Wednesday, June 20, 2012

तेरी महफिल में लेकिन हम न होंगे

- दिनेश चौधरी 

मेहदी हसन व गुलाम अली के नाम केवल ग़ज़ल गायकों के रूप में नहीं लिये जा सकते। दो मुल्कों के बीच चरम नफरत के दौर में उन्होंने प्यार बांटने का काम किया  और वे अघोषित रूप से सांस्कृतिक राजदूत का काम करते रहे। ग़ज़ल का नाम आने पर जिस तरह मीरो-गालिब का ख़याल आता है, मेहदी हसन व गुलाम अली भी सदियों तक इसी तरह याद किये जाते रहेंगे। लंबी बीमारी के बाद मेहदी हसन इस बीच चल बसे। यहां प्रस्तुत है एक संगीतमय श्रद्धांजलि :
जैसा ठहराव उनके सुरों में था, उतने ही इत्मीनान से उन्होंने दुनिया-ए-फानी से कूच किया। अपने चाहने वालों को मानसिक रूप से तैयार होने का पूरा मौका दिया। यों ‘‘किताबे-चेहरा’’ के कुछ बाशिंदो ने पहले ही उनके जाने की खबर उड़ा दी थी। जाना तो था ही। रहने जैसा कुछ रह भी नहीं गया था। देहांत अभी हुआ, प्राणांत तो पहले ही हो चुका था। उनके प्राण गायकी में बसते थे और गायकी एक अरसे से बंद थी। उनकी आवाज में आखिरी गाना लता मंगेशकर के साथ सुना था। बड़ी ख्वाहिश थी कि जैसे गुलाम अली-आशा भोंसले का अलबम "मीराज़े-ग़ज़ल"" आया था वैसे ही एक उम्दा अलबम मेहदी हसन साहब व लता मंगेशकर का भी आये। पर ये दिन देखना नसीब न हुआ।



ख्वाहिश यह भी थी कि मेहदी हसन साहब को कम से कम एक बार ‘लाइव’ सुना जाये। कभी किसी अखबार में पढ़ा कि कोलकाता में उनका प्रोग्राम है। बहुत हाथ-पैर मारने पर भी जानकारी नहीं मिल पायी। तब इंटरनेट की सुविधा भी नहीं थी। बाद में पता चला कि बुलाने वाले फर्जी थे और मेहदी हसन साहब को बैरंग वापस लौटना पड़ा। कोई खान साहब के साथ भी ऐसी बदसलूकी कर सकता है, मेरे लिये यह सोचना कल्पना से परे था।


मेहदी हसन साहब से कभी मिला तो नहीं पर उनसे मेरा साथ कोई 30 बरस का है। इतने अरसा पहले ही उनकी एक ग़ज़ल सुनी थी, ‘‘रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिये आ/आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिये आ।’’ अहमद फराज की इस ग़ज़ल ने दिलो-दिमाग में कुछ ऐसा असर किया कि सारा-सारा दिन और सारी-सारी रात खाँ साहब की ही सोहबत में गुजरने लगे। अजीब दीवानगी थी। उनकी एक-एक ग़ज़ल को ढूंढ-ढूंढ कर सुना जाता था। जैसे ही बाजार में उनके किसी नये अलबम की खबर आती, उसे किसी न किसी तरह हासिल करके ही चैन आता। ‘‘लाइव इन इंडिया,’’ ‘‘शहद,’’ ‘‘लाइव इन रॉयल अलबर्ट हॉल, ‘‘द लीजेण्ड’’, ‘‘एंकर’’, ‘‘महफिले-ग़ज़ल’’, ‘‘कहना उसे’’ आदि कितने ही नाम इस सिलसिले में जेहन में आते हैं। फिर घर आने पर बड़ी ही बेसब्री से -पर उतने ही जतन के साथ- कैसेट का रैपर खोला जाता और कई-कई बार वह तब तक बजता रहता जब तक कि कोई पड़ोसी शिकायत लेकर न आ धमके। यह सिलसिला कोई दस बरस पहले टूट गया जब ‘‘सदा-ए-इश्क’’ के बाद खाँ साहब का कोई दूसरा अलबम नहीं आ सका।



