Friday, September 28, 2012

याद पिया की आये


कुछ रचनायें ऐसी होती हैं, जिन्हें हम ‘क्लासिक’ कहते हैं। न तो इनसे गाने वाले ऊबते हैं न सुनने वाले। एक ही रचना कई-कई बार कई गायकों द्वारा गायी जाती हैं और मजे की बात यह है कि हर दोहराव एक नयी ताजगी के साथ सामने आता है। ‘याद पिया की आये’ एक ऐसी ही रचना है जो उस्ताद बड़े गुलाम अली खां साहब का ‘मास्टरपीस’ है। यह रचना कोई साठ-सत्तर पुरानी तो होगी ही, पर इसे सुनने वाले आज भी लाखों की तादाद में हैं। यह उल्लेख इसलिये भी जरूरी है कि आज के दौर में आने वाले गाने महीने-दो महीने भी नहीं टिक पाते। कहा जाता है कि यह कंपोजिशन बड़े खां साहब ने अपनी बेगम के इंतकाल के बाद तैयार की थी।



‘‘बैरी कोयलिया कूक सुनाये, मुझ बिरहन का जियरा जलाये’’ - यह दर्द आप बड़े खां साहब की आवाज की लरजिश में भी महसूस करते हैं या इसे प्रत्यक्ष देखना चाहते हैं तो उस्ताद रशीद खां साहब के वीडियो के आखिर में चित्रा जी के चेहरे पर एक नजर डाल लें। उस्ताद रशीद खां ने यह प्रस्तुति जगजीत सिंह की याद में आयोजित एक कार्यक्रम में दी थी, जिसे एक निजी चैनल ने आयोजित किया था।



बड़े खां साहब की परंपरा को आगे बढ़ाने में पं. अजय चक्रवर्ती का नाम शिद्दत के साथ सामने आता है और पं. अजय चक्रवर्ती की परंपरा को आगे बढ़ा रही हैं उनकी बिटिया कौशिकी चक्रवर्ती। पाठकगण माफ करें, यह मेरा व्यक्तिगत ख्याल है कि बंगाल में वही गायक नाम कमा सके जिन्होंने रवीन्द्र संगीत से इतर सुगम अथवा शास्त्रीय संगीत में भी अपना हाथ आजमाया। इन दोनों आवाजों में इस गाने को सुनना बहुत भला लगता है।




किसी इंटरव्यू में लता मंगेशकर से सवाल किया गया था कि ‘दुनिया आपको सुनती है, आप किसे सुनती हैं,’ तो उनका जवाब था-‘मेहदी हसन’ और जब मेहदी हसन से यही सवाल किया गया तो उनका जवाब था- ‘उस्ताद हुसन बख्श’। जरा सरहद-पार के इस बेजोड़ गायक की आवाज में यह गाना सुनकर देखें:



कोई पचीस बरस पूर्व टी-सीरिज के सौजन्य से एक गायक से मेरा परिचय हुआ था, जिनका नाम है -पंडित अजय पोहनकर। अब यह कैसेट घिसकर खराब हो चुका है पर गाने के बोल अब तक कानों में गूंजते हैं-‘सजनवा तुम क्या जानो प्रीत।’ इन्हीं अजय पोहनकर के साहबजादे अभिजीत पोहनकर पश्चिमी वाद्यों में अपना हाथ आजमा रहे हैं और गाहे-बगाहे उनके जो अलबम  बाजार आ रहे हैं वे ‘फ्यूजन’ की श्रेणी में आते हैं। यह गाना इस तरह भी सुनकर देखिये, हालांकि पंडित जसराज ‘फ्यूजन’ को ‘कॅनफ्यूजन’ कहते हैं।


और चलते-चलते ‘याद पिया की आये’ वडाली बंधुओं की आवाज में:



प्रस्तुति: दिनेश चौधरी



Thursday, September 27, 2012

लोकतंत्र की चुनौती ही आलोचना की चुनौती है


प्रो. मैनेजर पांडेय के 71 वर्ष के होने पर "आलोचना की चुनौतियाँ" विषयक संगोष्ठी का आयोजन


 वरिष्ठ आलोचक प्रो. मैनेजर पांडेय के जीवन के 71 वर्ष पूरे होने के अवसर पर 23 सितम्बर को जन संस्कृति मंच की ओर से इलाहाबाद में "आलोचना की चुनौतियाँ" विषय पर प्रो. राजेंद्र कुमार की अध्यक्षता में एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया। अपने सम्बोधन में प्रो. राजेंद्र कुमार ने कहा कि आज के समय में जो चुनौतियाँ लोकतंत्र के समक्ष हैं, वही आलोचना की भी चुनौतियाँ हैं। उन्होंने बताया कि साहित्य में आलोचना विधा का आगमन गद्य के उद्भव के साथ होता है। पश्चिम में यह पूँजीवादी लोकतंत्र के साथ जन्म लेती है। आज भारत में यह लोकतंत्र भी चुनौतियों का सामना कर रहा है। इसका संकट और इसकी चुनौती आज की आलोचना की भी चुनौती है। उन्होंने कहा कि आज की आलोचना को एक समझ और तमीज विकसित करनी चाहिए जो यह पहचान सके कि साहित्य में विचारधारा को गैर-जरूरी बताने वाले खुद किस विचारधारा को स्वीकार्य बनाना चाहते हैं। उत्तर आधुनिकता जो 'सब.कुछ' को 'पाठ' बनाती है वह अपने आप में खुद एक विचार का आरोपण है। उन्होंने आगे कहा कि प्रतिरोध की चेतना की पहचान ही आलोचना को महत्वपूर्ण बनाती है। आलोचना का काम रचनाकार को छोटा या बड़ा सिद्ध करना नहीं है।

इस अवसर पर इतिहासकार और सामाजिक कार्यकर्ता लाल बहादुर वर्मा ने कहा कि आज आलोचना की चुनौती यह है कि साहित्य को साहित्य, और समाज को समाज बनाए रखने में मदद करे क्योंकि आज पूँजीवाद इसी को खत्म कर देना चाहता है। उन्होंने कहा कि आलोचना के लिए जन-सरोकार होना जरूरी है। आलोचना एक उपकरण भी है, जिसे चलाना मालूम होना चाहिए। आज आलोचना को साहित्य के लिए मशाल होना चाहिए। वह साहित्य और जन के बीच पुल है। आलोचक और कथाकार दूधनाथ सिंह ने कहा कि विचारधारा और साहित्य-रचना का जो तनाव है वह आलोचना में होना चाहिए, उसे नज़र-अंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। सामाजिक शक्तियों के जो संघर्ष हैं, साहित्य उन्हें प्रतिबिम्बित करे। रविभूषण (राँची) ने कहा कि आलोचना जीवन और समय.समाज सापेक्ष होनी चाहिए। आज के संकट के समय में आलोचना को राजनीतिक प्रश्नों से भी जूझना होगा।

आलोचक गोपाल प्रधान (दिल्ली) ने आलोचना के वर्तमान पर टिप्पणी करते हुए कहा कि आज क्षणिक किस्म के परिवर्तनों का उत्सवीकरण हो रहा है और आलोचना के भीतर से इतिहास बोध को विलिपित किया जा रहा है। जब कि हिंदी आलोचना अपने प्रारम्भ से ही सिर्फ साहित्य.आलोचना नहीं रही बल्कि उसने व्यापक सामाजिक सरोकार रखते हुए समाज और देश की आलोचना की। इतिहासबोध उसमें एक जरूरी तत्व रहा है। उन्होंने कहा कि देश का शासक.वर्ग इतना देशद्रोही शायद ही कभी रहा हो, जितना कि आज का शासक.वर्ग है। उसके भीतर के भय का आलम यह है कि वह कार्टून भी बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है। उन्होंने अत्याधुनिक तकनीकी के साथ अत्यंत पिछड़ी हुई सामाजिक चेतना के मेलजोल के खिलाफ आलोचनात्मक संघर्ष चलाने की आवश्यकता बताई। पंकज चतुर्वेदी (कानपुर) का कहना था कि आलोचना अगर रचना में मुग्ध हो जाएगी तो वह रचना को ठीक से देख नहीं पाएगी। आलोचक को रचना की संशक्ति के साथ उससे दूरी भी बनाए रखनी होगी तभी वह रचना के महत्व को रेखांकित कर पाएगी। तमाम आलोचक दूरी बनाते हैं लेकिन संशक्ति गायब है। आलोचना को रचना से, उसके रचना कर्म से संबोधित होना होगा। आज के आलोचक पारिभाषिक शब्दावलियों के गुलाम हैं। पूरी आलोचना इन्हीं बीस.पच्चीस शब्दों से काम चलाती है। पारिभाषिक शब्दों की यह गुलामी रचना और आलोचना के बीच एक परदे का काम करती है। आलोचना को नए शब्द ईजाद करने होंगे। उन्होंने रचना और आलोचना में विचारधारा की आबद्धता को गैर ज़रुरी  बताते हुए कहा कि जनता के प्रति सम्बद्धता जरूरी है लेकिन विचारधारा से आबद्धता जरूरी नहीं।

