Monday, July 30, 2012

"पहल" को दोबारा निकालने की पहल

हिंदी साहित्य जगत की अनिवार्य पत्रिका के रूप में मान्य 'पहल' को विख्यात साहित्यकार, संपादक और कहानीकार ज्ञानरंजन ने पुन: निकालने का निश्चय किया है। उन्होंने तीन वर्ष पहल का प्रकाशन स्थगित कर दिया था। पहल का प्रकाशन बंद करते समय ज्ञानरंजन की टिप्पणी थी कि उन्होंने पहल को किसी आर्थिक दबाव या रचनात्मक संकट के कारण बंद नहीं किया है, बल्कि उनका कहना था-‘‘पत्रिका का ग्राफ निरंतर बढ़ना चाहिए। वह यदि सुन्दर होने के पश्चात् भी यदि रूका हुआ है तो ऐसे समय निर्णायक मोड़ भी जरूरी है।’’

   उन्होंने उस समय स्पष्ट किया था कि यथास्थिति को तोड़ना आवश्यक हो गया है। नई कल्पना, नया स्वप्न, तकनीक, आर्थिक परिदृश्य, साहित्य, भाषा के समग्र परिवर्तन को देखते हुए इस प्रकार का निर्णय लेना जरूरी हो गया था। ज्ञानरंजन ने तब कहा था कि इस अंधेरे समय में न्यू राइटिंग को पहचानना जरूरी हो गया है, लेकिन ऐसा नहीं करना भी बेईमानी होगी। ज्ञानरंजन कहते हैं कि विकास की चुनौती और शीर्ष पर पहल को बंद करने का निर्णय एक दुखद सच्चाई है। उन्होंने कहा कि इस प्रकार का निर्णय लेना भी एक कठिन कार्य है।

ज्ञानरंजन ने पहल के पुनर्प्रकाशन की घोषणा pahal2012.wordpress.com ब्लाग के माध्यम से की। शुरुआती तौर पर पाठकों से संवाद होगा। ब्लाग में दो पहल संवाद जारी हो चुके हैं। अब पहल के प्रकाशन में प्रसिद्ध पत्रकार राजकुमार केशवानी भी सहयोग करेंगे। जबलपुर में ज्ञानरंजन ने बातचीत में कहा कि पहल में सरकारी विज्ञापन बिलकुल नहीं छापे जाएंगे। तीन माह तक जमीनी काम किया जाएगा और फिर पत्रिका का प्रकाशन होगा। पत्रिका के प्रकाशन तक ब्लाग के माध्यम से पाठकों से संवाद होगा। पहल को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने के लिए वेबसाइट का भी उपयोग होगा।

भड़ास4मीडिया से साभार

Wednesday, July 25, 2012

नाटक कभी पुराना नहीं होता




भिखारी ठाकुर का रचनात्मक संसार बेहद सरल है- देशज और सरल। इसमें विषमताएं, सामंती हिंसा, मनुष्य के छल-प्रपंच- ये सब कुछ भरे हुए हैं और वे अपनी कलम की नोक से और प्रदर्शन की युक्तियों से इन फोड़ों में नश्तर चुभोते हैं। उनकी भाषा में चुहल है, व्यंग्य है, पर वे अपनी भाषा की जादूगरी से ऐसी तमाम गांठों को खोलते हैं, जिन्हें खोलते हुए मनुष्य डरता है। भिखारी ठाकुर की रचनाओं का ऊपरी स्वरूप जितना सरल दिखाई देता है, भीतर से वह उतना ही जटिल है और हाहाकार से भरा हुआ है। इसमें प्रवेश पाना तो आसान है, पर एक बार प्रवेश पाने के बाद निकलना मुश्किल काम है। वे अपने पाठक और दर्शक पर जो प्रभाव डालते हैं, वह इतना गहरा होता है कि इससे पाठक और दर्शक का अंतरजगत उलट-पलट जाता है। यह उलट-पलट दैनंदिन जीवन में मनुष्य के साथ यात्रा पर निकल पड़ता है। इससे मुक्ति पाना कठिन है।

उनकी रचनाओं के भीतर मनुष्य की चीख भरी हुई है। उनमें ऐसा दर्द है, जो आजीवन आपको बेचैन करता रहे। इसके साथ-साथ सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि गहन संकट के काल में वे आपको विश्वास देते हैं; अपने दुखों से - प्रपंचों से लड़ने की शक्ति देते हैं।

उनका पूरा रचनात्मक संसार लोकोन्मुख है। उनकी यह लोकोन्मुखता हमारी भाव-संपदा को और जीवन के संघर्ष और दुख से उपजी पीड़ा को एक संतुलन के साथ प्रस्तुत करती है। वे दुख का भी उत्सव मनाते हुए दिखते हैं। वे ट्रेजेडी को कॉमेडी बनाए बिना कॉमेडी के स्तर पर जाकर प्रस्तुत करते हैं। नाटक को दृश्य-काव्य कहा गया है। अपने नाटकों में कविताई करते हुए वे कविता में दृश्यों को भरते हैं। उनके कथानक बहुत पेचदार हैं- वे साधारण और सामान्य हैं, पर अपने रचनात्मक स्पर्शों से वे साधारण और बहुत हद तक सरलीकृत कथानक में असाधारण और विशिष्ट कथ्य भर देते हैं। वे यह सब जीवनानुभव के बल पर करते हैं। वे इतने सिद्धहस्त हैं कि अपने जीवनानुभवों के बल पर रची गई कविताओं से हमारे अंतरजगत में निरंतर संवाद की स्थिति बनाते हैं। दर्शक या पाठक के अंतरजगत में चल रही ध्वनियां-प्रतिध्वनियां - एक गहन भावलोक की रचना करती हैं। यह सब करते हुए वे संगीत का उपयोग करते हैं।

उनका संगीत भी जीवन के छोटे-छोटे प्रसंगों से उपजता है और यह संगीत अपने प्रवाह में श्रोता और दर्शक को बहाकर नहीं ले जाता, बल्कि उसे सजग बनाता है। अपने प्रसिद्ध नाटक ‘बिदेसिया’ में भिखारी ठाकुर ने स्त्री जीवन के ऐसे प्रसंगों को अभिव्यक्ति के लिए चुना, जिन प्रसंगों से उपजने वाली पीड़ा आज भी हमारे समाज में जीवित है।

देश जिस समय स्वतंत्रता की एक बड़ी राजनीतिक लड़ाई लड़ रहा था, उस समय वे इस राजनीतिक लड़ाई से अलग स्त्रियों की मुक्ति की लड़ाई लड़ रहे थे। स्वतंत्रता की लड़ाई समाप्त हो गई, देश राजनीतिक रूप से आजाद हो गया, पर स्त्रियों की मुक्ति की लड़ाई आज भी जारी है। अपने नाटक बिदेसिया में वे एक देसी स्त्री की अकथ पीड़ा का बयान करते हैं, जो पति के परदेस जाने के बाद गांव में अकेले छूट गई है। वे इस अकेले छूट गई स्त्री की पीड़ा को तमाम छूट गए लोगों की पीड़ा में बदल देते हैं।

