Sunday, January 29, 2012

कला हमारा हथियार है...


महिला कलाकार होने की चुनौती

-शीरीं निशात

आज मैं आप सब के साथ बांटना चाहती हूं, ईरानी कलाकार होने की चुनौती की कहानी। ईरानी महिला कलाकार होने की चुनौती की कहानी। मैं जो कि एक ईरानी महिला कलाकार हूं और देश-निकाला भुगत रही हूं। सोचा जाए तो इसके फायदे हैं और नुकसान भी हैं। राजनीति कभी भी हम जैसे लोगों को शांति से नहीं रहने देती। हर ईरानी कलाकार, किसी न किसी तरीके से, राजनीति से जुड़ा है। राजनीति ही हमारे जीवन को परिभाषित कर रही है। यदि आप ईरान में रह रहे हों, तो आपको तमाम सेंसरशिप (नियंत्रण) और अत्याचारों को सहना होगा, गिरफ्तारी, शारीरिक उत्पीडन  और कभी-कभी तो कत्ल या सजा-ए-मौत भी। और यदि आप मेरी तरह वहां से दूर रह रहे हों, आप के सामने देश से निकाले जाने की चुनौती है, दर्द है, याद की छटपटाहट है, अपनों से दूर होने की, परिवार से अलग होने की तो, हम वंचित हैं उस मौलिक, भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक और राजनीतिक आराम से, जो हमें इस सच्चाई से दूर रखे कि हमारी कोई सामाजिक जिम्मेदारी बनती है।
अजीब सी बात है। मेरे जैसी एक कलाकार स्वयं को उस किरदार में पाती है, जो आवाज है मेरे देश के लोगों की, जबकि, सच में, मेरा अपने देश में जाना तक मना है। और ये भी कि मेरे जैसे लोग, दो अलग अलग लड़ाइयां लड़ रहे हैं। हम पश्चिमी सभ्यता की आलोचना करते हैं, विरोध करते हैं पाश्चात्य नजरिये का अपनी पहचान के बारे में .. और उस अक्स का जो हमारे आसपास बना दिया गया है, हमारी स्त्रियों के बारे में, हमारी राजनीति के बारे में, हमारे धर्म के बारे में। तो हम एक तरफ इस सब के गर्व की लड़ाई लड़ रहे हैं और सम्मान मांग रहे हैं। ठीक उसी समय, हम एक और लड़ाई लड़ रहे हैं। वो है हमारी अपनी शासन पद्धति से, हमारी अपनी सरकार से .. हमारी अपनी अत्याचारी सरकार से, जिसने हर संभव अपराध किया है सिर्फ सत्ता में बने रहने भर के लिए। हमारे कलाकार खतरे में हैं। हम बड़ी विपत्ति में फंसे हैं। हम खुद भी खतरा बन गये हैं, अपनी ही सरकार और शासन के लिए।

और विडंबना ये है कि इस स्थिति ने हमें शक्ति दी है। क्योंकि हमें कलाकार होने के नाते सांस्कृतिक, राजनीतिक, और सामाजिक विमर्श के लिए ईरान में जरूरी माना जाता है। हमारा काम हो गया है प्रोत्साहित करना, ललकारना, बढ़ावा देना और अपने लोगों तक आशा की किरणों को पहुंचाना। हम अपने लोगों के हाल बयां करने के जिम्मेदार हैं। हम उनके संवाददाता हैं बाहरी दुनिया के लिए। कला हमारा हथियार है, संस्कृति हमारे विरोध का जरिया है। कभी कभी तो मुझे पाश्चात्य कलाकारों से जलन सी होती है, उनकी अभिव्यक्ति की आजादी को देख कर  और इस बात पर कि कैसे वो खुद को दूर कर लेते हैं राजनीतिक सवालों से  और इस बात से कि वो केवल एक ही तरह के लोगों के लिए कार्यरत हैं, मु्ख्यतः पाश्चात्य सांस्कृति के लिए। पर साथ ही मैं पश्चिम को ले कर चिंतित भी हूं। क्योंकि अक्सर इन देशों में, इस पाश्चात्य विश्व में खतरा दिखता है, संस्कृति के मात्र मनोरंजन में बदल कर रह जाने का। हमारे लोग अपने कलाकारों पर निर्भर हैं, और संस्कृति तो संवाद के परे है।



