Thursday, February 2, 2012

रंगकर्म सही मायनों में जनकला है


रंगकर्म संस्कृति की पहली थिरकन है

-अशोक सिंघई


कैसा महसूस किया होगा पहले मनुष्य ने जब उसके पास न तो शब्द थे, न जुबान। न भाषा थी और न अरमान। न भावना थी और न चाहत। न आनंद था और न ही दुःख। डार्विन की ‘इवाल्युशन थ्योरी’ के अनुसार जब पहली जान दुनिया में आई, उस समय उसकी आँखें नहीं थीं। टाँगें, भौंहें, हाथ - कुछ भी नहीं था। बस एक गोला था जो हिलता-डुलता था। करोड़ों वर्षों की मशक्क़त के बाद आँखें मिली होंगी। इन्हीं करोड़ों वर्षों की मेहनत से कमाई आँखों से जब पहली बार उसने उसका दीदार किया होगा जिसके साथ मिलकर उसने इस सृष्टि की रचना की और आज तक यह रचना चल ही रही है तब तक के लिये जब तक कि सब कुछ पूरी तरह सँवर कर पूरी तरह बिखर न जाये फिर से सँवरने के लिये।

साथी-संगी, सखी-सहेली भी जुटे होंगे। तब मात्र प्रकृति ही सीधे खेलती रही होगी उन अबोधों से। दर्द तो होता रहा होगा, स्फुरण भी। अपनी जान समझने लगा होगा वह। और कभी उसने अपनी जान रखने शुरुआत की होगी अपनी किसी और ‘जान’ में। चेहरे पर बनती-बिगड़ती लक़ीरों से उसने आनंद और तकलीफ़ को पहचाना होगा और पहचानी होगी स्वयं को अभिव्यक्त करने में अपनी माँसपेशियों, अंग-सौष्ठव की अपरिमित भूमिका-शक्ति को। संकेत गढ़े होंगे। संकेतों की भाषा को परिपुष्ट और सुनिश्चित किया होगा। शायद पहली बार ओठों का रस पीने की चेष्टा करते समय झिझकना भी सीखा होगा और फिर बेताबी और विरह आदि सहेजने की कला के साथ न जाने क्या-क्या सीखता गया होगा आदमी। धीरे-धीरे मनुष्य मनुष्य बनता गया होगा।

इन सारी क्रियाओं की बुनियाद से संस्कृति का बीजारोपण हुआ होगा और इसकी बुनियाद में निश्चित तौर पर वे सारी अभिक्रियायें हैं जिन्हें हम आज रंगकर्म की संज्ञा देते हैं। सारे के सारे पुरातन-अत्याधुनिक साँस्कृतिक कर्मों का संगम है रंगकर्म। विचित्र किन्तु सत्य है कि रंगकर्म संस्कृति पहली थिरकन भी है। शंभु मित्र ने कहा है,‘‘....नाट्य कला के केन्द्र में मनुष्य ही है। अमूर्त मनुष्य नहीं, एकदम रक्तमाँस का बहुस्तरीय और बहुआयामी मनुष्य। यह मनुष्य और इसका सम्पर्क। समाज के साथ इसका सम्पर्क और स्वयं अपने साथ एकदम निजी गोपन सम्पर्क। इसका यदि हम गहराई से अनुधावन करें तो पायेंगे कि श्रेष्ठ नाट्यकला के प्रत्येक चरित्र का एक अपना जीवन दर्शन होता है...  ’’ मानव इतिहास में समग्र संस्कृतियों में भारतीय संस्कृति इतनी सम्पन्न और विशाल है कि उसकी थाह ले पाने के लिये किसी भी अध्येता की उम्र कम पड़ सकती है, भले ही वह शतायु की आशीषों से लदा हो।

गागर में सागर भरने का प्रयास करने के लिये सागर और गागर दोनों जरूरी होते हैं। पूरा जान पाने की तृष्णा और दम्भ से कुछ झलक पाने से ही संतोष करना होता है अपने समय का समय गुज़ारने के लिये। साँस्कृतिक कर्म मनुष्य की आत्मिक खुराक़ हैं। इनमें रंगकर्म सही मायनों में जनकला है क्योंकि यह एकान्तिक नहीं हो सकता और न ही स्वांतः सुखाय। नाट्याचार्य भरत ने नाटक को पाँचवाँ वेद कहा था, क्योंकि इसमें चारों वेदों की विशेषतायें सन्निहित होती हैं और यह उनसे प्रगतिगामी है। वेद बुद्धिजीवियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि नाटक लोकजीवन का। यहीं भाषा को धार मिलती है, उस पर पानी चढ़ता है।

