Tuesday, January 10, 2012

नुक्कड़ नाटक और मंचीय नाटक




अक्टूबर 15 को हमने नुक्कड़ नाटक में अपने लगातार कार्य के दस वर्ष पूरे  किये । यह जयंती हमारे लिए इस दौरान की अपनी  उपलब्धियों और विफलताओं पर आत्मविश्लेषणात्मक ढंग से सोचने, देश के विभिन्न भागों में नुक्कड़ नाटक के विकास का जायजा लेने और उसके भविष्य के प्रश्नों पर विचार करने का एक मौका था। यह भारतीय सांस्कृतिक जीवन में नुक्कड़ नाटकों की स्थिति तथा मुख्यधारा के मंच से उसके संबंधों का मूल्यांकन करने का भी अवसर था। इनमें से कुछ मुद्दों पर हम मुख्यधारा के मंच से जुड़े अपने सहकर्मियों और दूसरे संस्कृतिकर्मियों के साथ अपने विचारों का आदान-प्रदान करना चाहते हैं। हम इस कार्य को अनिवार्य समझते हैं, क्योंकि नुक्कड़ नाटक और रंगपीठ के नाटकों के बीच लगभग संवादहीनता की स्थिति रही है तथा नुक्कड़ नाटकों के बारे में दृष्टिकोणों की व्यापक भिन्नता बनी हुई है ।

जिस रूप में आज हम नुक्कड़ नाटकों को जानते हैं, उसका सीधा संबंध 1917 की सोवियत क्रांति के तत्काल बाद के वर्षों से ही जुड़ता है। अक्टूबर क्रांति की पहली जयंती पर व्सेवोलोद मायेर्होल्द ने टेंट -शो के तत्वों और क्रांतिकारी कविता को मिलाकर मायकोव्स्की के ‘ मिस्ट्री बूफे ‘ को नाट्य रूप दिया और उसे कई हजार दर्शकों के सामने शहर के बीच में प्रस्तुत   किया। मजदूरों के राज्य में वर्षों तक इस तरह की नाट्य प्रस्तुतियां होती रहीं। यह गलियों-चौराहों, फैक्ट्री-गेट, बाजारों, बंदरगाहों, खेल के मैदानों और खलिहानों जैसी दूसरी जगहों पर खेले जाने वाले नये ढंग के आंदोलन-प्रचारक नाटकों का आरंभिक दौर था। निश्चित रूप से राजनीतिक चरित्र वाला यह नाटक अपने दर्शकों तक उनके काम करने या रहने की जगहों तक पहुंचता था। यह लोगों की जनतांत्रिक भावना का स्वतः प्रेरित साधन और रोजमर्रा की घटनाओं की व्याख्या का एक साधन बन गया। इस दौर में प्रमुख क्रांतिकारी जयंतियां मनाने के लिए नगरों के चौराहों पर जननाट्य के सामूहिक कार्यक्रम भी मंचित किए गए।युद्ध के कठिन वर्षों में सोवियत रंगमंच ने मोर्चे पर - ऐन खाइयों में, लारियों पर, जंगलों में, ध्वस्त इमारतों के भीतर, युद्धपोतों पर, अस्तबलों में और ऐसी ही तमाम जगहों पर दिमाग को झकझोर देने वाली पांच लाख प्रस्तुतियां की  थीं।

नुक्कड़ नाटकों ने भिन्न ऐतिहासिक परिस्थतियों में दुनिया भर में प्रायः वही रास्ता अपनाया, तीसरे दशक के     मध्य में चीन में आधुनिक रंगमंच के कुछ वर्षों के भीतर उसका नुक्कड़ प्रतिरूप भी नवगठित कम्युनिस्ट पार्टी के पीछे एकताबद्ध होते मजदूरों और किसानों की सभाओं के आगे प्रस्तुत हो गया। पीपुल्स आर्मी( जन-सेना) के साथ-साथ अनेक चलती-फिरती मुक्तांगन नाट्य मंडलियां लोगों को कम्युनिस्टों के पीछे लामबंद होने के लिए उत्प्रेरित करती हुई चलती थीं। भारत में नुक्कड़ नाटकों का आविर्भाव उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष में जनगण को खींच लाने के इप्टा के अभियान के    माध्यम के रूप में हुआ । आजादी के फौरन बाद वह उन जनवादी शक्तियों के साथ जुड़ गया जो जनता के आर्थिक और सामाजिक उत्पीड़न के विरूद्ध संघर्ष जारी रख रही    थी।

