Wednesday, July 18, 2012

रायगढ़ में "थियेटर इन एजुकेशन"


-अपर्णा श्रीवास्तव


इप्टा रायगढ़ पिछले कई वर्षों से निरंतर राष्ट्रीय स्तर के नाट्योत्सव एवं ग्रीष्मकालीन बाल एवं युवा नाट्य प्रशिक्षण शिविर आयेजित कर रही है। ग्रीष्मकालीन बाल रंग शिविर में बच्चों के लिए विशेष प्रशिक्षण आयेजित किया जाता है ताकि बच्चे नाट्य-परंपरा से परिचित हो सकें। बच्चे और उनके अभिभावक प्रति वर्ष इस शिविर की प्रतीक्षा करते हैं।

इप्टा रायगढ़ की इस गतिविधि ने कुछ वर्ष पूर्व एक विशेष महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की है। रायगढ़ में संचालित होने वाले पचास वर्ष पुराने शिक्षा-संस्थान कार्मेल कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में ‘थियेटर इन एजुकेशन’ को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। विद्यालय की प्राचार्या सिस्टर तृप्ति ने इसे एक सामान्य विषय की तरह पढ़ाने की अनुमति प्रदान की है। आगे चलकर इसका सुव्यवस्थित पाठ्यक्रम बनने के बाद इसे कक्षावार शामिल किये जाने की योजना है।

जहाँ तक मेरी जानकारी है कि कार्मेल विद्यालय छत्तीसगढ़ का पहला विद्यालय है, जहाँ नाटक को एक विषय की तरह पाठ्यक्रम में शामिल करने की पहल की गयी है। इसकी पृष्ठभूमि में इप्टा रायगढ़ का चलता निरंतर रंग-अभियान है। ’थियेटर इन एजुकेशन’ या थियेटर को विद्यालयों -महाविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल किये जाने की मांग अनेक वर्षों से की जा रही है। इप्टा रायगढ़ ने इस मांग को अपने साथियों के प्रयासों से व्यावहारिक  धरातल पर उतारने की शुरुआत की है। आखिर यह कैसे संभव  हुआ ? इसका खुलासा करने के लिए मुझे स्वयं से शुरुआत करनी पड़ेगी।

मैं पिछले 16-17 वर्षों से इप्टा रायगढ़ से जुड़ी हुई हूँ। शुरु के 1-2 वर्षों तक सिर्फ नाटक देखने के शौक के कारण मैं इप्टा में आती रही। मंच पर कुछ कर दिखाने की इच्छा हमेशा से रही लेकिन संकोची स्वभाव और माहौल, दोनों ही मेरी इस इच्छा के विपरीत थे। जब मेरी बहन ने इप्टा की कार्यशाला में भाग लिया, उस समय उसका उत्साह और जोश देखकर मुझमें बहुत थोड़ी हिम्मत जुट पाई और मैं सिर्फ दर्शक ही बनी रही। अचानक एक बार एक छोटी-सी भूमिका के लिये मुझसे कहा गया। मेरी इच्छा तो थी, पर हिम्मत साथ नहीं दे रही थी। पूरी टीम के उत्साहवर्धन के कारण हाँ कह दिया, सिर्फ एक पंक्ति का संवाद था, उसे कहने में मैंने कितनी हिम्मत जुटाई और कितना पसीना बहाते हुए उसे कहा, याद करने पर आज भी रोमांचित हो उठती हूँ। मैं यह तो नहीं कह सकती कि आज मैं बहुत परफेक्शन के साथ मंच पर काम कर रही हूँ, अभी भी मैं सीखने की प्रक्रिया में ही हूँ। लेकिन यह मैं दावे के साथ कह सकती हूँ  कि इप्टा रायगढ़ के साथ लगातार जुड़े रहने के कारण मेरे व्यक्तिव के विकास का ग्राफ निरंतर बढ़ा है, मुझ में समझने , बोलने की क्षमता में तो निश्चित तौर पर वृद्धि हुई है। मेरे आत्मविश्वास में भी बढ़ोत्तरी हुई है, जो पहले ’निल’ था। इन व्यक्तिगत बातों को बताने का आशय सिर्फ यही है कि इप्टा जैसी किसी भी संस्था में समर्पण के साथ काम करने पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर कुछ न कुछ हासिल होता ही है।

अब आते हैं विद्यालय की ओर! मैं  कार्मेल कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में कामर्स पढ़ाती रही हूँ। विद्यालय के विभिन्न कार्यक्रमों के दौरान बच्चों को कई नाटक करवाए, बच्चों ने भरपूर मज़ा लिया। इनके कारण विद्यालय में मेरी एक पहचान बनी। इस दौरान इप्टा रायगढ़ ने विद्यालय स्तर पर नाट्य प्रतियोगिता आयोजित की थी, जिसमें शहर के 7 विद्यालयों ने भाग लिया। इस प्रतियोगिता को दो भागों में बांटा गया था - सीनियर और जूनियर वर्ग। हमारे विद्यालय द्वारा सीनियर वर्ग में प्रस्तुत किए गए नाटक ’’जूता का अविष्कार’’ को प्रथम स्थान मिला। यह नाटक रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविता पर आधारित था और श्रीलाल शुक्ल द्वारा इसका नाट्य रूपान्तरण किया गया था। प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त करने पर सभी छात्राएँ बहुत खुश थीं, साथ ही प्राचार्या सिस्टर तृप्ति भी बहुत उत्साहित थीं। प्रतियोगिता का आयोजन अप्रैल में किया गया था, उसके बाद गर्मी की छुट्टियाँ लग गई थीं।