देश ने 1947 में विभाजन और विस्थापन देखा, पर भिखारी ठाकुर ने 1940 के आसपास अपने नाटक बिदेसिया के माध्यम से बिहार के गांवों से रोजी-रोजगार के लिए विस्थापित होने वाले लोगों की पीड़ा और संघर्षों को स्वर दिया। उनके नाटकों का स्वर स्त्री जीवन के संघर्ष का स्वर है। बिदेसिया के अतिरिक्त उनके अन्य नाटकों के केंद्र में भी स्त्री ही है। ‘गबरघिचोर’ नाटक लिखते हुए वह गर्भ पर स्त्री के मौलिक अधिकार का प्रश्न खड़ा करते हैं। बटरेल्ट ब्रेख्त के नाटक ‘काकेशियन चॉक सर्किल’ (हिंदी में ‘खड़िया का घेरा’) के कथ्य से मिलता-जुलता है गबरघिचोर का कथ्य, जिसको लिखकर ब्रेख्त अंतरराष्ट्रीय ख्याति पाते हैं। वही कथ्य बमुश्किल साक्षर भिखारी ठाकुर अपने समाज से चुनते हैं और असंख्य स्त्रियों की वाणी बन जाते हैं। भिखारी की रचनात्मक संवेदना चकित करती है कि जिस कथ्य को ब्रेख्त चुनते हैं ठीक उसी कथ्य को वे भी स्वीकार करते हैं।

भिखारी ठाकुर ने जिस काल में स्त्री गर्भ पर स्त्री के अधिकार के प्रश्न उठाए उस समय भारत के किसी ग्रामीण इलाके में सार्वजनिक प्रदर्शन तो दूर, यह बात सोची भी नहीं जा सकती थी। वह सोच के स्तर पर ग्रामीण समाज की स्त्रियों में एक व्यापक परिवर्तन के जयंत अभियान पर निकलते हैं। यह एक ऐसा सांस्कृतिक अभियान था, जिसकी कल्पना आज की राजनीति की दुनिया में संभव नहीं है। उन्होंने दूसरा महत्वपूर्ण काम अपने रंगमंच की कलात्मकता के स्तर पर किया। उन्होंने जीवन से ही अपने लिए कला के रूप चुने। वहीं से नाटक की युक्तियों को उठाया। बिहार के तत्कालीन सामंती समाज ने जिस कला को अपनी विकृत रुचियों का शिकार बना लिया था और अश्लील कर दिया था, उसे उन्होंने नया और प्रभावशाली रूप दिया। आज भिखारी ठाकुर हमारे लिए इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि वे सिखाते हैं कि जीवन के अंतर्द्वद्व ही रचनात्मकता को दीर्घजीवी बनाते हैं। उनका पूरा रचनात्मक संसार अंतर्द्वद्वों से भरा हुआ है। वे स्वयं गोस्वामी तुलसीदास की तरह भक्त कवि बनना चाहते थे और खड़गपुर (बंगाल) में रामलीला ने उनके भीतर कविताई का बीज डाला, पर उनके समय और समाज के दुखों ने उन्हें मनुष्य की पीड़ा का रचनाकार बनाया।

भिखारी ठाकुर को साहित्य और संस्कृति की दुनिया के पहरुओं ने प्रसिद्ध नहीं किया और नहीं जीवित रखा। उनकी प्रसिद्धि और व्यापक स्वीकार्यता के कारण उनकी रचनाओं के गर्भ में छिपे हैं। वे इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि नाटक कभी पुराना नहीं होता। उसे हर क्षण नया रहना पड़ता है और यह तभी संभव है जब उसके भीतर मनुष्य समग्रता के साथ जीवंत हो। उन्होंने जीवन से जो अजिर्त किया उसी की पुनर्रचना की। आज भारतीय ग्रामीण समाज उन तमाम दुखों से जूझ रहा है, जिनकी ओर वे अपनी रचनाओं में संकेत करते हैं। ‘भाई विरोध’, ‘बेटी वियोग’, या ‘पुत्र वध’- उनके इन तमाम नाटकों में मनुष्य के आपसी संबंधों के छीजते जाने की पीड़ा दर्ज है। आज भारतीय समाज इस संकट से गुजर रहा है। भिखारी ठाकुर की रचनात्मकता आज भी समग्रता में हमारे जीवन के काम आ रही है।

(साभार : हिंदुस्तान, प्रस्तुति : धर्मेद्र सुशांत)



Friday, July 20, 2012

Lens & legend


Even if by some chance you’ve never heard of Sunil Janah, you are sure to have come across his work. NCERT text books have for decades been sprinkled with iconic photographs shot by Janah – one of the most memorable is the one of Mahatma Gandhi, shot at the Birla House in Mumbai (see pic).  Janah is remembered as a trusting, large-hearted person. Professor KT Ravindran, head of the department of urban design at Delhi’s School of Planning and Architecture, who knew Janah for 35 years, recounts: “In the early 70s Sunil Janah came to my uncle’s home for a cup of tea. I had just come in from Hyderabad. He was about leave for the UK and was looking for someone to take care of his house in Defence Colony. When my uncle suggested my name, Janah didn’t hesitate and said ‘sure, why don’t you take care of my house?’. I was the custodian of his negatives for 13 years and inherited his dark room.” Ravindran remembers Janah as “a truly liberated soul, a real iconoclast who had the energy of a 20 year old even in his later years”.

His passing has been widely reported in the New York Times and The Guardian and his work recognised as era-iconic in many countries. For a long time, Janah did not exhibit his work due to his reaction to unethical practices adopted by various publications. “Janah became bitter at his work being extensively used without payment or credit. This made him a recluse in later life and led to the huge body of work being hidden from public view for decades,” explains Ram Rahman, eminent photographer and close friend to Janah, who has brought a collection of Janah’s work to Delhi’s Safdar Hashmi Memorial Trust.

When destiny beckoned

With Janah, it seemed very much a case of being at the right place at the right time. A famine struck Bengal in 1942, which was a glaring example of British apathy as the administration grossly mismanaged distribution and storage of food grains. Taking this as a great opportunity to draw attention to how imperialism was ravaging India. Communist Party of India (CPI) general secretary PC Joshi persuaded 24-year-old Sunil Janah, who was an amateur photographer doing his postgraduation in English literature at the University of Calcutta, to abandon his studies and contribute to making people aware of the severity of the situation. Joshi’s writing along with Janah’s photographs brought home the misery and despair of the people to thousands of readers in India and abroad.

Though this meant instant fame, the now celebrated Janah wasn’t without remorse. He later said: “People were starving and dying and I was holding a camera to their faces, intruding into their suffering and grief. I envied people who were involved in relief work because they were at least doing something to relieve people’s distress. It was a very harrowing experience, but I also felt that I had to take photographs. There had to be a record of what was happening, and I would do it with my photographs.”

Among the Indian political class too Janah was in great demand. Janah with his sophistication and affability soon forged warm relationships with the who’s who of the Indian freedom scene, including Mahatma Gandhi, MA Jinnah, Jawaharlal Nehru and Sheikh Abdullah. Janah would also go on to document the rise of industry in the times of Nehru.

One of Janah’s comrades remembers him through the stages of his membership with the CPI. “We looked up to Sunil Janah as something of a celebrity,” says Professor Nripen Bandyopadhyaya, a long-serving party member who retired from the Centre for Studies of Social Sciences in 1995 as senior scholar. Janah’s work went beyond the political sphere. “After the split in the Communist Party... in 1947, Janah moved back to Calcutta and opened a studio. He was a founding member, along with Satyajit Ray, Chidananda Das Gupta and Hari Das Gupta, of the Calcutta Film Society,” says Rahman.

Janah went on to capture iconic pictures of danseuse Indrani Rahman (Ram Rahman’s mother), Patiala Gharana maestro Bade Ghulam Ali and other eminent personalities. His lens was equally generous toward other subjects – be it the fishermen of Orissa, Garo boatmen from Meghalaya, or temple sculpture in Konark.

It is little known that Janah “had gone through most of his life, and composed all his photographs, with just one properly functioning eye. His other eye had been rendered almost useless at a very early age, probably by undetected glaucoma,” as chronicled on a website (suniljanah.org) dedicated to the man and his work.