अनेक देशों में उनके इतिहास की नाजुक घड़ियों में नुक्कड़ नाटकों का जन्म हुआ है - जैसे  स्पेन में गृह युद्ध के दौरान , वियतनाम में जापानी, फ्रांसीसी और अमेरिकी हमलावरों के विरूद्ध 45 वर्षों के लंबे युद्ध के दौरान, क्यूबा में क्रांति के तत्काल बाद और पूरे लैटिन अमेरिका और अफ्रीका में राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम के दौरान। अमेरिका में वह मैक्सिकी खेत - मजदूरों और हब्शियों (निग्रो) के बीच संघर्ष और संगठन के साधन के रूप में लोकप्रिय हुआ । फ्रांस में वह उथल-पुथल भरे सातवें दशक के अंतिम चरण में प्रकट हुआ । आज यह स्पेन, युनाइटेड किंगडम (ब्रिटेन), पश्चिमी जर्मनी, हॉलैंड, स्वीडन, सोवियत संघ, क्यूबा, अमरीका, फिलीपींस, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश और बहुत से दूसरे देशों में खेला जाता है । लेकिन भारत के अलावा इतने बड़े पैमाने पर इसका प्रसार अन्यत्र नहीं है ।

अगर नुक्कड़ नाटक की परंपरा निर्धारित करनी हो तो शताब्दियों से दुनिया भर में खेले जा रहे मंचीय और अर्द्ध - मंचीय नाट्य रूपों के बीच अनेक प्रत्यक्ष संबंध स्थापित किये जा सकते  हैं। उदाहरण के लिए प्राचीन मद्यपानोत्सवों में या मध्यकालीन यूरोप की शोभायात्राओं में रंगकर्म और एक तरह के सामाजिक आलोचना के तत्व स्पष्ट रूप से मौजूद  थे । अपने आनुष्ठानिक चरित्र के बावजूद आमतौर पर उनमें अश्लीलता के तत्व शामिल रहते थे, जो देवताओं और उनके इंसानी आकाओं की पोल खोलने की आम इच्छा से ताकत हासिल करते थे। नवजागरण काल के नीम हकीम प्रदर्शनों ( जैसे की आज के भारत में मदारी तमाशा ) में भी सामाजिक प्रहसन के तत्व विद्यमान थे। उनकी वजह से उन्हें काफी ज्यादा लोकप्रियता हासिल थी । भारत में अधिकांश लोकनाट्य में सामयिक संकेत और हास्य वृतान्त होते थे, जो धार्मिक तथा धर्म निरपेक्ष प्रतिष्ठानों की छिछालेदर करके हास्य पैदा करते थे। हमारे लोक नाट्यों में जिन दो चरित्रों का अक्सर मजाक उड़ाया गया है वे हैं- पंडित और कोतवाल ।

समकालीन भारतीय नुक्कड़ नाटक हमारे प्राचीन नाटकों और लोकनाट्यों के साथ ही पश्चिमी थियेटर से समान रूप से प्रभाव ग्रहण करता रहा है। राजनैतिक पैंफलेट, दीवार इश्तहार, आंदोलनपरक भाषण और राजनैतिक प्रदर्शन आदि नुक्कड़ नाटकों के विविध रूपों के निर्माण में सहायक हुए हैं।उन्नीसवीं शताब्दी में जब मजदूर यूनियनें संगठित होने लगीं, तब नुक्कड़ नाटक अनिवार्य हो उठे । उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम और बीसवीं के प्रारंभिक दशकों में राजनैतिक प्रदर्शनों के उभार से इसका उद्भव महत्वपूर्ण हो उठा। अपने वर्तमान रूप  में यह पूंजीवादी तथा सामंती शोषण के अधीन रहने वाले श्रमजीवी वर्ग की विशिष्ट आवश्यकताओं से उत्पन्न हुआ कला रूप है और यह बीसवीं सदी की ऊपज है ।

