिन सवाल यह भी है कि क्या हममें उसे उच्च और महान मानने का साहस भी है?
सम्मेलन में वरिष्ठ कवि श्री नरेश सक्सैना ने कहा कि आज किताबों की बिक्री घट रही है। हिंदी पढ़ने की प्रवृत्ति कम होते जाना एक बड़ा खतरा है, और इसके लिए लेखकों को एकजुट प्रयास करने चाहिए।
17 नवंबर को सम्मेलन के पहले सत्र में ‘‘वंचितों का समाज और साहित्य’’ विषय पर सुप्रसिद्ध कथाकर सुश्री नूर जहीर की अध्यक्षता में विमर्श किया गया। इस सत्र में मुख्य वक्तव्य महाराष्ट्र के नंदुरबार से आए कवि श्री वाहरू सोनवणे ने दिया। इसके अलावा वरिष्ठ आलोचक प्रो चौथीराम यादव, वरिष्ठ कवि श्री राजेश जोशी, उद्भावना के संपादक श्री अजेय कुमार, मप्र प्रलेसं के महासचिव श्री विनीत तिवारी, श्री ओमप्रकाश शर्मा, श्री महेंद्र सिंह, सुश्री सुसंस्कृति परिहार एवं श्री अभय नेमा ने भी संबोधित किया। सत्र का संचालन श्री तरूण गुहा नियोगी ने किया।

इसी दिन शाम में दूसरे और औपचारिक उद्घाटन सत्र में ‘‘शोषण के नये चेहरे और विकल्प की संस्कृति’’ विषय पर विमर्श किया गया। इस सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ आलोचक प्रो चौथीराम यादव ने की एवं आधार वक्तव्य प्रलेसं के राष्ट्रीय महासचिव डॉ अली जावेद ने दिया। सत्र को जनवादी लेखक संघ मध्यप्रदेश के सचिव श्री राम प्रकाश त्रिपाठी, जनसंस्कृति मंच के राष्ट्रीय सह सचिव सुधीर सुमन, प्रलेसं के राष्ट्रीय सचिव मंडल के सदस्य श्री राजेन्द्र राजन एवं प्रो चौथीराम यादव ने भी संबोधित किया। सत्र का संचालन श्री विनीत तिवारी ने किया।

18 नवंबर को ‘‘प्रगतिशील सांस्कृतिक संगठनों की जरूरत और उनके कार्यभार’’ विषय पर विमर्श किया गया। इस सत्र की अध्यक्षता श्री राजेंद्र राजन ने की। सत्र को जलेस मप्र के सचिव श्री रामप्रकाश त्रिपाठी, मप्र प्रलेसं के अध्यक्ष मंडल के सदस्य और प्रख्यात कवि कुमार अंबुज, उद्भावना के संपादक और जलेस के महासचिव श्री अजेय कुमार, वरिष्ठ कवि श्री नरेश सक्सैना, श्री कुंदन सिंह परिहार, श्री बहादुर सिंह परमार, श्री संतोष खरे, श्री सत्यम पांडे, श्री दिनेश भट्ट, श्री पंकज दीक्षित, श्री ओमप्रकाश शर्मा, श्री गफूर तायर, श्री अरविंद श्रीवास्तव, श्री महेंद्र फुसकेले, श्री अश्विनी दुबे, श्री हरनाम सिंह, श्री वीएस नायक, श्री अभिषेक तिवारी और सचिन श्रीवास्तव  ने भी संबोधित किया। सत्र का संचालन श्री विनीत तिवारी ने किया।

पहला सत्र: 17 नवंबर सुबह 10 बजे से दोपहर 2 बजे तक
विषय: वंचितों का समाज और साहित्य

कार्यक्रम की शुरूआत में अशोकनगर इप्टा के साथी हरिओम राजोरिया, श्याम मुदगिल, निवेदिता शर्मा, सीमा राजोरिया, राजेश खैरा और विशंभर भास्कर ने कबीर के गीत गाए। हारमोनियम पर सुश्री रामदुलारी शर्मा और तबले पर सिद्धार्थ शर्मा ने संगत की।