प्रो. चंद्रा सदायत (दिल्ली) ने कहा कि आज के दौर के अस्मितावादी विमर्श आलोचना का ही हिस्सा हैं। इसे और व्यापक बनाने के लिए अन्य भाषाओं के (अस्मितावादी विमर्शों के) अनुवाद को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए या फिर आलोचना को कम से कम उनका संदर्भ तो लेना ही चाहिए। प्रज्ञा पाठक (मेरठ) ने कहा कि स्त्री के जीवन और साहित्य को अलग कर के देखने से उसके साहित्य का सही मूल्यांकन नहीं हो पाएगा। तमाम लेखिकाएँ भी इसमें भ्रमित होती हैं। आलोचना में अभी भी स्त्री.रचना पर बात करने में पुरुषवादी सोच का दबाव काम करता है। स्त्रियाँ भी स्त्री-विमर्श या रचना पर बात करते समय इसी प्रभाव को ग्रहण कर लेती हैं। स्वतंत्र और व्यक्तित्ववान स्त्री आज भी आलोचना के लिए चुनौती है।  

अपने जन्मदिन के मौके पर, संगोष्ठी को संबोधित करते हुए प्रो‌. मैनेजर पांडेय ने कहा कि विचारधारा के बिना आलोचना और साहित्य दिशाहीन होता है। आलोचना में पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग ईमानदारी से होना चाहिए क्योंकि पारिभाषिक शब्द विचार की लम्बी प्रक्रिया से उपजते हैं। उन्होंने कहा कि साहित्य की सामाजिकता की खोज और सार्थकता की पहचान करना ही आलोचना की सबसे बड़ी चुनौती है।  
               
इस अवसर पर राहुल सिंह (बिहार) ए रामाज्ञा राय (बनारस) आदि वक्ताओं ने भी अपने विचार व्यक्त किए। कार्यक्रम में बड़ी संख्या में छात्र, बुद्धिजीवी,  सामाजिक कार्यकर्ता एवं संस्कृतिकर्मी उपस्थित रहे। संगोष्ठी का संचालन जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण ने किया। इससे पहले कॉ. जिया उल हक ने प्रो. मैनेजर पांडेय को उनके जन्म दिन के उपलक्ष्य में शॉल ओढ़ाकर सम्मानित किया। इस मौके पर प्रो. मैनेजर पांडेय के आलोचना कर्म पर केंद्रित दो पुस्तकों का लोकार्पण भी हुआ। इनमें से पहली पुस्तक मैनेजर पांडेय का आलोचनात्मक संघर्ष युवा आलोचक तथा जसम के महासचिव प्रणय कृष्ण द्वारा लिखित तथा जसम के सांस्कृतिक संकुल द्वारा प्रकाशित है जिसका मूल्य सौ रुपए है। दूसरी पुस्तक आलोचना की चुनौतियाँ का सम्पादन दीपक त्यागी द्वारा किया गया है।

-प्रेमशंकर सिंह


Saturday, September 22, 2012

साहित्य और रंगमंच का सहकर्म

जन्मशती विशेष:10 अक्टूबर - डॉ. रामविलास शर्मा और इप्टा

-राजेन्द्र रघुवंशी
(इप्टा के संस्थापक सदस्य,उपाध्यक्ष,2003 में दिवंगत)
डॉ रामविलास शर्मा 1943 में आगरा आये। उस समय बंबई में प्रगतिशील लेखक संघ के चौथे राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन हुआ और तभी इप्टा के विधिवत गठन की घोषणा की गई। बंबई में प्रगतिशील लेखकों के साथ समान विचार वाले सांस्कृतिक क्षेत्र के कलाकर्मी भी एकत्रित हुए थे, जो अलग-अलग नामों की संस्थाओं के साथ प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन चला रहे थे। पीडब्ल्यूए और इप्टा का यह सहकर्म आगरा में सक्रिय रूप से कार्य करता रहा। लेखकों ओर जागरूक कलाकर्मियों के निकटतम संपर्क को ही इस बात का श्रेय है कि आगरा में सांस्कृतिक प्रवृत्तियां कभी सूखी नहीं और नए-नए विचारों, समीचीन कला-रूपों और नई-नई प्रस्तुतियों ने सांस्कृतिक जन-जीवन को सदा हरा-भरा रखा।

डॉ रामविलास शर्मा ने आगरा इप्टा के कार्य का समय-समय पर मूल्यांकन कर इसे सही दिशा-निर्देश ही नहीं दिया, अपितु, इसके लिए विशेष रूप से नाटकों की रचनाएं भी कीं। आगरा में प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा की यह बड़ी उपलब्धि है कि दोनों ने एक-दूसरे की प्रवृत्तियों में पिछले चार दशकों से सक्रिय रूप से हाथ बंटाया है। इनमें डॉ रांगेय राघव ने बंगाल के अकाल पर विशेष रूप से एक नाटक लिखा, उसका निर्देशन किया और उससे हुई आय को बंगाल के अकाल पीड़ितों की सहायतार्थ भेजा। यह आगरा से बंगाल गए डाक्टरी जत्थे के साथ डॉ रांगेय राघव के जाने के पहले की बात है। बंगाल से लौटकर उन्होंने अकाल की विभीषिका पर रिपोर्ताज लिखे और उनकी रचना को नाट्य-रूप में प्रस्तुत किया गया। गोवा के संघर्ष पर उन्होंने ‘आखिरी धब्बा’ नाटक लिखा।

डॉ रामविलास शर्मा उन युवकों के लिए प्रेरणा के स्रोत रहे, जो बौद्धिक रूप से विकसित थे और ट्रेड यूनियनों में, किसान संगठनों में काम करते थे, उन्होंने उन शोषितों-पीड़ितों के यथार्थ जीवन पर कहानी और नाटक लिखने के लिए उन्हें प्रेरित किया। प्रेरित ही नहीं किया, अपितु शर्त लगाई कि ‘तुम्हानी कहानी तभी सुनूंगा, जब चमड़े के कारखाने के उन मजदूरों के बारे में होगी, जिनके बीच तुम संगठन का कार्य करते हो’ अथवा ‘तुम्हारा नाटक तभी देखने आऊंगा, जब जूते के कारीगरों की समस्याओं के बारे में खेलोगे।’ 

डॉ रामविलास शर्मा उन युवकों के लिए प्रेरणा के स्रोत रहे, जो बौद्धिक रूप से विकसित थे और ट्रेड यूनियनों में, किसान संगठनों में काम करते थे, उन्होंने उन शोषितों-पीड़ितों के यथार्थ जीवन पर कहानी और नाटक लिखने के लिए उन्हें प्रेरित किया। प्रेरित ही नहीं किया, अपितु शर्त लगाई कि ‘तुम्हानी कहानी तभी सुनूंगा, जब चमड़े के कारखाने के उन मजदूरों के बारे में होगी, जिनके बीच तुम संगठन का कार्य करते हो’ अथवा ‘तुम्हारा नाटक तभी देखने आऊंगा, जब जूते के कारीगरों की समस्याओं के बारे में खेलोगे।’ ताज टेनरी यमुना किनारे बिल्कुल एकांत में ऐसी गंदगी की सृष्टि करती थी कि खड़ा होना भी मुश्किल था। वहां पुरबिये मजदूर उस जमाने में छह आने रोज पर चमड़ा साफ करने का काम करते थे। बीवी-बच्चों को ‘देश’ में छोड़कर आना ओर कारखाने में 18-18 घंटे काम करना-यही उनकी नियति थी। इनता नहीं जोड़ पाते थे कि घर के लिए किराया हो जाये ओर बीवी-बच्चों को देख आएं। चार-चार, छह-छह वर्ष यूं ही कोल्हू के बैल बने बीत जाते थे।

