Thursday, August 23, 2012

सुनील जाना : जिन्होंने कैमरे से राजनीतिक कार्य किया (अंतिम किस्त)


-विनीत तिवारी

"कम लोग ही यह बात जानते हैं कि कैमरे की आँख से दुनिया को पूरी तीव्रता के साथ पकड़ने वाले सुनील जाना की सिर्फ़ एक आँख ही दुरुस्त थी। दूसरी कभी बचपन में ही ग्लॉकोमा की शिकार हो गई थी। इसके बावजूद सुनील जाना अपने निगेटिव्स को ख़ुद ही डेवलप किया करते थे। आख़िरी वर्षों में उनकी दूसरी आँख ने भी उनका साथ छोड़ दिया था। उन्होंने फ़ोटोग्राफ़ी का कोई विधिवत ज्ञान हासिल नहीं किया था। जो सीखा, करके सीखा और उस ज़माने के जो उस्ताद फ़ोटोग्राफ़र माने जाते थे, उनके पास जाकर सीखा...."

कम्युनिस्ट पार्टी में जब 1948 में मतभेद हुए और कॉमरेड पी. सी. जोशी पार्टी के महासचिव पद पर नहीं रहे तभी सुनील जाना और कम्युनिस्ट पार्टी में भी दूरी बन गई। कॉमरेड पी. सी. जोशी उनके लिए बहुत मायने रखते थे। सुनील जाना ने 1947-48 में कलकत्ते में अपना एक फ़ोटो स्टूडियो खोला और उन्होंने कलात्मक फ़ोटोग्राफ़ी के काम को जारी रखते हुए उन्होंने देश भर में बिखरे प्राचीन स्मारकों, मंदिरों आदि के स्थापत्य को और विभिन्न भारतीय नृत्यों की तस्वीरें खींच उन्हें दस्तावेज़ बनाना शुरू किया। शांताराव, रागिनी देवी, इंद्राणी रहमान, बड़े ग़ुलाम अली ख़ान जैसे उस वक्त के महान कलाकारों की उन्होंने यादगार तस्वीरें खींचीं। उन्होंने 1949 में कलकत्ता फ़िल्म सोसायटी की स्थापना की जिनमें चिदानंद दागुप्ता, हरि दासगुप्ता और अन्य लोगों के साथ-साथ सत्यजित राय भी शरीक थे। सुनील जाना की पहली किताब ‘दि सेकंड क्रिएचर’ का कवर सत्यजित राय ने ही डिज़ाइन किया था। उसके बाद उनकी ‘डांसेज़ ऑफ़ दि गोल्डन हॉल’ और ‘दि ट्राइबल्स ऑफ इंडिया’ शीर्षक से दो किताबें और आयीं। ‘दि ट्राइबल्स ऑफ़ इंडिया’ किताब पर उनका काम प्रसिद्ध नृतत्वविज्ञानी वेरियर एल्विन के साथ था। उनकी एक किताब ‘फ़ोटोग्राफ़िंग इंडिया’ प्रकाशित होने के पहले ही उनकी मृत्यु हो गई। यह किताब जल्द ही ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित होगी जिसमें सुनील जाना ने न केवल छः दशकों में फैले अपने चित्रों को समेटा है बल्कि इसमें आत्मकथात्मकता भी है और साथ ही 9/11 के बाद अमेरिका में रहने के अपने अनुभव भी उन्होंने लिखे हैं।

कम लोग ही यह बात जानते हैं कि कैमरे की आँख से दुनिया को पूरी तीव्रता के साथ पकड़ने वाले सुनील जाना की सिर्फ़ एक आँख ही दुरुस्त थी। दूसरी कभी बचपन में ही ग्लॉकोमा की शिकार हो गई थी। इसके बावजूद सुनील जाना अपने निगेटिव्स को ख़ुद ही डेवलप किया करते थे। आख़िरी वर्षों में उनकी दूसरी आँख ने भी उनका साथ छोड़ दिया था। उन्होंने फ़ोटोग्राफ़ी का कोई विधिवत ज्ञान हासिल नहीं किया था। जो सीखा, करके सीखा और उस ज़माने के जो उस्ताद फ़ोटोग्राफ़र माने जाते थे, उनके पास जाकर सीखा। तीस के दशक से 90 के दशक तक, साठ वर्ष तक वे फ़ोटोग्राफ़ी करते रहे। इन साठ वर्षों में उन्होंने किसान-मज़दूरों के संघर्षों, आज़ादी के आंदोलन, भारत के प्राचीन स्थापत्य से लेकर आज़ाद भारत के तीर्थ कहे जाने वाले उद्योगों, बाँधों, कल-कारखानों, रेलवे लाइनों तक के निर्माण को, राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-वैज्ञानिक विभूतियों से लेकर देश के विभिन्न आदिवासी समुदायों, दंगों, अकाल, लाशों के ढेर, विद्रोह, विभाजन, विस्थापन से लेकर मनुष्य के श्रम और उन्मुक्त जीवन सौंदर्य को उन्होंने तस्वीरों में दर्ज किया। अर्जुन ने अपने पिता की तस्वीरों के बारे में कहा है कि उनके चित्रों में एक कविता जैसा गठन होता है।