पहले सत्र की शुरूआत करते हुए श्री वाहरू सोनवणे ने कहा कि वंचित समाज के बारे में बात करते हुए हमें कुछ सवालों से गुजरना पड़ता है। वंचित कौन हैं? कहां रहते हैं? वे क्यों वंचित हैं? इन सवालों के साथ जो जवाब उभरते हैं, वे साफ करते हैं कि वर्ग, जाति और पुरुष प्रधानता वंचितों के दर्द की प्रमुख वजहें हैं। इन तीन कारणों से उनके इंसान होने को भी नकारा जाता है।

उन्होंने कहा कि हम जब आदिवासी की बात करते हैं, तो बड़े गर्व से कहते हैं कि आदिवासी इस धरती के पहले मानव थे। आदिवासी के संदर्भ में यह गर्व की बात नहीं है, गर्व की बात तो वे जीवन मूल्य हैं, जो आदिवासी संस्कृति में हैं। यह समूह की संस्कृति है, प्रकृति की गति से एकाकार होने की संस्कृति है, और यही गर्व करने लायक बात भी है। मानव जीवन में शोषण की संस्कृति का मुख्य आधार व्यक्तिगत जीवनशैली है। आज पूंजीवादी समाज में इसे ही बढ़ावा दिया जा रहा है, और मनुष्य भी इस जाल में फंसता चला जा रहा है। विकास की प्रक्रिया में समूह की जिंदगी को व्यक्तिगत उपलब्धियों के लिए छोड़ दिया गया, इसी से वंचित समाज का निर्माण भी हुआ। सामूहिक जीवन में वंचित समाज का निर्माण नहीं हुआ है। यह बाद में हुआ।
उन्होंने कहा कि आज लेखन का सबसे जरूरी सवाल है कि हम किसके लिए लिखते हैं। यह सवाल हर लेखक को अपने आप से पूछना होगा। वह समूह के लिए लिखता है, उसके दर्द को समझने और समझाने के लिए लिखता है, या फिर व्यक्तिगत उपलब्धि के लिए लिखता है।

श्री सोनवणे ने कहा कि आज साहित्य के साथ एक समस्या यह है कि जो साहित्य लिपिबद्ध नहीं है, उस पर बात ही नहीं हो रही है। आदिवासी समाज का विशाल साहित्य लिपिबद्ध ही नहीं हुआ है। आज साहित्यकारों का दायित्व है कि वे आदिवासी साहित्य को लिपिबद्ध करें, इसके लिए सामूहिक प्रयास ही कारगर होंगे।
उन्होंने कहा कि आदिवासियों के साथ नाइंसाफी हर जगह हुई है। साहित्य में तो उन्हें राक्षस की संज्ञा तक दी गई। आखिर यह देखना चाहिए कि जो ऋषि मुनि जंगल में यज्ञ-हवन करते थे, उसे वे लोग क्यों नहीं होने देते थे। असल में तो जंगल के मूल निवासियों के जीवन पर वह पहला अतिक्रमण था, जो उन्हें जंगल से बेदखल करके किया जा रहा था। आदिवासियों के पास न तो सेना थी, और न ही संसाधन, तो वे यज्ञ-हवन में विघ्न डालकर ही अपना गुस्सा जाहिर करते थे। इन्हीं सुदूर प्रदेशों के राजाओं को, हमारे साहित्य ने राक्षस बना दिया। वे नरभक्षी नहीं थे, उनके भी बच्चे थे, जिन्हें वे पालते-पोसते थे। उन्होंने कहा कि आदिवासियों के प्रति हमारे साहित्य का नजरिया गलत रहा है। आदिवासियों से अन्याय के उदाहरणों की भरमार है, एकलव्य तो महज उसकी शुरूआत है। एकलव्य से लेकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम तक, ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं। गांधी का जिक्र आता है, तिलक का आता है, बोस का भी स्वतंत्रता संग्राम में योगदान याद किया जाता है, लेकिन आदिवासी समाज उस समय क्या कर रहा था, इसके प्रति इतिहास चुप है? ऐसा क्यों है? इसे समझना चाहिए।
उन्होंने कहा कि आदिवासी समाज के गीतों में साहित्य के जो सरोकार दिखाई देते हैं, वह समतामूलक समाज के सरोकार हैं। इनमें दहेज विरोध भी है, और संघर्ष की बात भी है। वंचित समाज के प्रति हमे अपने दृष्टिकोण को बदलना होगा, जो सामंती मूल्य दिमाग में पैठ बना चुके हैं, उनसे लड़ना होगा, उन्हें पहचानना होगा। जीवन व्यवहार में मूल्यों को अहमियत देकर ही हम वंचित समाज के पक्ष में खड़े हो सकते हैं।