मूल रूप में यह विरोध का एक संघर्षशील राजनीतिक थियेटर है । इसका काम है, जन-साधारण को आंदोलित करके उन्हे संघर्षरत संगठनों के पीछे लामबंद करना । पर भारत में नुक्कड़ नाटक का विकास, खासकर पिछले दस - बारह वर्षो में एक भिन्न और महत्वकांक्षी रूप में हुआ है । वर्तमान पीढी़ के नुक्कड़ रंगकर्मी अपने पाचवें और छठे दशक के पूर्ववर्तियों के विपरीत, इसके विशिष्ट आकारगत स्वरूप के बारें में कहीं ज्यादा सजग हैं। अपने रंगकर्म की सैद्धांतिक प्रकृति और राजनीतिक शक्तियों के साथ इसकी खुली पक्ष -धरता को बिना झिझक स्वीकार करके वे अब सिर्फ इश्तेहारी नाटक नहीं प्रस्तुत कर रहे हैं।

हमारे विचार से इस नये विकास के दो कारण हैं, पहला, एक-दो को छोड़कर हमारे शहरों में थिएटर देखने जाने की कोई परंपरा नहीं है। हमारी शहरी जनसंख्या के  अधिकांश हिस्से कभी थिएटर देखने नहीं गये हैं। हमारा थिएटर उनमें से सबसे श्रेष्ठ दर्शकों के एक चुनिंदा समूह तक अधिकांशतः सीमित है और खुद रंगपीठ थियेटर भी आम तथा श्रमिक जनता को संबोधित नहीं करता रहा है। अगर हमारा शहरी रंगमंच हमारी प्रमुख सांस्कृतिक शक्ति होता - अगर वह जनता के संघर्षो, आशाओं और आंकाक्षाओं को प्रतिबिंबित करने वाला एक कला-रूप होता, तो शायद हमारा नुक्कड़ नाटक भी सिर्फ एक क्रियात्मक प्रचार - साधन बन कर रह जाता, जो ज्वलंत समस्याओं की तरफ ध्यान आकर्षित करने के लिए बीच - बीच में सक्रिय होता । पर चूंकि हमारे रंगमंच की मुख्य धारा, कमोबेश, हमारी अधिकांश जनता के संसर्ग में नहीं है और उनके साथ तादाम्य स्थापित नहीं कर पा रही हैं, इसलिए पूरी तौर पर विकसित ऐसे जन-रंगमंच की जरूरत बनी हुई है, जो आम जनता को उपलब्ध हो। नुक्कड़ रंगकर्मियों को अब इश्तहार नाटकों की कलात्मक अपर्याप्तता का सीधा अनुभव हो चुका है। ऐसे नाटक एक उद्देश्य की पूर्ति तो करते हैं, पर वे न तो एक ज्यादा पूर्ण रंगमंच की जनता की आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाते हैं और न ही अधिक चुनौतीपूर्ण और प्रेरणादायक सामग्री के लिए अभिनेताओं और निर्देशकों की ललक को ही संतुष्ट कर पाते हैं। चूंकि मंचीय नाटकों के व्यापक विस्तार की परिस्थितियां लगातार प्रतिकूल चल रही हैं, वे खुद नुक्कड़ रंगमंच के विकास के लिए गंभीरता से प्रयत्नशील रहे हैं। दूसरे, नुक्कड़ रंगमंच के साथ अपने लंबे संसर्ग ने उनके सामने धीरे-धीरे नुक्कड़ रंगमंच के एक-एक पूर्ण कला रूप में विकसित होने की अप्रत्याशित संभावनाओं के द्वार खोल दिये हैं । वृताकार अभिनय-स्थल, प्रस्तुति की शर्ते, अभिनेता और दर्शक का सामीप्य- ये सभी एक नयी अभिनय शैली, नयी नाटकीय संरचना, नये लेखन-कौशल, एक नये ढंग के प्रशिक्षण, संगीत, काव्य और समूह- गान के एक नये इस्तेमाल और मंच - प्रबंधन के एक-एक नये तरीके की मांग करते है । यहां तक कि नुक्कड़ रंगमंच में अभिनेता-प्रेक्षक का रिश्ता भी नया और अनूठा होता है और अभिनेता से एक नये रवैये की मांग करता है । इस नयी परिस्थिति और इसके दबाव के फलस्वरूप नुक्कड़ रंगमंच की भाषा, संरचना, व्याकरण और सौंदर्यशास्त्र पर कुछ गंभीर काम हुआ है।