Courtesy : Hindustan times

Wednesday, July 18, 2012

रायगढ़ में "थियेटर इन एजुकेशन"


-अपर्णा श्रीवास्तव


इप्टा रायगढ़ पिछले कई वर्षों से निरंतर राष्ट्रीय स्तर के नाट्योत्सव एवं ग्रीष्मकालीन बाल एवं युवा नाट्य प्रशिक्षण शिविर आयेजित कर रही है। ग्रीष्मकालीन बाल रंग शिविर में बच्चों के लिए विशेष प्रशिक्षण आयेजित किया जाता है ताकि बच्चे नाट्य-परंपरा से परिचित हो सकें। बच्चे और उनके अभिभावक प्रति वर्ष इस शिविर की प्रतीक्षा करते हैं।

इप्टा रायगढ़ की इस गतिविधि ने कुछ वर्ष पूर्व एक विशेष महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की है। रायगढ़ में संचालित होने वाले पचास वर्ष पुराने शिक्षा-संस्थान कार्मेल कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में ‘थियेटर इन एजुकेशन’ को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। विद्यालय की प्राचार्या सिस्टर तृप्ति ने इसे एक सामान्य विषय की तरह पढ़ाने की अनुमति प्रदान की है। आगे चलकर इसका सुव्यवस्थित पाठ्यक्रम बनने के बाद इसे कक्षावार शामिल किये जाने की योजना है।

जहाँ तक मेरी जानकारी है कि कार्मेल विद्यालय छत्तीसगढ़ का पहला विद्यालय है, जहाँ नाटक को एक विषय की तरह पाठ्यक्रम में शामिल करने की पहल की गयी है। इसकी पृष्ठभूमि में इप्टा रायगढ़ का चलता निरंतर रंग-अभियान है। ’थियेटर इन एजुकेशन’ या थियेटर को विद्यालयों -महाविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल किये जाने की मांग अनेक वर्षों से की जा रही है। इप्टा रायगढ़ ने इस मांग को अपने साथियों के प्रयासों से व्यावहारिक  धरातल पर उतारने की शुरुआत की है। आखिर यह कैसे संभव  हुआ ? इसका खुलासा करने के लिए मुझे स्वयं से शुरुआत करनी पड़ेगी।

मैं पिछले 16-17 वर्षों से इप्टा रायगढ़ से जुड़ी हुई हूँ। शुरु के 1-2 वर्षों तक सिर्फ नाटक देखने के शौक के कारण मैं इप्टा में आती रही। मंच पर कुछ कर दिखाने की इच्छा हमेशा से रही लेकिन संकोची स्वभाव और माहौल, दोनों ही मेरी इस इच्छा के विपरीत थे। जब मेरी बहन ने इप्टा की कार्यशाला में भाग लिया, उस समय उसका उत्साह और जोश देखकर मुझमें बहुत थोड़ी हिम्मत जुट पाई और मैं सिर्फ दर्शक ही बनी रही। अचानक एक बार एक छोटी-सी भूमिका के लिये मुझसे कहा गया। मेरी इच्छा तो थी, पर हिम्मत साथ नहीं दे रही थी। पूरी टीम के उत्साहवर्धन के कारण हाँ कह दिया, सिर्फ एक पंक्ति का संवाद था, उसे कहने में मैंने कितनी हिम्मत जुटाई और कितना पसीना बहाते हुए उसे कहा, याद करने पर आज भी रोमांचित हो उठती हूँ। मैं यह तो नहीं कह सकती कि आज मैं बहुत परफेक्शन के साथ मंच पर काम कर रही हूँ, अभी भी मैं सीखने की प्रक्रिया में ही हूँ। लेकिन यह मैं दावे के साथ कह सकती हूँ  कि इप्टा रायगढ़ के साथ लगातार जुड़े रहने के कारण मेरे व्यक्तिव के विकास का ग्राफ निरंतर बढ़ा है, मुझ में समझने , बोलने की क्षमता में तो निश्चित तौर पर वृद्धि हुई है। मेरे आत्मविश्वास में भी बढ़ोत्तरी हुई है, जो पहले ’निल’ था। इन व्यक्तिगत बातों को बताने का आशय सिर्फ यही है कि इप्टा जैसी किसी भी संस्था में समर्पण के साथ काम करने पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर कुछ न कुछ हासिल होता ही है।

अब आते हैं विद्यालय की ओर! मैं  कार्मेल कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में कामर्स पढ़ाती रही हूँ। विद्यालय के विभिन्न कार्यक्रमों के दौरान बच्चों को कई नाटक करवाए, बच्चों ने भरपूर मज़ा लिया। इनके कारण विद्यालय में मेरी एक पहचान बनी। इस दौरान इप्टा रायगढ़ ने विद्यालय स्तर पर नाट्य प्रतियोगिता आयोजित की थी, जिसमें शहर के 7 विद्यालयों ने भाग लिया। इस प्रतियोगिता को दो भागों में बांटा गया था - सीनियर और जूनियर वर्ग। हमारे विद्यालय द्वारा सीनियर वर्ग में प्रस्तुत किए गए नाटक ’’जूता का अविष्कार’’ को प्रथम स्थान मिला। यह नाटक रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविता पर आधारित था और श्रीलाल शुक्ल द्वारा इसका नाट्य रूपान्तरण किया गया था। प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त करने पर सभी छात्राएँ बहुत खुश थीं, साथ ही प्राचार्या सिस्टर तृप्ति भी बहुत उत्साहित थीं। प्रतियोगिता का आयोजन अप्रैल में किया गया था, उसके बाद गर्मी की छुट्टियाँ लग गई थीं।

जून में नये सत्र के आरम्भ होने पर जब नये सिरे से  अध्ययन- व्यवस्था के लिए समय-सारिणी बनाई जा रही थी, मैंने अपने विषयों को पढ़ाने की चर्चा के साथ एक प्रस्ताव प्राचार्या के सामने रखा कि विद्यालय में ’थियेटर इन एजुकेशन’ शुरु किया जाये।साथ ही उन्हें थियेटर करने के कई फायदे बताये। उन्होने कुछ देर सोचकर हामी भर दी, साथ ही समय-सारिणी में एक विषय ’थियेटर इन एजुकेशन’ को जोड़ने का आदेश दिया। मैं मानसिक रुप से तैयार भी नहीं हो पाई थी कि प्रस्ताव पर उन्होंने तुरंत अमल करने का आदेश दे दिया। समस्या यह थी कि इस विषय को किन कक्षाओं में और किस पाठ्यक्रम के अंतर्गत पढ़ाया जाए! विद्यालय में छठवीं से लेकर बारहवीं तक सेक्शन्स सहित कुल 18 कक्षाएँ हैं। यदि रोज एक पीरियड भी थियेटर का लिया जाए तब भी हफ्ते भर में सभी कक्षाएँ कवर नहीं हो पाएंगी। तब एक कॉमन पीरियड की बात जेहन में आई और साथियों के सलाह-मशविरे के बाद पूरे विद्यालय में फिलहाल दो समूह - सीनियर और जूनियर बनाना तय किया गया। कक्षाओं में नोटिस भेज दी गई। जब ऊपर हॉल में मैं पहला पीरियड लेने पहुँची तो क्या देखती हूँ कि दोनो वर्गों को मिलाकर लगभग 260 बच्चियाँ थीं। उनका उत्साह देखते ही बनता था। लेकिन मैं समझ नहीं पा रही थी कि इतनी ज़्यादा बच्चियों को एक साथ पढ़ाना और नाटक करवाना कैसे संभव हो सकेगा और वह भी मुझ जैसी अप्रिशिक्षित  के लिए! मैंने उनकी एक सामान्य टेस्ट ली, जिसमें हमारे क्षेत्र की लोकसंस्कृति, नाटक व फिल्म से जुड़े हुए प्रश्न दिये थे। इसके आधार पर 25 बच्चियाँ जूनियर और 35 बच्चियाँ सीनियर वर्ग के लिए चुने गये। हफ्ते में एक-एक दिन दोनो वर्गों की कक्षा लेना तय किया गया। उषादीदी के साथ बैठकर पाठ्यक्रम की मोटी रूपरेखा बनाई और उसके बाद शुरुआत हुई कक्षा लेने की।