बनारस से आए प्रो चौथीराम यादव ने कहा कि हमारे समाज में जाति और वर्ण व्यवस्था जितनी पुरानी है, उसका विरोध भी उतना ही पुराना है। साहित्य से लेकर समाज तक सामंती-ब्राम्हणवादी व्यवस्था का लगातार विरोध होता रहा है। कबीर ने 600 साल पहले वंचितों के दुख के लिए जिम्मेदार लोगों की शिनाख्त की थी, यह लोग थे- पंडे, पुरोहित, मुल्ला और मौलवी। कबीर ने बताया कि शोषण आधारित व्यवस्था को यही लोग पुष्ट करते हैं। साथ ही यह भी साफ किया कि शोषण का विरोध करने वालों को समाज से ही लगातार प्रताड़ित होना पड़ता है। उन्होंने कहा कि 600 साल बाद धूमिल ने अपने समय के शोषक वर्ग की पहचान की। फिर नागार्जुन ने भी उनकी शिनाख्त की। नागार्जुन ने बताया कि कैसे संसद में पहुंचने के बाद जनता के लोगों का भी चरित्र बदल जाता है। वे उसी व्यवस्था में शामिल हो जाते हैं, जो अन्याय, शोषण को बढ़ाती है। 70 के दशक में नागार्जुन ने लिखा- ‘‘आग उगलते थे, जो साथी, उनके चिकने गाल हो गए...’’

उन्होंने कहा कि जाति और लिंग भेद शोषण के प्रमुख हथियार हैं। लिंग भेद से स्त्री पर पुरुष की श्रेष्ठता को, और जाति भेद से पुरुष पर पुरुष की श्रेष्ठता पर आधारित शोषण को खाद-पानी मिलता है। स्त्री के शोषण के लिए अन्य तरह से भी मजबूत किया गया, उसके सौंदर्य की प्रशंसा और पतिव्रता के खोल बना दिये गए।
प्रो यादव ने कहा कि सवाल उठता है कि आखिर वह कौन सी भारतीय संस्कृति है, जो पुरुष को हर तरह की स्वछंदता देती है, और स्त्री पर सभी प्रकार से नियंत्रित करती है। मानसिकता में बदलाव लाए बिना हम स्त्री के शोषण और उसके दुख को नहीं समझ सकते।

उन्होंने कहा कि दलित साहित्य दो तरह का है, एक जो दलित खुद लिख रहे हैं, दूसरा गैर-दलितों की ओर से लिखा गया साहित्य। गैर-दलितों के दलित लेखन का केंद्र प्रेमचंद हैं। प्रेमचंद की परंपरा पुरानी है, वह सुदीर्घ है, लेकिन दलितों के लेखन का इतिहास महज 30 साल का है। इसे यह कहकर खारिज करने की कोशिश की जाती है कि इसमें तो सिर्फ विवरण हैं, महज आत्मकथाएं हैं, लेकिन यह आधा सच है। हैरत और खुशी इस बात की है कि महज 3 दशक में ही दलित लेखकों ने खूब लिखा है, वे अपना सौंदर्यशास्त्र भी गढ़ रहे हैं। तीन दशक में आलोचना की तीन-तीन महत्वपूर्ण किताबें आ चुकीं हैं। जिस समाज को पढ़ने से ही वंचित किया गया था, उसके लेखन की यह गति आश्वस्त करती है। दलित साहित्कार आकांक्षी भी नहीं है, उसे अपना दुख कहना है, अपने समाज के दर्द को सामने लाना है। यह वह बखूबी कर रहा है।