नाटकों में भी शास्त्रीयता आती गई परन्तु वह लोक की लीलाओं का सूत्रधार बना रहा। अपनी इस मारक और बेधक क्षमता के कारण उन संघर्षशीलों का सबसे प्रिय हथियार बना जिनके मन में दुनिया को बदलने के अमर अरमान थे। एक संगठन के रूप में, एक स्वप्न को साकार करने की एकजुटता के स्वरूप में भारतीय जन नाट्य संघ ‘इप्टा’ (इण्डियन पीपुल्स् थियेटर एसोसियेशन) के बिरवे का जन्म हुआ जिसका सूत्र वाक्य है, ‘पीपुल थियेटर स्टार्स द पीपुल’ - याने कि जनता के रंगमंच की असली नायक जनता है और इसका प्रतीक चिह्न सुप्रसिद्ध चित्रकार चित्त प्रसाद की कृति ‘नगाड़ावादक’ है जो संचार के सबसे आदिम माध्यम की याद दिलाता है। असम और पश्चिम बंगाल में इसे ‘भारतीय गण नाट्य संघ’, आन्ध्र प्रदेश में प्रजा नाट्य मण्डली के नाम से जाना जाता है।

प्रो. हीरेन मुखर्जी की अध्यक्षता में 25 मई, 1943 को बम्बई, अब मुम्बई के मारवाड़ी विद्यालय में ‘इप्टा’ का गठन हुआ था। तब ‘इप्टा’ की प्रथम राष्ट्रीय समिति के अध्यक्ष श्रमिक नेता एन. एम. जोशी, महामंत्री अनिल डि सिल्वा, कोषाध्यक्ष ख़्वाजा अहमद अब्बास, संयुक्त मंत्री विनय राय और के.एम. चाण्डी चुने गये थे। ‘इप्टा’ के गठन की पृश्ठभूमि में विशेषकर गुलाम भारत का ऐसा भूखा बंगाल था जिसे वामिक जैनपुरी के गीत ‘भूखा है बंगाल रे साथी, भूखा है बंगाल’ ने साकार कर दिया था समूचे देश के समक्ष। फासिस्ट विरोधी लेखक और कलाकार संगठन के रूप में प्रगतिशील लेखक संघ अस्तित्व में आ चुका था। इसी की एक ‘कल्चरल स्कवाड’ के रूप में ‘इप्टा’ गठित हुई और जिसका कि तेरहवाँ अधिवेशन मेहनतक़शों की इस्पात भूमि भिलाई में 26-28 दिसम्बर, 2011 को सम्पन्न हो रहा है।

इसे समय के, हर क्षेत्र के महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों अन्नाभाऊ साठे, मनोरंजन भट्टाचार्य, वल्लथोल, डॉ. राजा राव, राजेन्द्र रघुवंशी, एम. नागभूषणम, बलराज साहनी, एरिक साइप्रियन, विमल राय, तेरा सिंह चन, अमृतलाल नागर, के. सुब्रह्मण्यम, के.वी. जे. नंबुदिरि, शीला भटिया, दीना गाँधी (पाठक), सुरिन्दर कौर, कृष्णचन्दर, साहिर लुधियानवी, अचला सचदेव, पी.सी. जोशी, अरुणा आसफअली, नन्दिता कृपलानी, नसिरूद्दीन शाह, स्मिता पाटिल, अब्दुल मलिक, आर.एम. सिंह, विष्णु प्रसाद रावा, नगेन काकोती, जनार्दन कुरुप, विष्णु प्रभाकर, नेमिचन्द्र जैन, उदय शंकर, पृथ्वीराज कपूर, वेंकट राव कादिलकर, सलिल चौधरी, हेमंत कुमार, मन्नाडे, ए.के. हंगल, अमर शेख, कैफ़ी आज़मी, निरंजन सेन, ज्योति बसु, निखिल चक्रवर्ती, रेनू राय आदि ने सींचा, परवान चढ़ाया और उस बोधि वृक्ष के रूप में पुष्पित-पल्लवित किया जहाँ अन्यान्य सर्जनायें विश्राम और विज्ञान पाती हैं।

