Thursday, May 24, 2012

वर्तमान परिदृश्य में संस्कृतिकर्मी की भूमिका


-उषा आठले

र्तमान समय ऐसा खतरनाक समय है जब मानव समाज में व्याप्त सामुदायिक हित की भावना खंडित होकर परिवारवाद और व्यक्तिवाद  तक जा पहुँची है। यहाँ तक कि व्यक्तिगत लाभ की इच्छा से प्रेरित होकर सामुदायिकता जातिवाद और सम्प्रदायवाद का नया रूप धारण कर रही है। इससे पहले समाज के अन्तर्गत ग्राम की समूची सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक संरचना आती थी, जिसमें विभिन्न जाति-धर्म-सम्प्रदाय-उम्र-लिंग के लोग विभिन्न इकाइयाँ बनाते थे और ये इकाइयाँ घनिष्ठ रूप से परस्पर सम्बद्ध होती थी। मनुष्य के व्यवहार का सामाजिक दायरा काफी विस्तृत था। परंतु समूचे समाजों में वैश्वीकरण के बाज़ारवादी अर्थशास्त्र के धीमे ज़हर की तरह  प्रविष्ट होने के कारण मनुष्य एक उपभोक्ता में बदलता जा रहा है। मनुष्य की पारस्परिकता परस्पर सहयोग, प्रेम, दया, करूणा के स्थान पर परस्पर लाभ-हानि के समीकरण में घटती जा रही है। कोई व्यक्ति (चाहे वह परिवार का ही बुजुर्ग, बच्चा या माँ-पिता ही क्यों न हो) कब, किस तरह लाभदायक या सहायक हो सकता है, इस पर परस्पर सम्बन्धों की नींव डाली जा रही है। कम कमाने वाला पुत्र या शारीरिक-आर्थिक रूप से अशक्त माँ-पिता अनुपयोगी कहलाते हुए उपेक्षित किये जा रहे हैं, उसी तरह, जिस तरह किसी पूँजी या राज्य के सत्ताधीश के लिए लाभदायी या चापलूस कर्मचारी ही उपयोगी होता है, अन्य उसके लिए आँख की किरकिरी बन जाते हैं।

मानव समाज के इस अवमूल्यन के दौर में संस्कृतिकर्मी की भूमिका पहले से कहीं अधिक संवेदक और जिम्मेदारी की हो गई है। संस्कृतिकर्मी का आशय उस व्यक्ति से है जो मनुष्य के ऐतिहासिक सामुदायिक विकास की परम्परा के श्रम और ज्ञानमूलक मूल्यों से परिचित है; जो वानर से नर बनने की प्रक्रिया में मनुष्य के हाथ के स्वतंत्र होने से लेकर तमाम कला-साहित्य-संस्कृति के अनगिनत रूपों को गढ़ने और अर्जित करने की जद्दोजहद को महसूस करता है। जिसके लिए संस्कृति सिर्फ नाच-गान-उत्सव-खान-पान तक सीमित नहीं है, वरन् वह विभिन्न मानव समूहों की विभिन्न भूखण्डों पर रहने, परन्तु फिर भी परस्पर सम्बद्ध होने की ऐतिहासिक विकास यात्रा की समझ रखता है। सिर्फ ताल-लय, रंगीन प्रकाश और विचित्र वेशभूषा को अपनाकर स्वतःस्फूर्त शारीरिक-मानसिक उत्तेजनाओं का शमन करने वाला व्यक्ति कभी भी संस्कृतिकर्मी नहीं हो सकता। संस्कृतिकर्मी मानवमात्र के बहुआयामी-बहुरंगी जीवन की छटाओं में निहित भावात्मक और विचारात्मक, संवेदनात्मक और भावनात्मक पक्षों से भी परिचित होता है। वह एक गंभीर, विचारवान, सहृदय, उदार दृष्टिसम्पन्न, व्यक्तिगत और सामूहिक अभिव्यक्ति में संतुलन स्थापित करनेवाला क्रियाशील इंसान होता है।