उन्होंने कहा कि दलित समाज ने हाल ही में एफडीआई का भी समर्थन किया है, संभवतः इसके पीछे वजह यही है कि दलित समाज में पूंजीवादी-भूमंडलीकरण का शोषण उतना नहीं है, जितना सामंती शोषण है। यह जो आंतरिक औपनिवेशवाद है, यानी सामंती औपनिवेशवाद, यह दलितों का बड़ा शत्रु है। स्त्री को दोयम दर्जे की नागरिक समझना भी इसी सामंती औपनिवेशवाद की देन है। इस तरह देखें, तो दलित-स्त्री समाज दोहरी गुलामी से पीड़ित रहा है। साम्राज्यवादी और सामंती गुलामी से। भारतीय समाज में इस मूल ढांचे, सामंतवाद पर प्रहार करने से, वायवीय ढांचा, जो पूंजीवाद का है, वह अपने आप टूट जाएगा।

वरिष्ठ कवि श्री राजेश जोशी ने कहा कि 80 के दशक के उत्तरार्ध और 90 के पूर्वार्ध में पांच घटनाएं एक साथ हुईं। सोवियत संघ का विघटन, नई अर्थ नीति, नई तकनीक, मुक्त बाजार और अस्मिता विमर्श का उभार। इसी दौरान विचारधारात्मक विमर्श कम होते गए, और उनकी जगह अस्मिता विमर्श ने ले ली। इस तरह अस्मिता विमर्श, विचारधारात्मक विमर्श का स्थानापन्न बना। इस बदलाव पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। अस्मिता विमर्श के बारे में बात करते हुए या तो हम तुष्टिकरण करते हैं, या फिर उसके सुर में सुर मिलाने लगते हैं। यह दोनों ही स्थितियां खतरनाक हैं।

उन्होंने कहा कि अस्मिता विमर्श में यह बात दिखाई देती है कि स्त्री, दलित, आदिवासी जैसे मुद्दों पर मार्क्सवादी चिंतन ने सवाल ही नहीं किया है? यहां रोजा लिक्जम्बर्ग और लेनिन के बीच हुए पत्र व्यवहार और क्लारा जेटकिन तक के विमर्श को भुला दिया जाता है। 15वीं सदी में जो कबीर का काल है, वही काल समाज में कारीगर जातियों के उदय का भी वक्त है। इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि समाज में उस समय छोटी-छोटी कारीगर जातियां बाजार में जगह बना रही थीं। यह महत्वपूर्ण सवाल है।

उन्होंने कहा कि साथ ही एक और बात पर गौर करने की जरूरत है। हिंदी का जो दलित विमर्श है, उसका राजनीति से सीधा जुड़ाव नहीं है। उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति का सत्ता तक पहुंचने के बावजूद दलित साहित्य की अलग धारा है। जबकि मराठी में ऐसा नहीं है। मराठी में दलित साहित्य और राजनीति के बीच रिश्ता रहा है। इस रिश्ते में मार्क्सवादी साहित्यकार किनारे कर दिए गए और अंबेडकरवादी सामने आए। देखना चाहिए कि आखिर उनकी परिणति कहां हुई, कुछ शिवसेना में चले गए और फैलोशिप में बिखर गए। नामदेव ढसाल का नाम जिस तेजी से उभरा और फिर उनका हश्र हमारे सामने है, यह राजनीति क्यों हुई? इस सवाल पर भी गौर करना चाहिए।

उन्होंने कहा कि इसी के समानांतर दलित साहित्य के दिग्गज आलोचक डॉ धर्मवीर अपना रचनाकर्म कर रहे थे। उनके निशाने पर मुख्यतः प्रेमचंद, हजारी प्रसाद द्विवेदी और डॉ रामविलास शर्मा रहे। ये तीनों ही मूलतः वाम विचार के लेखक हैं, इस तरह वाम वैचारिकी का विरोध भी अपने आप में एक सवाल है।
श्री जोशी ने कहा कि इन सवालों के साथ देखें तो लगता है कि अस्मिता विमर्श बेहद खतरनाक बिंदू पर आ गए हैं। वे कभी भी समाज को बदलने की बड़ी राजनीति का हिस्सा बने हों, ऐसा दिखाई नहीं देता है। ऐसा हुआ भी नहीं है। इन सवालों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।
श्री ओमप्रकाश शर्मा ने कहा कि आज जीवन मूल्य बदल रहे हैं, इसके साथ ही दलित, स्त्री प्रश्न भी उभर रहे हैं। इन पर तथ्यात्मक दृष्टि से विचार करना होगा। श्री महेंद्र सिंह ने कहा कि हालिया लेखन में कृषि और मजदूर समाज हाशिए पर डाले जा रहे हैं। एक वायवीय प्रणाली विकसित हो रही है, जिसमें मूल मुद्दे बेहद सफाई से पीछे धकेले जा रहे हैं। मूल मुद्दा किसान-मजदूरों का है, जबकि उनके बारे में लिखे जा रहे साहित्य की मात्रा बेहद कम है। आज किसान-मजदूरों का बहुसंख्यक समाज निहत्था अपनी लड़ाई लड़ रहा है, लेखकों से यह अपेक्षा की जानी चाहिए कि वे उनके अस्त्र बनें और लड़ाई में साझेदारी करें।