दिल्ली ‘इप्टा’ से जुड़े विष्णु प्रभाकर के शब्दों में, ‘‘इसमें भाग लेने वाले सभी लोग कम्युनिस्ट नहीं हैं....यह एक स्वायत्त संस्था है।’’ बलराज साहनी ने 6 जनवरी, 1945 में लिखा कि, ‘‘भारतीय जन नाट्य संघ न तो किसी राजनैतिक पार्टी से सम्बद्ध है, न किसी गुट से। यह एक ऐसा संघ है, जहाँ सभी राजनैतिक दलों और गैर-राजनैतिक लोगों का स्वागत है। इस संघ का सदस्य होने की एकमात्र शर्त है-देशभक्ति, अपनी जन संस्कृति पर गौरव।’’ देखा जाये तो इस साँस्कृतिक आन्दोलन ने लोक शैलियों को जड़ता से तोड़ा। महाराष्ट्र का तमाशा हो या बंगाल, बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, मालवा, छत्तीसगढ़ की लोक शैली हो-सबके सरोकार बदले, उनमें नवीनता आई और रंजन के साथ चेतना का विस्तार कर्म में जुड़ा। यदि रंगकर्म संस्कृति की आदि-थिरकन है तो ‘इप्टा’ भारतीय रंगकर्म की सुपुष्ट-    धड़कन है।

‘इप्टा’ का रंगबोध नाट्यानुभव को सामूहिक अनुभवों के साथ जोड़ने की नीयत रखता है। रंग लेखक, निदेशक, अभिनेता और दर्शक के अनुभवों का समुच्चय। दर्शक भी अपनी प्रतिक्रियायें देने में अभिनय ही तो करता है। प्रोसेनियम थियेटर से लेकर स्ट्रीट थियेटर (नुक्कड़ नाटक) तक इस   विधा ने न जाने कितने चोले पहने-उतारे हैं। प्रो. कमला प्रसाद का मानना था कि जिस तरह नागर-नाटकों ने अपनी जड़ता को तोड़ने के लिये लोक-नाटकों का सहारा लिया उसी तरह लोक-नाटकों को भी कुछ न कुछ ग्रहण करना ही पड़ेगा और यह दिख भी रहा है। लोक कलाओं में ही जीवन का यथार्थ रहता है। नागर कलायें बौद्धिक बहसों में मुब्तला रहती हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि आधुनिक   बोध के धनात्मक तत्वों को लेकर लोक कलाओं का पुनः विकास किया जाये और उसकी मारक शक्ति को परिवर्तन का औज़ार बनाया जाये।

इसी तारतम्य में कुछ नाटकों को जरा याद करें। आद्य रंगाचार्य के ‘सुनो जन्मेजय’, हबीब तनवीर का ‘चरणदास चोर’, गिरीश कर्नाड का ‘हयवदन’, बादल सरकार का ‘जुलुस’ आदि मील के ऐसे पत्थर हैं जो रंगमंच को नये मुहावरे देते हैं। नवल शुक्ल का एक महत्वपूर्ण लेख है - ‘असल की नकल से असल’। दरअसल एक मसल है - ‘मिमिक्री इज़ द बिगनिंग ऑफ ड्रामा’। अभिनय और अनुकरण की कथा उतनी ही उलझी है जितनी कि पहले ‘मुर्गी या अण्डा।’ अपने आलेख में नवल ने छत्तीसगढ़ के लोकनाट्य ‘नाचा’ और ‘गम्मत’ में भेद करते हुये बहुत सी खोजपरक बातों का खुलासा किया है। ‘नाचा’ का कोई ठोस ‘स्क्रिप्ट’ नहीं होता। हर गाँव के शोषण, खलनायक के हिसाब से संवाद बनते रहते हैं, वे बहुत ही चुस्त और करारे होते हैं। जिस पर कसे जाते हैं उसे लगता है कि दिल में नश्तर पेबस्त किया जा रहा है पर होठों पर मुस्कान बनी रहती है। ‘नाचा’ नुक्कड़ नाटक का एक दूर का भाई लगता है मुझे जो हँसी-हँसी में ही पूरे साहस के साथ तल्ख़ सच्चाइयों को सामने लाता हुआ गहरी चोट करता है। ‘रियलटी’ किसी मीमांसाए बहस की मोहताज़ नहीं होती और सबको सब कुछ साफ-साफ समझ में नज़र आ जाता है।