नुक्कड़ रंगमंच यद्यपि अभी अपने शैशवकाल में है और खुद को अन्वेषित करने के लिए संघर्ष कर रहा है, पर इसे इसके अभूतपूर्व विस्तार की पृष्ठभूमि में देखना चाहिए। गत दस-बारह वर्षों में यह भारत के प्रायः हर कोने में फैल गया है। आज सैकड़ों शौकिया नुक्कड़ नाट्य दल सामने आ चुके हैं, जो खुद अपने नाटक लिख रहे हैं या दूसरे क्षेत्रों और भाषाओं की रचनाओं का खुलकर रूपांतर और अनुवाद कर रहे हैं और बहुत बड़े पैमाने पर नुक्कड़ नाटक कर रहे हैं । अकेले जन नाट्य मंच ने गत वर्षो में नब्बे शहरों में अलग - अलग 22 नाटकों की 4500 प्रस्तुतियां की है, जिन्हें 25 लाख से ऊपर दर्शकों ने देखा है । यह नाट्य दल आज भारत के रंगमंचीय परिदृश्य का एक अभिन्न अंग बन गया है, हालांकि यह रंगमंच की मुख्य धारा की उपेक्षा का अभी भी शिकार बना हुआ है । जहां तक इसकी प्रस्तुतियों की संख्या और इनके दर्शकों का संबंध है, हमारी राय में आज नुक्कड़ रंगमंच को शामिल किये बिना, समकालीन भारतीय रंगमंच की मुकम्मल तस्वीर बनाना संभव नहीं है ।

अब हम उस दुर्भाग्यपूर्ण प्रवृत्ति को लेते हैं जिसके अनुसार नुक्कड़ रंगमंच को परंपरागत रंगमंच के विरूद्ध विद्रोह अथवा इसके विरोधी के रूप में देखा जाता है । यह पूर्णतया गलत अवधारणा दोनों ही तरह के रंगमंचों से जुड़े लोगों द्वारा बनायी गयी है । एक ओर, नुक्कड़ रंगमंच के कुछ कर्मी रंगपीठों के विरूद्ध इसे खड़ा कर रहे हैं और रंगपीठों को बूर्जुआ, पतनशील और संकुचनशील रंगकर्म मानते हुए वे इसे अप्रासंगिक, हवाई दार्शनिकता से भरपूर और छिछोरा मानकर इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि एक स्वस्थ तथा सच्चा जन-नाट्य रंगपीठों पर संभव ही नहीं है। दूसरी ओर, परंपरागत रंगमंच से जुड़े ढेर सारे लोग नुक्कड़ रंगमंच को नाट्य कला का एक मान्य रूपाकार मानने से लगातार गुरेज कर रहे है ।

हमारे विचार से रंगपीठ और नुक्कड़ रंगमंच के बीच अंतर्विरोध की बात करना हास्यास्पद है । दोनों ही नाट्य रूप जनता की निधि हैं। हां, जिस नाट्यपीठपर पलायनवादी, अराजकतावादी और पुनरूत्थानवादी हावी हैं उसके और जनसाधारण के साथ खड़ा होने वाले नुक्कड़ नाटक के बीच निश्चित ही अंतर्विरोध हैं। ठीक वैसे ही जैसे प्रतिक्रियावादी रंगपीठों और प्रगतिशील रंगपीठों के बीच अथवा जनवादी नुक्कड़ रंगमंच और       सुधारवादी तथा सरकारी नुक्कड़ रंगमंच के बीच अंतर्विरोध है।

