Friday, August 31, 2012

मैं बाल ठाकरे से क्यों डरूँ?


-सारिका श्रीवास्तव
इंदौर, 29 अगस्त 2012। कॉमरेड ए.के.हंगल के निधन पर भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) तथा प्रगतिशील लेखक संघ की इंदौर इकाई द्वारा 29 अगस्त 2012, बुधवार को रीगल चौराहे पर स्थित देवी अहल्या केन्द्रीय लाइब्रेरी में श्रद्धांजली दी गई।

कॉमरेड ए.के.हंगल के बारे में चर्चा हुए सजला श्रोत्रिय ने बताया कि 1917 में सियालकोट में पैदा हुए हंगल साहब आजादी के पहले ट्रेड यूनियन से जुड़ने और मजदूरों के साथ उनके संघर्ष में लड़ते-लड़ते आजादी के आंदोलन से जुड़ गए। विचारों और कला की आजादी के लिए निडरता से बोलने में वे कभी नहीं हिचके, जिसका बड़ा खामियाजा उन्होंने भुगता भी, लेकिन फिर भी अपनी बात पर कायम रहे। वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य भी थे। उन्होंने पाकिस्तान में भी कम्युनिस्ट पार्टी और मज़दूर संगठनों के साथ काम किया था और उसी दौरान वे फै़ज़ अहमद फ़ैज़ और सज्जाद ज़हीर जैसे दिग्गज वामपंथी लोगों के संपर्क में आए थे। हंगल साहेब कराची में कम्यूनिस्ट पार्टी के सचिव भी रहे। हिन्दी सिनेमा के आने वाले दिनों और आज बनने वाली आम आदमी को सच्चाई से दूर करती फिल्मों के लिए चिंतित रहते थे। भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण  से सम्मानित किया। वे भारत-पाकिस्तान दोनों की साझा संस्कृति के प्रतीक थे।

प्रगतिशील लेखक संघ, इंदौर के पूर्व अध्यक्ष एवं वरिष्ठ साहित्यकार कृष्णकांत निलोसे जी ने उनको याद करते हुए बताया कि सन् 2004 में इंदौर आयोजित नवें राष्ट्रीय सम्मेलन में हमने उन्हें आमंत्रित किया था और लग रहा था कि वे आएंगे भी कि नहीं, पर वे आए और बड़े ही सहजता से सबसे मुलाकात भी की। बैंक की साहित्यिक पत्रिका के संपादक ब्रजेष कानूनगो ने कहा कि कॉ. हंगल का व्यतित्व विचार से परिपूर्ण था, वे मार्क्सवादी दृष्टिकोण पर हमेशा कायम रहे और जिसके चलते उन्होंने फिल्मों में भी समझौता नहीं किया। विरोधियों ने उनका बायकाट किया लेकिन फिर भी उन्होंनेंने मनुष्यता का लेबल नहीं छोड़ा और हिंदुस्तान-पाकिस्तान की एकता पर जोर देते हुए अपनी बात पर कायम रहे और फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार का साथ दिया। आर्थिक विपन्नता कि स्थिति में टेलरिंग का काम किया और जीवन के उतार-चढ़ाव में दृड़ता के साथ बढ़ते रहे। ऑल इंडिया बैंक ऑफीसर्स एषोसिएसन के अध्यक्ष और प्रगतिशील लेखक संघ, इंदौर के संयोजक मंडल के साथी आलोक खरे ने उनको श्रृद्धांजलि देते हुए कहा कि आज के समय में ऐसे उदाहरण ढूंढना कठिन है। उन्होंने मार्क्सवाद को व्यवहारिक जीवन में उतारा और फिल्म लाइन में रहने के बावजूद प्रलोभन में पड़े। इप्टा और प्रलेस के साथ उनका जुड़ाव अंत तक बना रहा।

इप्टा के साथी रवि गुप्ता ने चर्चा करते हुए बताया कि हंगल साहेब जमीन से जुड़े इंसान थे। स्वतंत्रता संग्राम के काबुली गेट पर हुए प्रदर्षन के नरसंहार को उन्होंने भी देखा था। पढ़ाई के दौरान ही वे स्वतंत्रता आंदोलनों से जुड़ गए थे। आजादी के बाद 1949 में वे मुंबई आ गए। उनका इप्टा से संबंध आजादी से पहले का है और इसलिए मुल्क में तरक्की के गीत गाने एवं नाटक करने का संकल्प लेकर यहाँ आने के साथ ही वे इप्टा से जुड़ गए और अंत तक अपना संकल्प निभाते रहे। अपने जीवनकाल में उन्होंने करीब 40-50 नाटक भी किये। सन् 1965 से फिल्मों में आए हंगल साहेब ने छोटी-बड़ी अनेकों फिल्मों में अभिनय किया। कॉमरेड ए. केहंगल
सन् 2005 से जीवन की अंतिम साँस तक भारतीय जन नाट्य संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे।

पुराने साथी बिंदल जी ने कहा कि फिल्मों में किए गए उनके रोलेल किरदार असल जीवन में हमें कुछ न कुछ शिक्षा जरूर देते थे। उन्होंने हमेषा साफ-सुथरी फिल्मों में ही काम किया। थिएटर भी किया। देष की आजादी के आंदोलन में भी भाग लिया। हमें ऐसे व्यक्ति से सीख लेते हुए अपने संगठन को आगे बढ़ाना है। श्री पी.सी. जैन ने याद करते हुए बताया भारत-सोवियत सांस्कृतिक संघ के अहमदाबाद में हुए अखिल भारतीय सम्मेलन में उनसे मेरी पहली बार मुलाकात हुई थी एवं इसी के मुंबई में हुए पश्चिम क्षेत्रीय सम्मेलन में जब उनसे फिर मुलाकात हुई तो मेरे कंधे पर बड़ी ही आत्मीयता से हाथ रखते हुए उन्होंने पूछा कि “कहाँ रुके हो ?” फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े होने के बाद भी बहुत सहज ओर सरल हृदय के व्यक्ति थे। एटक, इंदौर इकाई के सचिव रुद्रपालजी ने श्रृद्धांजली देते हुए कहा कि वे वामपंथी विचारों के प्रति समर्पित कलाकार थे।

प्रगतिशील लेखक संघ की इंदौर इकाई के सचिव वक्ताओं ने उनके बारे में बहुत सारी जानकारी देते हुए बताया कि फिल्मों में निरीह किरदार निभाने वाले हंगल साहेब का असली जीवन में जीवट व्यतित्व था। वे सियालकोट में जन्मे थे। ब्रिटिश मिल्कियत के दौरान उनके दादा डिप्टी कमिश्नर थे ओर उन्हें भी अंग्रेजी हुकुमत से नौकरी का ऑफर आया लेकिन उन्होंने ठुकरा दिया और खान अब्दुल गफ्फार खान, भगत सिंह, फैज अहमद फैज से प्रेरित होने और आजादी के आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। रोजगार के लिए उनके एक दोस्त ने कपड़ों की कटिंग का काम सीखने के लिए इंग्लैंड में प्रशिक्षण कि व्यवस्था की, लेकिन उनके पिता ने उन्हें नहीं जाने दिया और उन्होंने भारत में ही रहकर यह काम सीखा और इसरदास नाम की फर्म में दर्जी का काम करने लगे। वहाँ उनके साथ काम करने वाले साथियों के साथ होने वाले अत्याचार का
विरोध ही नहीं किया बल्कि सारे दर्जियों की बहुत बड़ी यूनियन बना दी। बाद में जब उन्हें नौकरी से निकाला गया तो इसी यूनियन के लोगों ने बहुत बड़ा आंदोलन किया।

अपनी आत्मकथा लिखने के दौरान कुछ दस्तावेज हासिल करने उन्हें पाकिस्तान जाना था, जिसके लिए उन्होंने मुंबई स्थित पाकिस्तानी हाई कमीशन से फोन करके सियालकोट की यात्रा के लिए वीजा मांगा था, जिसे उनकी सरल इमेज के चलते आसानी से एप्रूव कर दिया गया था और उन्हें दिल्ली स्थित पाकिस्तान के दूतावास में 14 अगस्त को मनाए जाने वाले पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवस के समारोह में आमंत्रित भी किया, जिसमें हंगल साहेब के साथ-साथ दिलीप कुमार और शबाना आजमी को भी आमंत्रित किया गया। जिसका बाल ठाकरे ने विरोध किया और धमकी दी, जिसके कारण दिलीप कुमार और शबाना आजमी नहीं गए। लेकिन हंगल साहेब गए और उसमें उपराष्ट्रपति के.ए. नारायणन और भाजपा के मुरलीमनोहर जोशी भी मौजूद थे। लेकिन ठाकरे ने इनमें से केवल हंगल साहब को ही सजा का फरमान सुनाया। जिसके बाद बाल ठाकरे ने उनकी फिल्मों पर प्रतिबंध लगा दिया। ठाकरे के डर से लोगों ने उन्हें फिल्मों में काम देना बंद कर दिया, लेकिन इसके बाद भी वे अपनी बात पर अडिग रहे और उन्होंने ठाकरे से माफी नहीं मांगी। जब पत्रकारों ने उनसे पूछा कि आपने बाल ठाकरे से दुश्मनी  क्यों मोल ली तो उन्होंने कहा कि अंग्रेजों के समय मैं दो बार जेल गया, संयुक्त महाराष्ट्र के आंदोलन जिसे ठाकरे के पिता प्रबोधन ठाकरे ने चलाया था उसमें मैंने और मेरी पत्नी ने भाग लिया और मेरी पत्नी जेल भी गई ऐसे में मैं बाल ठाकरे से क्यों डरूँ। चुन्नीलालजी ने बताया कि उनको पस्तो, उर्दू, सिंधी, अंग्रेजी सहित कुल सात-आठ भाषाएँ बहुत अच्छी तरह आती थीं। कराची में उनकी दर्जी की दुकान पर ही बैठकें जमा करती थीं, जिसमें कॉमरेड सोभो ज्ञानचंदानी इत्यादी लोग भी शामिल हुआ करते थे। कार्यक्रम में कॉ. पेरीन दाजी भी उपस्थित थीं। कार्यक्रम का संचालन सारिका श्रीवास्तव ने किया।

आगरा में स्मरण ए के हंगल


"जीवन शाश्वत है और जीना सीमित"-कामरेड ए के हंगल के इन शब्दों के साथ 30 अगस्त को आगरा के संस्कृतिकर्मियों,सामाजिक कार्यकर्ताओं और कलाप्रेमियों ने स्वतंत्रता सेनानी,रंगमंच व फिल्म अभिनेता,इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष  पद्मभूषण हंगल सा.को याद किया.

डा.नसरीन बेगम ने इस मौके पर कहा कि वे तरक्कीपसंद तहरीक के अलमबरदार थे और अवाम  के दिलों को जीतने वाले.रामेन्द्र मोहन त्रिपाठी ने उन्हें सहज व सरल  कलाकार बताया.गोपाल गुरु का कहना था कि कलाकार की कला उसके बाद भी जीवित रहती है .डा.बी.के.लहरी ने अभिनय में उनके फोकस और इन्वोल्वेमेंट को रेखांकित किया.हरीश चिमटी ने कहा  कि उन्होंने अपनी गतिविधियों के सामाजिक,राजनैतिक व सांस्कृतिक पक्षों को बखूबी साधा.के. नंदा बोले कि उन्होंने सुई में धागा पिरोने से लेकर इप्टा की  नाट्य-चादर को बहुत सलीके से सिला.ओम शर्मा के उद्गार थे कि अभावों के बावजूद उन्होंने उच्चता को छुआ.

जितेन्द्र रघुवंशी ने उनकी जीवन-यात्रा पर प्रकाश डाला और कहा कि वे  कला और विचार की महान विरासत छोड़ गए हैं.भारत भूषण गप्पी ने  कला व सामाजिक कार्यों  में सक्रिय लोगों के आपसी सहयोग पर जोर दिया . डा. आर. सी शर्मा,केशवप्रसाद सिंह,डा.शिरोमणि सिंह,अनिल जैन,उमेश अमल,डा.प्रेमशंकर,डा.प्रियम अंकित,प्रमोद पांडे,उमाशंकर मिश्रा.अहमद हसन,राकेश भटनागर,दिलीप रघुवंशी,विशाल रियाज़,अनिल अरोरा संघर्ष ने हरियाली वाटिका में आयोजित इस आयोजन में कभी सांस्कृतिक 'सन्नाटा" न होने की कामना की.आगरा से हंगल सा. के रिश्तों को भी याद किया गया.

अनेक वक्ताओं ने निजी संस्मरण भी सुनाये.इस शहर में उन्होंने इप्टा के कार्यक्रमों में अनेक बार हिस्सा लेने के साथ-साथ सार्थक फिल्मों "सारा आकाश" और "गर्म हवा" की शूटिंग के लिए काफी समय यहाँ रहे थे. मलपुरा ग्राम में एक सभा को भी उन्होंने संबोधित किया था.  राजेन्द्र  रघुवंशी जी से हंगल सा. की मुलाकात 1947 की अहमदाबाद कांफ्रेंस में हुई थी और यह साथ 55 वर्षों का रहा.