नाटक और नाट्य दो अलग शब्द हैं। नाटक एक वस्तु का प्रतिवादन है और जिस कला-अभिव्यंजना के माध्यम से वह अभिनीत होता है उसे नाट्य कहते हैं। दो नाटक एक जैसे नहीं होते - दो मनुष्यों की तरह, दो फूलों की तरह। साहित्य में भी सूर, तुलसी, निराला, नागार्जुन आदि के साथ कबीर, एकनाथ, नामदेव, नज़रूल वगैरह को देखें देश, काल, मान्यताओं में बहुत दूरी होने के बावज़ूद भारी समानतायें हैं। जीवन की तरह कथा-वस्तु बदलती रहती है। एक ही कथा, एक ही जीवन, एक सी समस्यायें और सम्वेदनायें नाना रूपों में शब्दो में पिरोईं जाती हैं एक ही आसमान, एक ही धरती, एक ही जंगल की तरह। संस्कृति देश और काल की सीमाओं में कहाँ बँधती है। किनारों में बहती नदी की अंतर्नदी का पाट सीमाओं से परे होता है।

मनुष्य की तरह नाटक भी आधुनिक होता गया। प्राचीन नाटक प्रवृत्तिमूलक थे जिनके लक्ष्य कुछ और थे।  आधुनिक नाटकों में विरोध, प्रतिरोध और संघर्ष के स्वर मूल होते हैं। बिखरती सामाजिक व्यवस्था और साँस्कृतिक संरचना में सब कुछ दरक़ रहा है, टूट-फूट रहा है, यहाँ तक मनुष्य भी। सभ्यताओं के पुनर्विनष्ट होते रहने से कुछ ज़्यादा बनता-बिगड़ता नहीं है। मनुष्य की अविराम जययात्रा के ये पड़ाव मात्र होते हैं। बर्बर पशु अपनी गुहा से निकलकर हिंसक और आक्रान्त होते हैं जबकि पशुत्व से मानव की अपनी यात्रा में मनुष्य बाहर तो शिष्ट और सभ्य बनता-दिखता है पर अपनी गुहा में जाते ही उसका पशुत्व अपने नख-पँजे माँजने लगता है। यही संस्कार और संस्कृति की भूमिका बनती है क्योंकि अपनी नस्ल का घोषित भक्षक मनुष्य ही है। इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में परिवर्तन के तीव्र तूफानों के बीच नंदकिशोर नवल को उद्धृत करना मुनासिब होगा। उन्होंने लिखा है कि, ‘‘संस्कृति बहुत ही व्यापक चीज है, लेकिन जब हम साहित्य को संस्कृति कहते हैं, तो इसे एक खास अर्थ में सीमित कर देते हैं। साहित्य संस्कृति का वह रूप है जिसका सौन्दर्य से अनिवार्य संबंध होता है। इस बात को हमेशा याद रखना ज़रूरी है, वरना इसकी पूरी सम्भावना है कि जो साहित्य नहीं है, उसे भी साहित्य मान लिया जाये। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना में हमें यह बात देखने को मिलती है कि वे यह बतलाने का भरसक प्रयास करते हैं कि कौन सी चीज साहित्य-कोटि में आती है और कौन सी चीज नहीं आती। लोग उन्हें लोकमंगलवादी समझते हैं और यह नहीं देखते कि उन्होंने यह भी कहा है कि धर्म में जिसे ‘मंगल’ कहते हैं वही साहित्य में ‘सुन्दर’ है। इस तरह साहित्य और गैर-साहित्य के बीच की विभाजक रेखा सौन्दर्य है, भले ही वह लोकहित की भावना से युक्त हो। इससे यह भी संकेतित है कि मात्र सौन्दर्य साहित्य की कसौटी नहीं है। उसमें मूल्य-चेतना आवश्यक है।