सत्तर के दशक तक उनकी प्रदर्शनियाँ देश-विदेश में अनेक जगह लगती रहीं। योरप के पूर्व समाजवादी देशों में अनेक जगह उनके चित्र प्रदर्शित हुए। बाद में, 1978 में वे लंदन जा बसे जहाँ उनकी पत्नी शोभा डॉक्टर थीं। वहाँ उनके चित्रों की अनेक प्रदर्शनियाँ लगीं, उन्हें अनेक सम्मान मिले। लंदन में 1992 में नेहरू सेंटर के खुलने के तत्काल बाद उसमें सुनील जाना की तस्वीरों पर केन्द्रित कार्यक्रम हुआ। उनके काम और जीवन पर बीबीसी टीवी और आईटीवी ने दो डॉक्युमेंट्री फ़िल्में बनायीं। उनकी खींची तस्वीरों के बड़े-बड़े प्रदर्शन दिल्ली, मुंबई, कोलकाता में हुए। हवाना महोत्सव में उनकी तस्वीरें दिखायीं गईं। विश्वविख्यात नृत्यांगना इंद्राणी रहमान के बेटे राम रहमान ने, जो स्वये एक प्रसिद्ध फ़ोटोग्राफ़र भी हैं, 1998 में सुनील जाना की तस्वीरों की एक प्रदर्शनी न्यूयॉर्क की 678 कला वीथिका में आयोजित की थी जिसे गजब की सराहना मिली। लंदन से 2002 में जाना दंपति अमेरिका आ गए और तब से वहीं रह रहे थे।

आख़िरी वक्त तक उन्होंने जीवन और समाजवाद में अपना विश्वास नहीं डिगने दिया। वे एक दृश्य इतिहास अपने पीछे छोड़ कर गए हैं। इस खजाने और इसे बनाने वाले, दोनों की अनेक दशकों से देखभाल करने का काम चुपचाप करती आ रहीं थीं उनकी पत्नी शोभा जाना का निधन 86 की उम्र में 18 मई 2012 को ही हुआ था। वे पेशे से डॉक्टर थीं। उनके निधन के बाद सुनील जाना बमुश्किल एक महीना ही अपनी साँसें खींच पाये। उनकी बेटी और अर्जुन की बहन मोनुआ जाना का निधन असमय ही सन् 2004 में हो गया था।

सुनील जाना और शोभा जाना के निधन की ख़बर पर कॉमरेड बर्धन ने अर्जुन को शोक-संदेश भेजा। जब वह बोल रहे थे और मैं टाइप कर रहा था तो मुझे वे पुराने दिनों में जाते-आते दिख रहे थे। मुझे कभी-कभी लगता है कि मुझे भी उसी वक्त में होना था। क्या लोग हुआ करते थे उस दौर में। सुनील जाना भले कम्युनिस्ट पार्टी के बाद में सदस्य न रहे हों लेकिन उनका आदर्श आजीवन समाजवाद ही बना रहा। उन्होंने 1998 में इंटरव्यू में कहा था,‘‘बेशक आज भी मेरा यक़ीन समाजवाद में ही है। पूँजीवाद एक असभ्य और पाशविक व्यवस्था है जिसकी बुनियाद लालच है।’’ राम रहमान ने उनके बारे में सही कहा है कि ‘‘सुनील जाना बाक़ी फ़ोटोग्राफ़रों से अलग थे। वे एक सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता थे और उनका राजनीतिक कार्य ही फ़ोटोग्राफ़ी था।’’

दुनिया कई मायनों में बहुत छोटी हो गई है लेकिन इतनी भी नहीं कि हम तमाम इप्टा-प्रलेसं के दोस्त उनके बेटे अर्जुन के पास पहुँच सकें और कहें कि हम सब तुम्हारे साथ ही हैं। फिर भी, यह तो हम सब कहना ही चाहते हैं कि सुनील जाना हमारे भी परिवार के हिस्से थे और रहेंगे और इस नाते अर्जुन भी दुनिया के विशाल कम्युनिस्ट परिवार का हिस्सा है, अकेला नहीं।

संदर्भः
दि न्यू यॉर्क टाइम्स, 9 जुलाई 2012
गार्जियन, 5 जुलाई 2012
फ्रंटलाइन, सितंबर 12-25, 1998
 http://suniljanah.org
दि हिंदू, 23 जून 2012
हिंदुस्तान टाइम्स, 14 जुलाई 2012
   http://en.wikipedia.org/wiki/Margaret_Bourke-White


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2, चिनार अपार्टमेंट, 172, श्रीनगर एक्सटेंशन, इंदौर-452018
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