नुक्कड़ रंगमंच को राजनीतिक विज्ञापन या चलता-फिरता इश्तहार कहकर विसर्जित करने की प्रवृत्ति भी उतनी ही हास्यास्पद है। इस तरह के अभिमत का एक कारण तो यह है कि परंपरागत रंगमंच से जुड़े लोगों ने स्वेच्छा से अपने को नुक्कड़ रंगमंच से अलग कर रखा है। यह सच है कि उनमें से अधिकांश नुक्कड़ रंगमंच के नवीनतम विकास क्रम से परिचित नहीं है । दूसरा, और समान रूप से महत्वपूर्ण कारण यह है कि नुक्कड़ रंगमंच के नाम पर ढेर सारा घटिया मसाला प्रस्तुत किया जाता रहा है । फिर भी, उपरोक्त प्रकार के अभिमतों के पीछे दूसरे, गहरे कारण भी हो सकते हैं।

ऐतिहासिक रूप से रंगपीठ एक ऐसा स्थल बन गया है,  जहां जीवन के सूक्ष्म और उदात्त पक्षों पर ध्यान केंद्रित होता है, वह चिंतन, मनन और अतीत दर्शन की जगह है। प्रेक्षागृह में व्याप्त औपचारिक और गंभीर वातावरण, चुप्पी और अंधेरे से इन चीजो को बल मिलता है । चूंकि इस प्रकार की गंभीरता और एकाग्रता किसी सड़क के नुक्कड़ पर उपलब्ध करना संभव नहीं है, इसलिए जोर देकर कहा जाता है कि नुक्कड़ रंगमंच में विश्लेषण की गहराई, सौंदर्य या प्रस्तुति की शक्तिमत्ता उपलब्ध कर पाना असंभव है ।

हम मानते हैं और हमें विश्वास है आप भी मानेंगे, कि कलात्मक अभिव्यक्ति के औजार और साधन जीवन के बारे में नाटककार की रचनात्मक अंतरदृष्टि द्वारा बनते हैं, न कि इसके विपरीत कलात्मक अभिव्यक्ति के औजारों और साधनों द्वारा जीवन के बारें में नाटककार की रचनात्मक दृष्टि बनती है। यह सच है कि कोई कलाकार परंपरागत तथा पूर्ववर्तियों द्वारा प्रदत्त अनुशासन में ही काम कर सकता है, इस पर किसी को कैसे एतराज हो सकता है, पर अपने अनुशासन से अलग किसी एक या सभी अनुशासनों को अपूर्ण मानकर रद्द कर देना, पहचानने से इनकार करना न केवल अवैज्ञानिक है, बल्कि पूर्णतया अस्वीकार्य है ।