वैसे यह प्रश्न भी विचारणीय है कि बिना मूल्य-चेतना के क्या सौन्दर्य की सृष्टि संभव है जैसे बिना सौन्दर्य के मूल्य-चेतना संभव है? इस प्रसंग में यह कह देने में भी कोई हर्ज नहीं है कि मूल्य का संबंध यदि अनुभूति से हुआ तो उसमें सौन्दर्य अवश्यंभावी है। इस दृष्टि से सौन्दर्य कलात्मक या साहित्यिक व्यवहार में ही नहीं, सामाजिक और राजनैतिक व्यवहार में भी संभव है। आचार्य शुक्ल पुनः स्मरणीय हैं। उनका यह कथन प्रसिद्ध है कि स्वदेश-प्रेम के गीत गाते हुये नवयुवकों के दल जिस साहस भरे उमंग के साथ कोई कठिन या दुष्कर कार्य करने के लिये निकलते हैं, वह वीरत्व की रसात्मक अनुभूति है। मुक्तिबोध भी इस बात को मानते हैं। उन्होंने लिखा है कि दिन में कई बार मनुष्य अपनी आत्मबद्ध दशा का परिहार कर रसात्मक अनुभूति की दशा में पहुँच जाता है। इसका विस्तार सहानुभूतिपूर्ण उदारता से लेकर विज्ञान तक है। यह प्रवृत्ति मनुष्य में मनुष्यता का विकास करने वाली प्रवृत्ति है। यह मनुष्य की व्यक्ति-सत्ता का विलोपन कर उसे एक पूरा विश्व बना देती है।’’.... इस धारणा के अनुसंग मन में यह प्रश्न उठता है कि क्या आधुनिक रंगकर्म आन्दोलन अंततः प्रवृत्तिमूलक ही नहीं है, भले ही उसका बाह्य स्वरूप विरोधीमूलक लगता और दिखता हो? और यह भी सोचा जाना चाहिये कि क्या वैश्वीकरण की सोच ही गलत है या उसके अवगाहन की प्रक्रिया और प्रयास? बलराज साहनी ने स्पष्ट किया है कि, ‘‘आज जब मानवता की बात करते हैं तो प्रश्न उठता है  कि वह कौन सी मानवता है, जिसे कला की सबसे अधिक आवश्यकता है। मेरे विचार में कला की सबसे अधिक ज़रूरत उन्हें है जिनके पास खुशी के कोई साधन नहीं हैं, जो श्रम करते हैं, हल चलाते हैं। उन्हें हम कुछ दे सके तो यही हमारी कला की सार्थकता होगी।’’ एकाधिकार के मद में उन्मत्त अमेरिका वर्तमान को आक्रान्त करने के साथ-साथ अतीत को भी नये सिरे से लिखना चाहता है। दुनिया में सबसे ज्यादा मनोरंजन अमेरिका बेचता रहा है। पूंजीवाद के नये-नये संस्करण सामने आ रहे हैं। अमेरिका नये-नये सांस्कृतिक मोर्चे खोल रहा है क्योंकि उसे यह भलीभाँति भान हो चुका है कि भारतीय उपमहाद्वीप को कहाँ से संजीवनी मिलती रहती है। इस बाजार-दृष्टि और दुश्प्रयासों से सचेत रहना होगा। वास्तविक खतरा बाह्य आक्रमणों से नहीं वरन भीतर से उपजता है। जानना होगा कि दुर्भाग्य से हमारी राजनैतिक शक्तियाँ इस बाजार-दृष्टि की क़ायल हैं।

साम्यवादी सपनों को पूंजीवादी लालच से तोड़ा गया और व्यापक पूंजीवादी हिंसा ने साम्यवादी हिंसा को कहीं बहुत पीछे छोड़ दिया है। विकास का एक ऐसा मायावी स्वर्ण-मृग सांस्कृतिक विरासतों के धनी इस प्रक्षेत्र में छोड़ा जा चुका है जिसने कि हमारी इतिहास-दृष्टि को चकाचौंध कर दिया है। औद्योगिक क्रान्ति की जगह सूचना क्रान्ति और लोकतंत्र की जगह मुक्त बाजार नई नियामक शक्तियों के रूप में उभर कर सामने आ गये हैं। पहले विकास सत्ता और राजनीति का प्रमुख सरोकार हुआ करता था। अब बाजार ने यह स्थिति प्राप्त कर ली है। बाजार विकसितों का होता है, अतः विकास, और वह भी अत्यंत दलित और पिछड़े वर्गों, स्त्रियों का विकास आदि बाजार की प्राथमिकताओं की सूची में अंतिम स्थान पर भी नहीं पाया जाता।