जून में नये सत्र के आरम्भ होने पर जब नये सिरे से  अध्ययन- व्यवस्था के लिए समय-सारिणी बनाई जा रही थी, मैंने अपने विषयों को पढ़ाने की चर्चा के साथ एक प्रस्ताव प्राचार्या के सामने रखा कि विद्यालय में ’थियेटर इन एजुकेशन’ शुरु किया जाये।साथ ही उन्हें थियेटर करने के कई फायदे बताये। उन्होने कुछ देर सोचकर हामी भर दी, साथ ही समय-सारिणी में एक विषय ’थियेटर इन एजुकेशन’ को जोड़ने का आदेश दिया। मैं मानसिक रुप से तैयार भी नहीं हो पाई थी कि प्रस्ताव पर उन्होंने तुरंत अमल करने का आदेश दे दिया। समस्या यह थी कि इस विषय को किन कक्षाओं में और किस पाठ्यक्रम के अंतर्गत पढ़ाया जाए! विद्यालय में छठवीं से लेकर बारहवीं तक सेक्शन्स सहित कुल 18 कक्षाएँ हैं। यदि रोज एक पीरियड भी थियेटर का लिया जाए तब भी हफ्ते भर में सभी कक्षाएँ कवर नहीं हो पाएंगी। तब एक कॉमन पीरियड की बात जेहन में आई और साथियों के सलाह-मशविरे के बाद पूरे विद्यालय में फिलहाल दो समूह - सीनियर और जूनियर बनाना तय किया गया। कक्षाओं में नोटिस भेज दी गई। जब ऊपर हॉल में मैं पहला पीरियड लेने पहुँची तो क्या देखती हूँ कि दोनो वर्गों को मिलाकर लगभग 260 बच्चियाँ थीं। उनका उत्साह देखते ही बनता था। लेकिन मैं समझ नहीं पा रही थी कि इतनी ज़्यादा बच्चियों को एक साथ पढ़ाना और नाटक करवाना कैसे संभव हो सकेगा और वह भी मुझ जैसी अप्रिशिक्षित  के लिए! मैंने उनकी एक सामान्य टेस्ट ली, जिसमें हमारे क्षेत्र की लोकसंस्कृति, नाटक व फिल्म से जुड़े हुए प्रश्न दिये थे। इसके आधार पर 25 बच्चियाँ जूनियर और 35 बच्चियाँ सीनियर वर्ग के लिए चुने गये। हफ्ते में एक-एक दिन दोनो वर्गों की कक्षा लेना तय किया गया। उषादीदी के साथ बैठकर पाठ्यक्रम की मोटी रूपरेखा बनाई और उसके बाद शुरुआत हुई कक्षा लेने की।

कक्षा में थियेटर गेम, एक्सरसाइज़, इम्प्रावाइजे़शन, कहानी सुनना-सुनाना आदि गतिविधियाँ शुरु की गईं। सभी को लग रही है कि वे मंच पर आकर ही काम करें। स्वाभाविक भी है, लगभग सभी छोटे-बड़े, नए-पुराने कलाकार भी अधिकतर समय मंच पर गुजारना चाहते हैं, ज़्यादा से ज़्यादा संवाद बोलना चाहते हैं। बच्चे कक्षा के दिन मुझे पहले से बुलाने आ जाते हैं। हालांकि हफ्ते में एक पीरियड ऊँट के मुँह में जीरे जैसा है क्योंकि कई बार परीक्षा के कारण, छुट्टी होने पर या अन्य गतिविधयों के कारण पीरियड नहीं हो पाता। पर बच्चे भी बहुत खुश हैं और मैं भी।

योजनाएँ तो बहुत-सी हैं लेकिन उनपर कब और कैसे अमल हो पायेगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा क्योंकि किसी बात की शुरुआत करना बहुत मुश्किल नहीं है, लेकिन उसे लम्बे समय तक जारी रखकर आगे बढ़ाना कठिन होता है। छत्तीसगढ़ के पहले विद्यालय में थियेटर की शुरुआत हुई है, यह हमारे शहर, इप्टा और कार्मेल विद्यालय के लिए गर्व की बात है।

वैसे इस बात की शुरुआत के लिए जहाँ प्राचार्या का योगदान है, वहीं इसकी नींव डालने में इप्टा रायगढ़ की भूमिका महत्वपूर्ण है। हमारी इकाई में समय-समय पर यह चर्चा अक्सर होती रहती है कि विद्यालयों-महाविद्यालयों में ’थियेटर इन एजुकेशन’ पर काम किया जाए।यह बात मेरे मन में गहरे तक बैठ बई थी, जो मौका पाते ही अचानक एक प्रस्ताव के रूप में सामने आई, जिसे आज  हम एक नन्हें से नव पल्लवित पौधे के रूप में देख रहे हैं। आने वाले समय में यह पौधा कौन सा रूप धारण करेगा, यह तो समय ही बताएगा लेकिन हम रंगकर्मियों को इसमें लगातार खाद-पानी देते रहना होगा।


1 comment:

  1. अपर्णा जी ! सबसे पहले इस पहल के लिए ढेर सारी बधाइयाँ, क्या रायगढ़ में ‘इप्टा’ की कोई ऐसी संस्था है, यदि है तो मैं उससे जुड़ना चाहूँगा। पहले कुछ नुक्कड़ मैंने किए हैं, लेकिन ललक अब भी बनी हुई है। पेशे से मैं भी एक अध्यापक हूँ। कृपया ज़रूर बताएँ।

    डा0 उमेश्वर श्रीवास्तव,
    ओ0 पी0 जिंदल स्कूल,
    ऊर्जानगर, तमनार।

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