Sunday, May 20, 2012

दूसरा बनवास: पाठ और सन्दर्भ


"कैफ़ी महकूम (ग़ुलाम) भारत में पैदा हुए, आजाद हिंदुस्तान में बूढ़े हुए. उनका विश्वास था कि वे सोशिलिस्ट हिन्दुस्तान में मरेंगे. जब तक समाजवादी हिंदुस्तान का सपना  इस देश, इस दूनिया में जिंदा है, तब तक कैफ़ी आज़मी हमारे बीच जिंदा रहेगे." कैफ़ी आज़मी की 10 वीं पुण्यतिथि पर पटना इप्टा द्वारा आयोजित संगोष्ठी को सम्बोधित करते हुए वरिष्ठ रंगकर्मी डा. जावेद अख्तर खान ने उक्त बातें कहीं. डा० अख्तर ने "दूसरा बनवास: पाठ और सन्दर्भ" विषय पर आयोजित संगोष्ठी को संबोधित करते हुए कहा कि वर्त्तमान सन्दर्भ में सामाजिक मर्यादायों और मूल्यों के मायने और उसकी अभिव्यक्ति में परिवर्तन आये हैं. इस सन्दर्भ में हमें आस्था और धर्म से सम्बंधित प्रतीक चिन्हों को भी देखना, समझाना और प्रयोग करना होगा. हमें यह सोचना चाहिए कि क्या धार्मिक प्रतीक सिर्फ नफरत और उन्माद फ़ैलाने वाले लोगो की ही जागीर हैं? जिस प्रकार कैफ़ी आज़मी ने 6 दिसंबर 1992 की घटना पर प्रतिक्रिया देते हुए "दूसरा बनवास" नज़्म की रचना की और राम को अभी अभिव्यक्ति का हीरो बनाया, यह सशक्त उदाहरण है. कैफ़ी ने यह साहस उस समय किया जब बाबरी मस्जिद ढहायी गई थी और पूरा देश और देश की धर्मनिरपेक्ष मर्यादा धूमिल हो चुकी थी. उन्होंने आगे कहा के कैफ़ी को याद करने का मतलब उन सभी सपनों को याद करना हैं, जो कैफ़ी ने देखे थे. वो उस मिटटी से आते थे, जहाँ कृषण-कन्हैया भी हैं और हसन भी. धर्मनिरपेक्ष राजनीति से क्या मतलब है? क्या सारे प्रतीकों, सारे चिन्हों को नष्ट कर देना चाहिए? आज हम भागीरथ के तस्वीर के साथ सहज क्यों नहीं हो पाते हैं; जब कि वह आम आदमी के संघर्ष और लगन का प्रतीक चिन्ह है. हमें भारतीय सभ्यता को समझना होगा. अपनी अभिव्यक्ति का हिस्सा बनाना होगा. डा० जावेद ने कहा कि राम संघर्ष के उदहारण हैं, उनका पूरा जीवन एक संघर्ष रहा और जनता भी इसे स्वीकार करती है. और यह कोई धार्मिक आधार नहीं है. "सबे भूमि गोपाल की' हिंदी की एक लोकौक्ति है, किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं समझना चाहिए कि यह पूरी दुनिया ईश्वर अर्थात भगवन श्री कृष्ण की नहीं है. राम जन्मभूमि - बाबरी मस्जिद विवाद में देश की धर्मनिरपेक्ष राजनीति की केवल इसी कारण हार हुई कि उसने एक एक कर सारे चिन्ह और प्रतीक एक फासीवादी सोंच वाली विचारधारा को सौप दिए. 

अल खैर चरिटेबल ट्रस्ट के अरशद अजमल ने कहा कि बाबरी माजिद के विध्वंस ने देश में इतने घर जलाये और लाखों को बेघर किया कि हिन्दुस्तानी राम को दुबारा वनवास जाना पड़ता है. अयोध्या कि आग ने उन तमाम वेश बदले अलोकतांत्रिक, फासीवादी और मौकापरस्त ताकतों को बेनकाब कर दिया जो राम नाम की राजनीति करते थें. कैफ़ी ने "दूसरा बनवास" नज़्म से वही आग फिर जलाई और हिन्दुस्तानी फासीवाद की कलाई खोल दी. वरिष्ट संस्कृतिकर्मी विनोद कुमार ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि हमें शब्दों के माया जाल से निकल कर समझाना होगा. खुद से सवाल करना होगा. यह जानना होगा कि हिंसा क्या है? एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति के साथ क्या सम्बन्ध है? हमें अब यह तो समझ ही लेना चाहिए कि परिभाषाएं कोई जीव-जंतु नहीं हम मानव ही बनाते हैं.