Thursday, August 30, 2012

सुर में नहीं है संगीत विश्वविद्यालय


डोंगरगढ़। भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की डोंगरगढ़ इकाई ने इंदिरा कला व संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ में नाट्य विभाग के प्राध्यापक श्री योगेन्द्र चौबे के साथ पिछले दिनों हुई मारपीट की घटना की कड़ी निंदा करते हुए दोषी व्यक्तियों पर उचित कार्रवाई की मांग की है। इप्टा ने अपनी एक विशेष सभा में खैरागढ की उक्त घटनाओं को बेहद गंभीरता से लिया है और इस संबंध में महामहिम राज्यपाल को एक ज्ञापन सौंपने का निर्णय लिया है।

डोंगरगढ़ इप्टा ने अपने एक प्रस्ताव में कहा है कि खैरागढ़ में कला व संगीत विश्वविद्यालय की स्थापना ललित -प्रदर्शनकारी कलाओं के संवर्द्धन-संरक्षण के लिये की गयी थी और एशिया में इस तरह के एकमात्र विश्वविद्यालय होने का गौरव हासिल करने का अलावा यहां पर आज पर्यंत कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हो सका है। निहित स्वार्थी राजनीतिक तत्वों के अनावश्यक हस्तक्षेप व स्थानीयता की आड़ में असामाजिक तत्वों की मनमानी ने विश्वविद्यालय की सृजनात्मक संभावनाओं को प्रारंभ से ही प्रभावित कर रखा है और अब इस बात की आवश्यकता शिद्दत के साथ महसूस की जाने लगी है कि विश्वविद्यालय के सर्वांगीण विकास व इसके अपने हितों के मद्दे-नजर इसका विकेंन्द्रीकरण करते हुए कुछ विभागों को छत्तीसगढ़ में ही अन्यत्र स्थानांतरित कर दिया जाना चाहिये।

श्री योगेन्द्र चौबे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से प्रशिक्षित एक कुशल रंगकर्मी हैं और उनकी ख्याति देशभर में सक्रिय रंगकर्म की वजह से ही है। यह अत्यंत खेद का विषय है कि इस तरह की घटनाओं से कलाकारों की एकाग्रता सृजनात्मक कार्यो से विचलित होती है और बाध्य होकर उन्हें अपनी ऊर्जा गैर-उत्पादक कार्यो में लगानी पड़ती है। गौरतलब है कि इससे पूर्व भी श्री योगेन्द्र को अपमानित करने के उद्देश्य से विश्वविद्यालय की दीवारों पर अत्यंत आपत्तिजनक भाषा में कतिपय पंक्तियां लिखी गयी थीं, जिनके विवरण की अनुमति शिष्टाचार नहीं देता।

डोंगरगढ़ के साथ इप्टा की भिलाई, रायपुर, बिलासपुर व रायगढ इकाइयों ने भी इस मामले को गंभीरता से लिया है व समस्त इकाइयों के अतिरिक्त राज्य इकाई ने भी महामहिम राज्यपाल के संज्ञान में उक्त मामले को लाने के लिये एक ज्ञापन सौंपने का निर्णय लिया है।

हंगल साहब की याद में रांची में होगा फिल्म महोत्सव


झारखण्ड इप्टा, भाकपा व माकपा ने दी हंगल साहब को श्रद्धांजलि,
झुकाया पार्टी कार्यालय का झंडा

रांची। इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष सह रंगमंच और फिल्मी जगत के वयोवृद्ध अभिनेता अवतार कृष्ण हंगल की याद में रांची इकाई द्वारा फिल्म महोत्सव का आयोजन किया जायेगा। उनके निधन पर इप्टा, रांची द्वारा आयोजित शोकसभा में यह फैसला लिया गया। इसके अलावा भाकपा कार्यालय में भी उन्हें श्रद्धांजलि दी गयी और उनके सम्मान में पार्टी का झंडा झुका दिया गया है। इसी के साथ माकपा राज्य कार्यालय में भी उन्हें श्रद्धांजलि दी गयी।

 इप्टा, रांची द्वारा आयोजित शोकसभा को संबोधित करते हुए इप्टा मुंबई के साथी सह पटकथा लेखक अतुल तिवारी ने उनके साथ अपने अनुभवों को साझा किया और कहा कि हमलोंगों की यह परंपरा बन गयी थी कि जब मुंबई में रहता तो उनसे जरूर मिलता। लेकिन इस बार जब उनसे मिलने गया तो वे सो रहे थे, काफी इंतजार करने के बाद भी वे नहीं उठे। यह हमारे लिये अफसोस रहेगा कि जब इस बार मुंबई लौटूंगा तो उन्हें देख नहीं पाऊंगा।

श्री तिवारी ने कहा कि हंगल साहब अभिनेता के साथ-साथ मजदूर नेता भी थे। आजादी के आंदोलन के दौरान उन्होंने संघर्ष किया था। उनकी राजनीति भगत सिंह की फाँसी के बाद शुरू हुए आंदोलन से हुई थी। वे अंतिम समय तक भाकपा के सदस्य थे व अतुल अंजान से उनका आत्मीय संबंध रहा। वे जब भी मुंबई जाते, हम उन्हें साथ लेकर हंगल साहब के पास जाते। श्री तिवारी ने कहा कि हम दोनों को साथ देखकर हंगल साहब हमेशा कहते कि आखिर कब तक तुम लोग अगल-अलग रहोगे, अब तो एक पार्टी में आ जाओ।

सभा को संबोधित करते हुए झारखण्ड इप्टा के अध्यक्ष श्यामल मल्लिक ने कहा कि कैफी आजमी के निधन के बाद उन्हें अध्यक्ष पद दिया गया था, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया। श्री मल्लिक ने कहा कि उनके जाने से इप्टा में खालीपन पैदा हो गया है। शोकसभा में फैसला लिया गया कि उनकी स्मृति में आयोजित फिल्म समारोह का लक्ष्य होगा -आम अवाम को फिल्म के माध्यम से वर्तमान समय की चुनौतियों के प्रति रू-ब-रू कराना। इस महोत्सव में भारतीय उपमहाद्वीप में बन रही सर्वोतकृष्ट फिल्मों से रांची की जनता को अवगत कराया जायेगा। साथ ही कई विश्वस्तरीय फिल्में भी इस महोत्सव में देखी जा सकेंगी।

शोकसभा में इबरार अहमद, जयशंकर चौधरी, हिमांशु बोस, पंकज मित्र, विनय भूषण, अरूण वर्मा, उषा श्रीवास्तव, उमेश नजीर, ए.एस. राजन, सुधीर साह, अमित आर्यन, साकेत खत्री, सुमेधा मल्लिक, ब्रजेश कुमार सुभाष -आदि मौजूद थे।

वहीं भाकपा कार्यालय में सीपीआई, झारखण्ड के सहायक सचिव पी.के. गांगुली के नेतृत्व में हंगल साहब की याद में एक शोकसभा आयोजित हुई और पार्टी का झंडा झुका दिया गया। श्री गांगुली ने उन्हें प्रतिबद्ध और समर्पित पार्टी कार्यकर्ता बताया और कहा कि फिल्म जगत के अलावा उनकी एक और पहचान मजदूर नेता के रूप में भी रही है। वे लंबे समय तक पार्टी से जुड़े रहे और पार्टी के कार्यक्रमों बराबर दिलचस्पी दिखायी है। शोकसभा में अजय सिंह, पावेल कुमार, वीरेंन्द्र विश्वकर्मा, श्यामल चक्रवर्ती सहित कई अन्य लोग मौजूद थे।

साथ ही माकपा राज्य कमेटी ने भी उन्हें अपनी श्रद्धांजलि दी। इसके लिये आयोजित शोकसभा की अध्यक्षता राजेन्द्र सिंह मुंगा ने की। इस अवसर पर गोपीकांत बख्शी, प्रकाश विप्लव, प्रफुल्ल लिंडा, आर.पी. सिंह व अमित राय उपस्थित थे।

Wednesday, August 29, 2012

देशभर से कामरेड हंगल को श्रद्धांजलि

नयी दिल्ली। भारतीय कम्युनिस्‍ट पार्टी ने वरिष्ठ अभिनेता एके हंगल के निधन पर कहा कि वह एक समर्पित सामाजिक एवं राजनैतिक कार्यकर्ता थे जिन्होंने अपने विचारों के लिए शिवसेना के ‘हमलों’ का सामना किया। भाकपा की ओर से जारी शोक संदेश में कहा गया कि हंगल पार्टी की सदस्यता को नियमित रूप से हर साल नवीनीकृत कराते थे और इस साल भी उन्होंने ऐसा किया था। संदेश में कहा गया कि शिवसेना ने उनके फिल्मी करियर पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश की। इससे भले ही उन्हें आजीविका कमाने में दिक्कत हुई, लेकिन उन्होंने समझौता नहीं किया।

भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और पार्टी प्रमुख नितिन गडकरी ने वयोवृद्ध चरित्र अभिनेता ए के हंगल के निधन पर शोक जताया है. हंगल (98) का रविवार को सुबह मुंबई में संक्षिप्त बीमारी के बाद निधन हो गया. उनकी जांघ की हड्डी में फेक्चर के बाद उनकी स्थिति और बिगड़ गयी थी. आडवाणी ने एक संदेश में कहा कि मैं ए के हंगल के निधन की खबर से बेहद दुखी हूं. वह हिन्दी सिनेमा के पसंदीदा चरित्र अभिनेताओं में से एक थे. उन्होंने कहा कि वरिष्ठ अभिनेता ने फिल्मों में विभिन्न भूमिकाएं निभायी और उनमें से हर भूमिका में वह उत्कृष्ट थे. 

मुंबई।  एके हंगल की शोक सभा का आयोजन किया गया मुंबई के जुहू स्थित पृथ्वी थिएटर्स में आयोजित किया गया। इस मौके पर अनुपम खेर, जावेद अख्तर और शबाना आजमी मौजूद रहे। कबीर बेदी, पूनम ढिल्लों और इला अरुण भी यहां आए। अनुपम खेर ने अपने ट्विटर एकाउंट पर लिखा, 'पृथ्वी थिएटर्स में हंगल साहब की प्रार्थना सभा में शामिल होना दिल को छू लेने वाला अनुभव था। मैंने अपनी पहली हीरोइन रोहिणी हट्टंगड़ी से भी मुलाकात की।' एक दिन पहले शबाना आजमी ने ट्वीट किया था, 'कल 27 अगस्त को शाम 4-5 के बीच एके हंगल साहब की याद में पृथ्वी थिएटर जुहू में प्रार्थना सभा रखी गई है। आप सब आमंत्रित हैं। कृपया यह मेसेज सबको पास करें। इसे आईपीटीए ऑर्गनाइज कर रही है।

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने कहा कि हंगल के निधन से हिन्दी फिल्म उद्योग ने एक स्नेहपूर्ण पिता के व्यक्तित्व वाले अभिनेता को खो दिया. अपने पूरे करियर में हंगल ने सिद्धांतों और आदशरें वाले व्यक्ति के तौर पर काम किया. उन्होंने सुनहरे पर्दे परजो जीवन जिया उसे आम जिंदगी में भी निभाया.  भाजपा प्रमुख गडकरी ने अपने शोक संदेश में हंगल को भारतीय फिल्म उद्योग का एक उत्कृष्ट अभिनेता बताते हुए कहा कि उन्होंने अपने करीब चालीस साल के फिल्मी जीवन में हर उस चरित्र पर अपनी छाप छोड़ी जिसे उन्होंने पर्दे पर निभाया.महाराष्ट्र के राज्यपाल के शंकरनारायणन ने अपने शोक संदेश में कहा कि परदे और परदे से अलग ए के हंगल का मुस्कुराता हुआ शांत चेहरा लोगों को यह आश्वासन देता था कि वह मूल्यों पर डटे रहने वाले व्यक्ति हैं, भले ही चाहे कुछ भी हो. हंगल ने कई फिल्मों में स्नेहपूर्ण पिता की शानदार भूमिका निभायी थी.

मुजफ्फरपुर। हिंदी सिनेमा के लोकप्रिय कलाकार एके हंगल के निधन पर शहर के कलाकारों व प्रबुद्ध वर्गो में शोक की लहर दौड़ गयी. नाटय़ जगत से जुड़े कलाकार मर्माहत हैं.इप्टा के सचिव अजय कुमार विजेता, श्रवण कुमार, संगीतज्ञ डॉ अरविंद कुमार, प्रेमरंजन, डॉ डीपी राय, जदयू नेता गणोश पटेल, भाजयुमो के जिलाध्यक्ष राकेश सम्राट, रविकांत सिन्हा, राजकिशोर चौधरी, संजीव कुमार झा, सिद्धार्थ कुमार, राकेश पटेल, विमलेश, कृष्ण कुमार वर्मा, दीपक तिवारी, संजीव चौधरी, पंकज सिंह, जयनाथ राम, रंजीत कुमार, सोहन महतो, राजीव रौशन , संजय सिंह, अविनाश राज, साकेत सिंह, अभिषेक कुमार, विनय यादव, मुकेश पासवान, शशिकांत श्रीवास्तव, चंदन कुमार सहित कई लोगों ने स्व.हंगल को श्रद्धांजलि दी.

उधर, भाकपा माले के जिला सचिव कृष्ण मोहन, कार्यालय सचिव सकल ठाकुर, नगर सचिव मनोज यादव, प्रो. अरविंद कुमार डे, नाटय़कर्मी, स्वाधीन दास ने शोक व्यक्त किया है. महान नाटककार और अभिनेता थे. उनके निधन से वामपंथी व प्रगतिशील विचारों को हानि हुई है.

देवघर।  प्रसिद्ध कलाकार एके हंगल के निधन पर कचहरी परिसर में शोक सभा हुई. सबने दो मिनट का मौन रखा एवं उनकी आत्मा की शांति की कामना की. बुद्धिजीवियों ने उनकी तसवीर पर पुष्प अर्पित कर श्रद्धांजलि दिया. मुख्य तौर पर गीतकार श्रीधर दुबे, सुधीर कुमार रंजन, अजय घोष, कपिल देव राणा, वीरेश वर्मा, धनंजय प्रसाद आदि उपस्थित थे.

कतरास। भारतीय क्लब में मंगलवार को भारतीय जन नाटय़ संघ (इप्टा)कतरास की ओर से एके हंगल को श्रंद्धांजलि दी गई। अभिनेता व रंगकर्मी स्व. हंगल के फिल्म इंडस्ट्री में योगदान की चर्चा की गई। सभा की अध्यक्षता मृगेन्द्र नारायण सिंह व संचालन डॉ मृणाल ने किया। इप्टा कलाकार विनोद कुमार साव, विष्णु कुमार, नासिर खान, सबिता कर, सोनू आदि ने जनवादी गीत प्रस्तुत किया। मौके पर श्यामा गुप्ता, अमित भगत, राजेन्द्र प्रसाद राजा, निमाई मुखर्जी, शंकर खंडेलवाल, सुरेन्द्र भदानी, आर बी सिंह, अरूण कुमार वर्मा, हंसमुख ठक्कर, भरतराम गुप्ता, सतीश वर्मा, राजेश कुमार, विष्णु कुमार, डॉ मृणाल, कैलाश यादव, नासिर खान आदि उपस्थित थे।

पटना। हिंसा के विरुद्ध संस्कृतिकर्मी संस्था के तत्वावधान में राजधानी के रंगर्कमियों एवं कलाकारों ने प्रेमचंद रंगशाला में फिल्म अभिनेता ए. के. हंगल के निधन पर श्रद्धांजिल सभा आयोजित की। सभा की शुरुआत स्व. हंगल के चित्र पर माल्यार्पण से हुई। इस अवसर पर प्रख्यात समालोचक खगेन्द्र ठाकुर ने कहा कि ए. के. हंगल न केवल एक आला दर्जे के अभिनेता थे बल्कि वे महान देशभक्त भी थे। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में वे कई बार जेल भी गए।

उन्होंने जिंतना लिया नहीं उससे ज्यादा इस देश को दिया है। श्री सिंह ने कहा कि 1938 के दशक में चन्द्र सिंह गढ़वाली जैसे देश भक्त ने जिंस भारतीय जुलूस पर आक्रमण करने से मना किया उस दल में हंगल साहब भी शामिल थे। बाल ठाकरे ने उनकी फिल्मों पर रोक लगाने की तमाम कोशिश की लेकिन वे कभी झुके नहीं। इस अवसर पर प्रो. संतोष कुमार ने कहा कि हंगल अभिनेता होने के साथ-साथ जनता के दुख-दर्द से सीधे जुड़े थे।