एक कलाकार के रूप में मेरी यात्रा बहुत ही व्यक्तिगत जगह से आरंभ हुई थी। अपने देश पर सामाजिक टिप्पणी करना मैंने सीधे शुरू नहीं किया था। जो पहला वाला आप देख रहे हैं ये असल में मैंने ईरान लौट कर बनाया था, पूरे 12 साल इससे अलग रहने के बाद। ये इस्लामिक क्रांति के बाद हुआ, जो 1979 में हुई थी। जब मैं ईरान से बाहर थी, ईरान में इस्लामिक क्रांति आ गयी और उसने पूरे देश को बदल कर रख दिया फारसी संस्कृति से इस्लामिक संस्कृति में। मैं तो बस अपने परिवार के साथ रहने आयी थी, और फिर से इस तरह से जुड़ने कि मैं समाज में अपना एक स्थान पा सकूं। बजाय उसके, मुझे एक ऐसा देश मिला जो पूर्णतः एक खास सिद्धांत से चल रहा था और जिसे मैं अपना ही नहीं पायी। और तो और, मेरी इसमें बहुत रुचि पैदा होती गयी क्योंकि मेरे सामने अपने व्यक्तिगत असमंजस और प्रश्न खड़े थे, मेरी रुचि बढ़ती ही गयी इस्लामिक क्रांति के अध्ययन में  कि कैसे, असल में, इसने अविश्वसनीय ढंग से बदल दिया ईरानी औरतों के जीवन को। मुझे ईरानी स्त्रियों का विषय बहुत ही तेजी से खींच रहा था कि किस तरह से ईरानी औरतों ने, इतिहास में, राजनीतिक बदलाव को अपनाया है। तो एक तरह से, औरतों का अध्ययन करके, आप एक देश के ढांचे और सिद्धांत को पढ़ सकते हैं।

तो मैंनें कुछ काम किया, जिससे कि अचानक ही मेरे सारी दुविधा सामने आ गयी, और उसने मेरे काम को एक बड़े विमर्श के कठघरे में ला खड़ा किया - शहादत के विषय पर, उन लोगों के विषय पर जो अपनी मर्जी से दुराहे पर खड़े होते हैं। एक तरफ ईश्वर से प्रेम, और विश्वास की राह पर, और साथ ही हिंसा, अपराध और क्रूरता की राह पर। मेरे लिए ये अत्यधिक महत्वपूर्ण हो गया। और तब भी, मेरी इस पर थोड़ी अलग स्थिति थी। मैं एक बाहरी व्यक्ति थी जो कि ईरान आयी थी अपनी जगह खोजती हुई, मगर मैं इस स्थिति में नहीं थी कि मैं सरकार की आलोचना कर सकूं या फिर इस्लामिक क्रांति के सिद्धांतों की। धीरे-धीरे ये सब बदला और मुझे अपनी आवाज मिली और मैंने उन चीजों को खोजा जो मुझे कभी नहीं लगा था कि मैं खोज पाऊंगी। और मेरी कला थोड़ी और ज्यादा आलोचनात्मक हो गयी। मेरा खंजर थोड़ा और तीखा हो गया। और मैं फिर से देश-निकाले का जीवन जीने पर मजबूर कर दी गयी।

अब मैं एक खानाबदोश कलाकार हूं। मैं मोरक्को में, तुर्की में, मेक्सिको में काम करती हूं। मैं हर जगह में ईरान को खोजती फिरती हूं।

अब मैं फिल्मों पर भी काम कर रही हूं। पिछले साल, मैंने एक फिल्म खत्म की है, जिसका शीर्षक है- आदमियों के बगैर औरतें। ये फिल्म इतिहास में वापस जाती है, मगर ईरानी इतिहास के एक दूसरे ही हिस्से में। ये जाती 1953 तक, जब अमरीकी सीआईए ने तख्तापलट करवाया था और लोकतंत्र द्वारा चुने गये एक राजनीतिक नेता को हटवा दिया था, डॉ मोस्सदेघ। ये किताब एक ईरानी औरत ने लिखी है, शाहर्मुश पारसिपुर, ये जादुई सी किताब यथार्थवादी उपन्यास है। इस किताब पर सरकारी रोक है और उस लेखिका ने अपने पांच साल जेल में बिताये। मैं इस किताब के लिए पागल हूं, और मेरे इस किताब को फिल्म में तब्दील करने का कारण है, इसका एक साथ कई प्रश्नों को कुरेद पाना। औरत होने का प्रश्न  पारंपरिक रूप से, ऐतिहासिक रूप से ईरानी औरत होना  और चार ऐसी औरतों की स्थिति जो एक नयी विचारधारा की खोज में हैं .. बदलाव की, आजादी की और प्रजातंत्र की .. जबकि ईरान एक और किरदार की, एक नयी विचारधारा की तलाश में है .. प्रजातंत्र और आजादी की, और विदेशियों द्वारा दखलअंदाजी से आजादी पाने की।