‘‘सदा-ए-इश्क’’ में खाँ साहब ने दूसरी बार फरहत शहजाद के साथ काम किया था। इससे पहले 80 के दशक के उत्तरार्द्ध में ‘‘कहना उसे’’ की उनकी ग़ज़लों ने धूम मचा दी थी। फरहत शहजाद की ये ग़ज़लें कुछ अलग मूड की थीं और मेहदी हसन साहब ने इनके साथ पूरा न्याय किया था। मेहदी हसन साहब की बाद की कोई भी महफिल इन ग़ज़लों के बगैर पूरी नहीं हो सकी थी। इनमें कुछ शेर तो ऐसे भी थे, जिन्हें बार-बार सुनने का मन करता था, मसलन:


सिलते है सिल जायें किसे फिक्र लबों की
खुशरंग अंधेरों को कहूंगा मैं सहर क्यो
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लम्हा-लम्हा वक्त का सैलाब चढ़ता ही गया
रफ्ता-रफ्ता डूबता हम अपना घर देखा किये
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रिस रहा हो खून दिल से लब मगर हँसते रहे
कर गया बर्बाद मुझको ये हुनर कहना उसे
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गमों ने बाँट लिया है मुझे यूं आपस में
कि जैसे मैं कोई लूटा हुआ खजाना था
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इन्हीं फरहत शहजाद ने तमाम ग़ज़ल गायकों को लेकर 2004 में मेहदी हसन साहब की खिदमत में एक अलबम जारी किया-बतौर श्रद्धांजलि नहीं, बतौर सम्मान। फरहत ने कहा कि इस तरह काम लोगों के मरने के बाद करने का रिवाज है पर जाने वाले को बाद में पता नहीं चलता कि उसके हमराह, हमनवा उसके बारे में क्या नेक ख्याल रखते हैं। कोई 25 हजार रूपयों की पेंशन भी फरहत ने मेहदी हसन साहब के लिये शुरू करवाई, हालांकि यह रकम भी बहुत कम थी। मुझे हैरानी होती रही कि दुनिया में इतना अधिक सुने जाने वाले फनकार की माली हालत खस्ता कैसे हो सकती है? संगीत के नाम पर सिर्फ भजन सुनने वाले मेरे एक मित्र की राय थी कि जिन साहबान के 14 बच्चें हों उनका बुढ़ापा कभी चैन से नहीं गुजर सकता!


अब खाँ साहब के इकट्ठे किये हुए सारे कैसेट घर में एक बक्से में बंद हैं। ‘‘चंद तस्वीरें बुताँ, चंद हसीनों के खतूत’’ की तर्ज पर कभी-कभार इन्हें खोलकर बड़ी हसरत से देखता हूं। घर में अब कैसेट प्लेयर नहीं है, यों रखने को तो मैंने ग्रामोफोन भी रखा है -पर वो एंटीक है। सुनना ऑन-लाइन होता है। कैसेट के बाद सीडी का दौर आया, फिर डीवीडी का, फिर यूएसबी मेमोरी व अब "ऑन-लाइन"। कभी-कभी पत्नी की डाँट भी सुननी पड़ती है कि ‘‘यह कचरा’’ फेंक क्यों नहीं देते। कैसे बताऊँ कि इनके साथ ढेर सारी यादें जुड़ी हुई हैं। ‘‘लाइव इन इंडिया’’ बेरोजगारी के दौर में कॉलेज से वापस मिली ‘कॉशन मनी’ से ली थी और एक मित्र से प्लेयर उधार मांगकर ‘‘अबके हम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें’’ न जाने कितनी बार सुनी थी। ‘‘देख तो दिल के जाँ से उठता है’’ वाला एक अलबम पाकिस्तान के एक सिंधी मित्र ने दिया था, जो पांडे जी के दरबार में गांजे की स्वाभाविक लत के कारण शामिल होता था और शायद उसने गांजे की झोंक में ही उस कैसेट का जिक्र कर दिया था। मैंने मामले को संजीदगी से लिया और कैसेट हासिल करके ही दम लिया। अब इस संग्रह का क्या करूँ, कुछ ठीक-ठीक समझ में नहीं आता। 