विरष्ठ रंगकर्मी अजीत गांगुली ने कहा कि फिल्म और नाटक के क्षेत्र में हंगल साहब के अभिनय की छाप अमिट है। रंगकर्मी सुमन कुमार ने कहा कि रंगशाला के मुक्ति अभियान में उन्होंने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। इस अवसर पर नचिकेता, सहजानंद, मनीष महिवाल, अनीश अंकुर सहित दर्जनों कलाकारों ने उनसे जुड़ी यादों को साझा किया। मंच संचालन जयप्रकाश ने किया। सभा में रानी जायसवाल, प्रो. भारती, एस कुमार, पंकज करवटने, विनीत राम , रघु, हीरालाल, कुंदन सहित सैकड़ो की संख्या में रंगकर्मी एव कलाकार उपस्थित थे।

लखनउ। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने वयोवृद्ध फिल्म अभिनेता ए.के.हंगल के निधन पर गहरा दुख व्यक्त किया है। उन्होंने दविंगत आत्मा की शांति के लिए ईश्वर से प्रार्थना की है और शोक संतप्त परिवार के प्रति अपनी संवेदनाएं व्यक्त कीं। उन्होंने कहा है कि ए.के.हंगल के निधन से फिल्म जगत ने एक महान कलाकार खो दिया है। वह फिल्मों में अपने योगदान के लिए हमेशा याद किए जाएंगे।

लुधियाना। पंजाबी साहित्य अकादमी के सदस्यों ने प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता और रंगकर्मी एके हंगल की मौत पर अफसोस जताया। अकादमी के कार्यकारी प्रधान डा. अनूप सिंह ने कहा कि एके हंगल बहुत अच्छे इंसान थे। अकादमी के जरनल सेक्रेटरी डा. सुखदेव सिंह ने कहा कि एके हंगल की सोच आम आदमी के साथ जुड़ी हुई थी। अंतिम सांस तक वह थियेटर के साथ जुड़े रहे। उन्होंने 200 से अधिक फिल्मों में काम किया। पूर्व प्रधान डा. एसएस जौहल, डा. सुरजीत पातर, डा. सरबजीत सिंह, डा. गुरइकबाल सिंह, डा. सुरजीत, कुलदीप सिंह बेदी और डा. जोगिंदर सिंह निराला, सेक्रेटरी सुरिंदर कैले, डा. गुलजार पंधेर, इंजीनियर जसवंत सिंह जफर और प्रिंसिपल प्रेम सिंह बजाज, प्रो. निरंजन तसनीम, प्रो. रविंदर भट्ठल, डा. एस तरसेम, मित्र सैन मीत, डा. स्वर्णजीत कौर ग्रेवाल, गुरचरन कौर कोचर, त्रिलोचन लोची, सुरिंदर रामपुरी, जनमेजा सिंह जौहल, प्रीतम पंधेर, तरलोचन लोची ने एके हंगल को श्रद्धांजलि दी।


वे भारत-पाकिस्तान की प्रगतिशील सांस्कृतिक विरासत के प्रतिनिधि थे


एके हंगल के निधन पर जन संस्कृति मंच की श्रद्धांजलि
नई दिल्ली : मशहूर वामपंथी रंगकर्मी, स्वाधीनता सेनानी और फिल्मों के लोकप्रिय चरित्र अभिनेता एके हंगल का 95 वर्ष की उम्र में 26 अगस्त, 2012 को लम्‍बी बीमारी से बंबई में निधन हो गया। इंडियन पीपुल्स थियेटर(इप्टा) और प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन से संबद्ध एके हंगल ने वामपंथ और मार्क्‍सवाद के प्रति अपनी आस्था को आजीवन बरकरार रखा। 1917 में जन्में हंगल के बचपन का ज्यादातर समय पेशावर में गुजरा। उनके परिवार में कई लोग अंग्रेजी राज में अफसर थे और वे चाहते थे कि एके हंगल भी अफसर ही बनें, लेकिन उन्होंने अपना जीवन स्वाधीनता संघर्ष में लगाने का फैसला कर लिया था, उन्हें अंग्रेजों की गुलामी कबूल नहीं थी। आजादी की लड़ाई में वह जेल भी गये। बलराज साहनी, कैफी आजमी सरीखे अपने साथियों के साथ वह सांस्कृतिक परिवर्तन के संघर्ष में शामिल हुए। कराची में वे कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव रहे। सांप्रदायिकता विरोधी आंदोलनों और मजदूर आंदोलनों के साथ एक प्रतिबद्ध संस्कृतिकर्मी के बतौर उनका जुड़ाव रहा। वह भारत-पाकिस्तान की जनता की साझी प्रगतिशील सांस्कृतिक विरासत के प्रतिनिधि थे।
एके हंगल एक ऐसे संस्कृतिकर्मी थे, जिन्होंने नाटकों में काम करने के साथ-साथ आजीविका के लिए टेलरिंग का काम भी किया और इस पेशे में उन्होंने बहुतों को प्रशिक्षित भी किया। उन्होंने 18 साल की उम्र में नाटक करना शुरू कर दिया था, लेकिन फिल्मों में चालीस साल की उम्र में आये- तीसरी कसम में निभाई गई एक छोटी सी भूमिका के जरिए। उसके बाद उन्होंने लगभग 200 फिल्मों में काम किया और भारतीय जनता के लिये वह ऐसे आत्मीय बुजुर्ग बन गये, जिनके द्वारा निभाए गये फिल्मी चरित्रों को लोग अपने जीवन का हिस्सा समझने लगे। उन्होंने अभिनय को यथार्थ की समझदारी से जोड़ा और छोटे से छोटे दृश्यों को भी यादगार बना दिया। हिन्‍दी फिल्मों में जब भी गरीब, लाचार उपेक्षित व्यक्तियों या समुदायों और बुजुर्ग लोगों की जिन्‍दगी के मार्मिक दृश्यों या प्रसंगों की चर्चा होगी, तब-तब एके हंगल का बेमिसाल अभिनय याद आयेगा। ‘बावर्ची’, ‘नमकहराम’, ‘शोले’, ‘शौकीन’, ‘अभिमान’, ‘गुड्डी’ आदि उनकी सर्वश्रेष्ठ फिल्में हैं। हिन्‍दी सिनेमा में अपराधियों और काले धन के हस्तक्षेप तथा आम जन जीवन की सच्चाइयों के गायब होने और एक भीषण आत्मकेंद्रित मध्यवर्ग की अभिरुचि के अनुरूप फिल्में बनाये जाने को लेकर वे काफी चिंतित रहते थे।
भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया। लेकिन बहुप्रशंसित और सम्मानित इस अभिनेता के जीवन के आखिरी दौर में जबकि अपने ऑटोबायोग्राफी के लिये जरूरत के तहत वह अपने पुश्तैनी घर देखने गये थे और पाकिस्तानी डे फंक्शन के आमंत्रण को स्वीकार करके वहाँ चले गये तो साम्‍प्रदायिक-फाँसीवादी राजनीति के लिये कुख्यात शिवसेना के प्रमुख ने 1993 में देशद्रोह का आरोप लगाकर उनकी फिल्मों पर बैन लगा दिया था। उनकी फिल्मों को थियेटर्स से हटा दिया गया था। फिल्मों के पोस्टर फाड़े गये थे और एके हंगल के पुतले जलाए गये थे, फोन से धमकियाँ भी दी गई थीं। दो साल तक उनका बहिष्कार किया गया। उस वक्त उन्होंने कहा था कि वह स्वतंत्रता सेनानी रहे हैं, उन्हें किसी से कैरेक्टर सर्टिफिकेट लेने की जरूरत नहीं है।
बेशक जनता का सम्मान और सर्टिफिकेट किसी भी संस्कृतिकर्मी के लिये बड़ा सम्मान और सर्टिफिकेट होता है और यह एके हंगल को मिला। वह भारत-पाकिस्तान दोनों देशों में प्रगतिशील-जनवादी मूल्यों और मनुष्य के अधिकार के लिए लड़ने वाले सारे संस्कृतिकर्मियों और आंदोलनकारियों के जीवित पुरखे थे। देश में बढ़ती पूँजीवादी अपसंस्कृति, श्रमविरोधी राजनीतिक संस्कृति, सामप्रदायिक-अंधराष्ट्रवादी विचारों के विरोध में गरीबों-बेबसों और मेहनतकशों की जिन्‍दगी की पीड़ा और आकांक्षा को अभिव्यक्ति देना तथा उनकी एकता को मजबूत करना ही एके हंगल के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। जन संस्कृति मंच उनके निधन पर गहरी शोक संवेदना जाहिर करते हुए उनके अधूरे कार्यों को आगे बढ़ाने का संकल्प लेता है।
(प्रणय कृष्ण, राष्ट्रीय महासचिव, जन संस्कृति मंच द्वारा जारी वि‍ज्ञप्‍ति‍, लेखक मंच से साभार)

कॉम हंगल लाल सलाम


-श्रीराम तिवारी
कौमी एकता के प्रवल पक्षधर और भारत की सांझी विरासत के सजग प्रहरी- फिल्म अभिनेता ,चिन्तक ,नाटककार , फ्रीडम फाइटर और कामरेड अवतारकृष्ण हंगल का 26 अगस्त -2012 को मुंबई में देहांत हो गया. राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में यह खबर या तो नदारत रही या फिर हासिये पर. इलेक्ट्रोनिक मीडिया और कतिपय सजग टी वी चेनल्स ने भी रस्म अदायगी के बतौर ले-दे कर दो-चार मिनिट ही उनकी शख्सियत पर कम और उनकी शोले या गुड्डी जैसी फिल्मों पर अधिक जाया किये। मैं चाहते हुए भी फ़िल्में नहीं देख पाता जिन फिल्मों के कारण भारत के फिफ्टी प्लस एजर्स नर-नारी ऐ के हंगल के मुरीद हैं उनकी वजह से मेरा और हंगल का नाता जीरो बटा सन्नाटा है। मैं तो उनके प्रगातिशील विचारों और यथार्थ बोधता से अभिभूत रहा हूँ।

गोरा रंग, सुर्ख चेहरा, पोपला मुखमंडल ,तेजस्वी आँखें,सफाचट गंजा सर,कड़क आवाज और अक्सर धोती-कुरते में आम हिन्दुतानी का रोल करने वाले अवतार कृष्ण हंगल को फ़िल्मी परदे पर देख-देख कर मेरी पीढी के स्त्री-पुरुष अब प्रौढ़ता की ओर अग्रसर हैं . आज जबकि ऐ के हंगल नहीं हैं तो भी लोग उनकी इसी छवि को धारण किये हुए हैं जो कि हंगल के व्यक्तित्व का सिर्फ एकांश मात्र है. जब तक में जनवादी लेखक संघ या प्रगतिशील लेखकों के साथ नहीं जुड़ा था तब तक यही समझता था कि हंगल [रहीम चाचा] कोई मुसलमान कलाकार हैं. उनके अधिकांश किरदार कुछ इस तरह अभिनीत हुए हैं की हंगल ने मानों उस किरदार को यथार्थ में जिया हो. खैर … हंगल साब शुद्ध कश्मीरी पंडित थे.कश्मीरी भाषा में हंगल का मतलब हिरन या मृग होता है.हंगल के पूर्वजों ने तीन सौ साल पहले ठीक नेहरुओं की तरह कश्मीर छोड़ा और लाख लखनऊ आ वसे. उनके पिताजी अंग्रजों की नौकरी में पेशावर में पदस्थ थे।वहीँ जन्म हुआ था 1917 में अवतार कृष्ण हंगल का.

किशोर अवस्था में ही पढाई के साथ-साथ टेलरिंग इत्यादि कामों में आजीविका के मेहनत मशक्कात वाले अंदाज़ को सहज ही ह्र्द्यगगामी कर चुके श्री हंगल जी को बेहद जद्दोजहद से गुजरना पड़ा।महात्मा गाँधी ,सीमान्त गाँधी खान अब्दुल गफ्फार खान इत्यादि विभूतियों को जब भारत छोडो आन्दोलान के गिरफ्तार किया गया तो उन्होंने जुलुस निकाले लाठियां खाई .दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान हंगल साहब का परिवार पेशावर से कराची आ गया।उनके पिता सेवा निवृत हो चुके थे .आजादी की बेला में काफी उथल-पुथल के दिन थे।हिटलर ने सोवियत संघ पर हमला कर दिया था।इसी बीच हंगल साब ट्रेड युनियन से जुड़ चुके थे .तत्कालीन एटक के संघर्षों में शामिल होकर देशी विदेशी इजारेदार शाशकों के खिलाफ लड़ाई में शामिल होकर ऐ के हंगल अब तक कॉम .हंगल हो चुके थे।इसके बाद पूरी जिन्दगी वे देश के मेहनतकशों के संघर्षों के साक्षी रहे।प्रगतिशील लेखक संघ,जनवादी लेखक संघ और इप्टा इत्यादी के मार्फ़त भारत पाकिस्तान की साझी विरासत को संजोये रहते हुए आपसी भाईचारा और अमन के पैगाम देते चले गए।

मुझे उनकी 250 फिल्मों के नाम याद नहीं. 2-4 को छोड़ अधिकांश को देखने का न तो अवसर मिला और न ही कोई ख्वाइश दर पेश हुई. किन्तु उनके इस सामाजिक,राजनैतिक और वैचारिक अवदान से देश का शोषित वर्ग और प्रगतिशील तबका जरुर गौरवान्वित रहा करता था।

मेरा उनकी विचारधारा से सीधा सरोकार सदैव रहा है।हंगल विचारधारा के लिहाज़ से प्रतिबद्ध साम्यवादी रहे हैं। यह उजागर करने में देश के पूंजीवादी मीडिया ,दक्षिणपंथी मीडिया और साम्‍प्रदायिक मीडिया को परेशानी हो सकती है किन्तु मुख्यधारा के मीडिया ने और बाएं वाजू के मीडिया ने अपने इस शानदार कामरेड ’अवतार कृष्ण हंगल ’ के दुखद निधन उपरान्त भी न्याय नहीं किया। अपने जीवन के उत्तरार्ध में जिन कारुणिक अवस्थाओं से वो गुजरे उसकी कहानी तो जग जाहिर है ही । अपने किशोर काल में ब्रटिश हुकूमत की संगीनों को उन्होंने बहुत नज़दीक से देखा था।भगतसिंह ,सीमान्त गाँधी अब्दुल गफ्फार खान, फेज अहमद फेज, अल्लामा इकवाल ने हंगल को काफी नज़दीक से अनुप्रेरित किया। फिल्मों में आने से पहले बलराज साहनी ,पृथ्वीराज कपूर,हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय और उत्पल दत्त जैसी महान विभूतियों के साथ इप्टा इत्यादि के मंचों पर ऐ के हंगल शिद्दत से स्थापित हो चुके थे।

ऐ के हंगल 2004 में इंदौर में ’प्रगतिशील लेखक संघ’ के सम्मेलन में बतौर अतिथि पधारे थे।उस समय उनसे चर्चा में काफी कुछ उनके बारे में हमे जानने का अवसर मिला .वे मार्क्सवाद -लेनिनवाद और सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद के कट्टर समर्थक थे।उन्होंने फिल्म जगत में 40 साल काम किया ,250 फिल्मों में किया ओर लोगों को कौमी एकता तथा जम्हूरियत के कई समर्थक तैयार किये जिन्होंने न केवल एक्टिंग बल्कि गीत,ग़ज़ल और फिल्मों के निर्माण से माया नगरी मुंबई में भी ’वर्ग संघर्ष ’ की ज्योत जला रखी है। कॉम .अवतार कृष्ण हंगल को जन-काव्य भारती ,जनवादी लेखक संघ की ओर से श्रधांजलि अर्पित की गई। कॉम हंगल अमर रहे।.. कॉम हंगल लाल सलाम।…..