सुश्री सुसंस्कृति परिहार ने कहा कि बुंदेली समाज भी आदिवासी समाज की ही तरह लोक से परिपूर्ण है। वंचितों की मुक्ति की बात करते हुए अपने घर से ही इसकी शुरूआत करनी होगी। अपनी लड़ाई कोई दूसरा नहीं लड़ सकता, इसलिए स्त्रियों को अपना लेखन, अपनी बात स्वयं करनी होगी। स्त्रियों को आदिवासी समाज से इसकी प्रेरणा लेनी चाहिए।
श्री अभय नेमा विभिन्न राजनीतिक उदाहरणों के तहत स्त्री, दलित और आदिवासी आंदोलनों के अंतर्द्वंद्व सामने रखे। उन्होंने कहा कि आदिवासी समुदाय में उप समूहों का लोप हो रहा है, उनकी पहचान मिट रही है। महाराष्ट्र में दलित आंदोलन मजबूत रहा है, उसकी राजनीति से भी संबंद्धता है, लेकिन वहां कोई भी दलित सत्ता में नहीं है।

श्री योगेश दीवान ने कहा कि वंचित तबकों की जो लड़ाई है, उसका आर्थिक नजरिया अब तक विकसित नहीं हो सका है? उन्होंने सवाल उठाया कि यह महज पहचान की ही लड़ाई क्यों बनी रह गई। उन्होंने कहा कि अस्मिता तोड़ने का काम करती है। देश में अलग-अलग अस्मिताओं की लड़ाई चल रही है, जबकि मूल सवाल भिन्न है। खदान, जमीन के सवालों को केंद्र में लाकर अस्मिता संघर्षों को एक साथ लाया जा सकता है, जो बड़े बदलाव की भूमिका तैयार कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि पहचान की लड़ाई में एक किस्म की कट्टरता भी होती है, यह गर्व की भाषा को प्रश्रय देती है, जो अन्य सवालों को गौड़ कर देती है।  यहां समझना होगा कि विस्थापित की पहचान विस्थापित क्यों नहीं है, या फिर मजदूर की पहचान मजदूर ही क्यों नहीं है। अस्मिता संघर्ष को वर्ग की लड़ाई से जोड़ना आज का प्रमुख कार्यभार है।

उद्भावना के संपादक श्री अजेय कुमार ने दक्षिण अफ्रीका का उदाहरण देते हुए बताया कि रंग भेद की लड़ाई ने भी वर्ग भेद को नहीं मिटाया है। आज भी अफ्रीका में बाजार, अर्थ, और राजनीति पर गोरों का ही कब्जा है। उन्होंने 1952 के तेलंगाना का उदाहरण देते हुए कहा कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और डॉ अंबेडकर ने कम्यूनिस्ट सरकार की जमीन बांटने की मुहिम को अंजाम तक नहीं पहुंचने दिया। उन्होंने कहा कि हमारे संविधान में भी राइट टू प्रापर्टी है, लेकिन राइट टू एजुकेशन राइट टू फूड, राइट टू हाउसिंग नहीं है। उन्होंने कहा कि कमाई के साधनों का जब तक सही बंटवारा नहीं होता, तब तक वर्ण भेद की लड़ाई का कोई अर्थ नहीं है। वर्ग की लड़ाई के जरिए ही वंचित समूहों की लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है।
प्रलेस मप्र के महासचिव श्री विनीत तिवारी ने कहा कि साहित्य के जरिये वंचितों से संवेदनात्मक समन्वय कायम करना होगा, और लेखक समुदाय को वंचितों के साथ जीवंत रिश्ता बनाना होगा। सैद्धांतिकी को इस समाज के अनुभवों के भीतर रिश्ता खोजना जरूरी है। यह हमारे समाज का सच है कि यहां अस्मिताएं हैं, उन्हें नकारा नहीं जा सकता। अस्मिताओं के संघर्ष का गलत इस्तेमाल होने के खतरे तो बने रहेंगे, यह हमें तय करना है कि इस संघर्ष के सहभागी कैसे बनें, जिससे कि शोषण के दायरे सिमट सकें। अस्मिता संघर्ष का इस्तेमाल पूंजीवाद अपने ढंग से करता रहा है, और कर रहा है। जरूरत इस बात की है कि हम अपने सवालों के साथ वंचितों के बीच जायें और वहीं उनके जवाब खोजें।