कहते हैं कि संस्कार में न हो तो कॉफी का जायका जुबान पर जरा देर से चढ़ता है। ग़ज़ल सुनने वालों का एक बड़ा तबका ऐसा भी है जो जगजीत सिंह से शुरू होकर गुलाम अली पर जा ठहरता है और खाँ साहब तक उनकी पहुँच नहीं हो पाती, पर जो उन तक पहुँचता है बस उन्हीं का होकर रह जाता है। अपने किसी हमख्याल दोस्त से मैंने एक बार पूछा कि अपनी पसंद के क्रम में दस गायकों के नाम बतायें तो जनाब ने कहा कि ‘‘ एक से दस तक तो मेहदी हसन हैं, ग्यारहवें पर जिसे रखना है रख दें!‘‘ बात अगर ग़ज़ल गायकी की हो तो इसमें कोई दूसरी राय नहीं हो सकती। ग़ज़ल गायकी के हल्के में जो मुकाम मेहदी हसन साहब ने हासिल किया है वह किसी और के बूते की बात नहीं हो सकती।


मैं कतई यह नहीं बता सकता कि उनकी ग़ज़लों में आखिर ऐसा क्या है? ये काम विद्वान आलोचकों का है। अपन को संगीत की कोई जानकारी नहीं है पर यह कैसे मान लें कि जो परमानंद उन्हें सुनकर मिलता है, जो अनुभूति कानों से होकर दिलो-दिमाग में जा ठहरती है वह किसी संगीत के महापंडित से कमतर होती है। एक बार पंचम को किशोर से कोई गाना गवाना था। राग में था। किशोर थोड़े संकोच में थे कि रागदारी से कैसे निपटा जाये। बाद में किशोर ने कहा कि, ‘‘राग की ऐसी की तैसी, तुम धुन बताओ और गाना मैं गाता हूँ।‘‘ सुनने के मामले में अपनी फितरत भी कुछ ऐसी ही है और यदि मेहदी हसन साहब की ग़ज़लों को आप मेरे कानों से सुनें तो पायेंगे कि दुनिया उन्हें सुनते हुए कितनी खूबसूरत लगती है।


लफ्ज़ों को रिपीट कर ग़ज़ल की भाव-अदायगी का चलन मेहदी हसन साहब ने ही चलाया और उनके बाद आने वाले कमोबेश सभी ग़ज़ल गायकों ने उनकी इस शैली को दोहराया। खाँ साहब कहते थे कि जब फिल्म चलती है तो उसका सीन और सिचुएशन आपके सामने होता है, लेकिन ग़ज़ल का सीन और सिचुएशन हम लफ्ज़ों को रिपीट कर तैयार करते हैं। हबीब जालिब की मशहूर ग़ज़ल ‘‘दिल की बात लबों पर लाकर’’ में आप इसे महसूस कर सकते हैं। जब खाँ साहब ‘‘ठंडी सर्द हवाओं के झोंके..’’ कहते हैं तो कंपकंपी-सी छूट जाती है या मीर की ग़ज़ल ‘‘यूँ उठे आह उस गली से हम’’ में ‘‘आह’’ की अदायगी कुछ ऐसी है कि जहाँ से उटने का दर्द साकार हो उठता है। खाँ साहब अब जहाँ से सचमुच ही उठ गये हैं, पर वह गली अब भी आबाद है जहाँ ढेर सारे फनकार उनके नक्शे-पा पर चलते हुए ग़ज़ल का साज उठाये हुए हैं। उनकी विरासत का सम्मान खाँ साहब को सच्ची श्रद्धांजलि होगी और हिंदुस्तान में राजकुमार रिज़वी व पाकिस्तान में उस्ताद हुसैन बख्श जैसे फनकारों को सुने जाने की जरूरत है, जो थोड़े उपेक्षित-से हैं। उन्हीं की गायी एक मशहूर ग़ज़ल को शेर है, ‘‘ मोहब्बत करने वाले कम न होंगे, तेरी महफिल में लेकिन हम न होंगे।’’ 



यहां भी देखें : भड़ास4 मीडियाhttp://bhadas4media.com/print/5062-1-10-11.html 



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