डॉ शर्मा ने सब बातें बड़े विस्तार से सुनीं-कैसे उनका संगठन किया गया, कैसे दुनिया से कटे-फटे लोगों को अधिकार का ज्ञान कराया गया, कैसे विषम परिस्थितियों में हड़ताल कराई गई, कैसे कुछ मांगें हासिल हुईं। वरना जिस दुनिया में वे रह-सह रहे थे, उसमें तो जैसे शाश्वत अंधकार था, सूरज कभी झांकता ही नहीं था। आगरा की आर्थिक व्यवस्था जूते के व्यवसाय पर टिकी हुई है-कोई बड़ा कारखाना तो है नहीं। अब तो टुटपुंजिये हो भी गए हैं, पहले तो सब कुटीर उद्योग का ही खेल था। उनका संगठन बनाना, उनमें काम करना ऐसा ही था, जैसे मेंढकों को तौलना। लेकिन नगर की इस समय 25 फीसदी जनता तो वही है- उसकी समस्याओं की पेचीदगियों को साहित्यिक-सांस्कृतिक रूप में प्रस्तुत करना राजनीतिज्ञों और अर्थशास्त्रियों से भी पेचीदा काम है। परंतु डॉ शर्मा सदृश, सुहृदय मार्गदर्शक ने बड़ा हौसला बंधाया। इस हौसला अफजाई के बल पर ही आगरा इप्टा जन-जीवन से सदा जुड़ा रहा और इसीलिए सदा जिंदा रहा। इसने रोजमर्रा के जीवन पर लिखकर, बहुत सी बार बिना लिखे ही आशु (इम्प्रोवाइज्ड) नाटकों को खेला। जूतों के मजदूरों के लिए चौराहा मीरा हुसैनी पर (जहां अब बाटा का गोदाम है) एक हॉल में स्थायी रंगमंच (यूनिटी हॉल-सं.) स्थापित किया गया। यहां हर हफ्ते चार आने का टिकट लगा कर विविध कार्यक्रम- सामयिक कोरस गीत व नृत्य तथा एकांकी होते। शू वर्कर्स यूनियन की ओर से स्थायी मंच, प्रकाश व पर्दे की व्यवस्था कर दी गई थी।

डॉ रामविलास शर्मा इस समय स्थायी साहित्यिक निधि संजोने में संलग्न हैं, लेकिन वर्षों तक उन्होंने सामयिक समस्याओं पर ‘अगिया बैताल’ आदि नामों से व्यंग्य कविताएं लिखी थीं। डॉ शर्मा के लेखन में व्यंग्य का इतना जबर्दस्त पुट है, यह इसलिए कि मानवीय मनोभावों को समझने की उनमें अद्भुत क्षमता है और उसे अभिव्यक्ति देने के लिए शब्दों का अपरिमित भंडार है। चित्रांकन की बेजोड़ खूबी डॉ शर्मा में है। यदि आपने सोहनलाल द्विवेदी की रचनाओं पर समीक्षा ‘बापू के छौने’ पढ़ी होगी, तो आप अनुमान कर सकते हैं कि डॉ राम विलास शर्मा में सिद्ध नाट्यकार के सभी गुण मौजूद हैं।

डॉ शर्मा ने हमसे ही अच्छे-अच्छे सामयिक नाटक नहीं लिखवाये, खुद भी ‘कानपुर के हत्यारे’ लिख कर दिया, जिसे हमने जगह-जगह खेलकर खूब चेतना जगाई। हड़ताली मिल-मजदूरों पर अंधाधुंध गोली चलाने वाले बदहवास दरोगा का इस नाटक में ऐसा सटीक खाका खींचा गया था- उसकी भूमिका करने वाले को ‘दर्शकों की थू-थू’ वरदान सिद्ध हुई। अभी प्रकाशित बिल्कुल नए प्रकार की कृति ‘घर की बात’ में उस समय रामविलास जी के नाम उनके भाई श्री मुंशी के पत्रों में इस नाटक का उल्लेख है- "कानपुर पर जब तुम्हारा नाटक आया, तब पीसी (पूरन चंद जोशी) हम लोगों के सेल में थे। संगल ने पढ़कर सुनाया- ‘हम लोग ओवरटाइम गोली चलाता है’ इत्यादि, पीसी खूब हंसे। "‘जमींदार कुलबीरन सिंह’ डॉ रामविलास शर्मा लिखित नौटंकी थी। आज रंगकर्म को लोक संस्कृति से जोड़ने की सामान्य चर्चा होती है, किंतु इस कार्य को दशकों पूर्व डॉ शर्मा ने किया था। बाद में उन्होंने ब्रज क्षेत्र के खड़ी बोली के लोकमंच भगत और नौटंकी के अध्ययन के लिए मेरे पुत्र जितेन्द्र   को प्रेरित किया।

साहित्य और रंगकर्म के साहचर्य को अमली जामा पहना कर ही सांस्कृतिक गतिविधियों को जीवंत बनाया जा सकता है। प्रगतिशील लेखक संघ के साथ मिलकर कार्य करने से आगरा इप्टा ने अपनी साहित्यिक समझ-बूझ के बल पर हिंदी की श्रेष्ठ कृतियों के नाट्य-रूपांतरण का कार्य सन् 1949 से ही प्रारंभ कर दिया था। इसने सबसे पहले ‘गोदान’ का नाट्य-रूपांतरण किया और उसे प्रलेस की जयंती के अवसर पर ही प्रस्तुत किया। ‘हंस’ में इसकी विस्तृत समीक्षा डॉ घनश्याम अस्थाना ने की थी। डॉ रामविलास शर्मा ने इन साहित्यिक कृतियों को मंचित करने के अध्यवसाय को बहुत पसंद किया और हमें प्रेमचंद की कहानियों के रूपांतर मंचित करने के लिए भी प्रेरित किया। उपन्यासों में ‘गोदान’ के अलावा ‘सेवासदन’, ‘प्रेमाश्रम’ और ‘रंगभूमि’ के नाट्य रूपांतर एवं कहानियों ‘कफन’, ‘निमंत्रण’, ‘सवा सेर गेहूं’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’, ‘मंत्र’, ‘लाटरी’ आदि के अभिनय शहर और देहात एवं देश के विभिन्न भागों में खूब सफल हुए। इस प्रकार उस समय अच्छे नाटकों के उपलब्ध न होने की समस्या भी हल हो गई, दूसरे हम श्रेष्ठतम कृतियों को सर्वसाधारण तक पहुंचाने में समर्थ हुए।

डॉ रामविलास शर्मा मुंशी प्रेमचंद को जनता का असली लेखक मानते हैं। राजमर्रा के जीवन से उठाए गए पात्र, प्रसंग, कथोपकथन और घटनाक्रम नाटकीय आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। जीवन के गहन अध्ययन के कारण ही प्रेमचंद जन-जन में प्रिय हुए। डॉ रामविलास शर्मा ने आगरा इप्टा की मांग पर ‘तुलसीदास’ पूर्णकालिक नाटक लिखा, जिसमें रत्नावली से हुए कथोपकथन तुलसीदास के संबंध में स्थापित पूर्व धारणाओं को खंडित करते हैं। इसकी प्रधान भूमिका को सेंट जोन्स कॉलेज के तत्कालीन प्रवक्ता श्री प्रकाश दीक्षित ने बड़े मनोयोग से निबाहा- हां, रत्नावली की भूमिका के लिए हमें पुरुष पात्र की शरण लेनी पड़ी, क्योंकि आगरा कॉलिज हॉल के इंचार्ज इतिहासविद् डॉ आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव किसी महिला पात्र को मंच पर लाने की अनुमति देने को तैयार न थे। मराठी में महिला पात्रों के अभिनय में पारंगत ग्वालियर निवासी श्री विनायक फड़के (अब सुप्रसिद्ध सितारवादक) ने हमारी चिंता दूर की।

पं. अमृतलाल नागर, डॉ रामविलास शर्मा के अभिन्न मित्र हैं। नागर जी का उपन्यास ‘सेठ बांकेमल’ डॉ शर्मा को बहुत प्रिय हैं, इसका उनके जीवन-प्रसंगों में कई जगह उल्लेख है। एक बात तो यह है कि उपन्यास आगरा के परंपरागत मोहल्ले गोकुलपुरे की परंपरागत बोली में बड़ी अनौपचारिक शैली में लिखा गया है। बात-बात में बात, दूसरे, डॉ शर्मा खुद भी सबसे पहले आगरा आगमन पर गोकुलपुरा में रहे थे। नागर जी की ससुराल के सामने वाले घर में, अत: जिन विभूतियों का चित्रण उस उपन्यास में जिस रंग में और जिस टकसाली शब्दावली में हुआ था, उसका पूरा मर्म और रस डॉ शर्मा ग्रहण करने में समर्थ थे। डॉ शर्मा ने ‘सेठ बांकेमल’ को कई रूपों में मंचित करने की प्रेरणा दी और आगरा इप्टा ने भी उसे खेल कर खूब वाहवाही लूटी। इतना ही नहीं, सेठ बांकेमल पात्र का और उसकी बोली का आगरा इप्टा ने कई अन्य सामयिक नाटकों में उपयोग किया। 

