Wednesday, March 14, 2012

छोटे कस्बों-शहरो में रंगकर्म की चुनौतियां



इप्टा की अनेक इकाइयां छोटे शहरों व कस्बों में काम कर रही हैं। सभी इकाइयों के समक्ष उठने वाले सवाल व चिंतायें कमोबेश एक जैसी हैं। सभी नाटक करना चाहते हैं पर नाटक करना बहुत खर्चीला है। नुक्कड़ नाटक में अलबत्ता साधन कुछ कम लगते हैं पर कलाकारों का मन कहीं न कहीं मंच के लिये ललकता रहता है।

छोटे शहरों में काम करने वाले रंगकर्मी साथियों से ‘इप्टानामा’ ने तीन सवाल पूछेः पहला, संसाधन के संकट से आप किस तरह जूझ रहे हैंय दूसरा, छोटे शहरों में थियेटर करना कितना आसान या मुश्किल है और तीसरा क्या थियेटर करने के लिये सरकारी मदद लेते हुए आपको किसी किस्म का नैतिक संकट महसूस होता है? इन सवालों के जो जवाब मिले,  वे इस प्रकार हैं :

कतई न हो वैचारिक समझौता
पंकज दीक्षित, इप्टा, अशोकनगर
छोटे कस्बों में नाटक का मंचन करने में संसाधन का संकट तो रहता है। विशेष रूप से साउन्ड व लाइट की व्यवस्था। स्थान और व्यवस्थित स्टेज का अभाव भी एक चुनौती बनी रहती है। लेकिन मेरा मानना है कि ये समस्यायें नाटक करने के उत्साह पर कोई प्रभाव नहीं डालती। जुगाड़ करके की गयी व्यवस्थायें हमें और ज्यादा समर्पित व कल्पनाशील बनाती हैं, आत्म विश्वास से भरती हैं।

छोटे कस्बों/शहरों में थियेटर करना मेरे विचार से आसान है। मुश्किल तो सिर्फ संसाधनों के मामले में है। छोटी जगहों में दूरियां कम होने से व्यवस्थायें आसानी से कम खर्च में हो जाती हैं। साथ ही सभी से परिचय होने के कारण सहयोग भरपूर मिलता है। नाटकों में दर्शकों का टोटा कभी नहीं रहता। अच्छा नाटक पूरे कस्बे को ऊर्जा देता है जो अगले आयोजन को ओर आसान बनाता है।
वैसे तो छोटे शहरों में सरकारी मदद की कोई ज्यादा उम्मीद होती नहीं। फिर भी मेरा मानना है कि सरकारी मदद से नैतिक संकट तो महसूस होता ही है और इसका मुख्य कारण हमारे व उनके बीच की वैचारिक खाई है। वैसे तो इस मदद से बचना ही चाहिये। फिर भी यदि किन्हीं कारणों से सरकारी मदद ली जाती है तो किसी भी तरह का दबाव या वैचारिक समझौता तो कतई नहीं होना चाहिये।


हम सीख गये हैं संसाधनों का प्रबंधन
विनोद बोहिदार, इप्टा, रायगढ़
इप्टा, रायगढ़ इकाई के पास भी अन्य छोटे कस्बों एवं शहरों की थियेटर संस्थाओं की तरह संसाधन अल्प हैं, तथापि लंबे समय से  (सन् 1982 से) काम करते रहने के कारण कम संसाधनों में ही उचित प्रबंधन करना हमने सीख लिया है।
हमने अपने आर्थिक संसाधन स्वयं विकसित किये हैं। हमने ये देखा है कि ऐसी संस्थायें जो शासकीय/कारपोरेट सहयोग से कार्यक्रम आयोजित करती हैं वे अपने मूल विचारों/उद्देश्यों से समझौता करती हैं एवं संबंधित कंपनियों की योजनाओं का प्रचार   माध्यम बनती हैं। या फिर समझौता न कर पाने की स्थिति में ये संस्थायें बंद ही हो जाती हैं। इन स्थितियों को ध्यान में रखते हुए हमने ऐसे संसाधनों को तलाशना प्रारंभ किया जिनके दोहन से हमें अपनी मूल विचारधारा के साथ कोई समझौता न करना पड़े।
उक्त स्थितियों को ध्यान में रखते हुए हमने अपने शहर की आम जनता से आर्थिक सहयोग लेना प्रारंभ किया। इससे एक तो हमें आर्थिक मदद मिली, वहीं हमारे साथ दर्शक भी जुड़ते चले गये। इस तरह विगत् 18 सालों से हम राष्ट्रीय नाट्य समारोह का आयोजन आम जन के आर्थिक सहयोग से कर पा रहे हैं। अब स्थिति ऐसी है कि यदि हमें शासन अथवा कारपोरेट कंपनियों का सहयोग मिल भी जाये तो हम अपने सिद्धांतों से कतई विचलित नहीं हो सकते।


बच्चों के पास रंगकर्म के लिये समय नहीं है


डॉ. अशोक शिरोडे, इप्टा, बिलासपुर
जहां तक  संसाधन का प्रश्न है, संगठन के निरंतर कार्य करने के लिये इसकी सख्त आवश्यकता है। चूंकि इप्टा गैर व्यावसायिक संगठन है, अतः प्रदर्शन व सामग्री के लिये कम से कम सामाजिक सहयोग अनिवार्य हो जाता है।
वर्तमान समय में नवयुवकों में करियर के प्रति महत्वाकांक्षा ने उनकी सोच की दिशा बदल दी है। रंगमंच को वे मात्र मनोरंजन की नज़र से देखते हैं। खासतौर पर छोट शहरों या कस्बों में युवा कलाकारों का जुड़ना बेहद मुश्किल हो गया है। मेरा अपना अनुभव यह है कि कुछ लोग जुड़ भी जायें तो उनकी मंशा यही होती है कि उन्हें किसी तरह छत्तीसगढ़ी फिल्मों में काम करने का अवसर मिल जाये।
उनकी अपनी प्राथमिकता करियर को लेकर है। बच्चों के साथ काम करते हुए एक बात और समझ में आयी कि स्कूलों में पढ़ाई व प्रोजेक्ट का बोझ इतना है कि बच्चे वही काम समय पर नहीं कर पाते, ऐसे में उन्हें रंगमंच के लिये या अन्य गतिविधियों के लिये समय किस तरह मिल पायेगा?
जहां तक सरकारी मदद का प्रश्न है, हमने कभी इस तरह का प्रयास किया ही नहीं। फिर भी जनता के सहयोग से ही काम करना अच्छा लगता है।




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