विगत दो दशकों में ‘पहचान की राजनीति’ (आईडेन्टिटी पॉलिटिक्स) ने जाति और सम्प्रदाय पर            आधारित राजनीति की कुनीति को जन्म दिया और इसने लोकतंत्र के बहुमत पर आधारित निर्णयों को विवेक-सम्मत होने की नैतिक जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया। सम्प्रदायवाद के कोढ़ में अब जातिवाद की खाज़ भी पैदा हो चुकी है। स्पष्ट है कि सारे वैचारिक आन्दोलनों, साहित्यिक योगदानों और मीडिया-विमर्शों के बावज़ूद जनमानस बहुमत के आधार पर आत्मघाती निर्णय लेता दिख रहा है।

मनुष्य का घूमन्तुपन पहले अज्ञात से साक्षात्कार के आकर्षण से जीवित रहता था। अब भी मनुष्य ने थमना तय नहीं किया है। सिर्फ इतना फर्क पड़ा है कि अब दौड़ ’ज्ञात’ की ओर है। भीड़ की ओर भीड़ की तरह बढ़ना कर्म बन गया है। लोक इसी इन्द्रजाल में फँस-फँस कर महानगरों, छोटे-छोटे नगरों-कस्बों की ओर खिंचा चला जा रहा है। मुम्बई की धारावी से लेकर भिलाई के आसपास तक यही सब कुछ अनुभव में है। सपनों में धँसा लोक अपनी विभिन्न पर्तीय सामाजिक संरचनाओं में प्राप्य से असन्तुष्ट, भविष्य से भयभीत और वर्तमान से त्रस्त है। ऐसी परिस्थिति में उसके सामाजिक-सूत्र और सम्बन्ध, आर्थिक-प्रयास और विन्यास और परम्परा तथा आधुनिकता के मध्य त्रिशंकु की सी स्थिति सन्तोष और सुख-चैन को दीमक-सा कुतर रहे हैं। कहना न होगा कि आम आदमी की सदियों से ठहरी सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था आधुनिकता के असहनीय दबाव के सामने चरमराने लगी है। समाज के विभिन्न स्तरों पर असमानता के कारण शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व असम्भव सा लगने लगा है। सभ्यता और सहिष्णुता की हमारी कहानी का नया मोड़ सुखान्त हो, इसके लिये निर्वैयिक्तक और समूहगत सोच इस नई सहस्राब्दी के दर्शन की भूमि होगी। फेण्टेसी में जीने के बजाय हमें आत्मचिन्तन, वस्तुनिष्ठ विश्लेषण और दूरगामी अर्थवान चिन्तन के साथ भारतीय अमृत-कुम्भ में विष-बेलों के विकसन को रोकने के मानक सुनिश्चित करने होंगे। हमें चिन्ता करनी होगी, नहीं तो लोक, लोकमत, लोकतंत्र, लोक-संस्कृति और लोकराज के लिये आने वाला समय अत्यंत घातक और अवसादपूर्ण होगा और जीवन के रंगों की सँभार में संस्कृतिकर्मियों, विशेषकर रंगकर्मियों की अहम् और निर्णायक भूमिका होगी।

रोमान हर जीव की कुछ ऐसी मनोभावना है कि बअंदाज ग़ालिब साहब, ”कि छिपाये न छिपे और दिखाये न दिखे।“ भारतीय विराट कथा-कुम्भ में शकुन्तला और दुष्यंत की प्रणय-गाथा छिपाये नहीं छिपती। अपने अनूठे टटकेपन के कारण, अनेकों पाठ और अनेकों प्रस्तुतिकरणों के बावज़ूद इस कथा के रोमान पर कोई आँच नहीं आती। केन्द्रीयता की यह स्थिति नहीं बदलती। विशुद्ध मानव-मानवी के नैसर्गिक मिलन की यह कथा मनुष्य के उदात्त होते जाने की प्रेरक है। यह प्रेम की सर्वोच्चता की सर्व-स्वीकार्य उद्घोषणा है। यहीं से और अन्य जीवों की तुलना में मनुष्य का रोमान मर्यादित होने लगा। मानव और मानवी के नैसर्गिक मिलन की राह में समाज, रीति-रिवाज, राज और उसकी नीति, समय और समय के फेर बवण्डरों की तरह आने लगते हैं। शायद यहीं से साहित्य की भूमिका प्रारम्भ होती है और महाकवि कालीदास को शकुन्तला की व्यथा मोह लेती है। हर नये दौर को पुरानी कथायें बहुत कुछ सिखाती हैं।