प्रवक्ता.काम से साभार

Tuesday, August 28, 2012

बिहार में हंगल साहब की स्मृति में सभा, मीडिया ने भी किया याद

पटना। इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हंगल साहब के निधन पर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिये दिनांक 28 अगस्त 2012 को संध्या 4 बजे पटना बिहार माध्यमिक शिक्षा संघ सभागार, जमाल रोड में " ए. के. हंगल की स्मृति सभा बुलायी गयी है। सभा का आयोजन भारतीय जन नाट्य संघ, बिहार, प्रगतिशील लेखक संघ, बिहार व बिहार कलाकार मंच पटना ने किया है।

बिहार के प्रिंट मीडिया ने इस तरह याद किया हंगल साहब को:



































कश्मीरी हिरन हंगल साहब


-यशेंद्र प्रसाद

(लेखक फिल्मकार हैं)
एके हंगल साहब से मेरी पहली मुलाकात उस वक्त हुई थी, जब मैं मुंबई यूनिवर्सिटी में था. वे एक कार्यक्रम में वहां आये थे. बाद में जब मैं फिल्म इंडस्ट्री में आया, तो मेरा उनसे बहुत गहरा जुड़ाव हो गया था. उनके व्यक्तित्व ने मुङो बहुत प्रभावित किया. बाद में उन पर डॉक्यूमेंट्री बनाने के दौरान मुङो उनके बारे में कई खास जानकारी हासिल हुई.
हाल ही में मैंने फिल्म्स डिवीजन के लिए एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनायी, ईसा मसीह के भारत में बिताये जीवन काल के ऊपर. इसके सिलसिले में मेरा संपर्क पेशावर के एक व्यक्ति से हुआ. यह जान कर कि मैं मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री से हूं, उसने बताया कि वह एके हंगल साहब का फैन है और उसे फक्र है कि वे पेशावर के रहने वाले थे. हंगल साहब वहां आजादी की लड़ाई में भी शरीक हुए थे, यह बात मुङो उसी से पता चली. हंगल साहब के जीवन के इस पहलू के बारे में और भी जानने की दिलचस्पी हुई.
फिर मैंने सोचा क्यों उनके जीवन पर एक डॉक्यूमेंट्री ही बनायी जाये, ताकि शोले के इमाम साहब और शौकीन के इंदर साहब के जीवन के इन रोचक पहलुओं से भी लोग वाकिफ हों. इसके बाद से ही उनसे मेरा मिलना भी होता रहा. अपने शोध के दौरान मुङो कई नयी जानकारी हासिल हुई.
कश्मीरी भाषा में हिरन को हंगल कहते हैं. कश्मीरी ब्राह्मणों का यह परिवार बहुत पहले लखनऊ में बस गया था. लेकिन हंगल साहब के जन्म के डेढ़-दो सौ साल पहले वे लोग पेशावर चले गये थे. इनके दादा के एक भाई थे जस्टिस शंभुनाथ पंडित, जो बंगाल न्यायालय के प्रथम भारतीय जज बने थे. हंगल साहब के पिता उन्हें पारसी थियेटर दिखाने ले जाया करते थे. वहीं से नाटकों के प्रति शौक उत्पन्न हुआ. हंगल साहब शुरुआती दौर से ही कभी किसी काम को छोटा नहीं समझते थे. कह सकते हैं कि हंगल साहब बेहद हंबल (जमीन से जुड़े) थे.
उन्होंने हर काम को महत्व दिया. अपने जीवन के शुरुआती दिनों में, जब वे कराची में रहते थे, वहां उन्होंने टेलरिंग का काम भी किया है. हंगल साहब उर्दू भाषी थे. उन्हें हिंदी में स्क्रिप्ट पढ़ने में परेशानी होती थी. इसलिए वे स्क्रिप्ट हमेशा उर्दू भाषा में ही मांगते थे.
सियालकोट में जन्मे और पेशावर में पले-बढ़े इस कश्मीरी ब्राह्मण की जिंदगी हर किसी के लिए प्रेरणा का स्रोत है. मेरी कोशिश है कि मैं उन पर आधारित डॉक्यूमेंट्री में उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं को दर्शाऊ. हंगल साहब का स्वतंत्रता संग्राम में भी अहम योगदान रहा है. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पेशावर में काबुली गेट के पास एक बहुत बड़ा प्रदर्शन हुआ था, जिसमें हंगल साहब भी उपस्थित थे. अंगरेजों ने अपने सिपाहियों को प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने का हुक्म दिया था, लेकिन चंदर सिंह गढ़वाली के नेतृत्व वाले उस गढ़वाल रेजिमेंट की टुकड़ी ने गोली चलाने से इनकार कर दिया. यह एक विद्रोह था. चंदर सिंह गढ़वाली को जेल में डाला गया.
हंगल साहब को दुख था कि चंदर सिंह गढ़वाली को ‘भारत रत्न’ नहीं मिला. भारत मां का यह वीर सपूत 1981 में गुमनाम मौत मरा. पेशावर में हुआ नरसंहार उसी काबुल गेट वाली घटना के बाद हुआ था. उस वक्त अंगरेजों ने अमेरिकी सिपाहियों से गोलियां चलवाई थी. हंगल साहब ने अपनी आंखों से यह सब देखा था. यही वजह रही कि वे थियेटर से जुड़ने के साथ-साथ स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक आंदोलनों को लेकर हमेशा सजग रहते थे.
उन्होंने इप्टा से जुड़ कर अपने नाटकों के मंचन के माध्यम से सांस्कृतिक चेतना जगायी. हंगल साहब पेंटिंग भी करते थे. उन्होंने किशोर उम्र में ही एक उदास स्त्री का स्केच बनाया था और उसका नाम दिया चिंता.
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी से बचाने के लिए चलाये गये हस्ताक्षर अभियान में भी वे शामिल थे. किस्सा-ख्वानी बाजार नरसंहार के दौरान उनकी कमीज खून से भीग गयी थी. हंगल साहब कहते थे, ‘वह खून सभी का था- हिंदू, मुसलिम, सिख.. सबका मिला हुआ खून!’ छात्र जीवन से ही वे बड़े क्रांतिकारियों की मदद में जुट गये थे. बाद में उन्हें अंगरेजों ने तीन साल तक जेल में भी रखा, फिर भी वे अपने इरादे से नहीं डिगे.
वे हमेशा अपनी फिल्मों से ज्यादा अपने नाटक को अहमियत देते थे और मानते थे कि जिंदगी का मतलब सिर्फ अपने बारे में सोचना नहीं है. वे हमेशा कहते कि चाहे कुछ भी हो जाये, ‘मैं एहसान-फरामोश और मतलबी नहीं बन सकता.’ हम सबके चहेते हंगल साहब को भावभीनी श्रद्धांजलि. 
(लेखक एके हंगल के जीवन पर डॉक्यूमेंट्री बना रहे हैं, प्रस्तुति : अनुप्रिया अनंत, प्रभात खबर से साभार)

Monday, August 27, 2012

सुबह करते- करते बुझे हंगल साहब

जिस सुबह का इंतजार फैज़ साहब को शिद्दत के साथ था, हंगल साहब वही सुबह करते-करते बुझे। उन्हें पहचान भले ही फिल्मों से मिली हो पर वे थियेटर के आदमी थे व कहीं ज्यादा एक्टिविस्ट थे। एक ऐसा एक्टिविस्ट जो आखिरी सांस तक एक बेहतर समाज व इसके लिये इंकलाब की आस नहीं छोड़ता । बीते दिसंबर महीने में वे इप्टा के 13 वें राष्ट्रीय सम्मेलन में खराब स्वस्थ्य के कारण नहीं आ पाये थे, पर उन्होंने अपना एक रिकार्डेड संदेश भिजवाया था और उसमें भी यही कहा था-‘हम होंगे कामयाब।’ ‘इप्टानामा’ अपने इस नायक को क्रांतिकारी अभिनंदन के साथ विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता है।



साथ ही देश भर से उन पर विविध सामग्रियां हमें लगातार मिल रही हैं, जिन्हें आप आने वाले दिनों में ‘इप्टानामा’ में सिलसिलेवार पढ़ सकते हैं।




Thursday, August 23, 2012

सुनील जाना : जिन्होंने कैमरे से राजनीतिक कार्य किया (अंतिम किस्त)


-विनीत तिवारी

"कम लोग ही यह बात जानते हैं कि कैमरे की आँख से दुनिया को पूरी तीव्रता के साथ पकड़ने वाले सुनील जाना की सिर्फ़ एक आँख ही दुरुस्त थी। दूसरी कभी बचपन में ही ग्लॉकोमा की शिकार हो गई थी। इसके बावजूद सुनील जाना अपने निगेटिव्स को ख़ुद ही डेवलप किया करते थे। आख़िरी वर्षों में उनकी दूसरी आँख ने भी उनका साथ छोड़ दिया था। उन्होंने फ़ोटोग्राफ़ी का कोई विधिवत ज्ञान हासिल नहीं किया था। जो सीखा, करके सीखा और उस ज़माने के जो उस्ताद फ़ोटोग्राफ़र माने जाते थे, उनके पास जाकर सीखा...."

कम्युनिस्ट पार्टी में जब 1948 में मतभेद हुए और कॉमरेड पी. सी. जोशी पार्टी के महासचिव पद पर नहीं रहे तभी सुनील जाना और कम्युनिस्ट पार्टी में भी दूरी बन गई। कॉमरेड पी. सी. जोशी उनके लिए बहुत मायने रखते थे। सुनील जाना ने 1947-48 में कलकत्ते में अपना एक फ़ोटो स्टूडियो खोला और उन्होंने कलात्मक फ़ोटोग्राफ़ी के काम को जारी रखते हुए उन्होंने देश भर में बिखरे प्राचीन स्मारकों, मंदिरों आदि के स्थापत्य को और विभिन्न भारतीय नृत्यों की तस्वीरें खींच उन्हें दस्तावेज़ बनाना शुरू किया। शांताराव, रागिनी देवी, इंद्राणी रहमान, बड़े ग़ुलाम अली ख़ान जैसे उस वक्त के महान कलाकारों की उन्होंने यादगार तस्वीरें खींचीं। उन्होंने 1949 में कलकत्ता फ़िल्म सोसायटी की स्थापना की जिनमें चिदानंद दागुप्ता, हरि दासगुप्ता और अन्य लोगों के साथ-साथ सत्यजित राय भी शरीक थे। सुनील जाना की पहली किताब ‘दि सेकंड क्रिएचर’ का कवर सत्यजित राय ने ही डिज़ाइन किया था। उसके बाद उनकी ‘डांसेज़ ऑफ़ दि गोल्डन हॉल’ और ‘दि ट्राइबल्स ऑफ इंडिया’ शीर्षक से दो किताबें और आयीं। ‘दि ट्राइबल्स ऑफ़ इंडिया’ किताब पर उनका काम प्रसिद्ध नृतत्वविज्ञानी वेरियर एल्विन के साथ था। उनकी एक किताब ‘फ़ोटोग्राफ़िंग इंडिया’ प्रकाशित होने के पहले ही उनकी मृत्यु हो गई। यह किताब जल्द ही ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित होगी जिसमें सुनील जाना ने न केवल छः दशकों में फैले अपने चित्रों को समेटा है बल्कि इसमें आत्मकथात्मकता भी है और साथ ही 9/11 के बाद अमेरिका में रहने के अपने अनुभव भी उन्होंने लिखे हैं।

कम लोग ही यह बात जानते हैं कि कैमरे की आँख से दुनिया को पूरी तीव्रता के साथ पकड़ने वाले सुनील जाना की सिर्फ़ एक आँख ही दुरुस्त थी। दूसरी कभी बचपन में ही ग्लॉकोमा की शिकार हो गई थी। इसके बावजूद सुनील जाना अपने निगेटिव्स को ख़ुद ही डेवलप किया करते थे। आख़िरी वर्षों में उनकी दूसरी आँख ने भी उनका साथ छोड़ दिया था। उन्होंने फ़ोटोग्राफ़ी का कोई विधिवत ज्ञान हासिल नहीं किया था। जो सीखा, करके सीखा और उस ज़माने के जो उस्ताद फ़ोटोग्राफ़र माने जाते थे, उनके पास जाकर सीखा। तीस के दशक से 90 के दशक तक, साठ वर्ष तक वे फ़ोटोग्राफ़ी करते रहे। इन साठ वर्षों में उन्होंने किसान-मज़दूरों के संघर्षों, आज़ादी के आंदोलन, भारत के प्राचीन स्थापत्य से लेकर आज़ाद भारत के तीर्थ कहे जाने वाले उद्योगों, बाँधों, कल-कारखानों, रेलवे लाइनों तक के निर्माण को, राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-वैज्ञानिक विभूतियों से लेकर देश के विभिन्न आदिवासी समुदायों, दंगों, अकाल, लाशों के ढेर, विद्रोह, विभाजन, विस्थापन से लेकर मनुष्य के श्रम और उन्मुक्त जीवन सौंदर्य को उन्होंने तस्वीरों में दर्ज किया। अर्जुन ने अपने पिता की तस्वीरों के बारे में कहा है कि उनके चित्रों में एक कविता जैसा गठन होता है।

सत्तर के दशक तक उनकी प्रदर्शनियाँ देश-विदेश में अनेक जगह लगती रहीं। योरप के पूर्व समाजवादी देशों में अनेक जगह उनके चित्र प्रदर्शित हुए। बाद में, 1978 में वे लंदन जा बसे जहाँ उनकी पत्नी शोभा डॉक्टर थीं। वहाँ उनके चित्रों की अनेक प्रदर्शनियाँ लगीं, उन्हें अनेक सम्मान मिले। लंदन में 1992 में नेहरू सेंटर के खुलने के तत्काल बाद उसमें सुनील जाना की तस्वीरों पर केन्द्रित कार्यक्रम हुआ। उनके काम और जीवन पर बीबीसी टीवी और आईटीवी ने दो डॉक्युमेंट्री फ़िल्में बनायीं। उनकी खींची तस्वीरों के बड़े-बड़े प्रदर्शन दिल्ली, मुंबई, कोलकाता में हुए। हवाना महोत्सव में उनकी तस्वीरें दिखायीं गईं। विश्वविख्यात नृत्यांगना इंद्राणी रहमान के बेटे राम रहमान ने, जो स्वये एक प्रसिद्ध फ़ोटोग्राफ़र भी हैं, 1998 में सुनील जाना की तस्वीरों की एक प्रदर्शनी न्यूयॉर्क की 678 कला वीथिका में आयोजित की थी जिसे गजब की सराहना मिली। लंदन से 2002 में जाना दंपति अमेरिका आ गए और तब से वहीं रह रहे थे।