मैंने ये फिल्म बनायी क्योंकि मुझे लगा कि ये जरूरी है कि ये पश्चिमी लोगों को बताये कि एक देश के रूप में हमारा इतिहास कैसा था। ये कि आप सब केवल उस ईरान को याद रख के बैठे हैं, जो कि इस्लामिक क्रांति के बाद का ईरान है। ये कि ईरान एक जमाने में धर्मनिरपेक्ष समाज था और हमारा देश लोकतांत्रिक था, और हमसे इस प्रजातंत्र को छीन लिया अमरीकी सरकार ने, ब्रिटिश सरकार ने। ये फिल्म ईरानी लोगों से भी कुछ कहती है। उनसे गुजारिश करती है अपने इतिहास में वापस जाने की और इस्लामीकरण से पहले के अपने व्यक्तित्व को एक नजर देखने की .. कि हम कैसे दिखते थे, कैसे हम मौसीकी का लुत्फ उठाते थे, कैसे हमारे लोग बौद्धिक-विचारक थे। और सबसे बड़ी बात, कि कैसे हमने प्रजातंत्र के लिए लड़ाई की थी। ये मेरी फिल्म के कुछ दृश्य हैं। और ये तख्तापलट के कुछ दृश्य हैं। हमने ये फिल्म कासाब्लान्का (मोरक्को) में बनायी है, सारे दृश्यों का पुनर्निमाण कर के।

ये फिल्म कोशिश करती है कि एक संतुलन सा कायम हो एक राजनीतिक कहानी कहने, और साथ ही, एक स्त्रीवादी कहानी कहने के बीच। एक दृश्य कलाकार होने के नाते, सच में, मैं कला के प्रसारण में सबसे ज्यादा रुचि रखती हूं .. ऐसी कला जो आर-पार जा सके राजनीति के, धर्म के, स्त्रीवाद के प्रश्नों के और महत्वपूर्ण हो जाए, शाश्वत हो जाए और कला का संपूर्ण सार्वकालिक उदाहरण बन जाए। मेरे सामने चुनौती ये है कि ये कैसे किया जाए .. कैसे एक राजनीतिक कहानी कही जाए रूपक व्याकरण में .. कैसे अपने भावों को उचित चित्रण किया जाए, पर साथ ही दिमाग से सोच कर काम हो। ये कुछ दृश्य हैं और फिल्म के कुछ किरदार। ये देखिए हरी क्रांति आती हुई .. 2009 की गर्मी, और मेरी फिल्म का विमोचन होता है .. तेहरान की सड़कों पर विद्रोह भड़क रहा है।

अविश्वसनीय विडंबना ये है कि जिस समय की कहानी हमने फिल्म में दिखाने की कोशिश की है, प्रजातंत्र की मांग की और सामाजिक न्याय की मांग की, वो स्वयं को दोहरा रहा है, तेहरान में। हरी क्रांति ने सारी दुनिया को दृढ़ता के साथ प्रोत्साहित किया है। उसके द्वारा उन ईरानियों पर ध्यान केंद्रित हुआ है, जो कि मौलिक मानवाधिकारों के लिए खड़े हैं और प्रजातंत्र की लड़ाई लड़ रहे हैं। मेरे लिए इस सबमें सबसे सार्थक ये था कि एक बार फिर, औरतों की मौजूदगी दाखिल हुई है। ये मेरे लिए बहुत ही बड़ी हौसला-अफजाई है। अगर इस्लामिक क्रांति के दौरान, औरतों का चित्रण किया गया था दबे कुचले स्वरूप में, और बेआवाज ईकाई की तरह, तो आज हम स्त्रीवाद की नयी अभिव्यक्ति देख रहे हैं तेहरान की सड़कों-गलियों में .. औरतें जो शिक्षित हैं, गैर-पारंपरिक हैं, नयी सोच रखती हैं, सेक्सुअली खुले विचारों की हैं, डर से परे हैं, और गंभीर रूप से स्त्रीवादी हैं। ये औरतें और ये युवा पुरुष ईरानियों को एकजुट कर रहे हैं सारे संसार में, ईरान में और बाहर भी।

और फिर मुझे पता लगा कि आखिर क्यों मैं इतना उत्साह पाती हूं ईरानी औरतों से। वो इसलिए, कि हर हाल में, उन्होंने किनारे की लड़ाई लड़ी है। उन्होंने सत्ता को लगातार ललकारा है। उन्होंने हर थोपा गया नियम तोड़ा है छोटे से छोटे और बड़े से बड़े रूप में। और एक बार फिर, उन्होंने खुद को साबित कर दिखाया है। आज मैं यहां खड़ी हूं ये कहने के लिए कि ईरानी औरतों ने एक नयी आवाज पायी है, और उनकी आवाज ही मुझे अपनी आवाज देती है। ये मेरे लिए गौरव की बात है कि मैं एक ईरानी स्त्री हूं, और एक ईरानी कलाकार हूं, चाहे मुझे कुछ दिन के लिए पश्चिम को ही अपनी कर्मभूमि क्यों न बनाना पड़े।

अनुवाद - स्वप्निल कांत दीक्षित, संपादन - वत्सला श्रीवास्तव

(शीरीं निशात। ईरान की मशहूर फिल्मकार और फोटोग्राफर। अपने काम में निशात इस्लामिक क्रांति के पहले के और बाद के ईरान पर अन्वेषण करती हैं, स्त्रियों के शक्तिशाली अंकन के जरिये राजनीतिक और सामाजिक बदलाव का अध्ययन)

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