नागर जी के ‘नवाबी मसनद’ की कहानियों का भी आगरा इप्टा ने जी भर कर उपयोग किया और जब दृष्टिकोण बन गया, तो कृष्ण चंदर की ‘नीलकंठ’, अमृता प्रीतम की ‘पांच बहनें’, उदयशंकर भट्ट का ‘दस हजार’ आदि को भी परखने की समझ आई और उन्हें सफलता से रूपांतरित कर मंचित किया गया। डॉ शर्मा की आगरा नगर में उपस्थिति हम सबके लिए गौरव की चीज रही है। बाहर के बहुत से लोग आगरा को ताज की वजह से जानते हैं और बहुत से डॉ रामविलास शर्मा की वजह से। परिस्थितियों एवं लेखन संबंधी अन्य कार्यों के कारण वह यहां के जन-जीवन में घुल नहीं पाते हैं। अन्य टेम्पेरामेंटल चीजें भी हो सकती हैं। महान व्यक्तियों की महान बाते हैं, पर आगरा इप्टा को डॉ शर्मा और उनके पूरे परिवार का सहयोग और साथ शुरू से मिला है।

नागर जी के ‘नवाबी मसनद’ की कहानियों का भी आगरा इप्टा ने जी भर कर उपयोग किया और जब दृष्टिकोण बन गया, तो कृष्ण चंदर की ‘नीलकंठ’, अमृता प्रीतम की ‘पांच बहनें’, उदयशंकर भट्ट का ‘दस हजार’ आदि को भी परखने की समझ आई और उन्हें सफलता से रूपांतरित कर मंचित किया गया। डॉ शर्मा की आगरा नगर में उपस्थिति हम सबके लिए गौरव की चीज रही है। बाहर के बहुत से लोग आगरा को ताज की वजह से जानते हैं और बहुत से डॉ रामविलास शर्मा की वजह से। परिस्थितियों एवं लेखन संबंधी अन्य कार्यों के कारण वह यहां के जन-जीवन में घुल नहीं पाते हैं। अन्य टेम्पेरामेंटल चीजें भी हो सकती हैं। महान व्यक्तियों की महान बाते हैं, पर आगरा इप्टा को डॉ शर्मा और उनके पूरे परिवार का सहयोग और साथ शुरू से मिला है। उनकी दोनों पुत्रियों ने, जब वे बच्चियां ही थीं ‘गोदान’ में सोना और रूपा की भूमिका की थी। उनके भ्राता श्री रामशरण शर्मा ‘मुंशी’ इप्टा के मंच पर सक्रिय रूप से भाग लेते रहे हैं। यूपी इप्टा ने अखिल भारतीय जननाट्य आंदोलन में 1946 में सबसे पहले प्रांतीय सम्मेलन करने का श्रेय हासिल किया था। कानपुर में हुए इस सम्मेलन में मुंशी इलाहाबाद इप्टा के साथ आए थे। उनकी पत्नी धनवंती जी (धन्नो) ने भी इप्टा में सक्रिय भाग लिया। आगरा में धन्नो जी का परिवार अब तक हमसे जुड़ा हुआ है।

महात्माओं के बारे में तरह-तरह की किंवदंतियां प्रचलित होती हैं। डॉ शर्मा इसके अपवाद नहीं। उस समय पुनर्संगठन की दृष्टि से  1974 में आगरा में प्रलेस का राष्ट्रीय स्तर पर सम्मेलन हम लोगों ने आयोजित किया था। रामविलास जी इसकी आयोजन समिति के अध्यक्ष बनने पर सहमत हो गये, साथ ही यह भी कहा- ‘‘मैं कुछ बोलूंगा नहीं।’’

‘पहलवान’ आलोचक के रूप में स्थापित रामविलास जी की सौम्य छवि सभी आक्षेपों को निर्मूल करने में सक्षम रही। उनका अनौपचारिक पहनावा, उठना-बैठना हम समय-बेसमय आने वालों को पीरहरन का निमंत्रण देता रहता था और भाभीजी के सुस्वादु व्यंजन क्षुधा-निवारण का। जीवन-संघर्ष बढ़ने, इप्टा की प्रवृत्तियों के फैलाव और संपर्क घट जाने से कोई फर्क नहीं पड़ा। डॉ शर्मा और स्व. भाभीजी से इतना कुछ पा लिया है कि वह कभी चुकने वाला नहीं। 

(यह लेख इप्टा संवाद- 7, आगरा, 1985 में प्रकाशित हुआ था। प्रस्तुति:सचिन श्रीवास्तव) 

Monday, September 17, 2012

TRIBUTE TO LEGEND HANGAL BY PUNJAB IPTA


Chandigarh : CHANDIGARH-IPTA  and Punjab-ipta in collaboration with Punjab Sangeet Natak Academy, Chandigarh organised a special function on 12th September,2012 at Punjab Kala Bhawan, Chandigarh to pay tribute to Legendary-personality, President of National IPTA and veteran theatre and film artiste Late Mr. A.K. Hangal.

The main organiser of the function Mr. Balkar Sidhu, General Secretary of Chandigarh-ipta  welcomed all the distinguished guests, artists from theatre and films and  other dignatories. Octogenarian Mr. H.S.Bhatty, Patron of Chandigarh-ipta was the Chief-Guest of the evening whereas Mr. Devinder Daman, President of Punjab-ipta presided over the function. The Presidium was comprised of Mr. Gurcharan Singh Boparai, One of the Founders of Punjab-ipta and Mr. K.N.S. Sekhon, President of Chandigarh-ipta. All the members of the presidium presented  floral-petals before the photo of the departed soul Mr. A.K. Hangal and paid their obeisance  one by one and then  they settled down.
At the outset, Mr. Balkar Sidhu narrated the life-journey of late Mr. Hangal, who had belonged to a Kashmiri Pandit family, took birth on 1st February, 1916 at Sialkot in erstwhile Punjab(now in Pakistan) in a well-to-do family. He had been given his primary education at Peshawar in North West Frontier Province(Pakistan) from where he had passed Matric. During student-life, he was one of the signatories on the Mercy-Petition put forwarded to the Viceroy for the remission of Death Sentence already declared to the martyrs Bhagat Singh, Rajguru and Sukhdev. He also took part in the protest march organised after the execution of their death-sentence. He learnt the skill of tailoring. After marriage their family moved to Karachi in Sindh(Pakistan). He was taking keen interest in dramas and other theatrical activities. ZULAM-E-KANS was his first play, in which he enacted as NARADMUNI. He also  organised the Union of Tailors there. He  attended Ipta's National Conference held at Ahmedabad in 1948. He was kept in jail  at Karachi for taking part in  trade union activities and marches  for Hindu-Muslim unity and communal harmony.  


In 1949, he moved to Mumbai, where he dedicated himself to theatre and ipta. He made very warm relations with stalwarts, who were the members of ipta like Late Prithvi Raj Kapoor, Balraj Sahni, R.M. Singh, Ramesh  Talwar, Khawaja Ahmed Abbas, Prem Dhawan etc. Tailoring was his source 0f livelihood. He was given break in films by one of his ipta-friends poet Shailendra in his film TEESRE KASAM in 1966 in the 50th year of his age. He had worked in more than  200 films. He was also a member  of Communist Party of India. Mr. Hangal was entrusted with the responsibility  of Ipta's President alongwith Mr. Rajinder Raghuvanshi as General Secretary in its National Conference held in 1992 at Jaipur after the demise of late Kaifi Azmi. He lead Ipta's processions for Communal Harmony during  Mumbai-Riots of 1993 for which he had to pay a big prize. The movies, in which he had worked, had to face the music  of Shiv Sena. Shiv Sena-functionaries got removed those movies from the cinema-housed of Maharashtra. Even the biggest Block-buster SHOLEY ,which had been running very successfully for last five years in  a cinema-house of Mumbai, in which his  immortal role as RAHIM CHACHA with most popular dialogues ITNA SANNATA KYON HAI BHAI had been got chopped off from the movie on the dictates of Shiv Sena. But Mr. Hangal had not compromised with the communal forces at that time.

Unfortunately he coud not atted the last National Conference of Ipta  held during December,2011 at Bhillai(Chhatisgarh) due to his ill health. Yet a video-clipping was shown there diplaying his message in which he had shown un-paralleled zeal, enthusiasm and motivation saying that end of his life is coming very near but the show must go on, we must continue our fight against the regressive and reactionary forces for the betterment of society through theatre, we must keep the torch of Ipta set on fire. On 16th August of this year, he slipped in the bathroom, which caused his hip-joint fructured. He had been got admitted in Asha Parekh Hospital of Mumbai within two-three days, where he lost the battle of life on 26th August. Ms. Shabana Azmi said, on his death, that an era has come to an end. He was loved by one and all. Mr. L.K. Advani and Mr. Gadkari also had expressed thier condolences on his demise.

  Mr. Sudesh Sharma, a senior artist of Chandigarh-ipta  paid his tribute to Mr. Hangal by re-collecting  those moments, when Mr. Hangal had come to Chandigarh alongwith Late Kaifi Azmi  & Mr. Kuldeep Singh participating in Ipta's march to Punjab during the period of turmoil in Punjab. One of the founders of Punjab-ipta Mr. Gurcharan Singh Boparai in his address stressed upon the need to continue the activities of ipta according to the guidelines established by late Mr. Hangal.