आख़िरी वक्त तक उन्होंने जीवन और समाजवाद में अपना विश्वास नहीं डिगने दिया। वे एक दृश्य इतिहास अपने पीछे छोड़ कर गए हैं। इस खजाने और इसे बनाने वाले, दोनों की अनेक दशकों से देखभाल करने का काम चुपचाप करती आ रहीं थीं उनकी पत्नी शोभा जाना का निधन 86 की उम्र में 18 मई 2012 को ही हुआ था। वे पेशे से डॉक्टर थीं। उनके निधन के बाद सुनील जाना बमुश्किल एक महीना ही अपनी साँसें खींच पाये। उनकी बेटी और अर्जुन की बहन मोनुआ जाना का निधन असमय ही सन् 2004 में हो गया था।

सुनील जाना और शोभा जाना के निधन की ख़बर पर कॉमरेड बर्धन ने अर्जुन को शोक-संदेश भेजा। जब वह बोल रहे थे और मैं टाइप कर रहा था तो मुझे वे पुराने दिनों में जाते-आते दिख रहे थे। मुझे कभी-कभी लगता है कि मुझे भी उसी वक्त में होना था। क्या लोग हुआ करते थे उस दौर में। सुनील जाना भले कम्युनिस्ट पार्टी के बाद में सदस्य न रहे हों लेकिन उनका आदर्श आजीवन समाजवाद ही बना रहा। उन्होंने 1998 में इंटरव्यू में कहा था,‘‘बेशक आज भी मेरा यक़ीन समाजवाद में ही है। पूँजीवाद एक असभ्य और पाशविक व्यवस्था है जिसकी बुनियाद लालच है।’’ राम रहमान ने उनके बारे में सही कहा है कि ‘‘सुनील जाना बाक़ी फ़ोटोग्राफ़रों से अलग थे। वे एक सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता थे और उनका राजनीतिक कार्य ही फ़ोटोग्राफ़ी था।’’

दुनिया कई मायनों में बहुत छोटी हो गई है लेकिन इतनी भी नहीं कि हम तमाम इप्टा-प्रलेसं के दोस्त उनके बेटे अर्जुन के पास पहुँच सकें और कहें कि हम सब तुम्हारे साथ ही हैं। फिर भी, यह तो हम सब कहना ही चाहते हैं कि सुनील जाना हमारे भी परिवार के हिस्से थे और रहेंगे और इस नाते अर्जुन भी दुनिया के विशाल कम्युनिस्ट परिवार का हिस्सा है, अकेला नहीं।

संदर्भः
दि न्यू यॉर्क टाइम्स, 9 जुलाई 2012
गार्जियन, 5 जुलाई 2012
फ्रंटलाइन, सितंबर 12-25, 1998
 http://suniljanah.org
दि हिंदू, 23 जून 2012
हिंदुस्तान टाइम्स, 14 जुलाई 2012
   http://en.wikipedia.org/wiki/Margaret_Bourke-White


लेखक विनीत तिवारी से निम्न पते पर संपर्क किया जा सकता है:
2, चिनार अपार्टमेंट, 172, श्रीनगर एक्सटेंशन, इंदौर-452018
मोबाइलः 09818175205/09893192740
ईमेलः comvineet@gmail.com

सुनील जाना : जिन्होंने कैमरे से राजनीतिक कार्य किया (दो)


-विनीत तिवारी
मुझे उन कॉमरेड्स और लोगों से रश्क होता था जो अपना आगा-पीछा न सोचकर दुर्भिक्ष पीड़ित लोगों की मदद और राहत के काम में लगे थे। मेरा मन होता कि मैं भी कैमरा छोड़कर वही करूँ। लेकिन पी. सी. जोशी, जो मुझे अपने साथ बंगाल के गाँवों में लेकर आये थे और जो मेरे शिक्षक, शुभचिंतक, सलाहकार थे, उन्होंने मुझे समझाया कि जो हो रहा है उसका दस्तावेज़ बनाना ज़रूरी है ताकि लोग जानें कि यहाँ दरअसल हालात क्या हैं। मैंने दिल पर पत्थर रखकर कैमरा सँभाला और फोटो खींचता रहा। बाद में सुनील जाना के खींचे गए गाँधी, नेहरू, जिन्ना, शेख अब्दुल्ला, फ़ैज़, जे. कृष्णमूर्ति, आदि ख्यात लोगों के चित्र भी बहुत प्रसिद्ध हुए। देश के विभाजन के उनके खींचे अनेक चित्र अपने आप में इतिहास के अध्याय हैं। एनसीईआरटी की स्कूली किताबों में भी उनके अनेक चित्रों का इस्तेमाल किया गया है। 

सुनील जाना 1918 में 17 अप्रैल को डिब्रूगढ़, आसाम में पैदा हुए थे। उनके पिता कलकत्ता के नामी वकील थे और सुनील जाना की पढ़ाई-लिखाई भी कलकत्ते में ही हुई। सेंट ज़ेवियर और प्रेसिडेंसी कॉलेज में अपनी पढ़ाई के दौरान ही वे वामपंथी राजनीति के संपर्क में आ गए थे और बाद में 1943 में पी. सी. जोशी के संपर्क में आने पर उन्होंने पढ़ाई अधूरी ही छोड़कर पूरी तरह वामपंथ का रास्ता अपना लिया। पी. सी. जोशी उन दिनों अकाल के हालात का जायजा लेने बंगाल के भीतरी ग्रामीण इलाक़ों में जा रहे थे। उनके साथ चित्रकार चित्तप्रसाद भी जा रहे थे। दोनों ने सुनील जाना को भी साथ ले लिया। सुनील जाना बताते हैं ‘पी. सी. जोशी लिखते थे और मैं तस्वीरें खींचता था। उनके पास बिल्कुल साधारण सा एक कोडक कैमरा था। बस, वहीं से मेरी ज़िंदगी बदल गई।’ उधर पी.सी. जोशी कलकत्ता से वापस लौटे, उधर सुनील जाना उड़ीसा के अकाल पीड़ितों की तस्वीरें लेने चले गए। उधर पी.सी. जोशी की रिपोर्ट और सुनील जाना की खींचीं तस्वीरें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के अख़बार ‘पीपुल्स वार’ में छपीं तो सारी दुनिया के कम्युनिस्ट देशों की प्रेस ने उन्हें छापा और सुनील जाना अचानक ही भारत के बेहतरीन फोटोग्राफर के तौर पर स्थापित हो गए। पी. सी. जोशी ने उनकी फोटोग्राफी और विचारधारा के प्रति उनकी समझ को देखते हुए उन्हें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का फोटोग्राफर बनाया। सुनील जाना ने एक इंटरव्यू में बताया है कि मैं और मेरे घर के लोग चाहते थे कि मैं कम्युनिस्ट पार्टी का फोटोग्राफर बनने के पहले अपनी परीक्षाएँ दे दूँ ताकि डिग्री तो पूरी हो जाए। लेकिन पी. सी. जोशी ने कहा कि ‘बिल्कुल नहीं। यह परीक्षाएँ वगैरह बिल्कुल बकवास और ग़ैरज़रूरी है।’ फिर मुझे भी महसूस हुआ कि हाँ, वाकई, यह निहायत ही ग़ैरज़रूरी हैं।

उसके बाद जोशी उन्हें लेकर मुंबई चले गए जहाँ उस वक्त पार्टी का मुख्यालय था। वे पार्टी के होल टाइमर बने। चित्तप्रसाद और वे वहीं साथ-साथ रहा करते थे। दोनों ही इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ से गहरे जुड़े हुए थे। उस वक्त उन्हें 20 रुपये भत्ता मिलता था जिसमें से 10 रुपये वहाँ की साझी रसोई में चला जाता था। 
उसके बाद पार्टी उनसे जहाँ जाने को कहती, वहाँ जाते, तस्वीरें खींचते। धरनों, सभाओं, आंदोलनों, गिरफ़्तारियों, दमन, नौसेना विद्रोह, किसान विद्रोह, काँग्रेस, मुस्लिम लीग, बांग्लादेश युद्ध.......तमाम नेताओं और आंदोलनों के साथ-साथ वे आम मेहनतकश लोगों के गौरवपूर्ण जीवन को भी दर्ज करते चलते। उनके मुताबिक वे आम लोगों और आम दृश्यों की ख़ास तस्वीरें लेकर यह बताना चाहते थे कि कम्युनिस्ट पार्टी किन लोगों के लिए है। ज़ाहिर है सुनील जाना को इतनी स्वतंत्रता के साथ काम करने का अवसर देने में पी. सी. जोशी की गहरी सांगठनिक सूझ और कला की पारखी दृष्टि का विशेष महत्त्व था। 

‘पीपुल्स वार’ और बाद में ‘पीपुल्स एज’ में उन्हें एक पन्ना ही फोटो फीचर के लिए दिया गया जिसमें सुनील जाना ने आम लोगों की ज़िंदगियों, उनके संघर्षों, काम करते हुए मेहनकश लोगों के सौंदर्य, नाव खेते, घानी चलाते, मछली पकड़ते, कोयला खदानों में, घरों-खेतों में मेहनत करते स्त्री-पुरुषों से लेकर तीर-कमान थामे आदिवासियों, मोर्चे पर जाते किसान-मज़दूरों, तेलंगाना के क्रांतिकारियों तक के बेहतरीन फोटोग्राफ्स से कम्युनिस्ट पार्टी के विचार और प्रतिबद्धता को लोगों के बीच स्थापित किया। जब सुनील जाना, उनके चित्र और उस ज़रिये बंगाल के अकाल पर दुनियाभर की नज़र गई तो उस ज़माने की बेहद प्रसिद्ध पत्रिका ‘लाइफ़’ और ‘लाइफ़’ की अत्यंत प्रसिद्ध फ़ोटोग्राफ़र मार्गरेट बुर्क व्हाइट हिंदुस्तान के अकाल को कवर करने के लिए हिंदुस्तान आईं। 

मार्गरेट बुर्क व्हाइट तब तक सारी दुनिया में दुनिया में युद्ध की पहली महिला पत्रकार होने, सोवियत संघ की ज़मीन पर आमंत्रित और वहाँ के भारी उद्योगों की तस्वीरें लेने वाली पहली विदेशी पत्रकार होने, वैश्विक मंदी की बोलती तस्वीरों और साथ ही स्टालिन का मुस्कुराता हुआ दुर्लभ चित्र लेने के लिए सारी दुनिया में विख्यात हो चुकी थीं। उनके बारे में किसी ने लिखा है ‘‘वह महिला जिसे भूमध्य सागर में टॉरपीडो से उड़ाया गया, जिस पर जर्मनी के हवाई बेड़े ने बमबारी की, जिसे आर्कटिक के एक द्वीप पर छोड़ दिया गया और जिसका हवाई जहाज ध्वस्त होने पर उसे चेसापीक की खाड़ी से बाहर निकाला गया, उसे लाइफ़ पत्रिका के स्टाफ़ के लोग मैगी-दि इंडिस्ट्रक्टिबल (अविनाशी) कहा करते थे।’’

तब तक अकाल बंगाल से आंध्र और दक्षिण के अन्य हिस्सों तक पहुँच गया था। मार्गरेट बुर्क व्हाइट कम्युनिस्ट पार्टी के संपर्क में आईं और वहाँ पी. सी. जोशी ने सुनील जाना से उनका परिचय करवाया। मार्गरेट बुर्क व्हाइट को भारत में अपना कोई रास्ता दिखाने वाला और मददगार चाहिए था। इत्तफ़ाक से सुनील जाना पहले ही वहाँ जाने की योजना बना चुके थे। तय हुआ कि दोनों साथ-साथ जाएँगे। सुनील जाना ने फ्रंटलाइन पत्रिका में प्रकाशित वी. के रामचंद्रन को दिए एक इंटरव्यू में बताया कि ‘पहली बार, कम्युनिस्ट पार्टी के हिस्से का ख़र्च ‘लाइफ़’ पत्रिका ने उठाया ....और पहली ही बार मैं रेल के फ़र्स्ट क्लास मैं बैठा।’

मार्गरेट बुर्क व्हाइट भारत में 1945 से 1948 तक रहीं। उन्होंने भारत की राजनीतिक हलचलों को दर्ज करने के साथ ही भारत के कोनों-अंतरों को, यहाँ के आम जन-जीवन को भी देखा और पहचाना। उस पूरे प्रवास और यात्रा में मार्गरेट बुर्क व्हाइट ने अपने लिए अलग तस्वीरें खींचीं और सुनील जाना ने अपना काम किया।  दोनों ने स्वतंत्र काम किया और इस दौरान हुई उनकी दोस्ती जीवनपर्यंत चली। आज जो तस्वीरें गाँधी, नेहरू, जिन्ना, शेख अब्दुल्ला या विभाजन आदि की हम देखते हैं, उनमें बहुत इन्हीं दोनों की खींची तस्वीरें हैं। यहाँ तक कि गाँधीजी की हत्या के सिर्फ़ एक घंटे पहले मार्गरेट बुर्क व्हाइट ने उनका इंटरव्यू किया था और तस्वीरें खींची थीं। उस दौर के बारे में सुनील जाना ने बताया है, ‘‘मैं अपनी पार्टी और राजनीतिक विचारधारा का एक प्रतिबद्ध कार्यकर्त्ता था। मैं एक समर्पित कम्युनिस्ट था। साथ ही इतने सौंदर्य से भरे इतनी विविधताओं वाले देश में फ़ोटोग्राफ़र होना, मुझे लगता था कि मुझ पर देश की विशेष कृपा रही है।’’

जारी....