हम लोगों को एक बात साफ-साफ समझ लेनी चाहिए कि रंगमंच अपने चारों ओर के रंगीन पर्दो और तामझाम पर निर्भर नहीं होता। किसी भी खाली जगह पर, चाहे वह गोल हो या चौकोर या वर्गाकार, नाटक अपनी पूरी ताकत और खूबसूरती के साथ जन्म लेता है। नाटक बावजूद इसके जीवंत हो उठता है कि दर्शक उसकी एक ओर हैं या चारों ओर, अंधेरे में बैठे हैं या सूरज की रोशनी में। मानव जाति को ज्ञात रंगकर्म के महानतम उदाहरणों में से एक प्राचीन ग्रीक नाटक सूरज की रोशनी में उन पंद्रह हजार दर्शकों के सामने खेला जाता था, जो अभिनय क्षेत्र के तीन ओर बैठे होते थे । शेक्सपीयर अपने नाटक सरायों के सहनों में, बाजारों में और बगीचों में खेलता था। उसका ‘ ग्लोब थिएटर ‘ लंदन की सबसे शोरगुल वाली जगह मानी जाती थी । वहां प्रस्तुति के दौरान भी ‘ पिट ‘ ( सामान्य दर्शकों के बैठने की जगह ) में शराब की बिक्री होती रहती थी । ब्रेख्त के अनुसार उनके आदर्श दर्शक वे हैं जो मंचन के दौरान धुआं उड़ाते और शराब पीते हों और बाक्सिंग तथा फुटबाल मैच के दर्शकों की तरह बीच-बीच में अपना अभिमत भी व्यक्त करते हों। हमारे अपने देश में अधिकांश जीवंत भारतीय रंगप्रस्तुतियां खुले मंचों और खेतों में होती है। रंगकर्म की शुरूआत बड़े रंगमंचों से नहीं हुई थी, न ही रंगमंचों के विकास के साथ - साथ रंगकर्म का विकास अपने अंतिम चरण में पहुंच गया  है ।

विवाद से हटकर भी, हमें विश्वास है कि नुक्कड़ रंगमंच ऐसा कुछ कर रहा है, जिसका विशेष महत्व है । ऐसे समय में जब सामुदायिक मनोरंजन के सभी रूप तेजी से गायब होते जा रहे हैं, जब दूरदर्शन और वीडियो डिब्बाबंद मनोरंजन छोटे परिवारों और अकेले दर्शकों को परोस रहे हैं, नुक्कड़ नाटक ऐसी कला को पुनर्जीवित कर रहा है, जिसका सामुदायिक स्तर पर ढेर सारे दर्शक आनंद उठा सकते हैं, इस अर्थ में यह पहले से वह भूमिका अदा कर रहा है, जिसे एक पूरी तरह विकसित और लोकप्रिय रंगमंच को करना  चाहिए । हम समझते है कि वह समय आ गया है जब उन सभी लोगों के बीच एक जीवंत रिश्ता बनाना चाहिए जो स्वस्थ रंगमंच के प्रति प्रतिबद्ध हैं, चाहे वे रंगपीठों से जुड़े हों या नुक्कड़ रंगमंच से।

आज जब नुक्कड़ रंगमंच के लिए नया रूख अपनाया जा रहा है, इसके लिए नयी तकनीकों, नये कौशलों और प्रशिक्षण के नये तरीकों को विकसित करने के काम में रंगमंचीय बिरादरी की महत्वपूर्ण भूमिका है, रंगमंच की मुख्य धारा से जुड़े प्रतिभा संपन्न नाटककारों को भी नुक्कड़ नाटकों के लिए नाटक लिखने के काम में अपनी भूमिका अदा करनी चाहिए। नाट्य समीक्षकों को ऐसे मानदंड विकसित करने की भूमिका अदा करनी चाहिए, जिससे नुक्कड़ रंगमंच का मूल्याकंन उसकी अपनी शर्तों पर किया जा सके। प्रतिभा के धनी निर्देशकों और नाट्य शिक्षकों को भी अपनी भूमिका निभानी होगी जिसकी मदद से नुक्कड़ नाटक अपनी संपूर्ण संभावना को मूर्त कर सकेगा ।

नुक्कड़ रंगमंच की दसवीं वर्षगांठ के अवसर पर हम रंगमंच की मुख्य धारा से जुड़े अपने साथी रंगकर्मियों का आह्वान करते हैं कि वे नुक्कड़ रंगमंच को समृद्ध बनाने में हमारा सहयोग करें ।


(यह आलेख नयी दिल्ली में 29 अक्टूबर 1988 को नुक्कड़ नाट्य पर गोलमेज वार्ता में जन नाट्य मंच की ओर से प्रस्तुत किया गया। इसे सफ़दर हाशमी ने लिखा था। अंग्रेजी से अनुवाद: डा. माहेश्वर)
 

1 comment:

  1. Dear Editor, please provide the link of the original english article.

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