अध्यक्षीय भाषण में प्रख्यात कथाकार सुश्री नूर जहीर ने कहा कि आज हाशिये के लोगों की परिभाषा बदलने की जरूरत है। वंचितों का दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है, उनका शोषण करने के तरीके भी बदलते जा रहे हैं। नए तरीकों में कम लोग ज्यादा लोगों का शोषण कर रहे हैं, वंचितों की संपत्ति पर अधिकार रखने वाला समूह, जो पहले ही मुट्ठी भर था, शोषण के नए औजारों के साथ और कम होता जा रहा है। यानी जो खाई थी, उसके एक तरफ दायरा बढ़ रहा है, तो दूसरी तरफ लगातार कम हो रहा है। वंचितों की संपत्ति पर कम से कम लोगों का अधिकार शोषण को अधिक भयावह बना रहा है। पूंजीवाद अपने ढंग से यह शोषण कर रहा है। शहरी जिंदगी में अलगाववाद के जरिये समूहों को भी तोड़ा जा रहा है।

उन्होंने उदाहरण के साथ बताया कि कैसे पहले सामूहिक उत्सवों में ज्यादा से ज्यादा लोग शरीक होते थे, जो अब एक बिल्डिंग या एक घर तक ही सीमित हो गए हैं। त्यौहार मनाने वाले समूह के सदस्य भी सीमित होते जा रहे हैं। पूरे समाज के एक साथ उत्सव मनाने की परंपरा को छोटे-छोटे समूहों में बांट दिया गया है।
उन्होंने हाल में हाजी अली की दरगाह पर महिलाओं के प्रतिबंध का उदाहरण देते हुए बताया कि स्त्रियों के मिलने-जुलने के स्थानों को भी लगातार सीमित किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि भाषाओं के साथ भी यही हो रहा है, उर्दू जो साझा सांस्कृत की, इस्मत और मंटो की भाषा थी, उसे आज मदरसों की भाषा बना दिया गया है। उन्होंने सवाल उठाया कि क्यों मुसलमानों की पहचान बुरका है?

उन्होंने कहा कि आदिवासी साहित्य लिखा जाए, पढ़ा जाए इस बात का सभी समर्थन करते हैं, लेकिन सवाल यह भी है कि क्या हममें उसे उच्च और महान मानने का साहस भी है? उन्होंने एक किन्नौरी कहानी का उदाहरण देते हुए बताया कि यह लोककथा सीता हरण की नई व्याख्या प्रस्तुत करती है। इस कहानी में बताया गया है कि रावण ने सीता का अपहरण नहीं किया था, बल्कि जब वह जंगल में पखावज बजा रहा था, तो सीता उसकी थाप पर नृत्य करने लगती हैं। नृत्य करती सीता को देखकर रावण उस पर मोहित हो जाता है, लेकिन वह जबरदस्ती उन्हें अपने साथ नहीं ले जाना चाहता है। वह पखावज बजाते हुए धीरे-धीरे अपने विमान की ओर बढ़ता है, और संगीत के सहारे सीता भी खिंची चली आती हैं। उन्हे सुध तब आती है, जब वे पुष्पक विमान तक पहुंच जाती हैं।