कक्षा में थियेटर गेम, एक्सरसाइज़, इम्प्रावाइजे़शन, कहानी सुनना-सुनाना आदि गतिविधियाँ शुरु की गईं। सभी को लग रही है कि वे मंच पर आकर ही काम करें। स्वाभाविक भी है, लगभग सभी छोटे-बड़े, नए-पुराने कलाकार भी अधिकतर समय मंच पर गुजारना चाहते हैं, ज़्यादा से ज़्यादा संवाद बोलना चाहते हैं। बच्चे कक्षा के दिन मुझे पहले से बुलाने आ जाते हैं। हालांकि हफ्ते में एक पीरियड ऊँट के मुँह में जीरे जैसा है क्योंकि कई बार परीक्षा के कारण, छुट्टी होने पर या अन्य गतिविधयों के कारण पीरियड नहीं हो पाता। पर बच्चे भी बहुत खुश हैं और मैं भी।

योजनाएँ तो बहुत-सी हैं लेकिन उनपर कब और कैसे अमल हो पायेगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा क्योंकि किसी बात की शुरुआत करना बहुत मुश्किल नहीं है, लेकिन उसे लम्बे समय तक जारी रखकर आगे बढ़ाना कठिन होता है। छत्तीसगढ़ के पहले विद्यालय में थियेटर की शुरुआत हुई है, यह हमारे शहर, इप्टा और कार्मेल विद्यालय के लिए गर्व की बात है।

वैसे इस बात की शुरुआत के लिए जहाँ प्राचार्या का योगदान है, वहीं इसकी नींव डालने में इप्टा रायगढ़ की भूमिका महत्वपूर्ण है। हमारी इकाई में समय-समय पर यह चर्चा अक्सर होती रहती है कि विद्यालयों-महाविद्यालयों में ’थियेटर इन एजुकेशन’ पर काम किया जाए।यह बात मेरे मन में गहरे तक बैठ बई थी, जो मौका पाते ही अचानक एक प्रस्ताव के रूप में सामने आई, जिसे आज  हम एक नन्हें से नव पल्लवित पौधे के रूप में देख रहे हैं। आने वाले समय में यह पौधा कौन सा रूप धारण करेगा, यह तो समय ही बताएगा लेकिन हम रंगकर्मियों को इसमें लगातार खाद-पानी देते रहना होगा।


