Wednesday, March 21, 2012

रांगेय राघव की कविता


("कब तक पुकारूं" नटों के जीवन पर आधारित रांगेय राघव की चर्चित कृति है। इस कृति पर आधारित एक नाटक दिनांक 20 मार्च 12 को आगरा के सूर सदन में दिलीप रघुवंशी के निर्देशन में खेला गया। नाटृय रूपांतर किया है, जितेन्द्र रघुवंशी ने। जब तक इस प्रस्तुति की रपट हम तक पहुंचे, पढिये रांगेय राघव की कवितायें, राजकुमार केसवानी की टिप्पणी के साथ। यह टिप्पणी व कवितायें लेखक के ब्लाग "बाजे वाली गली" से साभार ली गयी हैं।-संपादक)

कुल 39 साल की उम्र आखिर कितनी होती है ? अधिकांश के लिए बहुत कम, मगर कुछ के लिए बहुत. खासकर उनके लिए जो हर दिन अपने होने को एक नए अर्थ में परिभाषित करने की क्षमता रखते हैं.

बहुत लड़कपन में एक लेखक से परिचय हुआ था एक किताब के ज़रिए  पापी. एक रुपए में हिन्द पाकेट बूक्स की घरेलू लायब्रेरी योजना के तहत वी.पी.पी से आए पैकेट में. इसके बाद इस नाम के साथ कथा,उपन्यास,आलोचना, अनुवाद और न जने क्या-क्या देखा. ढेर हिन्दी,संस्कृत,अंग्रेज़ी सहित कई सारी भाषाएं भी खूब जानते थे. और तो और शेक्सपीयर के नाटको तक का अनुवाद किया है.

अपनी आस्था से प्रतिबद्ध मार्क्सवादी रांगेय राघव के लेखन को ज़बर्दस्त जन स्वीकृति मिली मगर फिर भी साहित्य जगत ने कभी भी उनको उनका हक़ नहीं दिया. क़्यों ? यह एक पूरी बहस का विषय है, जिसे शुरू करना उदेश्य नहीं है.

इस विलक्षण प्रतिभा का जीवन मात्र 39 साल का था. 17 जनवरी 1923 को जन्म और 12 सितम्बर 1962 को निधन.

रांगेय राघव की यूं तो ढेर सारी किताबें मिलती हैं पर उनकी कविता की न तो चर्चा हुई है और न ही कोई ऐसा संग्रह दिखाई दिया है. मैं उनकी कविता की समीक्षा की गरज़ से नहीं बल्कि महज़ शेयर करने की दृष्टि से किसी वक़्त मेरे हाथ लगे 1947 मेंहिन्दुस्तानी एकेडेमी, संयुक्त प्रांत, इलाहाबाद से प्रकाशित उनके प्रबन्ध काव्य मेधावीसे नमूने के तौर पर कुछ छोटे-छोटे टुकड़े हैं.

सर्ग -14
गहन कालिमा के पट ओढ़े
विकल विकल सी रात रो रही
दूर क्षीण तारों में कोई
टिमटिम करती बात हो रही

मैं चुपचाप देखता चलता
महानगर के राजमार्ग पर
जगमग विद्युत प्रखर दीप हैं
रह जाते हैं नयन चौंध कर

सजी सजी इन दूकानो में
रंग बिरंगी ज्योति हो रही
स्निग्ध पिपासा सी तन्द्रालस
करुण स्वरों को संभल ढो रही

स्निग्ध जगमगाती मोटर में
अंध दंभ से भर कर गर्वित
नर नारी जाते हैं हंसते
प्राणॉ तक धन मद से चर्चित


कहीं सैन्यबल की वह पगध्वनि
कंपित पृथ्वी को करती है
कहीं माध्यमिक पुलिस शक्ति ही
अर्थहीन शोषण करती है

भिन्न भिन्न हैं स्तर मानव की
सत्ता के जिसमे सब चलते हैं
एक मार्ग है जिस पर सब को
चलने के अधिकार न मिलते


पूंजीवादी मशीन नृत्य

चग़ चग़
चग़ चग़
से भरता है
अग जग
अग जग

उगल उगल हम
वस्तु निरंतर
पचा पचा कर
उठा उठा कर
कर देती है
प्रति पल सुन्दर

श्रमिक हमरा दास बना है
जिस पर स्वामी वर्ग तना है

धर्म हमारा दंड बना है
जलते वैभव
दीपक
जगमग
जगमग

दीपक के तल अंधकार है
वह मानव का अहंकार है
चिर असाम्य है लोलुप तृष्णा
घुमड़ रही है आंधी कृष्णा
उत्पादन
उत्पादन

लाभ लाभ की प्यास हमे है
कला
दार्शनिक
दास हमारे
सामंतीगण
हम पर निर्भर
हमे पड़ी क्या
कैसा भी हो
वह वितरण
वह वितरण

जो है जग में
वही सत्य है
वर्ग भेद ही
अंत गत्य है
निर्धन-पशु सा
अबल मर्त्य है
करले चाहे
आक्रंदन
आक्रंदन
चग़ चग़
चग़ चग़

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