Wednesday, August 22, 2012

सुनील जाना : जिन्होंने कैमरे से किया राजनीतिक कार्य

- विनीत तिवारी


"जब पीपुल्स वार’ में सुनील जाना के खींचे गए और चित्तप्रसाद के बनाये गए चित्र प्रकाशित हुए तब सारी दुनिया का ध्यान बंगाल के अकाल की तरफ़ गया। वे तस्वीरें और चित्र अपने आप में कहानी थे - हक़ीक़त बयान करती एक ताक़तवर कहानी। वे चित्र यह बताने में सक्षम थे कि बंगाल का अकाल केवल अवर्षा, अति वर्षा या किसी क़ुदरती क़हर का नतीजा नहीं, बल्कि दूसरे विश्वयुद्ध में शरीक अंग्रेजी साम्राज्यवाद की जमाखोरी और अमानवीय नीतियों का नतीजा था जिसने ग़रीब भारतीय जनता की साढ़े तीन लाख जानों को अपनी साम्राज्यवादी हवस की बलि चढ़ा दिया था। उन तस्वीरों से दुनिया के सामने बंगाल के अकाल का भयानक सच आया जिससे अंग्रेजों के ख़िलाफ़ देश में और देश के बाहर भी ग़ुस्सा उमड़ पड़ा।" विनीत तिवारी के लंबे लेख की पहली किस्त:

यह 2010 के नवंबर की बात रही होगी जब हम लोगों ने औरंगाबाद में 9 से 13 दिसंबर 2010 के दौरान होने वाले अखिल भारतीय किसान सभा के सम्मेलन के लिए आसान जुबान में खेती के अध्ययन के अपने नतीजों को एक पुस्तिका की शक्ल में लिखना शुरू किया। जया रात-दिन सिर खपा रही थी कि किस तरह भारत की खेती जैसे एक बेहद पेचीदा मसले को, जिसे समझने में हमें ख़ुद तीन साल से ज़्यादा समय लगा, एक छोटी सी पुस्तिका में समेटा जाए। मैं टाइप करता जा रहा था और साथ ही साथ हिंदी में अनुवाद का काम भी चलता जा रहा था। मेरठ से रजनीश को बुला लिया था और किसी तरह रात-दिन एक करके एक ऐसी पुस्तिका तैयार हो गई जिसमें भारी-भरकम आँकड़े देखकर आम लोग डरें नहीं, और अगर पढ़ना शुरू कर दें तो जो खेती-बाड़ी न भी जानते हों, उन्हें भी उसमें छिपे ग़रीब-अमीर के फ़र्क़ और शोषण के पारंपरिक और आधुनिक तौर-तरीकों के बारे में कुछ जानकारी हासिल हो सके।

अनुवाद के साथ-साथ, किताब के कवर और किताब के साथ दी जा सकने वाली कविताओं आदि का काम विभाजन के अघोषित समझौते के तहत मेरे ही जिम्मे रहता है। किताब के लिए कवर के लिए तस्वीरें खोजते-खोजते गूगल पर एक काली-सफ़ेद तस्वीर पर निगाह ठहर गई। बोलती हुई तस्वीर थी। थी तो काली-सफ़ेद लेकिन क्या शानदार तस्वीर थी कि मन की निगाह फ़ोटोग्राफ़र के भीतर गहरे तक शरीक लाल रंग को साफ़ पहचान सकती थी। तस्वीर 1945 की थी। पंजाब के झण्डीवालाँ गाँव के किसान झण्डा लेकर किसान सभा की कॉन्फ्रेंस के लिए जा रहे हैं। कुछ बुजुर्ग हैं कुछ जवान हैं। कुछ के पैरों में चप्पल है कुछ नंगे पैर हैं लेकिन सबके पैरों, हाथों, चेहरों पर गजब का आत्मविश्वास है, मजबूती है।

हमारे एक मित्र का कहना है कि मैं साँड़ हो गया हूँ जो जहाँ लाल देखा, उछलने लगता हूँ। अब उस तस्वीर में तो झण्डा काला-सफ़ेद ही था, फिर भी मैं मन में उसमें लाल देखकर उछलने लगा। तस्वीर के बारे में और जानकारी हासिल की तो अपनी पीठ थपथपाने का जी हो आया कि बग़ैर ख्याति जाने ही मैंने एक अच्छी कलाकृति को पहचान लिया था। बाद में कहीं पढ़ा भी कि उस फ़ोटोग्राफ़र की तस्वीरों की ख़ासियत और ताक़त यही है कि उन्हें फ़ोटोग्राफ़ी की गहरी समझ रखने वाले हेनरी कार्टर-ब्रेसां से लेकर मेरे जैसे साधारण और अनभिज्ञ लोग भी पसंद कर सकते हैं।

वह तस्वीर सुनील जाना ने ली थी जो 1940 के दशक में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के फ़ोटोग्राफ़र थे। उनकी तस्वीरों की एक वेबसाइट मिली जिसे 1998 में सुनील जाना के चित्रों की न्यूयॉर्क में लगी एक प्रदर्शनी के वक्त बड़ी मेहनत से उनके बेटे अर्जुन जाना ने तैयार किया था। उससे पता चला कि वह कई मायनों में दुनिया के अद्वितीय फ़ोटोग्राफ़र हैं। वेबसाइट से ही मिला एक ईमेल पता। मैंने थरथराते हाथों से एक ईमेल टाइप किया। एक वरिष्ठ कलाकार कॉमरेड को जो किसी दौर में एक किंवदंती हुआ करते थे, यह अनुरोध करते हुए कि आपका खींची 65 वर्ष पुरानी एक तस्वीर हम एक छोटी सी पुस्तिका के लिए इस्तेमाल करने की अनुमति चाहते हैं, मुझे रोमांच हो रहा था।

ईमेल का जवाब भी लगभग तत्काल ही आ गया। लेकिन सुनील जाना का नहीं, अर्जुन जाना का। अर्जुन सुनील जाना के बेटे हैं। उन्होंने लिखा कि उनकी माँ शोभा जाना और पिता जो क्रमशः 83 और 92 वर्ष के हैं। अमेरिका में कैलिफ़ोर्निया के बर्कले शहर में रहते हैं, जबकि अर्जुन काम के सिलसिले में ब्रुकलिन, न्यूयॉर्क में रहते हैं। अर्जुन ने यह भी लिखा कि उन्होंने मेरा मेल अपने माँ-पिता को आगे भेज दिया है और उनके स्वास्थ्य को देखते हुए जैसे ही उन्हें समय मिलेगा, वे जवाब देंगे। उन्होंने यह भी लिखा कि वे मेरा मेल पढ़कर बहुत ख़ुश होंगे।

एक सप्ताह तक फिर कोई जवाब नहीं आया। मैंने फिर अर्जुन को मेल किया कि अब सम्मेलन के लिए वक्त कम बचा है और किताब छपने के लिए चंद रोज़ में तैयार हो जाएगी। आप अपने पिता से फ़ोन पर ही अनुमति लेकर हमें ईमेल कर दें तो अच्छा होगा। इसके जवाब में अर्जुन का मेल आया कि उनके माँ-पिता के साथ-साथ वे ख़ुद भी स्वास्थ्य संबंधी काफ़ी तक़लीफ़ों से गुज़र रहे हैं लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि चूँकि आप लोगों की पुस्तिका का व्यावसायिक उपयोग नहीं होना है अतः उन्हें लगता है कि उनके पिता को इस पर आपत्ति नहीं होगी। उन्होंने वेबसाइट पर उपलब्ध तस्वीरों में से किसी भी तस्वीर के इस्तेमाल की अनुमति हमें दे दी।
जैसे ही यह मेल मैंने देखा तो प्रेस में फ़ोन किया। पुस्तिका प्रेस में जा चुकी थी। वैकल्पिक कवर छप चुका था। हमने तय किया कि हम पुस्तिका के अंदर चित्र को छापेंगे और सुनील जाना का पूरा उल्लेख करेंगे। पुस्तिका छपी। सुनील जाना का चित्र भी।

इस बीच अर्जुन जाना के साथ ईमेल का आदान-प्रदान गाहे-बगाहे हुआ। इंटरनेट के माध्यम से ही पता चला कि वे कविताएँ भी लिखते हैं। अंग्रेजी में लिखीं उनकी कविताएँ पढ़ीं भी।  बीच में यह विवाद भी पढ़ने में आया कि भारत सरकार ने सुनील जाना को पद्मश्री देने की घोषणा कर दी जिस पर सरकार और अवार्ड की सूचना देने गए अधिकारियों की काफ़ी किरकिरी हुई क्योंकि पद्मश्री से उन्हें 1974 में ही सम्मानित किया जा चुका था। अंततः सरकार ने कहा कि गलती से पद्मश्री घोषित हो गया, दरअसल देना तो हम पद्मभूषण चाहते थे।
तब भी सोचा कि अर्जुन जाना को मेल किया जाए। लेकिन हम लोग अपने-अपने कामों में उलझ गए। अधूरे कामों की लगातार बढ़ती जाती सूची में यह काम भी जुड़ गया कि कभी अर्जुन जाना को इत्मीनान से एक लंबा मेल लिखेंगे। फिर लगभग संपर्क टूटा रहा। इस बीच अर्जुन की कुछ कविताएँ मेल पर आयीं भी जिन्हें मैंने कविता के साथ न्याय करने और ससम्मान पढ़ने के लिए सहेज कर रख लिया। अभी चंद रोज़ पहले ही ख़बर पढ़ी कि सुनील जाना 21 जून 2012 को नहीं रहे।

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उनके बंगाल के अकाल के चित्र ‘पीपुल्स वार’ में छपे थे जो उस वक्त भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का अख़बार था। उन चित्रों के छपने से बंगाल के अकाल की जो विभीषिका उभरी, उसने सारी दुनिया को स्तब्ध कर दिया। बंगाल में लाखों लोग भूख से मर रहे हैं, यह ख़बर विदेशों तक पहुँचना तो दूर, भारत के भी दीगर हिस्सों में नहीं पहुँच पा रही थी। अख़बार, जो उस वक्त मौजूद सबसे व्यापक संचार माध्यम थे, वे भी ब्रिटिश सरकार के हुक्म के मुताबिक ख़बर छाप रहे थे। जब पीपुल्स वार’ में सुनील जाना के खींचे गए और चित्तप्रसाद के बनाये गए चित्र प्रकाशित हुए तब सारी दुनिया का ध्यान बंगाल के अकाल की तरफ़ गया। वे तस्वीरें और चित्र अपने आप में कहानी थे - हक़ीक़त बयान करती एक ताक़तवर कहानी। वे चित्र यह बताने में सक्षम थे कि बंगाल का अकाल केवल अवर्षा, अति वर्षा या किसी क़ुदरती क़हर का नतीजा नहीं, बल्कि दूसरे विश्वयुद्ध में शरीक अंग्रेजी साम्राज्यवाद की जमाखोरी और अमानवीय नीतियों का नतीजा था जिसने ग़रीब भारतीय जनता की साढ़े तीन लाख जानों को अपनी साम्राज्यवादी हवस की बलि चढ़ा दिया था। उन तस्वीरों से दुनिया के सामने बंगाल के अकाल का भयानक सच आया जिससे अंग्रेजों के ख़िलाफ़ देश में और देश के बाहर भी ग़ुस्सा उमड़ पड़ा।

बंगाल के अकाल की उन तस्वीरों और चित्रों में जर्जर इंसानों की, कंकाल हो चुके लोगों की कतारें की कतारें नज़र आती हैं। उन चित्रों के पोस्टकार्ड बनाकर उस ज़माने में दुनिया भर में भेजा गया और बंगाल के भुखमरी से जूझते लोगों को मदद मुहैया की गई।

बंगाल के अकाल के चित्रों ने सुनील जाना को दुनियाभर में प्रसिद्धि दिला दी लेकिन ख़ुद सुनील जाना के लिए वह अनुभव बहुत त्रासद था। भला एक वामपंथी दिमाग और विचार रखने वाला व्यक्ति कैसे इस बात पर ख़ुशी महसूस कर सकता है कि उसने जिन ज़िंदा कंकालों या भूख से मरते या मर चुके लोगों के फोटो खींचे हैं, उसने उन्हें प्रसिद्धि दिला दी। बाद में 1998 में एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने कहा कि मेरे लिए यह बहुत मुश्किल था कि मैं भूख से मरते लोगों की मदद करने के बजाय उन्हें कैमरे में उतारूँ। मुझे उन कॉमरेड्स और लोगों से रश्क होता था जो अपना आगा-पीछा न सोचकर दुर्भिक्ष पीड़ित लोगों की मदद और राहत के काम में लगे थे। मेरा मन होता कि मैं भी कैमरा छोड़कर वही करूँ। लेकिन पी. सी. जोशी, जो मुझे अपने साथ बंगाल के गाँवों में लेकर आये थे और जो मेरे शिक्षक, शुभचिंतक, सलाहकार थे, उन्होंने मुझे समझाया कि जो हो रहा है उसका दस्तावेज़ बनाना ज़रूरी है ताकि लोग जानें कि यहाँ दरअसल हालात क्या हैं। मैंने दिल पर पत्थर रखकर कैमरा सँभाला और फोटो खींचता रहा।

जारी..

Friday, August 17, 2012

बिहार इप्टा के 65 साल

आज बिहार में इप्टा के 65 साल हो गए. आज के ही दिन बिहार के राज्यपाल के समक्ष इप्टा ने पटना में सांस्कृतिक संध्या का आयोजन किया था. आज़ादी के जश्न के साथ-साथ बिहार इप्टा के कलाकारों ने अपने गौरवपूर्ण 65 सालों को याद किया. गाँधी मैंदान के पास रूपक सिनेमा के पास रंगमंच पर आजादी का जयघोष इप्टा के मंच गुंजा था. उसके बाद कई उतार चढ़ावों के साथ इप्टा आज भी बिहार में समर्पित रंगकर्म के पर्याय के रूप में राज्य भर में जन-नाट्य आन्दोलन को प्रस्तुत कर रहा है. बिहार IPTA की स्थापना दिवस के अवसर पर जारी सन्देश में इप्टा के राज्य महासचिव श्री तनवीर अख्तर तमाम कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों को बधाई दी और इप्टा आन्दोलन के सशक्तिकरण का आह्वान किया. 

श्री अख्तर ने जानकारी दी इप्टा पुरे राज्य में जन्संस्कृतिक आन्दोलन के विस्तार के लिए अभियान चलाने जा रही है. मिशन 2014 और 2015 की तैयारी में राज्य के युवा और कलाकारों का विशेष जत्था तैयार होगा और विकास के नाम पर धर्म, घृणा और उन्माद की राजनीति के खिलाफ, प्रगतिशील लोकतान्त्रिक शक्ति के लिए आवाम का मन तैयार करेगा. बिहार IPTA के सचिव डॉ. फ़िरोज़ अशरफ खान ने बताया कि इप्टा का यह विशेष आन्दोलन सांस्कृतिक चेतना के साथ ही बेहतर कला और संस्कृति का उत्कृष्ट प्रदर्शन होंगे. कभी लोककलाकार भिखारी ठाकुर की 125वी जयंती के अवसर पर तो, कभी इप्टा दिवस, रंगमंच दिवस पर संस्कृति और राजनितिक चेतना की रंगमंचीय प्रदर्शन होंगे.

इस अवसर पर इप्टा के अध्यक्ष श्री समी अहमद, श्री कृष्ण नंदन वार्ष्णेय, कार्यकारी अध्यक्ष सीताराम सिंह ने अपने सन्देश जारी किये. इप्टा कार्यालय में आयोजित बैठक में पटना इप्टा की अध्यक्ष डॉ. उषा वर्मा ने जानकारी दी कि अक्तूबर माह में गिरिश कर्नाड के नाटक "रक्त कल्याण" का मंचन तनवीर अख्तर के निर्देशन में किया जायेगा.
-संजय सिन्हा

Tuesday, August 14, 2012

भगतसिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की ...