Tuesday, July 17, 2012

फैज दिलों के भाग में है घर बसना भी लुट जाना भी


-दिनेश चौधरी
"उन्हें पता था कि एक क्रांतिकारी किस्म के इंसान की बुनियादी जरूरतों के तमाम इंतजामात यहां पर मौजूद हैं। फैज व ब्रेख्त की किताबें थी, लेनिन का स्केच था, बंगाल के विष्णुपुर से मंगायी मार्क्स की मूर्ति थी, पोस्टर तैयार करने के लिये रंग व कूची थी, मुक्तिबोध व धूमिल की कवितायें थी, ट्रेड यूनियनों की बैठके थीं, 'इप्टा' के नाटकों की तैयारियां थी और रात-दिन तमाम किस्म के लोगों का आना -जाना था। गरज यह कि यह घर कम, आने वाले दिनों में होने वाली क्रांति का कंट्रोल रूम ज्यादा था..."
शायरों से या शायरी से ट्रेड यूनियन आंदोलन के अपने वरिष्ठ साथी एम.एन. प्रसाद का कोई दूर का भी रिश्ता नहीं है। मगर फिर भी उन्होंने मुझसे कहा कि ''आओ, तुम्हें एक पागल शायर से मिलाता हूं।'' साइकल कंपनी की किसी सिरीज का पहला मॉडल रहा होगा, जिस पर यह शायरनुमा व्यक्ति सवार था, हालांकि पागलपन के कोई लक्षण नहीं थे। लंबे, काले व सफेद खिचड़ी बाल जो तेल की पर्याप्त मात्रा के कारण उनके चेहरे की ही तरह चमक रहे थे। क्रीम -पाउडर वाले चाहे कितना भी हल्ला मचायें, ऐसी चमक सिर्फ मेधा के कारण आ सकती है। सफेद कुर्ता-पाजामा और कंधे पर भूदानी झोला। झोले में गोलाकार बंडल बनाये हुए पोस्टर। थोड़ी जल्दबाजी में लग रहे थे। मैंने उनसे हाथ मिलाया और शिष्टाचारवश पूछा, ''कहां निकले हैं?'' दुआ न सलाम, उन्होंने सीधे शेर दागा, '' मुकाम फैज़  कोई राह में जंचा ही नहीं/ जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले।'' दायें पैर के घुटने से उन्होंने साइकल के पैडल पर जोर लगाया और यह जा वह जा।
कामरेड टी.एन. दुबे से यह मेरी पहली मुलाकात थी। यूनियन के किसी जलसे का पोस्टर लगाने निकले थे। लौटकर आए तो एकदम गले लग गये, जैसे बरसों से जानते हों। उन्हें खुशी इस बात की थी कि एक कमउम्र लड़का उनकी उस यूनियन में शामिल हुआ है, जिसे उन्होंने अपने खून-पसीने से सींचा है। वर्किंग कमेटी मीटिंग थी, जहां सिर्फ रिपोर्टिंग वगैरह होती है। मगर उन्होंने भाषण जैसा दिया। शेरो-शायरी भी थी। यूनियन में नया व कच्चा होने के बावजूद मैंने नोट किया कि वे बहक रहे हैं। मगर उनका बहकना लाजमी था। वे नेता नहीं थे, कार्यकर्त्ता थे। ऐसा कार्यकर्त्ता जो दिमाग से नहीं, दिल से काम करता है। ताउम्र करते रहे। और इसलिए ही जब इस असार संसार से कूच किया तो उसका सबब भी यही नामुराद दिल बना। मगर मैं जानता हूं कि यह उनके जाने की उम्र नहीं थी। यह भी कि उन्होंने अपने -आपको थोड़ा-थोड़ा खत्म किया। अंदर ही अंदर रिसते रहे, घुटते रहे, रोते रहे। इंकलाबी भाषण देने वाले, क्रांतिकारी मजदूर नेता-कार्यकर्त्ता का यह बिल्कुल अलहदा, अंतरंग पहलू था जिससे या तो मैं वाकिफ हूं या कामरेड चौबे।
कम लोगों को पता है कि 74 की ऐतिहासिक रेल हड़ताल के लिये हीरोगिरी छांटने वाले जार्ज फर्नांडिज ने असल में रेल-मजदूरों को डुबाने का काम किया। दुबे जी जैसे हजारों कार्यकर्त्ता थे, जिनका नाम इतिहास के पन्नों पर कभी नहीं आयेगा पर जिनके कारण 74 की रेल हड़ताल संभव हो पायी। जार्ज ने रेल मजदूरों के आंदोलन का सत्यानाश करने का काम किया। ऐसा किया कि 74 के बाद रेल में कोई आम हड़ताल नहीं हो पायी। मगर मैं बात दुबे जी की कर रहा हूं। कामरेड दुबे। एक पागल शायर। शायर कम, पागल ज्यादा। ऐसा पागल, जिसे कहते हैं कि हड़ताल तोड़ने के लिये प्रमोशन की चिट्‌ठी और बर्खास्तगी का आदेश एक साथ सौंपा गया- विकल्प चुनने की सुविधा के साथ। उन्होंने बर्खास्तगी का विकल्प चुना और 14 साल तक नौकरी से बाहर रहे। झुके नहीं। चेहरे पर शिकन तक नहीं आयी। फिर इतना मजबूत इंसान नौकरी में वापस आकर क्यों टूट गया?
इस सवाल का जवाब मुझे काफी अरसे बाद मिर्ज़ा गालिब के जरिये मिला, लेकिन इसका खुलासा मैं आगे चलकर करूंगा। दुबे जी वर्ष 1981 में नौकरी से हटाये गये थे। वे मस्तमौला किस्म के इंसान थे, इसलिए नौकरी की परवाह उन्होंने कभी की नहीं। खाने-पीने के शौकीन थे, पर दाल-रोटी से ज्यादा की अपेक्षा नहीं करते थे। कुछ विक्टीमाइजेशन फंड इकट्‌ठा होता था, जिसका एक हिस्सा उनको जाता। उनकी श्रीमती जी और हमारी आदरणीया भाभी जी अचार, पापड़, बड़ी वगैरह बनाकर साथियों के यहां दे आतीं और बची-खुची जरूरतें पूरी हो जातीं। बच्चों की पढ़ाई में उन्होंने किसी भी तरह की कमी नहीं आने दी। वैसे भी उन दिनों पढाई इतनी ज्यादा मंहगी थी नहीं। वे लॉबी जाते, साथियों को इकट्‌ठा करते, शेरो-शायरी करते, बिना दूध की अधप्याली चाय के सहारे अड्‌डेबाजी करते, विश्व बैक और अंरराष्टीय मुद्रा कोष को गरियाते, दलाल यूनियनों व अफसरों की मां-बहन एक करते और बचा हुआ समय अपने सबसे प्रिय शगल, मिर्जा गालिब और फैज अहमद फैज को पढ़ने में व्यतीत करते।
कुल मिलाकर कामरेड दुबे का मन फकीरी में पूरी तरह रम गया था। कोई और समझदार -दुनियावी इंसान होता तो 14 महीनों में ही त्राहि-त्राहि करने लगता, पर वे पूरी तरह मस्त थे और पता नहीं क्यों मुझे लगता था कि वे इस स्थिति से परिवर्तन चाहते भी नहीं थे। वे ''कर्ज की पीते थे मय और कहते थे कि हां / रंग लायेगी हमारी फाकामस्ती एक दिन'' के उसूलों पर चलना चाहते थे। पर नियति को उनकी मिर्जा गालिब की यह शागिर्दी पसंद नहीं आयी। उनका हश्र बहादुर शाह जफर जैसा हुआ।
अस्सी का दशक खत्म होने को था। इलाहाबाद का उपचुनाव जीतने के बाद वी.पी. सिंह ने राजीव गांधी के तख्ता-पलट की तैयारी कर ली थी। दायें-बायें दोनों छोरों से उन्हें सहयोग व समर्थन मिल रहा था। जब उनकी सरकार बनी तो जार्ज साहब रेलमंत्री बने। रेलवे के नौकरशाहों की भवें चढ़ गयीं। एक हड़ताली नेता को रेलमंत्री का ओहदा, यानी बिल्ली से दूध की रखवाली! दुबे जी के साथ कोई 700 रेल कर्मचारी नौकरी से बाहर थे। रोज रेडियो सुना जाता या अखबार देखे जाते कि आज जार्ज साहब बर्खास्त कर्मचारियों की बहाली की घोषणा करेंगे। मगर जार्ज साहब अपने खेल में लगे थे। दुबे जी से रिएक्शन मांगा तो उन्होंने अपने अंदाज में कहा, ''हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन / खाक हो जायेंगे हम उनको खबर होने तक।'' ठीक यही हुआ।
जार्ज साहब ने बर्खास्त रेल कर्मचारियों की बहाली की घोषणा तो की लेकिन ऐन उसी दिन जिस दिन लालू यादव ने रथ यात्रा को रोकते हुए लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया और यह तय हो गया कि सरकार बस अब गिरने ही वाली है। बाद में -जैसा कि अंदेशा था -सरकार ने जार्ज के ऐलान को आदेश में बदलने से साफ इंकार कर दिया। दुबे जी नौकरी में वापस आये सुप्रीम कोर्ट के दखल से। यह रेलवे की बड़ी हार थी, जिसका बदला उन्होंने कर्मचारियों की बहाली के बाद तबादले के रूप में लिया। दुबे जी के बहादुर शाह जफर मार्ग पर चलने की शुरुआत यहीं से हुई।
"कुछ पौधों को जब जमीन से उखाड़ कर नयी जगह पर रोपा जाता है, तो चाहे जितना भी खाद-पानी उन पर खर्च किया जाये, वे पनपने से इंकार कर देते हैं। उनकी जड़े उसी जमीन की सुपरिचित गंध की तलाश में छटपटाती रह जाती हैं, जहां से उन्हें उखाड़ा गया था। दुबे जी कुछ ऐसी ही प्रजाति के थे। उनकी आत्मा कलपती थी उस जगह के लिये जहां वे क्रांति के सपनों को अंजाम देने के लिये रोज सुबह भूदानी झोला लेकर निकल पड़ते थे, जहां लेमन टी के साथ अड्‌डेबाजी की जाती थी, जहां उनके हमप्याला-हमनिवाला साथ हुआ करते थे, जहां की दीवारें उनके पोस्टर लगाने वाले हाथों को पहचानने लगी थीं।"
संयोग से दुबे जी का तबादला वहां हुआ जहां हम पहले से तैनात थे। हम खुश थे कि हमें एक जुझारू और कर्मठ कार्यकर्त्ता मिल गया है और हम अपनी लड़ाई को धार दे सकते हैं। पर हमें दुबे जी की मनःस्थिति का अंदाजा नहीं था। यह बात पहले भी हजारों बार कही गयी होगी ओर मैं सिर्फ दोहरा रहा हूं कि कुछ पौधों को जब जमीन से उखाड़ कर नयी जगह पर रोपा जाता है, तो चाहे जितना भी खाद-पानी उन पर खर्च किया जाये, वे पनपने से इंकार कर देते हैं। उनकी जड़े उसी जमीन की सुपरिचित गंध की तलाश में छटपटाती रह जाती हैं, जहां से उन्हें उखाड़ा गया था। दुबे जी कुछ ऐसी ही प्रजाति के थे। उनकी आत्मा कलपती थी उस जगह के लिये जहां वे क्रांति के सपनों को अंजाम देने के लिये रोज सुबह भूदानी झोला लेकर निकल पड़ते थे, जहां लेमन टी के साथ अड्‌डेबाजी की जाती थी, जहां उनके हमप्याला-हमनिवाला साथ हुआ करते थे, जहां की दीवारें उनके पोस्टर लगाने वाले हाथों को पहचानने लगी थीं।
मैंने अर्ज किया कि वे दिल से काम करते थे और उनके दिल ने इस बात को मानने से साफ इंकार कर दिया था कि क्रांति का केंद्र कोई और स्थान भी हो सकता है। यह बात दिमाग से काम करने वाले वरिष्ठ ट्रेड यूनियन नेताओं के समझ से परे थी क्योंकि क्रांति की उनकी व्याख्या मार्क्स और लेनिन के संदर्भो में होती थी जबकि दुबे जी अपनी व्याख्या को मिर्जा गालिब से किनारा किये बगैर फैज के स्तर से आगे नहीं ले जाना चाहते थे। वे कफस में फकत जिक्रे-यार ही चाहते थे और गमे-जानां को किसी भी सूरत में गमे-दौरां से कमतर आंकने के मूड में नहीं थे। 14 साल नौकरी से बाहर रहने पर जिनके चेहरे पर शिकन तक नहीं आयी वही दुबे जी तबादले की वापसी के लिये खुलेआम अपने ही नेताओं को कोसने लगे थे।
दुबे जी अपने कस्बे में जब रहने के लिये आये तो एक पुरानी अटैची व झोले के साथ रेलवे चौक में पहुंचे। थोड़े सहमे हुए से थे कि पता नहीं यह अजनबी शहर एक निर्वासित मजदूर नेता के साथ कैसा सलूक करता है। मैंने घर चलने का प्रस्ताव रखा तो वे अपने मूल रूप में आ गये-'' कुछ हम ही को नहीं एहसान उठाने का दिमाग / वो तो जब आते हैं माइल-ब-करम आते हैं।''
घर आये तो बहुत खुश थे क्योंकि उन्हें पता था कि एक क्रांतिकारी किस्म के इंसान की बुनियादी जरूरतों के तमाम इंतजामात यहां पर मौजूद हैं। फैज व ब्रेख्त की किताबें थी, लेनिन का स्केच था, बंगाल के विष्णुपुर से मंगायी मार्क्स की मूर्ति थी, पोस्टर तैयार करने के लिये रंग व कूची थी, मुक्तिबोध व धूमिल की कवितायें थी, ट्रेड यूनियनों की बैठके थीं, 'इप्टा' के नाटकों की तैयारियां थी और रात-दिन तमाम किस्म के लोगों का आना -जाना था। गरज यह कि यह घर कम, आने वाले दिनों में होने वाली क्रांति का कंट्रोल रूम ज्यादा था और मुझे ठीक-ठीक तो याद नहीं पर लगता है कि उन दिनों चलते वक्त हमारे पांव जमीन से कोई चार-पांच ईंच ऊपर ही पड़ते रहे होंगे।
कुछ दिनों तक तो दुबे जी को कोई समस्या नहीं रही। सब कुछ उनके मन के मुताबिक ही चल रहा था। वे हमारी बैठकों के स्थायी अध्यक्ष थे। यहां भी अड्‌डेबाजी जमने लगी।  शेरो-शायरी की उनकी खयाति भी फैलने लगी थी। उनका खोया हुआ हास्य-बोध फिर से जागृत हो गया था। अपनी औसत से ज्यादा लंबाई व श्रीमती जी की कदरन कुछ कम ऊंचाई, खुद उनके लिये हंसने का एक बड़ा जरिया था। वे अपनी तुलना टेलीविजन के एंटीना से करते और कहते कि -
में एंटीना हूं
ये मेरी पोर्टेबल टीवी है
मैं खड़ा रहता हूं तनकर धूप व बारिश में
लू व आंधी में
हवाओं के थपेड़े सहते
कौवे मुझ पर बीट कर जाते हैं
पर कोई नजर भी उठाकर नहीं देखता
सब इसे ही देखते हैं
नजरें गड़ाकर
घूरते हैं मेरी ही छाया तले...
हंसने-हंसाने का यह सिलसिला बहुत दिनों तक नहीं चल पाया। वे अपनी ही छवि के शिकार थे इसलिए शायद दिल की बात लबों पर नहीं ला पा रहे थे। उदासी उनके अंदर घर करने लगी थी और हमने कई बार उनसे कहा कि भाभी जी को यहीं ले आयें और नये सिरे से जिंदगी की शुरूआत करें। पर पता नहीं क्या मजबूरी थी कि वे आना नहीं चाहती थीं। कामरेड दुबे उन्हें बेइंतिहां चाहते थे। हरेक दूसरी-तीसरी बात में उनका जिक्र होता। वे चौबीसों घंटे घर की यादों के साये में रहने लगे। चेहरे की चमक जाती रही। गालों में पड़े हुए गड्‌ढे उभरने लगे। खिचड़ी बालों में सफेद केशों का अनुपात बढ़ने लगा। चुप-चुप-से रहने लगे और एक दिन सब्र का बांध टूट गया।
बारिशों के दिन थे। मैं उनके साथ अपने घर की सीढि़यां चढ  रहा था। सीढियों और दीवारों पर हरे रंग की काई उग आयी थी। थोड़ी-सी फिसलन -सी भी थी। दुबे जी के अंदर से आवाज आयी -'' उग रहा है दरो-दीवार पर सब्जा गालिब/हम वीराने में हैं और घर पर बहार आयी है।'' उनकी आवाज में कुछ ऐसी पीड़ा थी कि मैं अंदर तक हिल गया था। घर की यादों ने उन्हें भीतर से खोखला कर दिया था और यह आवाज इसी सुरंग से होकर निकली थी। इस शेर को मैंने हजारों बार पढ़ा व सुना होगा पर इसके पीछे छुपे एहसास को इतनी शिद्‌दत के साथ शायद मैं पहली बार महसूस कर पाया था। घर आकर दोनों चुप-से बैठे थे। मैंने माहौल को हल्का करने की कोशिश की और कहा कि चाय बनाता हूं। चाय चढ़ाने के लिये जाने से पहले अपनी आदत के अनुसार कैसेट प्लेयर ऑन कर दिया। बेगम अखतर की आवाज में शकील बदायूनी की ग़ज़ल थी -
मेरे हमनफस, मेरे हमनवा मुझे दोस्त बनकर दगा न दे
मैं हूं दर्दे-इश्क से जां -ब-लब मुझे जिंदगी की दुआ न दे
मेरे दागे-दिल से है रोशनी इसी रोशनी से है जिंदगी
मुझे डर है ऐ मेरे चारागर ये चिराग तू ही बुझा न दे
मुझे ऐ छोड़ दे मेरे हाल पर, तेरा क्या भरोसा है चारागर
ये तेरी नवाजिशे-मुखतसर मेरा दर्द और बढ़ा न दे