 Mr. Kanwal Nain Singh Sekhon, President of Chandigarh-ipta, while speaking on the occasion, shared his views about the role of ipta during the man-made famine of Bengal in 1942-43 and also during the turbulent times of communal clashes of Independence and post-Independence period. He also emphasised to follow the path as envisaged by late Mr. Hangal for the functionaries of ipta.

Mr. H.S. Bhatty shared with audience  his personal experiences , he had experienced with Mr. Hangal.  He reminded an incident that once Mr. Hangal was sitting on the ground near the feet of Mr. Kaifi Azmi and he used to go outside and feed a fire for kaifi saheb's hookah, I (Mr. Bhatty) asked him (Mr. Hangal),"Are you a muslim ?" Mr. Hangal replied him,"To feed  a fire for someone's hookah is a job of charity for a muslim, you may consider me as a muslim."  there was no difference of Hindu or Muslim in Mr. Hangal's eyes., both were equal, he was a thorough gentle human being. Mr. Bhatty also told that Mr. Hangal had been thought a Sindhi by him as he (Mr. Hangal) used to behave publicly well like a Sindhi but he was astonished to know that Mr. Hangal had a background of Kashmiri Pandit family, born in Punjab and whose ancestors' roots were in Lucknow, so in that way  Mr. Hangal was a pure Indian, representing the amalgamation of different cultures  of various states of India.

Mr. Rabinder Singhn Rabbi from Punjab-Ipta  also shared his heart-felt feelings for Mr. Hangal. he said that he had the privilege to meet Mr. Hangal personally during Ipta's National Conference at Lucknow.Mr Hangal was a moving spirit in the procession, takedn out in Lucknow city on the first day of the conference. Mr. Hangal's message  shown through video at Ipta's Bhillai Conference was  source of great motivation for the younger generation. Mr. Rabbi  also read an article written by Mr. Sanjeevan Singh, General Secretary, Punjab-Ipta, who could not attend the function due to his illness.
                     
Ms. Kanwaljit Dhillon from Chandigarh-Ipta, while addressing the  audience, narrated the grandeur history of Ipta since its inception till date, especially the contribution of Ipta's committed functionaries like Mr. kaifi Azmi, Mr. A.K. Hangal, Mr. M.S. Sathyu, Mr. Rajinder Raghuvanshi and others, who  contributed  a lot for the Revival of Ipta since 1985  as  a few units of ipta were disintegrated after sixtees in a few parts of the country. She also stressed upon the need and relevancy of ipta in the present times.

While delivering the presiding remarks, President of Punjab-Ipta Mr. Devinder Daman appreciated the initiative taken by Chandigarh-Ipta's functionaries to organise the function to pay rich tribute to the Legendary personality Mr. A.K. hangal. He also re-collected his association  with Mr. Hangal duirng past times. He gave a call to all the theatre-artists present on the occasion  to follow the foot-steps set by Mr. Hangal to create a healthy and constructive atmosphere and environment for the betterment of the society.
                      
A theatrical tribute was presented to the thespian theatre-artiste Mr. A.K. Hangal by putting a  satirical play by the artists of Chandigarh-Ipta. It was written by  Late Sh. Gursharan Singh titled  RAAHAT and  was directed by Sh. Ikkatar Singh, depicting the fake  relief-measures adopted by political-leaders for the grieved flood-victims.
                       
The function  was concluded by presenting a vote of thanks by Mr. Balkar Sidhu to all the dignatories, guests, artists, theatre-lovers, admirers of Late Sh. A.K. Hangal and the persons, who were present  there including Mr. Gurnam Kanwar,  Ms. Jaswant Daman, Shabdeesh, Ms. Kulwant Bhatia, Ranjeevan Singh, Rajiv Mehta, Ms. Narinder Nindy, Baljit Zakhmi, Ravinder Happy, Ms. Usha Kanwar, Jasbir Shantpuri, Ms. Manjit Kaur Meet,  Satwinder Madolvi, Baljinder Darapuri. He also thanked Punjab Sangeet Natak Academy, Chandigarh for providing  hall and other facilities.  

Thursday, September 13, 2012

लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन है त्रिवेदी की गिरफ्तारी


मेदिनीनगर। मुबंई पुलिस द्बारा कार्टूनिष्ट असीम त्रिवेदी की गिरफ्तारी लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन है। भारतीय जन नाट्य संघ ‘इप्टा’ महराष्ट्र सरकार के इस कृत्य की  आलोचना करते हुए इसकी भर्त्सना करती है। इप्टा ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर कहा कि अजीम त्रिवेदी की गिरफ्तारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है। ‘इप्टा’ त्रिवेदी की बेशर्त रिहाई की मांग करती है। साथ ही कारपोरेट हाउस के इशारे पर साहित्य एवं संस्कृति पर जो हमला किया जा रहा है। इस पर रोक लगाने की मांग करती है।

इप्टा का कहना है कि जनआंदोलनो को तो लाठी-डंडे, गोली और दमनकारी नीति अपनाकर दबा दिया जा रहा है। ऐसे में लोकतंत्र की हिफाजत के लिए सृजनात्मकता को दबाना, कुचलना कतई बर्दाश्त नहीं। ‘इप्टा’ इसके खिलाफ देशव्यापी आंदोलन चलाएगी। निंदा करने वालों में इप्टा के शैलेनद्र सिंह, उपेन्द्र मिश्रा, शैलेन्द्र कुमार, नदंलाल सिंह, राजीव रंजन, रविशंकर, संजू, अमन चक्र, संजीत, समरेश सहित अन्य लोग शामिल है।

Wednesday, September 12, 2012

'रिटायरमेंट की उम्र में फ़िल्में करने लगा'

-वेदिका त्रिपाठी
''मेरी उम्र 18 साल थी जब मैंने नाटकों में काम करना शुरु कर दिया था. मेरे घर पर सब अंग्रेज़ों के ज़माने के अफ़सर थे. सब चाहते थे कि मैं भी अंग्रेज़ सरकार का अफ़सर हो जाऊँ. मैंने टेलरिंग सीखी और फिर इतने अच्छे कपड़े सिलने लगा कि उस ज़माने में मुझे चार सौ रुपए मिलते थे. अपने इस काम के लिए घर में बहुत डाँट खाई.चूंकि मैं स्वतंत्रता सेनानी था तो अंग्रेज़ों का ग़ुलाम कैसा बनता और उनकी नौकरी कैसे करता.

आज़ादी की लड़ाई के दौरान कई बार जेल गया. कराची की जेल में भी बंद हुआ. संयोग ही था कि मेरा जन्म 15 अगस्त को हुआ था. मुंबई तो मैं बहुत देर से आया. कुछ कमाने के मकसद से मुंबई में भी मैंने टेलरिंग का काम शुरू किया. ड्रामा तो मैं करता ही रहता था और उसे देखने वाले कई लोगों ने मुझसे कहा कि तुम फिल्मों में काम क्यों नहीं करते.

लोगों के इतना कहने के बाद मैं भी सोचने लगा कि मैं फिल्मों में काम क्यों नहीं कर रहा हूँ. पचास के दशक में एक दिन भूलाभाई इंस्टीट्यूट में मैं अपने ड्रामें की रिहर्सल कर रहा था तो स्व. बासु भट्टाचार्य आए और उन्होने मुझे अपनी फिल्म तीसरी कसम में काम करने के लिए कहा. मैंने वह किरदार स्वीकार कर लिया क्योंकि रोल तो छोटा सा था लेकिन वह किरदार राज कपूर के बड़े भाई का था और वहीदा रहमान जैसे कलाकारों के साथ मुझे काम करने का मौका मिल रहा था.

शूटिंग के पहले दिन सुबह के 9 बजे मोहन स्टूडियो मैं यह सोचकर पहुंच गया कि सब अपने समय पर आ गए होंगे. लेकिन मुझे दोपहर तक राज कपूर के लिए रुकना पडा. यह मेरा शूटिंग का पहला पाठ था. ऋषिकेष मुखर्जी की कई फिल्मों ने मेरी पहचान बनाई. उन्होंने अपनी फिल्म गुड्डी में मुझे जया बच्चन के पिता के रोल में लिया. फिर क्या था, मेरा और जया बच्चन का बाप-बेटी का रिश्ता बहुत जम गया. नमक हराम, बावर्ची, गुड्डी, अभिमान जैसी फिल्मों ने मेरे अभिनय की छाप छोडी.

मैं चालीस साल की उम्र में फिल्मों में आया था. जिस उम्र में लोग रिटायर होते हैं उस उम्र में मैं फिल्मों में आया. मेरे काम को लेकर आज भी मुझे चिट्ठियां आती है. इस उम्र में भी लोग मुझे पूछते हैं, जानकर बहुत अच्छा लगता है. मैं हर किसी से सीखना चाहता हूँ. जब मैं डायलॉग बोलता हूं तो लाइनें रटकर नहीं बल्कि उसे समझकर बोलता हूं, शायद इसीलिए मेरा किरदार इतना ओरिजिनल लगता है.