इप्टानामा के पाठकों को स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनायें ! 



-शंकर शैलेन्द्र
भगतसिंह इस बार न लेना
काया भारतवासी की

देशभक्ति के लिए आज भी
सज़ा मिलेगी फांसी की

-फैज़ अहमद फैज़ 

ये दाग़-दाग़ उज़ाला, ये शबगुज़ीदा सहर
वो इन्‍तज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं, जिसकी आरजू लेकर
चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं
फ़लक के दश्‍त में तारों की आख़री मंज़ि‍ल

कहीं तो होगा शबे सुस्‍त मौज का साहिल
कहीं तो जा के रुकेगा, सफ़ीन-ए-ग़मे-दिल..........

-बाबा नागार्जुन
किसकी है जनवरी, किसका अगस्‍त है?
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्‍त है?


सेठ है, शोषक है, नामी गला-काटू है
गालियां भी सुनता है, भारी थूक-चाटू है
चोर है, डाकू है, झूठा-मक्‍कार है
कातिल है, छलिया है, लुच्‍चा-लबार है
जैसे भी टिकट मिला
जहां भी टिकट मिला
शासन के घोड़े पर वह भी सवार है

उसी की जनवरी छब्‍बीस
उसी का पन्‍द्रह अगस्‍त है

बाकी सब दुखी है, बाकी सब पस्‍त है...
कौन है खिला-खिला, बुझा-बुझा कौन है
कौन है बुलंद आज, कौन आज मस्‍त है?
खिला-खिला सेठ है, श्रमिक है बुझा-बुझा
मालिक बुलंद है, कुली-मजूर पस्‍त है

सेठ यहां सुखी है, सेठ यहां मस्‍त है
उसकी है जनवरी, उसी का अगस्‍त है


पटना है, दिल्‍ली है, वहीं सब जुगाड़ है
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है
फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है



गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मास्‍टर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मज़दूर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
घरनी की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
बच्‍चे की छाती में कै ठो हाड़ है!

देख लो जी, देख लो, देख लो जी, देख लो
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
पटना है, दिल्‍ली है, वहीं सब जुगाड़ है
फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है
फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है
महल आबाद है, झोपड़ी उजाड़ है
ग़रीबों की बस्‍ती में उखाड़ है, पछाड़ है

धत् तेरी, धत् तेरी, कुच्‍छों नहीं! कुच्‍छों नहीं
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
ताड़ के पत्‍ते हैं, पत्‍तों के पंखे हैं
पंखों की ओट है, पंखों की आड़ है
कुच्‍छों नहीं, कुच्‍छों नहीं...
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!


किसकी है जनवरी, किसका अगस्‍त है!
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्‍त है!

सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्‍त है
मंत्री ही सुखी है, मंत्री ही मस्‍त है
उसी की है जनवरी, उसी का अगस्‍त है...

-ख़लीलुर्रहमान आज़मी 


अभी वही है निज़ामे कोहन अभी तो जुल्‍मो सितम वही है
अभी मैं किस तरह मुस्‍कराऊं अभी रंजो अलम वही है


नये ग़ुलामो अभी तो हाथों में है वही कास-ए-गदाई
अभी तो ग़ैरों का आसरा है अभी तो रस्‍मो करम वही है


अभी कहां खुल सका है पर्दा अभी कहां तुम हुए हो उरियां
अभी तो रहबर बने हुए हो अभी तुम्‍हारा भरम वही है


अभी तो जम्‍हूरियत के साये में आमरीयत पनप रही है
हवस के हाथों में अब भी कानून का पुराना कलम वही है


मैं कैसे मानूं कि इन खुदाओं की बंदगी का तिलिस्‍म टूटा
अभी वही पीरे-मैकदा है अभी तो शेखो-हरम वही है


अभी वही है उदास राहें वही हैं तरसी हुई निगाहें
सहर के पैगम्‍बरों से कह दो यहां अभी शामे-ग़म वही है

Monday, August 13, 2012

अभी आप तैयार नहीं हैं

-मोहनदास करमचंद गांधी 

"जंतर मंतर पर चुनावी राजनीति में उतरने से पहले अण्णा हजारे उधेड़बुन में थे। यह उधेड़बुन ‘गांधी-मार्ग’ पत्रिका में छपे गांधीजी के एक भाषण को पढ़ कर खड़ी हुई। उन्होंने गांधीजी के आलेख की प्रतियों का अपने सहयोगियों से साझा भी किया। हालांकि अंतिम फैसला कुछ और हुआ। 20 मार्च, 1940 को रायगढ़ में कांग्रेस के अधिवेशन में दिया गया भाषण। गांधीजी बोले हिंदी में ही थे, पर उनके इस भाषण का कोई हिंदी प्रारूप नहीं मिलता। इसलिए यह अंश ‘गांधी-मार्ग’ में संपूर्ण गांधी वांग्मय में दिए गए अंग्रेजी विवरण से अनुवाद किया गया है।" -संपादक जनसत्ता
यहां आकर मुझे यह तमाम चर्चा सुनने का अवसर मिला, इसकी मुझे खुशी है। जब मैं देखता हूं कि हर वक्ता की जुबान पर ‘सविनय अवज्ञा’ शब्द ही था तो मुझे ‘बाइबिल’ की यह उक्ति याद आ जाती है: ‘‘प्रभु-प्रभु’ की रट लगाने वाले हर व्यक्ति को स्वर्ग के साम्राज्य में प्रवेश नहीं मिलेगा; जो स्वर्ग में विराजमान मेरे पिता (परमेश्वर) की इच्छा के अनुसार आचरण करेगा, केवल उसी को उस साम्राज्य में प्रवेश मिलेगा।’’ (हर्षध्वनि) मुझे आपकी तालियों की गड़गड़ाहट की जरूरत नहीं है। मैं तो आपके हृदय और बुद्धि को जीतना चाहता हूं और तालियों की गड़गड़ाहट और वाहवाही से मेरे उस विजय अभियान में बाधा पड़ती है। सविनय अवज्ञा के नारे लगाने वाले लोग सविनय अवज्ञा शुरू नहीं कर सकते। उसे करने की सामर्थ्य तो केवल उन्हीं में है जो उसके लिए काम करते हैं। सच्ची सविनय अवज्ञा की दृष्टि से ऐसे आंदोलन में भाग लेने वालों के लिए यह जरूरी है कि उन्हें जो करने का आदेश दिया जाए उसे करें और जो करने का निषेध किया जाए, उसे न करें। सही ढंग से शुरू की गई और सही ढंग से चलाई गई सविनय अवज्ञा का परिणाम निश्चित तौर पर स्वराज्य के रूप में प्रकट होगा। 

मुझे लगता है कि आप अभी तैयार नहीं हैं। इसलिए जब मैंने आपको उन वक्ताओं की वाहवाही करते देखा, जिन्होंने कहा कि हम तैयार हैं, तो मुझे बड़ा आघात पहुंचा। कारण, मैं जानता हूं कि हम तैयार नहीं हैं। यह सच है कि हम सब यह जानते और महसूस करते हैं कि हम अपने ही देश में गुलाम बन कर रह रहे हैं। हम यह भी महसूस करते हैं कि स्वतंत्रता हमारे लिए आवश्यक है। फिर, हम यह भी महसूस करते हैं स्वतंत्रता के लिए हमें लड़ना पड़ेगा। तत्काल सविनय अवज्ञा आरंभ करने की मांग करने वाले वक्ताओं को वाहवाही देने में मैं भी शरीक हो सकता हूं। एक चोर मेरे घर घुस आया है और उसने मुझे अपने ही घर से बाहर निकाल दिया है। मुझे उससे लड़ कर अपना घर वापस लेना है, लेकिन वैसा करने से पहले मुझे उसके लिए पूरी तरह तैयार हो जाना चाहिए। (हर्षध्वनि) आपकी तालियों से केवल यही प्रकट होता है कि इस तैयारी का मतलब क्या है, यह आप नहीं समझते। आपके सेनापति को लग रहा है कि आप तैयार नहीं हैं, आप सच्चे सिपाही नहीं हैं और अगर हम आपके बताए रास्ते पर बढ़े तो निश्चय ही हमारी हार होगी। और यह जानते हुए मैं आपसे लड़ने को कैसे कह सकता हूं? मैं जानता हूं कि आपके जैसे सिपाहियों को लेकर लड़ूं तो मेरी पराजय होगी। 

मुझे यह साफ कर देना चाहिए कि मैं ऐसा कुछ नहीं करने वाला हूं, जिसके लिए मुझे बाद में पछताना पड़े। इतने वर्षों से किसी भी संघर्ष में मैंने पराजय स्वीकार नहीं की है। कुछ लोग राजकोट का उदाहरण सामने रख सकते हैं, लेकिन मैं मानता हूं कि मेरे लिए वह पराजय नहीं थी। यह बात तो भावी इतिहास ही बताएगा। मेरे कोश में ‘पराजय’ शब्द नहीं है, और मेरी सेना में भरती किया जाने वाला हर आदमी इस बात के लिए आश्वस्त रहे कि सत्याग्रही कभी पराजित नहीं होता। 

मैं आपको भरोसा दिलाता हूं और सार्वजनिक रूप से यह घोषणा करता हूं कि जब आप तैयार होंगे, मैं आगे बढ़ चलूंगा और तब हमारी विजय होगी- इसमें मुझे तनिक भी संदेह नहीं है; यही बात मैंने विषय-समिति में कही थी और उसी को यहां फिर दोहराता हूं। अपने दिल और दिमाग को शुद्ध कीजिए। यहां उपस्थित कुछ लोग जरूरी नहीं हैं। मैं उन लोगों की ईमानदारी और बहादुरी पर शक नहीं करता। लेकिन, जैसा कि पंडित जवाहरलाल नेहरू ने आपको बताया है, उनकी बात से उनके मन की कुछ कमजोरी प्रकट होती है। खैर, जो बात मैं पिछले बीस वर्षों से कहता आया हूं वही आपसे फिर कहता हूं- सत्याग्रह और चरखे में गहरा आपसी संबंध है, और मेरी इस मान्यता को लोग जितनी ज्यादा चुनौती देते हैं, उसमें मेरी आस्था उतनी ही अधिक दृढ़ होती जाती है। यह बात न होती तो मैं ऐसा मूर्ख नहीं हूं कि दिन-रात यहां तक कि रेलगाड़ी में भी और डॉक्टरों की सलाह के खिलाफ भी चरखा चलाता रहूं। डॉक्टर तो चाहते हैं कि मुझे अपने-आपको तैयार करना है। मैं चाहता हूं कि आप भी इसी आस्था से चरखा चलाएं। और अगर आप ऐसा नहीं करते और नियमपूर्वक खादी नहीं पहनते तो आप मुझे धोखा देंगे। सारी दुनिया को धोखा देंगे। जो चरखे में विश्वास नहीं करता वह मेरी सेना का सिपाही नहीं बन सकता। 

मेरे लिए तो अहिंसा के अलावा कोई और रास्ता ही नहीं है। मेरी मृत्यु के समय भी मेरे अधरों पर अहिंसा का ही नाम होगा, इसमें कोई शक नहीं है। लेकिन आप मेरी तरह इससे प्रतिबद्ध नहीं हैं, और इसलिए आपको कोई दूसरा कार्यक्रम अपना कर देश को स्वतंत्र करने की पूरी छूट है, लेकिन अगर आप न तो यह करना चाहें और न चरखा चलाएं और यह इच्छा करें कि मैं लड़ाई आरंभ कर दूं तो यह तो बड़ी कठिन बात होगी। अगर आपको लगता हो कि आपको लड़ना है और अभी तुरंत लड़ना है और अगर आपको यह विश्वास हो कि उस लड़ाई को जीतने का कोई और रास्ता भी है तो मैं आपसे कहूंगा कि आप आगे बढ़िए और अगर आप विजयी हुए तो आपको शाबाशी देने वालों में मैं सबसे आगे रहूंगा। लेकिन अगर आप मुझे छोड़ना नहीं चाहते और साथ ही मेरे रास्ते पर चलना और मेरे निर्देशों का पालन करना भी नहीं चाहते तो फिर मैं जानना चाहूंगा कि आप मुझसे किस तरह का सेनापति बनने की अपेक्षा रखते हैं। जो लोग यह रट लगाए हैं कि सविनय अवज्ञा अविलंब आरंभ की जाए, वे चाहते हैं कि मैं उनका साथ दूं। क्यों? इसलिए कि जन साधारण मेरे साथ है। मैं निस्संकोच कहता हूं कि मैं आम जनता का आदमी हूं। हर क्षण मैं करोड़ों भूखे लोगों के लिए दुख का अनुभव करता हूं। उनके कष्ट दूर करने और उनकी तकलीफों को कम करने के लिए ही मैं जिंदा हूं और इसी के लिए मैं अपने प्राण भी दे देने को तैयार हूं। मैं दावा करता हूं कि उन करोड़ों लोगों पर मेरा कुछ प्रभाव है, क्योंकि मैं उनका निष्ठावान सेवक रहा हूं। मैं सबसे अधिक वफादार उन्हीं के प्रति हूं, और आप मेरा साथ छोड़ दें या मुझे मार डालें तब भी अगर मैं चरखे को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हूं तो उन्हीं की खातिर हूं। कारण मैं जानता हूं कि अगर मैं चरखा-संबंधी शर्त में ढील दे दूं तो उन करोड़ों मूक लोगों के विनाश का सामान जुटा दूंगा, जिनके लिए मुझे ईश्वर के दरबार में जवाब देना होगा। इसलिए अगर आप उस अर्थ में चरखे में विश्वास नहीं करते जिस अर्थ में कि मैं करता हूं तो आपसे मेरा निवेदन है कि आप मुझे छोड़ दें। आप मुझ पर पत्थर बरसाएं और मुझे मार डालें तब भी मैं जन साधारण के लिए काम करने की अपनी लगन नहीं छोडूंगा। यह है मेरा रास्ता। अगर आप समझते हों कि कोई और रास्ता भी है तो मुझे अकेला छोड़ दें।