मै चाय चढाकर लौटा तो अचानक विस्फोट जैसा हुआ। उनके जब्त का हौसला टूट चुका था। वे फूट-फूट कर रो रहे थे। गलती या लापरवाही मेरी थी जो मैंने ऐसे संजीदा माहौल को और गमगीन करने वाली ग़ज़ल चला दी थी। मुझे गरज सुर-ताल से थी पर वे एहसास में डूबने-उतराने लगे थे। वे उम्र और तजुर्बें दोनो में मुझसे बहुत बड़े थे। मैं उन्हें ढाढस बंधाता भी तो कैसे बंधाता? मुझे यह भी नहीं सूझा कि कम से कम उनकी पीठ सहला दूं। जैसे किसी बच्चे ने कोई कीमती चीज तोड़ कर अभी -अभी डांट खायी हो, इस तरह चुपचाप खड़ा रहा। वे बदस्तूर रोते रहे। जी कुछ हल्का हुआ तो खुद ही चुप हुए। कुरते की बांह से आंसू पोछे। रेलवे को मां की गाली दी और मुंह धोने के लिये बाहर चले गये।
इस घटना का सबसे खराब परिणाम यह निकला कि हम लोगों के सामने रोने की उनकी झिझक जाती रही। यह उनके स्वाभाव का स्थायी भाव बनने लगा। वे क्रांतिकारी से दयनीय बनने लगे। चाहे जब फूट पड़ने की उनकी आदत से हम असहज होने लगे और कोशिश करते कि उनके साथ कम से कम रहें। इस बीच मेरा तबादला दूसरी जगह हो चुका था। मैं कामरेड दुबे को कामरेड चौबे के हवाले कर चुका था या दूसरे शब्दों में कहूं तो दुबे जी और चौबे जी के बीच से जान छुड़ाकर निकल चुका था।
अब केवल रविवार को मेरा आना होता था। कामरेड चौबे थोड़े अक्खड़ मिजाज किस्म के जीव हैं पर बाज मौकों पर इतनी औपचारिकता बरतते हैं कि खीझ होने लगती है। वे कुछ कह तो नहीं रहे थे पर मैं महसूस करने लगा था। दुबे जी हमनफस थे, हमनवा थे, हमखयाल थे पर हमउम्र नहीं थे। हमारे व उनके बीच उम्र का एक लंबा फासला था जो हर समय एक लिहाज की मांग करता था। हम बंधे हुए-से महसूस करने लगे। आखिरकार क्रांति की बातें चौबीसों घंटे तो नहीं की जा सकतीं। जमाने में इंकलाब के सिवा और भी गम थे।
स्थायी हल के लिये मैंने दुबे जी से भाभी जी को लाकर सेटल होने के बात कही। वे भी यही चाहते थे पर कहना मुश्किल है कि उनके बीच क्या था? मामला लंबा खिंच रहा था। इस बीच दुबे जी ने घर का खर्च शेयर करने का ऑफर हमें दिया। हमने इंकार कर दिया। पर यह हमारी विनम्रता नहीं थी, हमारा बड़प्पन नहीं था- विशुद्ध कमीनापन था। चिंता थी कि घर का खर्च शेयर करके कहीं वे 'टिक' न जायें। दुबे जी ने जमाने को देखा था- '' हम इक उम्र से वाकिफ हैं हमें न सिखाओ मेहरबां / कि लुत्फ क्या है और सितम क्या है।'' वे चीजों को समझ रहे थे पर मैंने अर्ज किया कि वे हमेशा अपने दिल की पुकार सुनते थे ओर उनका दिल कह रहा था कि यहां से चले गये तो मुश्किल होगी। वे बार-बार मुझसे कहते कि कामरेड चौबे से घर के खर्च को शेयर करने के लिये कहो। मैं क्या करता? कामरेड दुबे तकलीफ में थे और कामरेड चौबे दुविधा में। मैंने चुप रहकर यथास्थिति बनाये रखी क्योंकि इस समस्या का कोई हल तो था ही नहीं।
हल दुबे जी के पास भी नहीं था। उन्होंने अपने उस्ताद फैज साहब से पूछा। फैज साहब एक दिन दबे पांव आये और चुपके-से उनके कानों में कहा -''फैज दिलों के भाग में है घर बसना भी लुट जाना भी / तुम उस हुस्न के लुत्फो-करम पर कितने दिन इतराओगे।'' दुबे जी ने अपनी अटैची और झोला समेट लिया। वे अलग रहने के लिये चले गये। हमने उन्हें रोका नहीं और सिर्फ इसी वजह से - अल्लाह माफ करे- हमें हमेशा ऐसा लगता रहा कि हमने उन्हें अपने घर से निकाल दिया है। हालांकि हमारे बीच सिर्फ छतें बदली थीं, और कुछ नहीं बदला था, पर हम हमेशा एक अपराध-बोध में रहे। बाद में भाभी जी भी आकर उनके साथ रहीं। रिटायरमेंट के बाद दुबे जी बहुत दिनों तक नहीं चल पाये। आखिरी बार उन्हें अहमदाबाद-हावड़ा एक्सप्रेस के एसी कोच में चढते हुए देखा था। बाईपास सर्जरी हुई थी। बेहद कमजोर लग रहे थे। भाभी जी भी साथ में थी। देखकर मुस्कुराए पर कोई शेर नहीं कहा। कहने को अब बचा ही क्या था?

