Monday, January 16, 2012

भूपेन दा की याद में


बाबा की आवाज थी भूपेन दा की आवाज में

खचाखच भरे दिल्ली के सिरीफोर्ट सभागार में बांग्लादेश की मेरी दोस्त जकिया ने उस दिन कार्यक्रम शुरू होने से पहले कहा था, ‘गाना सुनते हुए अगर मेरी आंखों में आंसू आ जाएं तो बुरा मत मानिएगा...।’ मैं उसकी ओर देखता बस चुप रहा। सन 2005 में हुए भूपेन हजारिका के उस कार्यक्रम का नाम था: ‘ए लेजंड नाइट- म्यूजिकल जर्नी फ्रॉम ब्रह्मपुत्र टू मिसीसिपी।’ एक तरह से उनकी ‘लोहित, मिसीसिपी से वोल्गा तक की संगीत यात्रा’ को हमने उस शाम देखा-सुना, बहुत करीब से महसूस किया। वर्षों बाद दिल्ली में भूपेन हजारिका का ‘लाइव कंसर्ट’ हुआ था। मेरे जाने शायद दिल्ली में उनका यह आखिरी कार्यक्रम था, जिसे उन्होंने असम के एक सांस्कृतिक और शैक्षणिक केंद्र की स्थापना के निमित्त किया था। जब उन्होंने ‘आमि एक जाजाबर’ गाया तो सभागार में एक अजीब हलचल हुई थी। मैं बांग्ला और असमिया भाषा बोल नहीं पाता, लेकिन मातृभाषा मैथिली से बहुत नजदीक होने की वजह से इन भाषाओं को थोड़ा-बहुत समझ जरूर लेता हूं। यों संगीत को समझने में भाषा कोई बाधा नहीं है। उस शाम भी संगीत के रसास्वादन में भाषा मेरे आड़े नहीं आ रही थी। हाथ में हारमोनियम लिए मंच पर खड़े भूपेन दा की आवाज में एक बड़े-बूढ़े की आश्वस्ति थी। परिस्थितियां कितनी भी विचित्र और प्रतिकूल हों, संघर्ष से उन पर विजय पाई जा सकती है।

मेरे बाबा एक लोक गायक थे पर मुझे उनकी याद नहीं। उस दिन भूपेन दा की आवाज में जैसे मैं अपने बाबा की आवाज महसूस कर रहा था। उनके गाने की शैली कथा-वाचक की तरह थी, जो श्रोताओं के सामने एक चित्र खींचता है। जब उन्होंने ‘हे डोला हे डोला... आके बाके रास्तों पर कांधे लिए जाते हैं... राजा-महराजाओं का डोला’ गाया तो ऐसा लगा कि मेहनतकश जनता की पीड़ा और दृढ़ निश्चय चित्र रूप में हमारे सामने मंच पर उपस्थित हैं। शब्द और संगीत से चित्र खींचने की उनकी कला उन्हें ‘गजगामिनी’ फिल्म में मकबूल फिदा हुसेन के करीब लेकर आई। यह दुखद संयोग ही है कि वर्ष 2011 में अब हमारे पास इन दो महान कलाकारों की सिर्फ कलाएं हैं और शेष स्मृतियां।

कहते हैं किकोलंबिया में जनसंचार पर अपने शोध के दौरान भूपेन हजारिका की मुलाकात चर्चित अश्वेत गायक पॉल रॉबसन से हुई। वे रॉबसन के इस कथन से बेहद प्रभावित हुए थे कि ‘संगीत सामाजिक बदलाव का एक औजार है’। रॉबसन ने अपने चर्चित गाने ‘ओल्ड मैन रीवर/ दैट ओल्ड मैन रीवर/ ही मस्ट नो समथिंग/ बट डोंट से नथिंग/ ही जस्ट कीप्स रोलिंग/ ही कीप्स रोलिंग अलांग...’ में अमेरिकी अश्वेतों की पीड़ा को मिसीसिपी के निष्ठुर बहाव से गुहार के जरिए व्यक्त किया है। भूपेन दा ने ‘ओ गंगा बहती हो क्यों’ के माध्यम से असमिया, बांग्ला और हिंदी में इस पीड़ा और वेदना को उतार दिया। इस गाने के आखिर में जब वे ‘निष्प्राण समाज को तोड़ने’ की गुहार लगाते हैं, तब उनकी गुहार किसी समय और सीमा में कैद नहीं दिखती। यह गीत मानवीय पीड़ा और उससे मुक्ति का गान बन जाता है। वे एक ऐसे संस्कृतिकर्मी थे, जिन्हें राजनीति की हदबंदियां जकड़ नहीं पार्इं। उनके संगीत में लोक का स्वर हमेशा गूंजता रहा। उनकी लोक चेतना दरअसल, संघर्ष की चेतना है। कभी ‘बूढ़ा लुइत’ तो कभी ‘गंगा’ इसी का प्रतीक हैं।


अजीब विडंबना है कि असम के इस महान संगीतकार से वृहद हिंदी समाज का परिचय नब्बे के दशक में ‘रुदाली’ फिल्म में गाए उनके गीत ‘दिल हूम हूम करे’ के माध्यम से हुआ, जिसे मूल असमिया में वर्षों पहले वे ‘बुक हूम हूम करे’ के रूप में गा चुके थे। असमिया भाषा जानने वाले बता सकते हैं कि मूल असमिया में इस गाने की तासीर हिंदी से कई गुना ज्यादा है। बॉलीवुड संस्कृति ने स्थानीय संगीत को फलने-फूलने के लिए जगह कहां छोड़ी है! असमिया फिल्म के चर्चित निर्देशक जानू बरुआ कहते हैं कि यह असम के लोगों का सौभाग्य था कि भूपेन दा यहां पैदा हुए और उसकी संस्कृति को अपने संगीत में उतारा।

बहरहाल, उस शाम जब उन्होंने ‘गंगा आमार मां, पद्मा आमार मां...’ गाया तब ऐसा लगा जैसे दो देशों की सीमा के बीच मानवता चीत्कार रही है। ऐसी ही चीत्कार हमें तब सुनाई पड़ती है जब ऋत्विक घटक की फिल्में देखते हैं। कार्यक्रम के बाद हम काफी समय तक मौन रहे। हमारी आंखें भरी हुई थीं, पर मन हल्का था।

अरविंद दास, जनसत्ता से साभार



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