जब कोई किरदार निभाता हूं तो उसकी पूरी खोज करता हूं कि कौन सा धर्म है, कौन से गाँव का है, कब की कहानी है, क्या संस्कार हैं आदि. शायद इसीलिए मेरी अदाकारी में दिखावटीपना नहीं होता है. समाज और सिनेमा पहले फ़िल्में बहुत मौलिक हुआ करती थीं. वैसे ऐसा नहीं है कि आजकल की फिल्मों में मौलिकता नहीं रह गई है.

नकल तो वही करते हैं जिनमें अकल नहीं होती है. स्कूल में नकल वही करता है जो पढ़ाई करके नहीं आता है, बस यही बात है. मैं मानता हूं ऐसा नहीं होना चाहिए लेकिन मेरे हाथ तो कुछ है नहीं कि इसे रोक सकूँ. आज भी कई लोग ऐसे है जो नई कहानियों के साथ नया अनुभव कराते हैं.

कहते हैं ‘यथा राजा तथा प्रजा’. आज समाज में रहने वाले लोग भी ऐसे ही है. आज जो लोग सत्ता में बैठे हैं वो सिर्फ पैसे के बलबूते पर बैठे हैं. कोई सट्टे वाला है, कोई जुए वाला है, कोई डॉन है तो इनके पास भावनाएँ कहां से आएँगी. और तो और जो डॉन नहीं है वो डॉन के पैसों पर ही काम करते हैं. आजकल फिल्में भी वैसे ही बनती हैं जिसे लोग देखना चाहते हैं. कुछ समय पहले किसानों पर फिल्में बनती थीं, ऐसी फिल्में बनती थी जिससे समाज मे कोई संदेश जा सके लेकिन आज एकदम उल्टा हो गया है.

लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता है. समय बदलता रहता है. फिर बदलेगा ज़माना, अभी बदला क्या है. जो आजकल का समाज़ है वह भी बदलेगा. आज जो ये बुरे हालात हैं कुछ दिनों में नहीं रहेंगे. आज लोगों को तड़क-भड़क वाली चीजें ज्यादा पसंद आती हैं. आज कोई प्रेमचंद को नहीं पढ़ना चाहता. बॉलीवुड दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने के लिए जाना जाता है. लेकिन इसकी वजह से हमारा बॉलीवुड कमज़ोर नहीं हुआ है.

पहले के ज़माने में एकदम साफ-सुथरी फिल्में ही बनती हैं और जो फिल्में बनती भी थीं उनकी संख्या बहुत ही कम थी. साथ ही उसका दर्शक वर्ग भी अलग होता था.कहानी की कमी ज्यादातर ऐसे ही होता है. जब हम अच्छा काम करते हैं तो ज्यादातर उसपर ध्यान किसी का नहीं जाता है, इसलिए लोगों को आकर्षित करने के लिए हर चीज़ में थोडा मसाला लगाना ही पडता है. आज के हमारे समाज़ पर ही फिल्में बन रही हैं. जो नए निर्देशक आए हैं सब इंस्टीट्यूट से पढे-लिखे हैं और समझदार लोग हैं. कहते हैं जब अच्छी चीजें आती हैं तो साथ में बुरी चीजों को भी न्योता दे आती है. आज की ज़्यादातर फिल्में किसी एक ख़ास वर्ग को ध्यान में रखकर बनाई जा रही हैं. सरकार भी उनकी ही है जिनके पास पैसा है.

जिस वर्ग की सरकार है सिर्फ वही वर्ग मज़े कर रहा है और उसे कोई तकलीफ नहीं है. आजकी फिल्में कमर्शियलाइज हो गई हैं. लेकिन मुझे ये कहते हुए बहुत दुख हो रहा है कि आजकल के लोग समाज को करीब से नहीं पढ़ पा रहे हैं और जिसका साफ असर बनने वाली फिल्मों पर लगाया जा सकता है जिसकी वजह से बॉलीवुड में कभी-कभी कहानियों की कमी भी महसूस होने लगती है. लेकिन अगर पॉजिटिव साइड देखें तो इसी इंडस्ट्री में कई संगीत, कहानियां, डांस और परफॉमेंस ऐसे हैं जिन्हें देखकर नएपन का एहसास भी होता है.

मुझे क्लासिकल संगीत बहुत पसंद है और शुरूवात के कुछ साल मैंने अपने इसी शौक को दिए.जैसे-जैसे दिन निकलते गए मैं रोज़ रियाज़ भी नहीं कर पाता था. वोकल संगीत से मेरा नाता टूटता गया. लेकिन आजकल मैं अपने पसंदीदा गायकों की ठुमरी और गज़ल खूब सुनता हूँ. इससे मेरे मन को एक आध्यात्मिक संतोष मिलता है.

सन् 1993 में मुंबई मे होने वाले पाकिस्तानी डिप्लोमैटिक फंक्शन में मेरे हिस्सा लेने की वजह से शिव सेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे ने मेरी वर्तमान और भविष्य दोनों ही फिल्मों पर रोक लगा दी थी. जिसका असर मेरी फिल्मों पर भी पड़ा और करीब दो साल तक मैं बेरोज़गार रहा था. निर्माता-निर्देशक मुझे अपनी फिल्मों मे रोल देने से कतराने लगे. ‘रूप की रानी चोरों का राजा’, ‘अपराधी’ जैसी कई फिल्मों से मेरे किरदार निकाल दिए गए.आख़िरकार, जनता की मदद से रोक हटी और मैं फिर फिल्मों में काम करने लगा. लेकिन मेरे उन दिनों में हुए नुकसान की भरपाई कौन कर सकता है.''

(बीबीसी के लिये हंगल साहब का यह इंटरव्यू कुछ साल पहले का है)

 बीबीसी हिंदी से साभार

Tribute to Hangal saab by IPTA Mumbai

A tribute paid to Hangal saab organised by IPTA Mumbai at Prithvi theatre 0n 27th sept . Tributes were paid by the theatre and film community. Shabana Azmi, Javed Akhtar talked about their association with Hangal saab. President Sulabha Arya remembered Hangal Saab and shared her experiences while General Secretary Nivedita Baunthiyal talked about Hangal ssab's contribution to IPTA and that he is and would always be a great source of inspiration to the younger generation. Nivedita Baunthiyal said that she along with other members promises Mr Hangal that they all would keep on working in the true IPTA spirit and would follow the path shown by Hangal saab. Nivedita Baunthiyal also read out a page from Hangal Saab's autobiography MAIN EK HARFANMAULA. A K HANGAL..

A piece from the play Shatranj Ke Mohre was enacted by Shri Aanjjan Srivastav. That role was played by Hangal Saab earlier. Aanjjan ji talked about his association with Hangal Saab. Actress and singer Ila Arun paid tributes to Hangal Saab and said Hangal Saab was a father figure for her. Hangal Saab's only son Shri Vijay Hangal talked about his father and later Mr Kabir Bedi read out a poem written by Shri Vijay Hangal for his father Shri A K Hangal. IPTA choir sang 2 songs from its music album VAKO NAAM KABEER led by IPTA Patron and music director Kuldip Singh. 


-Nivedita Baunthiyal















































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Thursday, September 6, 2012

भिलाई में स्मृति ए.के.हंगल

भिलाई ,प्रगति शील लेखक संघ और इप्टा के संयुक्त तत्वाधान में नेहरु सांस्कृतिक भवन सेक्टर -1 के मुक्ताकाशी रंगमंच पर १ सितम्बर को स्मृति ए.के.हंगल का आयोजन किया गया जिसमे इप्टा भिलाई के 37 कलाकारों ने अशफाक खान के निर्देशन में नाटक रामलीला (राकेश-लखनऊ ) का मंचन किया.

मंचन के पूर्व प्रसिद्ध समालोचक प्रो.सियाराम शर्मा (जन संस्कृति मंच), कवि शरद कोकास (दुर्ग),समीक्षक प्रो.जय प्रकाश साव (दुर्ग), कवि, आलोचक अशोक सिंघई ,लोक बाबू (अध्यक्ष -प्रलेस), शायर मुमताज (जनवादी लेखक संघ),वी.एन.प्रसाद राव ,जयप्रकाश नायर ,राजेश श्रीवास्तव ने श्री  ए.के.हंगल को दुर्ग भिलाई बिरादरी की तरफ से श्रद्धांजलि अर्पित की.

मंचन के पश्चात अशोक सिंघई ने कहा कि ए.के.हंगल को श्रद्धांजलि के लिए इस से बेहतर और कोई तरीका नहीं हो सकता था. इप्टा भिलाई ने हंगल जी को याद करते हुए सच्ची श्रद्धांजलि दी..कार्यक्रम का संचालन भिलाई प्रलेस के सचिव परमेश्वर वैष्णव ने किया.