Thursday, July 12, 2012

शरीर को अस्त्र मान कर ‘स्टार’ बना जा सकता है, अभिनेता नहीं

-पुंज प्रकाश
एक अभिनेता के लिए ‘स्पेस’ का अर्थ समझने के लिए सबसे पहले हमें इसे कई भागों में बांटना पड़ेगा। इसका सीधा मतलब यह है कि केवल नाट्य प्रदर्शन के दौरान उपस्थित होने वाले स्पेस ही से एक सृजनशील और सजग अभिनेता का काम नहीं चलता। नाट्य प्रदर्शन तो रंगकर्मियों के कार्य की परिणति है, प्रक्रिया नहीं। अगर हम अभिनेता और रंगकर्मी की बात करना चाहते हैं तो प्रक्रिया की बात करनी चाहिए। अभिनय कला को गंभीरतापूर्वक लेने वाले एक अभिनेता को व्यक्तिगत जीवन में सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से जागरूक होना चाहिए। यह ‘एक्टिविज्म’ की नहीं ‘अवेयरनेस’ की बात है। मतलब कि एक अभिनेता को एक व्यक्ति और एक कलाकार के बतौर सजग रहना आवश्यक है। 


अभिनय हवा में पैदा नहीं होता, इसके लिए देश, समाज, काल आदि की समझ जरूरी है। अभिनेता का मूल अस्त्र केवल उसका शरीर नहीं, बल्कि दिमाग भी है। केवल शरीर को अस्त्र मान कर ‘स्टार’ बना जा सकता है, अभिनेता नहीं। इसलिए केवल शरीर को साधने से काम नहीं चलने वाला, दिमाग को भी साधना पड़ेगा। हालांकि रंगमंच के अधिकतर अभिनेता अपना काम केवल पूर्वाभ्यास में किए गए कार्य से चला लेते हैं जिसे अपने और अभिनय के प्रति एक अगंभीर प्रयास कहा जाना चाहिए। एक अभिनेता की दृष्टि से अगर हम इस स्पेस को देखें तो इसका महत्त्व किसी प्रयोगशाला से कम नहीं है, जहां तरह-तरह के प्रयोग के दौर से गुजर कर अभिनय और उस प्रस्तुति से जुड़ी कोई भी चीज एक आकार लेती है। 


एक अभिनेता यहां अभिनेता से चरित्र में ढलता है, चरित्र की ध्वनि (सुर) तलाशता है, चरित्र का नजरिया और हाव-भाव पैदा करता है, चरित्र को एक शरीर प्रदान करता है आदि। मंच पर प्रस्तुत होने के पहले पूरा नाटक और उसका एक-एक ब्योरा यहां अपनी पूर्णता तक पहुंचाता है। यहां जो कुछ भी हासिल होता है, उसी का प्रदर्शन मंचन के वक्त किया जाता है। अब सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि पूर्वाभ्यास की जगह को कितना ज्यादा संवेदनशील और रंगकला के अनुकूल होने की जरूरत है। अभिनेता के लिए नाट्य प्रदर्शन स्थल पर ‘मेकअप स्पेस’ और ‘विंग्स स्पेस’ आदि का भी अपना एक खास महत्त्व है। ये वे जगहें हैं जहां एक अभिनेता प्रस्तुत होने वाले नाटक के प्रति अपने आपको एकाग्रचित करता है। प्रदर्शन के दौरान किसी और को उधर जाने की इजाजत नहीं होती। मंच पार्श्व का अनुशासन मंच पर प्रस्तुत होने वाले या हो रहे कार्य का सहायक होता है। 