संगोष्ठी का संचालन करते हुए इप्टा के राष्ट्रीय संयुक्त सचिव डा० फीरोज़ अशरफ खान ने कहा कि कैफ़ी आज़मी इप्टा की राजनीति और सामाजिक प्रतिबद्धता के प्रतीक थे. इप्टा की स्वर्ण जयंती के अवसर पर दिए सन्देश में कैफ़ी ने कहा था की "राजनीतिज्ञ अपना हर एक कदम यह सोच कर उठाते हैं कि इस कदम से उनके कितने वोट बढ़ेंगे या घटेंगे". उनकी पुण्यतिथि मनाने के पीछे हमारा ध्येय अपनी जनसान्स्कृतिक अभिव्यक्ति का प्रकटीकरण है. उन्होंने आगे कहा कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ के निर्णय और उसके बाद समाज के एक खेमे में ख़ुशी और एक खेमे में चुप्पी ने हमें परेशां किया था. हम यह समझाना चाह रहे थें कि यह ख़ामोशी, यह चुप्पी क्यों है. हमने इस सवाल को अपने संगठन, सार्वजानिक मंचों पर जानने-समझाने की कोशिश कि. इसी क्रम में हम कैफ़ी कि इस रचना "दूसरा बनवास" में ढूढने की कोशिश की है. आज का आयोजन एक बड़ी चर्चा की तैयारी है जहाँ हम आपसी समझ को समाज के हर एक वर्ग, हर तबके के साथ संवाद स्थापित करने का प्रयास करेंगे. कैफ़ी ने जिस प्रकार सांप्रदायिक ताक़तों को उन्ही के हथियार से जवाब दिया वह ना सिर्फ अद्वतीय है बल्कि असंभव है. बिहार इप्टा के महासचिव तनवीर अख्तर ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता और समाज समरसता के अंतर्संबंध को एक पार फिर से समझने और जनता के बीच जाने की ज़रूरत है.

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक आसिफ अली ने कहा कि आज जब दुनिया के सारे बाज़ार आपस में जुड़ गए हैं और सारे निर्णय बाज़ार में तय हो रहे हैं, तो हमें धर्म, धार्मिकता और धर्मनिरेपेक्षता को फिर से देखना समझना होगा. संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए वरीय सामाजिक कार्यकर्ता श्री रुपेश जी ने कहा कि बाज़ार ने जहा एक और हमें ग्लोबल बनाया है वही हमें बेड रूम तक भी सीमित कर दिया है. सामजिक सरोकार घटे हैं और मूल्यों का ह्रास हुआ है. संस्कृति की मर्यादाएं तक भंग हुए हैं. ऐसे संदर्भ में "दूसरा बनवास" का पाठ एक साहसिक काम है.

संगोष्ठी में युवा रंगकर्मी रवि कान्त, पटना इप्टा की सचिव डा उषा वर्मा, पियूष सिंह, विशाल तिवारी, राजनन्दन,  राष्ट्रीय नाट्य विधालय के स्नातक वंदना बशिष्ठ, दीपक, विनय कुमार, सहित कई रंगकर्मी, संस्कृतिकर्मी, साहित्यकार उपस्थित थे. संगोष्ठी की शुरुआत में सीताराम सिंह ने "दूसरा बनवास" का गायन किया.

इस अवसर पर बिहार इप्टा की अन्य इकाइयों ने भी विशेष कार्यक्रम आयोजित किये. आरा इप्टा, मधेपुरा इप्टा, बेगुसराई (बीहट) इप्टा, सिवान इप्टा, पटना सिटी इप्टा, छपरा इप्टा, कटिहार इप्टा सहित अन्य शाखाओं से कार्यक्रम आयोजित करने कि सूचना मिली हैं.

प्रस्तुति : संजय सिन्हा

2 comments:

  1. Kaifi sb. ki 10wi punya tithi par Patna IPTA dwara Sangosthi ka aayojan kiya gaya , Is awsar par Kaifi sb. ke jeevan aur unki rachnaon par vistar se prakash dala gaya, iske liye Patna IPTA ko badhai...........Rajesh Sisodia(IPTA, Agra)

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  2. पटना,ईपता द्वारा कैफी साहब की स्मृति मे आयोजन और उस अवसर पर उनकी रचना 'दूसरा वनवास' का पाठ अच्छी बातें हैं। सांप्रदायिक शक्तियों को परास्त करने का कैफी साहब का रास्ता ही उपयुक्त है। शायद उन्हे इस लिंक पर दिये विचार पसंद आते-http://krantiswar.blogspot.in/2010/10/1.html

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