THEATRE WORKSHOP BY J & K

- Sanjay Gupta

 In the month of july 2012 IPTA J&K Chapter started a children’s workshop . Workshop was inaugurated by Com.(Dr.)G.S.Charak. After the completion of the workshop Indian People’s Theatre Association J&K Chapter organized a function on 30th July 2012 at Govt. Polytechnic College(boys) Auditorium to culminate its Summer theatre Workshop. Sh. Balkar Sidhu,President IPTA Chandigarh (former Asst. Secy.,Deptt. Of languages, Govt. of Punjab) was the Chief Guest on the occasion. Col. Pummy Khanna(Member National executive) , Dr. G.S. Charak, Ashwani Pradhan(chairman, IPTA J&K Chapter, Sh. Vijay Malla(President, IPTA J&K Chapter) And Sh. Arun Sandal shared the dais as guests of honour. The workshop was dedicated to late. Vijay Bhardwaj, an eminent theatre personality of the state.

The programme started with the lightening of the ceremonial light by the dignitaries. Homage was paid to Late Vijay Bhardwaj by garlanding his portrait. Sh. Ashwani pradhan Formally welcomed the guests and the elite gathering.

A children’s play ‘ASLI NATAK KAL HOGA’ and a short play ‘INTEHA” was performed on the occasion. The children’s play ‘ASLI NATAK KAL HOGA’ is a play within the play. The school children are rehearsing the play they have to perform in their school festival. But they differ over the selection of the script with their director. And thereon unfolds the theme of the play. The children’s play revolves round the pitiable condition of the children. They have no say, whatsoever, in shaping their destinies. They are made to follow whatever the adults desire. Even they are not allowed to take decisions regarding their games and co curricular activities. They are forced to take private tuitions and are encouraged to adopt unfair means in order to secure good marks. They are made tools to play dirty politics of the school management. But in the end children understand the wrong being done to them and rise to the occasion to seek their right.

Sana Dogra as the teacher enthralled the audience by her performance, Falguni Gupta and Nidhika Raina performed their role of faithful students in a very professional manner . Swarit Mahajan as director of the play received whole hearted applaud from the audience, Ritvik Gupta and Hitein Jamwal as student leaders also drew the public attention. Tiny tot Eiten Jamwal made the audience laugh with his naughty character.
on the modern society. Two youths who are in search of a job are time and again distracted from their goal by the so called religious leaders and political leaders. But in the end they see through their game plan and exhort the youth not to fall prey these political leaders and religious gurus. The character of two youths was enacted vibrantly by Manoj bhat and Vikram Rajwal. Hardeep Singh And Hariket Jij did full justice to the characters of Religious guru and political leader respectively. The play ‘INTEHA’ has been written by Sanjay Gupta. Both the plays were directed by Mr. Manoj Bhat.

The other play ‘INTEHA” was performed by the senior artists of the association. The play is a satire
The workshop was jointly coordinated by s/sh. Sanjay gupta,Gen.secy. IPTA J&K Chapter, Manoj Bhat,Secretary J&K chapter and Hardeep Singh. Later on, the chief guest presented the certificates of participation to the artists who attended the Summer theatre workshop.

 Sanjay gupta, Gen. Secretary of IPTA J&K chapter, While speaking on the occasion gave a brief history of Indian People’s theatre association and threw light on the recent activities of IPTA J&K Chapter.  The chief guest congratulated the local Unit of IPTA for their commitment and extended the wholehearted support of IPTA Punjab. Dr. G.S Chark, the guest of honour thanked the organizers for giving him a chance to be a part this memorable evening.  The programme ended with the vote of thanks by the president IPTA J&K Chapter.  IPTA J&K Chapter is performing Nukkad nataks every Sunday, barring few exceptions due to inclement weather.





Tuesday, September 4, 2012

आगरा में अमृत लाल नागर जयन्ती समारोह


"एक दिन मुगलों की राजधानी के चहल-पहल भरे बाजार में, दिया जले के वक्त  किनारी बाज़ार में अपनी दुकान पर बैठे लाला बांकेमल कहते हैं - "अहाहाहा प्यारे, आजा आजा ! अरे तेरी लाखों बरस की उमर हो बेटा, खूब आया-खूब आया बच्चा ! ले बैठ जा, अरे मेरे पास बैठ तरकैटी में...हाँ, इस तरियों । हें, हें, हें, तुझे देख लूँ हूँ भैया तो चौबे जी की याद तरोताजा हो जावे है । मर गया चौबे प्यारा । मुझे बिधवा बना के छोड़ गया । अब तो जिंदगी काटे नईं कटे है भैया । दुनिया बड़ी खुस्कैट हो गयी है प्यारे...एकदम फौक्स सुसरी । हम सरीफों के रहने काबिल अब रही नहीं भैयो । बारे आने सेर दूध भला बताओ कोई कैसे जिये .. अरे कहाँ रुपै का सोलै सेर दूध पीके दण्ड पेला करे थे हम लोग ! ...हाय रे जमाने !"

ये अंश हैं अमृतलाल नागर की कृति "सेठ बांकेमल" के जिसे इप्टा के कलाकारों ने नागरी प्रचारिणी सभा के मानस भवन में उनके 96वें जयंती समारोह में दिलीप रघुवंशी के निर्देशन, जितेन्द्र रघुवंशी के संयोजन में मंचित किया । इसमें न सिर्फ आगरे की गली-मौहल्लों की जुबान वरन पंजाबी लहजा भी दिखा । अर्जुन गिरि (बांके), दिलीप रघुवंशी (पंजाबी साहब), कुमकुम रघुवंशी (पंजाबी मेमसाहब), आशुतोश गौतम (शाहजहाँ एवं लाट), सौम्या रघुवंशी (ताजबीबी और लाटनी), निर्मल सिंह (बांके-टू और बंगाली मोशाय), अनुज मिश्रा (मूलचद), सिद्धार्थ रघुवंशी (डॉ मूंगाराम), प्रखर सिंह (जयसिंह, लफटंट, घोशबाबू), विक्रम सिंह (लल्लू, पारितोष), सूरज सिंह (लेखक, बोस बाबू), ने अभिनय किया ।

अमृत लाल नागर साहित्य केंन्द्र, संचित स्मृति न्यास लखनऊ द्वारा नागरी प्रचारिणी सभा के सहयोग से आयोजित समारोह में वीरभद्र विश्वविद्यालय जौनपुर के कुलपति प्रो. सुन्दर लाल ने कहा साहित्यकारों की स्मृतियों को बनाये रखें तो समाज सही दिशा की ओर अग्रसर होता रहेगा । अपने विश्वविद्यालय में साहित्यकारों की वाणी के संपादित अंशों को आडियो कैसेट-सीडी में बतौर स्मृति संजोएंगे । मुख्य अतिथि केएमआई के निदेशक प्रो. हरिमोहन ने कहा बहुआयामी साहित्य के रचनाकार नागर जी कृतियों के कारण अमर हैं । प्रो. हरिमोहन का श्हिन्दीसेवी सम्मानश् मिलने पर अभिनंदन किया ।

मुख्य वक्ता सोम ठाकुर ने कहा हंसमुख व्यक्तित्व के धनी नागर जी की जिंदादिली अनुकरणीय है,  मुझे राजश्री प्रोड्क्शन ने बुलाया, तो नागर जी ने आशीर्वाद दिया । सभापति सरोज गौरिहार ने कहा नागर जी के सानिध्य में जिए पल चिर स्मरणीय थाती हैं । स्मारिका का विमोचन हुआ । बृज बिहारी लाल बिरजू ने शारदा वंदना  की । उ.प्र. हिन्दी संस्थान लखनऊ की पूर्व संयुक्त निदेशक डॉ. विद्याविन्दु सिंह, नागर जी की पुत्रवधू विभा नागर, पौत्री डॉ. ऋचा नागर, पौत्र तरुण नागर ने संस्मरण सुनाए । प्रो. कमलेश नागर ने संचालन, मंत्री डॉ. चंद्रशेखर ने स्वागत, डॉ. खुशीराम शर्मा ने धन्यवाद दिया ।

Saturday, September 1, 2012

हंगल साहब की याद में चाईबासा में शोकसभा

‘हाथ पड़ता है कहीं , पड़ता है पाँव कही
सबकी खबर तुमको , अपनी खबर कुछ भी नही’

भारतीय जन नाट्य संघ, इप्टा कें राष्ट्रीय अध्यक्ष ए० के० हंगल साहब के निधन पर इप्टा चाईबासा शाखा ने एक सभा स्थानीय स्कॉट बालिका उच्च विद्यालय में आयोजित कर उन्हें श्रद्धांजलि दी। साथ ही दो मिनट का मौन रखकर उनकी आत्मा की शान्ति हेतु ईश्वर से प्रार्थना की गई।