स्वतंत्रता की लड़ाई में चरखे के बिना मैं आपको जेल जाने का आदेश नहीं दे सकता। मैं ऐसे किसी आदमी को अपनी सेना में नहीं लंूगा जो चरखे में विश्वास नहीं करता। मैं तभी आगे बढ़ंूगा जब मुझे भरोसा हो जाएगा कि चरखे में आपकी आस्था है, आपका विश्वास है। याद रखिए कि अगर यहां एकत्र हम लोग कोई भूल करेंगे तो उससे करोड़ों मूक लोगों पर कष्टों का तूफान फट पड़ेगा। कांग्रेस प्रतिनिधियों की जिम्मेदारी बहुत बड़ी है, और आपको आने वाली विपत्ति से सावधान करना है। इसलिए मुझे तो बहुत सावधानी से आगे बढ़ना है।
बहुत-से वक्ताओं ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद की बुराइयों पर अपने विचार व्यक्त किए। उस बात की मैं और चर्चा नहीं करना चाहता। इतना ही कहूंगा कि हमें उससे छुटकारा पाना है। मैंने आपको इसका गुर बता दिया है। मैं सत्याग्रह तभी आरंभ करूंगा जब मुझे पूरा विश्वास हो जाएगा कि आपने मेरे उपचार को समझ लिया है।
अगर आप किसी डॉक्टर की दवा उसकी हिदायतों के अनुसार लेने को तैयार नहीं हैं तो उससे कोई दवा बताने को कहना बेकार है। ऐसी बात हो तो मैं तो यही कहूंगा कि आप अपने रोग के इलाज के लिए कोई और डॉक्टर ढूंढ़ लें। आज आपने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ जितने भाषण सुने हैं, वे सब आपको उससे छुटकारा पाने में मदद नहीं देंगे। उनसे सिर्फ आपका क्रोध ही भड़केगा। इससे समस्या हल नहीं होगी। क्रोध सत्याग्रह के प्रतिकूल है। ब्रिटेन के लोगों से हमारा कोई झगड़ा नहीं है। हम उनको मित्र बनाना चाहते हैं और अपने प्रति उनकी सद्भावना कायम रखना चाहते हैं- लेकिन उनकी प्रभुता के आधार पर नहीं, बल्कि स्वतंत्र और समान दर्जे का उपभोग करने वाले भारत की बुनियाद पर।

स्वतंत्र देश के रूप में भारत किसी के प्रति विद्वेष नहीं रखेगा और न किसी अन्य देश को अपना गुलाम बनाना चाहेगा। हम शेष संसार के साथ कदम मिला कर आगे बढ़ेंगे- ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार हम संसार से यह आशा रखेंगे कि वह हमारे साथ कदम मिला कर चले। इसलिए याद रखिए कि आपको बाहरी और आंतरिक दोनों शर्तें पूरी करनी हैं। अगर आप आंतरिक शर्त पूरी करेंगे तो फिर अपने विरोधी से घृणा करना छोड़ देंगे। आप उसका विनाश नहीं चाहेंगे और उसके विनाश का प्रयत्न नहीं करेंगे, बल्कि ईश्वर से प्रार्थना करेंगे कि वह उस पर दया करे। इसलिए सरकार के कुकृत्य का वर्णन करते रहने में अपनी शक्ति न लगाएं, क्योंकि हमें उसका संचालन करने वालों का हृदय-परिवर्तन करके उनकी मित्रता प्राप्त करनी है। और फिर कोई स्वभाव से तो बुरा नहीं होता। और अगर दूसरे बुरे हैं तो क्या हम कुछ कम बुरे हैं? यह दृष्टिकोण सत्याग्रह का सहज गुण है और मैं तो कहंूगा कि यहां भी एक ऐसी चीज है, जिसको आप नहीं मानते तो मुझे मुक्त कर दीजिए। कारण, मेरे कार्यक्रम में विश्वास रखे बिना और मेरी शर्तों को स्वीकार किए बिना अगर आप मेरे साथ होंगे तो आप मुझे, स्वयं अपने को और हमारे उद्देश्य को भी नष्ट कर देंगे।

सत्याग्रह हर कीमत पर सत्य पर दृढ़ रहने का मार्ग है। और आप इस मार्ग का अनुसरण करने को तैयार न हों तो मुझे अकेला छोड़ दीजिए। आप भले ही मुझे निकम्मा कहें, मैं उसका बुरा नहीं मानूंगा। अगर यह बात मैं आपके सामने अभी और यहीं स्पष्ट न कर दूं तो मैं बरबाद हो जाऊंगा और मेरे साथ यह देश भी बरबाद हो जाएगा। सत्य और अहिंसा सत्याग्रह के मूल तत्त्व हैं और चरखा उनका प्रतीक है। जिस प्रकार किसी सेना का सेनापति इस बात का आग्रह रखता है कि उसके सिपाही एक खास किस्म की ही पोशाक पहनें, उसी प्रकार आपके सेनापति की हैसियत से मुझे इस बात का आग्रह रखना है कि आप चरखे को अपनाएं और वही आपकी पोशाक होगी। सत्य, अहिंसा और चरखे में पूरी आस्था रखे बिना आप मेरे सिपाही नहीं बन सकते। और मैं एक बार फिर कहता हूं कि अगर इसमें आपका विश्वास न हो तो मुझे अकेला छोड़ दीजिए और अपने तरीकों को आजमा कर देखिए।

जनसत्ता 12 अगस्त, 2012

Thursday, August 9, 2012

दक्षिण अफ्रीका: बा और बापू की स्मृतियाँ

- ललित सुरजन
विशालकाय प्रवेश द्वार के भीतर काफी आगे जाकर बाँए हाथ पर संकरी सी गली में एक लौह कपाट खुलता है। भीतर एक छोटे गलियारे के दोनों तरफ दो-दो कोठरियां हैं। शायद 7x7 की। हर कोठरी पर भी एक लौह कपाट है और एक रोशनदान। एक कोने पर छत से लालटेन लटक रही है। नीचे सोने के लिए पलंग, खाट या बिस्तर नहीं, सिर्फ एक पुराना बारदाना है। दो बाल्टियां हैं- एक पानी के लिए, दूसरी शौच के लिए। इन कोठरियों का उपयोग अधिकतम अभिरक्षा वाले बंदियों के लिए किया जाता है। इन्हीं में तीसरे नंबर की कोठरी कस्तूरबा गांधी ने पहली-पहली बार कैदी जीवन गुजारा। लेकिन इतना ही नहीं, बाहर एक खुला प्रांगण है, जिसमें कतारबध्द होने के लिए लंबी रेखाएं खींच दी गई हैं। हाथ में तश्तरी लेकर घुटने के बल बैठो। जेल कर्मचारी खाने के नाम जो कुछ दें, उसे लेकर भूख शांत करो। सर्दी, गर्मी, बरसात यही नियम है। मौसम की मार से बचने के लिए सिर पर कोई छाया नहीं है।

यह पीटर मॉरित्जबर्ग की पुरानी जेल है जिसे अब विरासत संग्रहालय और शिल्प शाला में तब्दील कर दिया गया है। एक सौ तीस साल पुरानी इस जेल में दक्षिण अफ्रीका के उपनिवेशवादी, रंगभेदवादी शासकों ने जाने कितने स्वाधीनता सेनानियों को अकथ यातनाएं दी होंगी। हां, जेल में काल कोठरी भी है जिसमें फांसी दी जाती थी। अपनी इस पहली जेल यात्रा से लेकर यरवदा के कारावास तक कस्तूरबा ने कितनी ही जेल यात्राएं कीं। अगर मोहनदास करमचंद गांधी बापू, महात्मा और राष्ट्रपिता कहलाए तो उसके पीछे बा का साहस, संघर्ष और त्याग कितना प्रबल रहा होगा, कल्पना करने से ही रोम-रोम सिहर उठता है।

पीटर मॉरित्जबर्ग दक्षिण अफ्रीका का एक छोटा किंतु प्रमुख नगर है, जोहान्सबर्ग और डरबन के बीच। क्वाजुलू -नटाल प्रांत की राजधानी, संक्षेप में पीएमबी। इसी नगर के रेलवे स्टेशन पर 7 जून 1893 की रात एक गोरे सहयात्री ने मोहनदास गांधी को धक्के देकर ट्रेन से बाहर फेंक दिया था। गेहुंआ चमड़ी वाले की ये मजाल कि गोरे साहब के साथ फर्स्ट क्लास के डिब्बे में यात्रा करे! यह सिर्फ न सिर्फ गांधी जी के जीवन को, बल्कि विश्व के राजनीतिक इतिहास को नई दिशा देने वाली युगांतरकारी घटना थी। रॉबिन आईलैण्ड में निर्वासन के अठाइस साल बिताने वाले नेल्सन मंडेला जब स्वतंत्र हुए तो उसके तत्काल बाद उन्होंने सबसे पहले भारत यात्रा की। और जैसा कि इस अवसर पर उन्होंने कहा- 'आपने हमें एक बैरिस्टर भेजा था, हमने उन्हें महात्मा बनाकर वापिस भेजा।' दक्षिण अफ्रीका में जून की कड़कडाती ठंड में रेल यात्रा के इस अनुभव ने ही सचमुच गांधी जी को विश्ववंद्य महात्मा बनने की ओर अग्रसर किया।

पीएमबी के रेलवे स्टेशन पर एक प्रस्तर फलक स्थापित है, जिसमें लिखा है कि इस फलक के आसपास ही उपरोक्त वाकया हुआ था। स्थान निर्धारित करने में रेलवे तंत्र को काफी माथापच्ची करना पड़ी। पुराने रिकार्ड खंगाले गए। 7 जून 1893 की उस ट्रेन में फर्स्ट क्लास का डिब्बा कहां लगा था, इंजिन से कितनी दूर था और इंजिन कहां पर रुका होगा, यह सब नापजोख की गई और तब स्थान निर्धारित हुआ। इस पर मजा यह कि कुछ अध्येताओं के अनुसार उस जमाने में सिर्फ एक ही प्लेटफार्म था और वह पटरी के दूसरी ओर था, और जहां फलक लगा है वह नया प्लेटफार्म है।


जो भी हो, यह रेलवे स्टेशन एक युगांतरकारी घटना का साक्षी तो है ही। इस प्रस्तर फलक के अलावा स्टेशन के प्रतीक्षालय में गाँधी जी की एक तस्वीर लगाई गई है, साथ ही स्टेशन के प्रवेश कक्ष में बहुत सारे फलक हैं। 25 अप्रैल 1997 को पीएमबी की नगर परिषद ने महात्मा गांधी को मरणोपरांत ''नगर की स्वतंत्रता'' के सम्मान से विभूषित किया। नेल्सन मंडेला इस अवसर पर उपस्थित थे और महात्मा के पौत्र, तब भारत के उच्चायुक्त गोपाल गांधी भी। 16 फरवरी 1998 को मॉरीशस के प्रधानमंत्री नवीन रामगुलाम ने यहां आकर बापू को अपनी श्रध्दांजलि अर्पित की। दक्षिण अफ्रीका की प्रखर बुध्दिजीवी गांधीवादी कार्यकर्ता फातिमा मीर ने गांधी जी को समर्पित एक अभिनंदन पत्र लिखा। 30 जनवरी 2001 को दक्षिण अफ्रीका के एक संसद सदस्य बापू की पुण्यतिथि पर श्रध्दांजलि अर्पित करने पहुंचे। भारत के राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम भी यहां 16 सितम्बर 2004 को आए। इन सबके फलक वहां प्रदर्शित हैं। एक ही कसर रह गई। अगर भारत होता तो स्थानों के नाम बदलने की हमारी अदम्य प्रवृत्ति के चलते स्टेशन का नाम भी शायद बदलकर गांधीबर्ग कर दिया गया होता!

इस नगर के दो और स्थानों का उल्लेख मुझे करना चाहिए। शहर के भीड़-भाड़ वाले इलाके में टाउन हॉल या प्रांतीय सचिवालय के सामने बीच सड़क पर गांधी जी की एक आदमकद प्रतिमा नगरपालिका ने स्थापित की है। संगमरमर में ढली यह प्रतिमा- बाएं हाथ में छड़ी, दायां हाथ अभय में ऊपर उठा- सहज ही प्रेरित करती है। इस प्रतिमा के चबूतरे पर एक ओर अल्बर्ट आइंस्टीन की वह सुप्रसिध्द उक्ति उत्कीर्ण है कि - ''आने वाली पीढ़ियों को यह विश्वास करना कठिन होगा कि हमारे बीच कभी हाड़ मांस से बना एक ऐसा व्यक्ति भी था।'' दूसरी ओर गांधी जी का एक कथन उत्कीर्ण है कि अहिंसा के लिए अप्रतिम साहस की आवश्यकता होती है। दूसरी उल्लेखनीय जगह है- एलेन पेटन एवेन्यू। इस मार्ग का नामकरण मेरे प्रिय साहित्यकारों की सूची में बहुत ऊपर दर्ज उस व्यक्ति की स्मृति में किया गया है जो स्वयं गौरांग था लेकिन जिसने जीवन भर उपनिवेशवाद और रंगभेद का साहस के साथ मुकाबला किया, अफ्रीका की अश्वेत जनता की पीडा को अपनी लेखनी से मुखरित किया और 'धरती के आंसू' (क्राय द बिलव्ड कंट्री) शीर्षक से कालजयी उपन्यास लिखा, जिसके लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार से भी नवाजा गया।

डरबन से एक दिशा में पीएमबी है और दूसरी दिशा में फीनिक्स। फीनिक्स कभी एक अलग गांव रहा होगा, लेकिन अब वह डरबन की वृहत्तर नगरपालिका की सीमा में आ गया है। 1904 में गांधी जी ने इसी जगह पर लगभग सौ एकड़ के क्षेत्र में फीनिक्स आश्रम की स्थापना की थी। वे डरबन में 1903 में स्थापित अपना इंटरनेशनल प्रिंटिंग प्रेस उठाकर यहां ले आए थे। इस प्रेस से ही उन्होंने पहले पहल 'इंडियन ओपिनियन' निकालकर अपनी मूल्यपरक पत्रकारी प्रतिभा का भी परिचय दिया था। यहां एक फुटबाल मैदान भी था और सब्जियों का खेत भी। यद्यपि अब एक बड़े हिस्से पर अतिक्रमण हो चुका है। गांधी जी ने श्रम की महत्ता, बुनियादी तालीम, सविनय अवज्ञा, अहिंसा के अपने प्रयोग इस स्थान से ही प्रारंभ किए थे। 1985 के जातीय दंगों में यह आश्रम पूरी तरह जलाकर खाक कर दिया गया था, लेकिन इसका पुनर्निर्माण हुआ, गांधी जी का निवास 'सर्वोदय' दुबारा बना और 27 फरवरी सन् 2000 को राष्ट्रपति एमबेकी ने इसे पुन: लोकार्पित किया।


देशबंधु से साभार

'FASAL' by IPTA, JNU

New Delhi. IPTA, JNU performed 'FASAL' in support of the protest by Left parties against some of the provisions of the Food Security Bill, and demand for changes in the existing Public Distribution System (PDS) at Jantar Mantar, New Delhi.

'Fasal' is a collage of poems, Daro and Sweekaar by Vishnu Khare, Bail by Shamsher Bahadur Singh, Thakur Ka Kuan by Omprakash Valmiki, Hamari Zindagi by Kedarnath Agrawal and Fasal by Kedarnath Singh. The dramatic recitation of these poems is interspersed with the statement of ideals of the democratic republic that India is..The recitation and statements together with a symbolic design present a picture of suppression, resistance and struggle for the people’s rights and human dignity against the structures of power.