सुश्री नूर ने कहा कि इस आदिवासी कहानी से पांच प्रमुख बातें सामने आती हैं, पहली कि सीता जंगल में अकेली थीं, तन्हा थीं, और संगीत से उन्हें सुकून मिलता है। दूसरी, शूर्पणखा  जैसा कोई किरदार नहीं है, जिसका बदला लेने के लिए रावण ने सीता का अपहरण किया हो। यह उस सामंती सोच पर भी चोट है, जिसमें स्त्री के अपमान का बदला स्त्री से लिया जाता है। तीसरी बात, रावण को खलनायक नहीं है, सीता पर रीझा था, उनका अपहरण नहीं किया था। चौथी बात यह है कि लक्ष्मण रेखा जैसी कोई लकीर नहीं है, जो पुरुषवादी मर्यादा में स्त्री को बांधती हो। पांचवी और सबसे महत्वपूर्ण बात, सीता को पास अपना चुनाव करने का हक है।
उन्होंने कहा कि हमें अपने साहित्य को आदिवासी नजरिये से भी देखनेे की जरूरत है। आखिर विचार बदलते हैं, तभी समाज बदलता है।

इस सत्र का संचालन श्री तरूण गुहा नियोगी ने किया।

दूसरा सत्र: 17 नवंबर शाम 5 बजे से रात्रि 8 बजे तक
विषय: शोषण के नये चेहरे और विकल्प की संस्कृति

औपचारिक उद्घाटन सत्र की शुरूआत में श्रीमति मीना पिंपलापुरे का स्वागत वक्तव्य सीमा राजोरिया ने पढ़ा। इसके बाद श्री महेंद्र फुसकेले ने स्वागत भाषण दिया। इस दौरान दो लघु फिल्मों ‘‘गांव छोड़ब नाही’’ और ‘‘अमेरिका-अमेरिका’’ का प्रदर्शन किया गया। इससे पहले रामचरन यादव ने बुंदेली कवि ईसुरी और कबीर के गीत गाए। दमोह प्रलेस से संबंद्ध बाल गायक दक्षेश ने भी जनगीत गाए।इसके बाद भोपाल से प्रकाशित पत्रिका ‘‘राग भोपाली’’ के प्रलेस के वरिष्ठ कथाकार पुन्नी सिंह पर केंद्रित अंक का लोकार्पण किया गया। साथ ही सहारनपुर से प्रकाशित पत्रिका ‘‘शीतलवाणी’’ के कमला प्रसाद जी पर केंद्रित अंक का लोकार्पण किया गया। इसके अलावा राम आश्रय पांडे ‘‘विद्रोही’’, तरूण गुहा नियोगी, केवीएल पांडे, कृष्णकांत निलोसी आदि की किताबों का लोकार्पण किया गया।

उद्घाटन भाषण में प्रलेस के राष्ट्रीय महासचिव डॉ अली जावेद ने कहा कि उर्दू ने हमेशा फिरकापरस्ती का विरोध किया है। उर्दू प्रगतिशील परंपरा की भाषा है। यह गालिब और मीर की परंपरा को सामने लाती है। उन्होंने कहा कि भाषा का कोई धार्मिक आधार नहीं होता। जिस तरह धार्मिक कर्मकांड की भाषा बनाकर संस्कृत को नष्ट कर दिया गया, उसी तरह उर्दू से मदरसों को जोड़कर उसे खत्म करने की साजिश अंजाम दी गई। धर्म से जोड़ने के कारण इन दोनों भाषाओं के साहित्य को भी खत्म करने की साजिश रची गई। उन्होंने विभिन्न उदाहरणों के जरिये भाषाओं को हर तरह के हमलों से बचाकर उनकी परंपरा और साहित्य को जीवंत बनाए रखने की जरूरत पर बल दिया।