वर्तमान उपभोक्तावादी, बाज़ारवादी दौर में जब संस्कृतिकर्मीऔर उसकी भूमिका तय करने सम्बन्धी चर्चा की जाती है तो प्रायः संस्कृतिकर्मी को समाज  सुधारनेवाले ठेकेदार या मजबूत कंधोंवाला नेतृत्व-सक्षम व्यक्ति मान लिया जाता है, परंतु यथार्थ इतना आसान नहीं होता। व्यक्ति और समाज के द्वन्द्वात्मक रिश्तों के कारण वर्तमान समाज में व्याप्त सभी तरह के विचलन संस्कृतिकर्मी कहलाने वाले व्यक्ति पर भी प्रभाव डालते हैं, उसे भी कमोबेश विचलित करते हैं। अतः संस्कृतिकर्मी को जागरुक बनाने के लिए प्रतिबद्ध सांस्कृतिक संगठनों की आवश्यकता और भी बढ़ गई है। ये सांस्कृतिक संगठन जब तक मनुष्यकेन्द्रित विचारधारा, व्यावहारिक पारदर्शिता, आलोचना -आत्मालोचना, निरंतर विचार-विमर्श और उदार कार्यप्रणाली नहीं अपनायेंगे, तब तक ये अपने आप में सांस्कृतिक द्वीप बने रह जायेंगे और समाज की वास्तविक स्थिति में सक्रिय हस्तक्षेप करने के स्थान पर समाज को विभिन्न संकुचित दायरों में खींच ले जायेंगे। अतः वर्तमान परिस्थिति में संस्कृतिकर्मी की भूमिका के अंतर्गत निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार किया जाना आवश्यक है:-

1. सही सांस्कृतिक संगठन का चयन एवं उसके साथ ईमानदार जुड़ाव - इससे संस्कृतिकर्मी को एक निश्चित उद्देश्य और मंच मिलता है, जिससे वह स्वयं भी अपने कार्य की दिशा तय कर सकता है। संगठन के साथ ईमानदारी से जुड़ने का मतलब है,  स्वयं के विकास और हित-साधन की बनिस्बत संगठन के सामूहिक विकास और उद्देश्य के अंतर्गत कार्य करना।

2. निरंतर अध्ययन-मनन-चिंतन को अपनी नियमित दिनचर्या में शामिल करना; खासकर अपने देश की संस्कृति के ऐतिहासिक विकास और बहुआयामी स्वरूप के बारे में वस्तुगत दृष्टि विकसित करना और विद्वान सहकर्मियों से अपनी जिज्ञासाओं, सवालों, भ्रमों का निराकरण करने की कोशिश करना।

3. सामाजिक-आर्थिक सम्बन्धों के परिवर्तनशील वैश्विक संदर्भों की साफ समझ विकसित करना।

4. एक मनुष्य के रूप में स्वयं के पारिवारिक-सामाजिक दायित्वों के प्रति सजग रहना और हर संभव संवेदनशीलता के साथ उनका परिपालन करना।

5. साझा सांस्कृतिक मंच की स्थापना के लिए अपने व्यक्तिगत और सामूहिक अहम् को संतुलित रखना ताकि खुली दृष्टि से एकसाथ  मिलकर काम करने की परिस्थितियाँ पैदा हों।

6. छद्म सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों की पहचान के लिए वस्तुगत दृष्टि विकसित करना।

7. अन्य संस्कृतिकर्मियों से दोस्ताना और आत्मीय सहयोगपूर्ण रवैया अपनाना।

8. अवसरवादिता, ढुलमुलपन, दोहरापन, झूठ, पाखंड, आलस्य और कट्टरता से व्यक्तिगत और संगठन के स्तर पर बचना-बचाना।

9. विज्ञान और तकनालॉजी के नित नये अन्वेषणों से परिचित होकर अपने कलाकर्म में इनका भी सकारात्मक उपयोग करना ताकि सामयिकता और कलात्मक उत्कृष्टता बनी रहे।


मेरा दृढ़ विश्वास हे कि यदि मानव संस्कृति की नींव सुदृढ़ करने के संकल्प से प्रेरित संस्कृतिकर्मी आपस में निरंतरसंवाद बनाये रखें,   धीरज और खुलेपन के साथ परस्पर सुने-समझें, विसंगतियों और संकटों का मिलजुलकर प्रतिरोध करें और उसके स्थान पर स्वस्थ, सुदृढ़ और मनुष्यमात्र को महत्व देनेवाली संस्कृति को अपने व्यवहार और कलामाध्यमों से निरंतर सम्प्रेषित करें तो वर्तमान संकट से बाहर निकलने की कई राहें दिखाई देने लगेंगी।

- आठले हाउस, सिविल लाइन्स, रायगढ़ (छ.ग.) 496001

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