नाटक को द्विज कहा गया है। द्विज अर्थात् दूसरा जन्म। इस अवसर पर मुझे इसी इस्पात यज्ञभूमि के प्रेम साइमन की बरबस याद हो आती है जो धनी नहीं थे पर किस्मत के तो धनी वे थे ही - यह तो मानना ही पड़ेगा। बड़े-बड़े स्वनामधन्य नाट्य-लेखकों के नाटक, जो पढ़ाए जाते हैं, बहस-मुबाहसों में उछाले जाते हैं, मंचन को ताउम्र तरसते रह जाते हैं। यदि कोई नाटक मंचित हा ेभी जाता है तो उसका नसीब सुलतान के हरम में जीवनपर्यन्त सुलतान की प्रतीक्षा कर रही बेगमों से कुछ अधिक नहीं होता। प्रेम साइमन के नाटकों के मंचन हुए - एक-दो बार नहीं, कई-कई बार। वे हद दर्जे तक सफल भी रहे और पिटे भी। यही सही पहचान होती है रंग-कलाओं की।

काव्य तो जल प्रलय की तरह करवट लेता है - एक महासमर में शंखनाद करता हुआ, पर रंगकर्म रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में छापामार लड़ाई लड़ता है। इसीलिए ज़िंदगी की तरह अपने अनंत किरदारों में बार बार जनमता और मरता है। यह अमर होने से बड़ी अमरता है- और यही रंगकर्म की नियति है। हमारे समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र,  धर्मशास्त्र और नीतिशास्त्र तथा जीवन-मूल्यों के वर्तमान पाठों का जीवन के यथार्थ से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नजर नहीं आता जबकि मुंशी प्रेमचन्द की ताक़ीद यही है कि हमें नग्न यथार्थ को ही बल्कि वांछित यथार्थ को ध्यान में रखना है। हमारे देश के संदर्भ में हमें गाँधीवादी और समाजवादी विचारधाराओं की पुनर्व्याख्या के साथ लोहिया और आम्बेडकर के चिन्तन के सम्बन्ध-सूत्र तलाशने होंगे। लोकतंत्र में उपलब्धियाँ और जिम्मेदारियाँ सामूहिक होती हैं। हमारे उपमहाद्वीप के विकास के सपनो के आकार-प्रकार का समुचित और सर्वमान्य रेखांकन हमारी रचनाशीलता के लिये एक हिमालयीन चुनौती है।

भगीरथियों की एक फौज ही अब एक नई भगीरथी इस धरा पर उतार सकती है। कंठ में गरल धारण कर सकने की क्षमता से अब काम नहीं चलने वाला। गरल पीकर पचाने की क्षमता ही विकास की सर्वसुलभ गंगा का धारण कर सकेगी। अस्तित्व के लिये असम्भावनाओं को सम्भावनाओं में बदलने का काम किये बिना कुछ भी न बचेगा और न ही बनेगा। देश की वंचित बहुसंख्यक शोषित आबादी की अंतर्निहित ऊर्जा को उन्मुक्त करते हुये एक ऐसे विकल्प की वैचारिक और वैज्ञानिक संरचना करनी होगी जो वैश्वीकरण के षड़यंत्र को विफल कर दे और सामंतिक बर्बरता से लैस पूंजीवाद और अहमन्यता के मद मे उन्मत्त जातिवाद के गठजोड़से बनती आंतरिक सांस्कृतिक- सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक संरचना को जड़ से उखाड़ फेंके। आत्महीनता से उबरते हुये भारतीयता की तलाश के साथ रंगकर्म की यही तात्कालिक भूमिका मेरी समझ में है।

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