संरक्षक रतनलाल दोदराजका, अजय मित्रा, राजीव नयनम् एवं इप्टा के सभी सदस्यों ने उनके तस्वीर पर श्रद्धा सुमन अर्पित किए। राष्ट्रीय अध्यक्ष ए० के० हंगल साहब के पिता हरिकिशन हंगल के इस सपूत का जन्म 01 फरवरी 1917 को सियालकोट में हुआ जिन्होने 50 वर्ष की उम्र में “तीसरी कसम” से अपना फिल्मी सफर आरम्भकर बावर्ची, शोले, अभिमान, नमक हराम, शौकीन, आँधी, अर्जुन, तपस्या सहित 250 से अधिक यादगार फिल्म देने वाले हंगल साहब, 26 अगस्त 2012 को सुबह लगभग 9.00 बजे हमें छोड़ गए।  हंगल जी को नाटक का शौक विरासत में मिला। बचपन पेशावर में बीता। अंतिम फिल्म ”पहेली“ व 2012 में रविन्द्र गौतम निर्देशित ”मधुबाला“ सीरियल रही। फिल्म ”शोले“ में रहीम चाचा का यह कथन इतना सन्नाटा क्यों है भाई ... को भुलाया नहीं जा सकता।

ख्याति प्राप्त रंगकर्मी व अभिनेता जो भारतीय जन नाट्य संघ इप्टा कें राष्ट्रीय अघ्यक्ष थे, जिन्हें वर्ष 2006 को भारत सरकार की ओर से पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। " मैंने अपने लिए नहीं कमाया", "सारा जीवन समाज के लिए है" जैसे विचार रखने वाले ए० के० हंगल साहब की कमी इप्टा कर्मियों को खलती रहेगी। इस श्रद्धांजलि कार्यक्रम के अवसर पर इप्टा के संजय चौधरी, कैशर परवेज, कृष्ण कुमार जयसवाल, शीतल बागे, रवि वर्मा, प्रकाश कुमार गुप्ता, मानस गोराई, तारा चंद शर्मा, राजेश कुमार, अभिजीत डे, नरेश राम, रोबिन्स कुमार, सुभाष मिश्रा, प्रभाकर तिवारी, आनन्द शर्मा, बसन्ती गोप, पुजा कुमारी, शिवशंकर राम, राजू] प्रजापति, विकास कुमार, प्रदीप कुमार शंकर उजिया सहित इप्टा के सभी रंगकर्मी उपस्थित थे।

गाँव में क्या कर रहे हैं रहीम चाचा?

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हिम्मत नहीं हारना, करते जाओ, बढ़ते जाओ

- डा० फीरोज़ अशरफ खान
"हिम्मत नहीं हारना, करते जाओ, बढ़ते जाओ. अभी बहुत कुछ बाकी है. हमने तो कुछ भी नहीं किया. जैसे हमने अपने आप को संभाला था, आने वाली पीढ़ी अपने-आप को संभालेगी. किसी के हाथ रखने की ज़रूरत नहीं. हाँ, वह देखेंगे कि पहले क्या-क्या हो चुका है, उससे प्रेरणा लेंगे; लेकिन वे नयी चीज भी करेंगे. सब पुरानी चीजों से गुजारा नहीं होता. नयी चीजें चाहिए और नए लड़के नयी चीजें लाते हैं"
ए के हंगल मरहूम के ये शब्द उनकी स्मृति सभा में गूँज रहे थे और सैकड़ों लोगों से भरा बिहार माध्यमिक शिक्षक संघ का सभा कक्ष चुप्पी साधे ग़म गीन और भाव-विभोर था. आयोजन था बिहार इप्टा, प्रगतिशील लेखक संघ, बिहार और बिहार कलाकार मंच, पटना का; जहां पटना के कलाकार, साहित्यकार, रंगसमीक्षा, फिल्मकार, फिल्मासमीक्षक, संस्कृतिकर्मी, प्राध्यापक, समाजसेवी सहित बड़ी संख्या में लोग उपस्थित थें.
ए के हंगल के साथ बिहार इप्टा की स्मृतियों को याद करते हुए बिहार इप्टा के महासचिव तनवीर अख्तर ने कहा कि हंगल साहब पहली बार बिहार संस्कृतिकर्मियों के सम्प्रदायवाद-अलगाववाद के खिलाफ राष्ट्रीय कन्वेंशन में कैफ़ी आज़मी और दीना पाठक के साथ पटना आये. वे बिहार में कलाकारों की एकजुटता से काफी प्रभावित हुए और कहा कि आज इप्टा के साथ कई आर इप्टा जैसे संगठन हैं, जिन्हें जनवादी संस्कृतिकर्म का काम करना है. प्रेमचंद रंगशाला मुक्ति अभियान में भी उन्होंने केंद्र सरकार को पत्र लिखकर बिहार के संस्कृतिकर्मियों का पक्ष लेने का अनुरोध किया.
ए के हंगल को अपनी श्रद्धांजलि देते हुए सिने सोसाइटी के अध्यक्ष आर एन दास में कहा कि हंगल विचारों की प्रतिबद्धता वाले कलाकार थें और सिनेमा को जनवादी दृष्टिकोण देने के प्रति इप्टा की राष्ट्रीय पहल के अग्रणी सिपाही थें. एक वैचारिक कलाकार के रूप इन्होने सिनेमा आन्दोलन को मजबूत किया. जनवादी लेखक संघ के राज्य सचिव अशोक कुमार ने ए के हंगल को संस्कृति और संस्क्रितिकर्मा का वैचारिक सिपाही कहते हुए उन्केविचारों को आगे बढ़ने पर बल दिया.
शिक्षाविद व् बिहार इप्टा के संरक्षक प्रो. विनय कुमार कंठ ने कहा कि हंगल साहब को नयी पीढ़ी पर भरोसा था. वे सामजिक दायित्वों को युवाओं के माध्यम से पूरा करने में विश्वास करते थें. वे प्रेरणा स्त्रोत थें और उनके जाने से नयी पीढ़ी पर विश्वास रखने वाले एक अध्याय आंत हुआ है, पटना दूरदर्शन के केंद्र निदेशक कृष्ण कल्पित ने कहा कि हंगल साहब का पूरा जीवन कला के प्रति समर्पित था. वे एक मिलनसार व्यक्तित्व के मालिक थें. जयपुर में इप्टा के राष्ट्रीय सम्मलेन में हंगल साहब से मेरी भेंट हुई थी. वे इप्टा के सिनेमा आन्दोलन के सिपाही थे और इप्टा के सिनेमा आन्दोलन की पहली फ़िल्म "वीटा नगर" जिसे चेतन आनंद ने निर्देशित किया था के गवाह थे. यह फिल्म आज भी हिन्दुस्तानी सिनेमा गोल्डन पन्ना है.
वरिष्ठ अभिनेता व् रंगकर्मी डा. जावेद अख्तर खान ने आपनी श्रद्धांजली देते हुए कहा कि इप्टा में कई अवसरों पर हंगल साहब से साक्षात्कार का मौक़ा मुझे मिला. हंगल साहब के बारे में सोचते हुए मेरे सामने एक 'कश्मीरी पंडित", "लाहौर का नौजवान", "आज़ादी के आन्दोलन का सिपाही", "प्रतिबद्ध अभिनेता", आदि कई विम्ब उभर कर सामने आ जाते हैं. हंगल साहब उस विभाजन की पीड़ा के प्रतिक थे और भीषम साहनी, बलराज सहनी, फैज़, आदि के साथ खड़े दिखाते हैं जो सम्प्रदायवाद के किलाफ़ मजबूती के साथ खडा होता है. हंगल साहब जीवनपर्यंत भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी के सदस्य, कार्ड होल्डर रहे. यही उनकी प्रतिबद्धता का प्रतीक है कि ९८ साल के नौजवान की शवयात्रा लाल झंडे से लिपटी निकली. उनका सादगी पूर्ण जीवन और अभियान आज भी बलराज सहनी की तरह ही हिंदी सिनेमा में अभिनय का आदर्श है.
स्मृति सभा का संचालन बिहार इप्टा सचिव मंडल के साथी डा० फीरोज़ अशरफ खान ने किया तथा अध्यक्षता बिहार इप्टा अध्यक्ष मंडल के साथी समी अहमद, रंगकर्मी सुमन और भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी के सचिव का० शत्रुघ्न प्रसाद सिंह ने की.
सभा को वरिष्ट आलोचक खगेन्द्र ठाकुर, प्रेरणा के सचिव हसन इमाम, विनोद कुमार, सहित चिन्तक विचारकों संबोधित करते हुए हंगल साहब को श्रद्धांजलि दी.
धन्यवाद ज्ञापन बिहार कलाकार मंच के संयोजक रविकांत ने किया.