हिंदुस्तान में कुछ नाट्य दल ऐसे हैं या कुछ पारंपरिक नाट्य शैलियां ऐसी हैं जिनका मंच पार्श्व का अनुशासन आज भी अनुकरणीय है। अब जहां तक सवाल मंच पर बने स्पेस का है तो अलग-अलग नाट्य प्रस्तुतियों में उनकी शैली के मुताबिक स्पेस की बुनावट भी अलग-अलग होती है। इन सबके साथ सामंजस्य बैठाने की प्रक्रिया भी अलग-अलग होती है। हर अभिनेता का अपना तरीका होता है जिसे वह अपनी सुविधा के हिसाब से गढ़ता है। लेकिन कुछ बातें बुनियादी होती हैं जिनका ध्यान रखना हर स्पेस में जरूरी होता है। नाटक को दृश्य काव्य कहा गया है जिसका प्रदर्शन सामान्य तौर पर दर्शकों के समक्ष किया जाता है। 


अब जो भी दर्शक नाटक देखने आता है वह चाहे कितना भी सहृदय क्यों न हो, अगर उसे ठीक से दिखाई और सुनाई नहीं दे रहा है तो या तो वह उठ कर चला जाएगा या बोर होगा। कई बार प्रदर्शन स्थल या सभागार की बनावट के हिसाब से प्रस्तुति में कुछ छोटे-मोटे बदलाव करने आवश्यक हो जाते हैं। वहीं कई सारी प्रस्तुतियां किसी खास स्पेस को ध्यान में रख कर की जाती हैं जिसका किसी और तरह के स्पेस में प्रदर्शन उतना कारगर सिद्ध नहीं होता। रंगमंच का अभिनेता पहली पंक्ति में बैठे दर्शकों के प्रति ही नहीं, बल्कि सबसे पीछे बैठे लोगों के प्रति भी उतना ही जिम्मेदार होता है। 
साभार: जनसत्ता

7th biennial World Shakespeare Conference


Shakespeare Society of Eastern India and 
Benares Hindu University (India)
 Jointly host
7th biennial World Shakespeare Conference
1 – 3 December 2012

Theme: SHAKESPEARE ACROSS CULTURES

Conference sub-themes:
·        Global Investigations into Shakespearean Theory,
·        Criticism and performance with Special Focus on Translations,
·        Adaptations and productions of Shakespeare and Elizabethan Drama in the Asia-Pacific and South Asian region.
A welcome development that has taken place in the field of Shakespeare studies. The last half of the twentieth century has been one of a radical enlargement in conceptual territory. Today it is no longer outré to research Shakespeare outside literature classrooms and beyond the borders of the Anglo-American academe. New innovative readings of the cultural, social, and (arguably) political influence and transformational impact of Shakespeare all over the world have come to be voiced. New areas of study and new locations of research have come into being not only in parts of the globe that have had a tradition of familiarity with the Bard going back over several centuries, but also in regions where such awareness is of a much more recent origin. Nevertheless, a great deal of the new work on Shakespeare  has remained restricted to specialist circles with few or no opportunities for interactive openness being easily available to scholars, students and practitioners, or simply to those who desire to make a contribution to Shakespeare-oriented knowledge.
It is with the intention of creating such an interactive space that the Kolkata (erstwhile Calcutta) based Shakespeare Society of Eastern India has in the past hosted six World Shakespeare Conferences in which thoughts were freely shared, papers were read, performances staged, and knowledge exchanged. Extending upon the series of the last six Conferences, the Shakespeare Society of Eastern India and Benares Hindu University (India) will jointly host the 7th biennial World Shakespeare Conference to be held over 1 – 3 December 2012 in the Indian city of Benares which has the unique distinction of being the oldest inhabited city in the history of the human civilization. Like the other six Conferences held in the past, and attended by delegates from countries like Australia, Austria, Bangladesh, Germany, Great Britain, India, Israel, Italy, Japan, the UAE, USA etc., the 2012 global meet is designed to offer a mutually enriching space to scholars, students and researchers, teachers and academics, culture analysts and historians, theatre persons and performers. Delegates to this Conference themed “Shakespeare Across Cultures” would be invited to read papers/offer presentations/performances that would engage with the genius of William Shakespeare from across a spectrum of interests and receptions and a diversity of perspectives. 
The sub-theme of this Conference being global Investigations into Shakespeare on the planes of theory, criticism and performance with special focus on translations, adaptations and productions of Shakespeare and Elizabethan Drama in the Asia-Pacific and South Asian region, submissions of Abstracts (up to a maximum of 300 words) in these general areas of interest are invited from individuals wishing to participate in this event. The last date for the submission of abstracts is 15 June 2012. Acceptance notifications and invitations for international delegates will be issued by 15 July 2012. The Conference website is currently under preparation and will be published shortly, but those wishing to submit abstracts or desiring more information may mail the following:
President, Shakespeare Society of Eastern India: Prof. Amitava Roy: profroy@gmail.com
Secretary General, Shakespeare Society of Eastern India: Prof. Subir Dhar subirdhar2010@gmail.com
Jt. Secretary, Shakespeare Society of Eastern India: Dr. Tapu Biswas: tapu_biswas@ yahoo.com
Conference Convener, Prof R.N. Rai: mraibhu@gmail.com
 Please mail your abstracts at this email ID: 7world.shakespeare@gmail.com


Friday, July 6, 2012

'मुझे मत मारो' नुक्कड़ नाटक का मंचन

चाईबासा, 17 जून : जिसने रचायी दुनियां, जिसने बसायी दुनियां वह बेटी है अनमोल भाइया बेटी है अनमोल आदि गीतों को लिये इप्टा के कलाकार स्वास्थ्य विभाग के सौजन्य से बिटिया बचाओ अभियान के तहत कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ नुक्कड़ नाटक 'मुझे मत मारो' का मंचन सदर प्रखंड के तांबो चौक मेरी टोला, भुइंया टोला, बरकांदजटोली, हिंद चौक, गाड़ीखाना, पोस्ट आफिस चौक, महुलसाई, गुटुसाई नरसंडा आदि ग्राम में कर ग्रामीणों का जागरूक किया।



प्रस्तुत नाटक में कलाकारों ने से बताया कि बेटी मां, मौसी, बहन और जीवन साथी होती है। जीवन की गाड़ी में वो भी एक पहिया होती है। हर एक नाजुक पल की साथी होती है। फिर भी उनके साथ निर्दयी व्यवहार होता है। लोग अपने स्वार्थ में इस कदर अंधे हो जाते हैं कि व निर्ममता की हद पार कर देते है। पहले तो वे लिंग की जाच करवाते हैं और कन्या भ्रुण का पता चलने पर गर्भ में ही उसकी निर्मम हत्या करवा देते हैं। कलाकारों ने यही बतलाया कि कन्या भ्रूण हत्या एक अमानवीय कृत तो है ही साथ ही कानूनी अपराध भी है। इसके लिए सख्त सजा होती है। चंद पैसों के लालच में आज डाक्टर गैरकानूनी ढंग से लिंग का जाच करते हैं जो कानूनन अपराध है और उसके लिए भी सख्त सजा और दंड का प्रावधान है।

पुरुष प्रधान समाज के इस सोच को आज बदलने की जरूरत है आज के दौर में बेटा और बेटी दोनों बराबर है। जो काम बेटा कर सकता है वो बेटी भी काम कर सकती है। आज देश की प्रथम महिला प्रतिभा पाटिल, तीरंदाज दीपिका कुमारी, शटकर शायना नेहवाल, आदि अनेकों उदाहरण है। प्रकाश कुमार गुप्ता द्वारा निर्देशित इस नाटक में किशन कुमार जायसवाल, संजय कुमार चौधरी, शिवलाल शर्मा, अभिजीत डे, राजेश कुमार, नरेश राम, पूजा कुमारी, किशोर साव, प्रकाश गुप्ता, आदि कलाकारों ने अभिनय किये।