जनवादी लेखक संघ मध्यप्रदेश के सचिव श्री रामप्रकाश त्रिपाठी ने कहा कि आज जब आसुरी शक्तियां पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, भूमंडलीकरण एकजुट होकर नये हथियार विकसित कर रही हैं, तो शोषण के चेहरे में भी बदलाव आया है। नाम वही हैं, लेकिन तौर-तरीके बदल गए हैं। इनकी षड़यंत्रकारी ताकत बढ़ गई है। जनविरोधी ताकतें एक हो गई हैं, और वे जनता की चेतना पर सबसे तीखा प्रहार कर रही हैं। टीवी, इंटरनेट के जरिये नए-नए औजारों से यह हमले हो रहे हैं, और हम सावधान नहीं हैं। उन्होंने कहा कि इस शोषण से निपटने के लिए आंतरिक तैयारी की जरूरत है, तभी इस लड़ाई में निर्णायक जीत हासिल की जा सकती है।
जनसंस्कृति मंच के राष्ट्रीय सह सचिव श्री सुधीर सुमन ने कहा कि पहचान के विमर्श यदि सचमुच मुक्ति की दिशा में बढ़ेंगे, तो वे लोगों जोड़ेंगे ही, जिससे एकता हासिल की जा सकेगी। उन्होंने कहा कि जनता की लड़ाई में इस एकता की नैतिक और सामाजिक कसौटियां तय करनी होंगी। वंचना, शोषण, उत्पीड़न, भेदभाव जहां-जहां है, उसका प्रतिरोध करना लेखक का दायित्व है। उसी से हमारी शक्ति का निर्माण होगा। उन्होंने कहा कि साम्राज्यवाद की वैचारिकी विभिन्न ढंगों से आ रही है, उससे लेखक को लड़ना होगा।

बेगूसराय से आए सुप्रसिद्ध लेखक श्री राजेंद्र राजन ने कहा कि भाषा की गुलामी शोषण करने वाली ताकतों को मजबूत करती है। भाषा गुलाम नहीं होगी, तो कोई समाज गुलाम नहीं बनाया जा सकता। हम अपनी भाषाओं की हिफाजत करना भूल गए हैं, इसलिए हमारी आजादी खतरे में है। उन्होंने कहा कि रंगभेद और वर्गभेद का अंतर समझना आज जरूरी हो जाता है। साम्राज्यवादी-पूंजीवादी गठजोड़ का सरगना अमेरिका भी रंगभेद को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहा है। वहां काले समुदाय के एक व्यक्ति को पहली बार सत्ता के सर्वोच्च पद पर बैठाया जाता है, आखिर देखना चाहिए कि कैसे ओबामा अन्य अमेरिकी राष्ट्रपतियों से भिन्न हैं? यह नस्लभेद का अंतर नहीं है। उन्होंने कहा कि पूंजी का रंग नहीं बदला है, और इसी संदर्भ में पूंजीवाद का रंग भी नहीं बदला है। भारत में भी अटल बिहारी वाजपेयी हों, या फिर मनमोहन सिंह, दोनों ही साम्राज्यवाद के आगे नतमस्तक हैं।

उन्होंने कहा कि आज वाम लेखकों ने कई घर बना लिये हैं। इस घर में भी दीवारें खींच ली हैं। आज जरूरत इस बात की है कि यह दीवारें तोड़ी जाएं। उन्होंने उदाहरण के साथ कहा कि किसी कवि का नाम हटाकर उसकी रचना को पढ़ें, तो यह फर्क ही नहीं रह जाता है कि वह जसम का है, या जलेस का, या फिर प्रलेस का, तब यह दीवारें क्यों हैं?

बनारस से आए सुप्रसिद्ध आलोचक प्रो चौथीराम यादव ने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि आज शोषण के ऐसे कई चेहरे हैं, जिनकी शिनाख्त मुश्किल है। किसानों की आत्महत्या के बारे में हाल ही में कई खबरें आईं, लेकिन असल में यह हत्याएं थीं। पूंजीवाद ने उनकी हत्या की है। पहले पूंजी की ललक पैदा की गई, और जब इससे वे कर्ज के तले दब गए, तो कोई और रास्ता सामने न पाकर आत्महत्या को मजबूर हुए। इस खतरे की पहचान करनी जरूरी है। भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की त्रयी का जो अदृश्य भूत है इसके पांव पीछे की ओर हैं। जिस तरह भूत जब उत्तर की ओर चलता है, तो दक्षिण की ओर जाता दिखाई देता है, और पूर्व की ओर चलने पर पश्चिम में जाने का भ्रम पैदा करता है, उसी तरह विकास की ओर जाता दिखाई दे रहा साम्राज्यवाद का भूत समाज को शोषण के अंधकार की ओर ले जा रहा है। यूरोपीय साम्राज्यवाद के पांव दिखाई देते थे, लेकिन वाशिंगटन से संचालित पूंजी व्यवस्था के पांव दिखाई नहीं दे रहे हैं, इनकी शिनाख्त आज का महत्वपूर्ण काम है। इस सत्र का संचालन श्री विनीत तिवारी ने किया।

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